अग्नि पुराण तीन सौ चौदहवाँ अध्याय ! Agni Purana 314 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ चौदहवाँ अध्याय ! Agni Purana 314 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ चौदहवाँ अध्याय - त्वरिताज्ञानम्

अग्निरुवाच

ओं ह्रीं ह्रँ खे छे क्षः स्त्रीँ ह्रूँ क्षे ह्रीं फट् ।
त्वरितां पूजयेन्नयस्य द्विभुजाञ्चाष्टवाहुकां ।
आधारशक्तिं पद्मञ्च सिंहे देवीं हृदादिकम् ष ।। १ ।।

पूर्व्वादौ गायत्रीं यजेन्मण्डले वै प्रणीतया ।
हुंकारां खेचरीं चण्डांछेदनीं क्षेपणीं स्त्रियाः ।। २ ।।

हुंकारां क्षएगकारीञ्च फट्कारीं मध्यतो यजेत् ।
जयाञ्च विजयां द्वारि किङ्करञ्च तदग्रतः ।। ३ ।।

तिलैर्होमैश्च सर्व्वाप्त्यै नामव्याहृतिभिस्तथा ।
अनन्ताय नमः स्वाहा कुलिकाय नमः स्वधा ।। ४ ।।

स्वाहा वासुकिराजाय शङ्खपालाय वौषट् ।
तक्षकाय वषन्नित्यं महापद्माय वै नमः ।। ५ ।।

स्वाहा कर्कोटनागाय फट् पद्माय च वै नमः ।
लिखेन्निग्रहचक्रन्तु एकाशातिपदैर्न्नरः ।। ६ ।।

वस्त्रे पटे तरौ भूर्ज्जे शिलायां यष्टिकासु च ।
मध्ये कोष्ठे साध्यनाम पूर्व्वादौ पट्टिकासु च ।। ३

ऐसादावम्बुपादौ च यमराज्यञ्च वाह्यतः ।
कालीनांरवमाली कालीनामाक्षमालिनी ।। ८ ।।

मामोदतत्तदोमोमा रक्षत स्वस्व भक्षणा ।
यमपाटटयामय मटमो टट मोटमा ।। ९ ।।

वामो भूरिविभूसेया टट रीश्व श्वरी टट ।
यमराजाद्वाह्यतो वं तं तोयं मारणात्मकम् ।। १० ।।

कज्जलं निम्बनिर्य्यासमज्जासृग्विषसंयुतम् ।
काकपक्षस्य लेखन्या श्मशाने वा चतुष्पथे ।। ११ ।।

निधापयेत् कुम्भाधस्ताद्वल्मीके वाथ निक्षिपेत् ।
काफपक्षकस्य लेखन्या श्मशाने वा यतुष्पथे ।। १२ ।।

लिखेच्चानुग्रहञ्चक्रं शुक्लपत्रेऽथ भूर्ज्जंके ।
लाक्षया कुङ्कुमेनाथ स्फटिकाचन्दनेन वा ।। १३ ।।

भुवि भिक्तौ पूर्व्वदले१ नाम मध्यमकोष्ठके ।
खण्डे तु वारिमध्यस्थं ओं हंसौ वापि पट्टिशम् ।। १४ ।।

लक्ष्मीश्लोकं शिबादौ च राक्षसादिक्रमाल्लिखेत् ।
श्रीःसाममोमा सा श्रीः सानौ याज्ञे ज्ञेया नौसा ।। १५ ।।

माया लीला लाली यामा याज्ञे ज्ञेया नौसा ।
यत्र ज्ञेया वरिः शीघ्रा दिक्षुरं कलसं वहिः ।। १६ ।।

पद्मस्थं पद्मचक्रञ्च भृत्युजित् स्वर्गगन्धृति ।
शान्तीनां परमा शान्तिः सौभाग्यादिप्रदायकम् ।। १७ ।।

रुद्रेरुद्रसमाः कार्य्याः कोष्ठकास्तत्र ता लिखेत् ।
ओमाद्याह्रूँ फडन्ता च आदिवर्णमयानुतः ।। १८ ।।

विद्यावर्णक्रमेनैव संज्ञाञ्च वषडन्तिकां ।
अधस्थात् प्रत्यङ्गिरैषा सर्व्वकामार्थसाधिका ।। १९ ।।

एकाशीतिपदे सर्व्वामादिवर्णक्रमेण तु ।
आदिमं यावदन्तं स्याद्वषडन्तञ्च नाम वै ।। २० ।।

एषा प्रत्यङ्गिरा चान्या सर्व्वकार्य्यादिसाधनी ।
निग्रहानुग्रहञ्चकञ्चतुः पष्टिपदैर्लिखेत् ।। २१ ।।

अमृती सा च विद्या च क्रीं सःक हूँ नामाथ मध्यतः ।
फट्‌काराद्यां पत्रगतां त्रिहीँकारेण वेष्टयेत् ।। २२ ।।

