अग्नि पुराण तीन सौ तेरहवाँ अध्याय ! Agni Purana 313 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ तेरहवाँ अध्याय ! Agni Purana 313 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ तेरहवाँ अध्याय - नानामन्त्राः


अग्निरुवाच

ओं विनायकार्चनं वक्ष्ये यजेदाधारशक्तिकम् ।
धर्म्माद्यष्टककन्दञ्च नालं पद्मञ्च कर्णिकाम् ।। १ ।।

केशरं त्रिगुणं पद्मं तीव्रञ्च ज्वलिनीं यजेत् ।
नन्दाञ्च सुयशाञ्चोग्रां तेजोवतीं विन्ध्यवासिनीं ।। २ ।।

गणमूर्त्तिं गणपतिं हृदयं स्याद्‌गणं जयः ।
एकदन्तोत्कटशिरःशिखायाच्लकर्णिने ।। ३ ।।

गजवक्त्राय कवचं चहूँ फडन्तं तथाष्टकं ।
महोदरो दण्डहस्तः पूर्व्वादौ मध्यतो यजेत् ।। ४ ।।

जयो गणाधिपो गणनायकोऽथ गणेश्वरः ।
वक्रतुण्ड एकदन्तोत्कटलम्बोदरो गज ।। ५ ।।

वक्त्रो विकटाननोऽथ हूँ पूर्व्वो विघ्ननाशनः ।
धूम्रवर्णो महेन्द्राद्यो वाह्ये विघ्नेशपूदनम् ।। ६ ।।

त्रिपुरापूजनं वक्ष्ये असिताङ्गो रुरुस्तथा ।
चण्डः क्रोधस्तथोन्मत्तः कपाली भीषणः क्रमात् ।। ७ ।।

संहारो भैरवो ब्राह्मीमुख्या ह्रस्वास्तु भैरवाः ।
ब्रह्माणीषण्मुखा दीर्घा अग्न्यादौ वटुकाः क्रमात् ।। ८ ।।

समयपुत्रो वटुको योगिनीपुत्रकस्तथा ।
सिद्धपुत्रश्च वटुकः कुलपुत्रश्चतुर्थकः ।। ९ ।।

हेतुकः क्षेत्रपालश्च त्रिपुरान्तो द्वितीयकः ।
अग्निवेतालोऽग्निजिह्वः कराली काललोचनः ।। १० ।।

एकपादश्च भीमाक्ष ऐं क्षें प्रेतस्तथासनं ।
ऐँ ह्रीं द्वौश्च त्रिपुरा पद्मासनसमास्थिता ।। ११ ।।

विभ्रत्यभयपुस्तञ्च वामे बरदमालिकाम् ।
मूलेन हृदयादि स्याज्जालपूर्णञ्च कामकम् ।। १२ ।।

गोमध्ये नाम संलिख्य चाष्टपत्रे च मध्यतः ।
श्मशानादिपटे श्मशानाङ्गारेण विलेखयेत् ।। १३ ।।

चिताङ्गारपिष्टकेन मूर्त्तिं ध्यात्वा तु तस्य च ।
क्षिप्त्वोदरे नीलसूत्रैर्वेष्ट्य चोच्चाटनं भवेत् ।। १४ ।।

ओं नमो भगवति ज्वालामानिनि गृध्रगणपरिवृते स्वाहा ।
युद्ध गच्छन् जपन्मन्त्रं पुमान् साक्षाज्जयी भवेत् ।

ओं श्रीँ ह्रीँ क्लीँ श्रियै नमः ।
उत्तरादौ च घृणिनी सूर्य्या पूज्या चतुर्द्दले ।। १५ ।।

आदित्या प्रभावती च हेमाद्रिमधुराश्रियः ।
ओं ह्रीं गौर्य्यै नमः ।
गौरीमन्त्रः सर्व्वकरः होमाद्ध्यानाज्जपार्च्चनात् ।। १६ ।।

रक्ता चतुर्भुजा पाशवरदा दक्षिणे करे ।
अङ्कुशाभययुक्तान्तां प्रार्थ्य सिद्धात्मना पुमान् ।। १७ ।।