कुम्भवद्धारिता सर्व्वशत्रुहृत् सर्व्वदायिता ।
विषन्नश्येत् कर्णजपादक्षराद्यैश्च दण्डकैः ।। २३ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये त्वरिताज्ञानं नाम चतुर्दशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - तीन सौ चौदहवाँअध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 314 Chapter!-In Hindi

तीन सौ चौदहवाँ अध्याय त्वरिता के पूजन तथा प्रयोग का विज्ञान

निग्रहयन्त्र

अग्निदेव कहते हैं- मुने ! 'ॐ ह्रीं हूं खे च च्छे क्षः स्वी हूं क्षे ह्रीं फट् त्वरितायै नमः ।' इस मन्त्रसे न्यासपूर्वक त्वरितादेवीकी पूजा करे। उनके द्विभुज या अष्टभुज रूप का ध्यान करे। आधारशक्ति तथा अष्टदल कमल का पूजन करे। सिंहासन और उसके ऊपर विराजित त्वरितादेवीकी तथा उनके चारों ओर हृदयादि अलोंकी पूजा करे। पूर्वादि दिशाओंमें हृदयादि अङ्गोंकी पूजा करके मण्डलमें प्रणीता तथा गायत्रीकी पूजा करे। (देवीके अग्रभागके केसरसे लेकर प्रदक्षिणक्रमसे छः केसरोंमें छः अङ्गोंका पूजन करके अवशिष्ट दोमें प्रणीता तथा गायत्रीका पूजन करना चाहिये।) इसके बाद आठ दलोंमें हुंकारी, खेचरी, चण्डा, छेदिनी, क्षेपिणी, स्त्री, हुंकारी तथा क्षेमंकरीकी पूजा करे। फिर मध्यभागमें देवीके सामने फट्‌कारीकी अर्चना करे। देवीके सम्मुखवर्ती द्वारके दक्षिण तथा वामपार्श्वमें जया एवं विजयाकी पूजा करके द्वाराग्रभागमें 'किंकराय रक्ष रक्ष त्वरिताज्ञया स्थिरो भव हुं फट् किंकराय नमः।' इस मन्त्रसे किंकरका पूजन करना चाहिये ॥ १-४॥

त्वरिता-मन्त्रसे तिलोंद्वारा होम करनेसे सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओंकी प्राप्ति होती है। नामोच्चारणपूर्वक देवीके आभूषणस्वरूप आठ नागोंकी पूजा करनी चाहिये। यथा अनन्ताय नमः स्वाहा। कुलिकाय नमः स्वधा। वासुकिराजाय स्वाहा। शङ्खपालाय वौषट्। तक्षकाय वषट्। महापद्माय नमः। कर्कोटनागाच स्वाहा। पद्माय नमः फट् ॥५-६३ ॥

निग्रहयन्त्र 

दस खड़ी रेखाएँ खींचकर उनपर दस पड़ी रेखाएँ खींचे तो इक्यासी पद (कोष्ठ) बन जाते हैं। इन पदोंद्वारा 'निग्रहचक्र' का निर्माण करे। यह चक्र वस्त्रपर, वेदीपर, वृक्षके तनेपर, शिलापट्टपर तथा यष्टिकाओंपर भी लिखा जा सकता है। इसके मध्यवर्ती कोष्ठमें साध्य (शत्रु आदि) का नाम लिखे। (उस नामको दो 'रं' बीजोंद्वारा आवेष्टित कर दे। अर्थात् दो 'रं' बीजोंके बीचमें 'साध्य नाम' लिखना चाहिये।) उसके पार्श्वभागकी पूर्वादि दिशाओंकी चार पट्टिकाओंमें 'भ्रं क्षं छू हूं'- इन चार बीजोंको लिखे। फिर ईशान आदि कोणोंमें भीतरकी ओर 'कालरात्रि मन्त्र' (काली-आनुष्टुभ सर्वतोभद्र) लिखे तथा बाहरकी ओर 'यमराज-मन्त्र' (यम- आनुष्टुभ) का उल्लेख करे। (यदि साध्य-व्यक्ति पुरुष है, तब तो यही क्रम ठीक है। यदि वह स्त्री हो तो उसपर निग्रहके लिये भीतरकी और 'यम-आनुष्टुभ' मन्त्र लिखा जाय और बाहरकी और 'काली आनुष्टुभ' मन्त्रका उल्लेख किया जाय- यह 'श्रीविद्यार्णवतन्त्र' में विशेष बात कही गयी है) ॥ ७-९॥