जीवेद्वर्षशतं धीमान्न चौरारिभयं भवेत् ।
क्रुद्धः प्रसादी भवति युधि मन्त्राम्बुपानतः ।। १८ ।।

अञ्जनं तिलकं वश्ये जिचह्वाग्रे कविता भवेत् ।
तज्जपान्मैथुनं वश्ये तज्जपाद्योनिवीक्षणप्त् ।। १९ ।

स्पर्शाद्वशी तिलहोमात्सर्व्वञ्चैव तु सिध्यति ।
सप्ताभिमन्त्रितञ्चान्नं भुञ्जंस्तस्य श्रियः सदा ।। २० ।।

अर्द्धनारीशरुपोऽयं लक्ष्मयादिवैष्णवादिकः ।
अनङ्गरूपा शक्तिश्च द्वितीया मदनातुरा ।। २१ ।।

पवनवेगा भुवनपाला वै सर्व्वसिद्धिदा ।
अनङ्गमदनानङ्गमेखलान्ताञ्जपेच्छ्रिये ।। २२ ।।

पद्ममध्यदलेषु ह्रीँ स्वरान् कादीस्ततः स्त्रियाः ।
षट्‌कोणे वा घटे वाऽथ लिखित्वा स्याद्वशीकरं ।। २३ ।।

ओं ह्रीँ छँ नित्यक्लिन्ने मदद्रवे ओं ओं ।
मूलमन्त्रः षडङ्गोयं रक्तवर्णे त्रिकोणके ।
द्रावणी ह्लादकारिणी क्षोभिणी गुरुशक्तिका ।। २४ ।।

ईशानादौ च मध्ये तां नित्यां पाशाङ्कुशौ तथा ।
कपालकल्पकतरुं वीणा रक्ता च तद्वती ।। २५ ।।

नित्याभया मङ्गला च नववीरा च मङ्गला ।
दुर्भगा मनोन्मनी पूज्या द्रावा पूर्व्वादितः स्थिता ।। २६ ।।

ओं ह्रीँ अनङ्गाय नमः ओं ह्रीँ ह्रीँ स्मराय नमः ।
मन्मथाय च माराय कामायैवञ्च पञ्चधा ।
कामाः पाशाङ्गुशौ चापवाणाः ध्येयाश्च विभ्रतः ।। २७ ।।

रतिश्च विरतिः प्रीतिर्विप्रीतिश्च मतिर्धृतिः ।
विधृतिः पुष्टिरेभिश्च क्रमात् कामादिकैर्युताः ।। २८ ।।

ओं छँ नित्यक्लिन्ने मदद्रवे ओं ओं । अ आ इ ई उ उ ऋ लृ लॄ ए ऐ
ओ औ अं अः । क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण
त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स ह क्ष । ओं छँ
नित्यक्लिन्ने मदद्रवे स्वाहा ।
आधारशक्तिं पद्मञ्च सिंहे देवीं हृदादिषु ।। २९ ।।

ओं ह्नीँ गौरि रुद्रदयिते योगेश्वरि हूं फट् स्वाहा ।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये नानामन्त्रा नाम त्रयोदशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - तीन सौ तेरहवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 313 Chapter!-In Hindi