काली-आनुष्टुभ मन्त्र

कालीमार र माली का लीनमोक्षक्षमोनली।
मामोदेततदेमोमा रक्षतत्वत्वतक्षर ॥१०॥

गर्भस्थानमें त्वरिता-विद्याका उल्लेख करके पृष्ठभागमें साध्य नाम लिखे। फिर मालामन्त्रोंसे वेष्टित करके उस यन्त्रको ईंटके ऊपर स्थापित करे। तत्पश्चात् उसे ढककर कूर्मपीठगत 'करालमन्त्र' से अभिमन्त्रित करे। महाकूर्मका पूजन करके चरणोदकको शत्रुके उद्देश्यसे फेंके तथा शत्रुका स्मरण करके उसे सात बार बायें पैरसे ताड़ित करे। इससे मुखभागसे शत्रुका स्तम्भन होता ॥ १४ ॥

भैरवको मूर्ति लिखकर उसके चारों ओर निम्नाङ्कित मालामन्त्र लिखे  'ॐ शत्रुमुखस्तम्भनी कामरूपा आलीडकरी। ह्रीं फें फेत्कारिणी मम शत्रूणां देवदत्तानां मुखं स्तम्भय स्तम्भय मम सर्वविद्वेषिणां मुखस्तम्भनं कुरु कुरु कुरु ॐ हूं फें फेत्कारिणि स्वाहा।'
इसके बाद 'फट्' और हेतु (प्रयोगका उद्देश्य) लिखकर उक्त मन्त्रका जप करते हुए उस महाबली भैरवके वाम हाथमें 'नग' (पर्वत या वृक्ष) और दाहिने हाथमें 'शूल' लिखे। तदनन्तर 'अघोरमन्त्र' लिखे। इससे वह संग्राममें शत्रुओंको स्तम्भित कर देता है॥ ६-९॥

'ॐ नमो भगवत्यै भगमालिनि विस्फुर विस्फुर, स्पन्द स्पन्द, नित्यक्लिन्ने द्रव द्रव हूं सः क्रींकाराक्षरे स्वाहा।'
- इस मन्त्रका जप करते हुए रोचना आदिसे तिलक करनेपर मनुष्य सारे जगत्‌को मोहित कर सकता है ॥ १०-११ ॥

'ॐ फें हुं फट् फेत्कारिणि ह्रीं ज्वल ज्वल, त्रैलोक्यं मोहय मोहय, गुह्यकालिके स्वाहा।'
- इससे तिलक करके मनुष्य राजा आदिको भी वशमें कर लेता है॥ १२॥

जहाँ गधा बैठा हो उस स्थानकी धूल, शवके ऊपर चढ़ा हुआ फूल तथा स्त्रीके रजमें संलग्न वस्त्रका टुकड़ा लेकर रातमें शत्रुको शय्या आदिपर फेंक दे। इससे उसके स्वजनोंमें विद्वेष उत्पन्न हो जाता है। गायका खुर और शृङ्ग, घोड़ेकी टापका कटा हुआ टुकड़ा तथा साँपका सिर-इन सबको कूटकर एकमें मिला दे और द्वेषपात्रके घरोंपर फेंक दे। इससे शत्रुवर्गका उच्चाटन होता है। कनेरकी पीली शिफा (मूल या जड़) मारणके प्रयोगमें संसिद्ध (सफल) है। साँप और छहुँदरका रक्त तथा कनेरका बीज भी मारणरूपी प्रयोजनका साधक है। मरे हुए गिरगिट, भ्रमर, केकड़ा और बिच्छूका चूरन बनाकर तेलमें डाल दे। उस तेलको अपने शरीरमें लगानेवाला मनुष्य कोढ़ी हो जायगा ॥ १३-१६ ॥

'ॐ नवग्रहाय सर्वशत्रून् मम साधय साधय, मारय मारय आं सों में बुंगुं शृंशं रां के ॐ स्वाहा।' इस मन्त्रको भोजपत्र या नवग्रह- प्रतिमापर लिखकर आक (मदार) के सौ फूलोंसे पूजा करके शत्रु-मारणके उद्देश्यसे उस यन्त्र या प्रतिमाको श्मशानभूमिमें गाड़ दे। इससे समस्त ग्रह साधकके शत्रुको मार डालते हैं ॥ १७-१८ ॥

'ॐ कुञ्जरी ब्रह्माणी, ॐ मञ्जरी माहेश्वरी, ॐ वेताली कौमारी, ॐ काली वैष्यावी, ॐ अघोरा वाराही, ॐ वेतालीन्द्राणी, ॐ उर्वशी चामुण्डा, ॐ वेताली चण्डिका, ॐ जयाली यक्षिणी, नवमातरो हे मम शत्रु गृहत गृहत।'
भोजपत्रपर इस मन्त्रको लिखे। 'शत्रु' पदके स्थानमें शत्रुके नामका निर्देश करे। फिर श्मशान- भूमिमें उस यन्त्रकी पूजा करे तो शत्रुकी मृत्यु हो जाती है॥ १९ ॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'स्तम्भन आदिके मन्त्रका कथन' नामक तीन सौ पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३१५॥

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