तीन सौ तेरहवाँ अध्याय नाना मन्त्रों का वर्णन

अग्निदेव कहते हैं- अब मैं सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान् विनायक (गणेश) के पूजनकी विधि बताऊँगा। योगपीठपर प्रथम तो आधारशक्तिकी पूजा करे। फिर अग्नि आदि कोणों तथा पूर्वादि दिशाओंमें क्रमशः धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य तथा अनैश्वर्य इन आठकी अर्चना करे। तदनन्तर कन्द, नाल, पद्म, कर्णिका, केंसर और सत्त्वादि तीन गुणोंकी और पद्मासनकी पूजा करे। इसके बाद तीव्रा, ज्वालिनी, नन्दा, सुयशा (भोगदा), कामरूपिणी, उग्रा, तेजोवती, सत्या तथा विघ्ननाशिनी- इन नौ शक्तियोंकी पूजा करे। तत्पश्चात् गणेशजीकी मूर्तिका अथवा मूर्तिके अभावमें ध्यानोक्त गणपतिमूर्तिका पूजन करे। इसके बाद हृदयादि अङ्गोंकी पूजा करनी चाहिये। पूजनके प्रयोगवाक्य इस प्रकार हैं- 'गणंजयाय हृदयाय नमः। एकदन्ताय उत्कटाय शिरसे स्वाहा। अचलकर्णिने शिखायै वषट्। गजवक्त्राय हुं फट् कवचाय हुम्। महोदराय दण्डहस्ताय अस्त्राय फट्।'- इन पाँच अङ्गोंमेंसे चारकी तो पूर्वादि चार दिशाओंमें और पाँचवेंकी मध्यभागमें पूजा करे ॥ १-४॥

तदनन्तर गणंजय, गणाधिप, गणनायक, गणेश्वर, वक्रतुण्ड, एकदन्त, उत्कट, लम्बोदर, गजवक्त्र और विकटानन इन सबकी पद्मदलोंमें पूजा करे। फिर मध्यभागमें 'हूं विघ्ननाशनाय नमः । महेन्द्राय धूम्रवर्णाय नमः।'- यों बोलकर विघ्ननाशन एवं धूम्रवर्णकी पूजा करे। फिर बाह्यभागमें विघ्नेशका पूजन करे ॥ ५-६ ॥ 

अब मैं 'त्रिपुराभैरवी 'के पूजनकी विधि बताऊँगा। इसमें आठ भैरवोंका पूजन करना चाहिये। उनके नाम इस प्रकार हैं- असिताङ्गभैरव, रुरुभैरव, चण्डभैरव, क्रोधभैरव, उन्मत्तभैरव, कपालिभैरव, भीषणभैरव तथा संहारभैरव। ब्राह्मी आदि मातृकाएँ भी पूजनीय हैं। (उनके नाम इस प्रकार हैं- ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, इन्द्राणी, चामुण्डा तथा महालक्ष्मी)। 'अकार'आदि ह्रस्व स्वरोंके बीजको आदिमें रखकर भैरवोंकी पूजा करनी चाहिये तथा 'आकार' आदि दीर्घ अक्षरोंके बीजको आदिमें रखकर 'ब्राह्मी' आदि मातृकाओंकी अर्चना करनी चाहिये। अग्रि आदि चार कोणोंमें चार वटुकोंका पूजन कर्तव्य है। समयपुत्र वटुक, योगिनीपुत्र वटुक, सिद्धपुत्र वटुक तथा चौथा कुलपुत्र बटुक- ये चार बटुक हैं। इनके अनन्तर आठ क्षेत्रपाल पूजनीय हैं। इनमें 'हेतुक' क्षेत्रपाल प्रथम है और 'त्रिपुरान्त' द्वितीय। तीसरे 'अग्निवेताल' चौथे 'अग्रिजिह्न' पाँचवें 'कराल' तथा छठे 'काललोचन' हैं। सातवें 'एकपाद' तथा आठवें 'भीमाक्ष' कहे गये हैं। (ये सभी क्षेत्रपाल यक्ष हैं।) इन सबका पूजन करके त्रिपुरादेवीके प्रेतरूप पद्मासनकी पूजा करे। यथा- 'ऐं क्षै प्रेतपद्मासनाय नमः। ॐ ऐं ह्रीं हसौः त्रिपुरायै प्रेतपद्मासनसमास्थितायै नमः ।'

इस मन्त्रसे प्रेतपद्मासनपर विराजमान त्रिपुराभैरवीकी पूजा' करे। उनका ध्यान इस प्रकार है- 'त्रिपुरादेवी' बायें हाथमें अभय एवं पुस्तक (विद्या) धारण करती हैं तथा दायें हाथमें वरदमुद्रा एवं माला (जपमालिका)। देवी बाणसमूहसे भरा तरकस और धनुष भी लिये रहती हैं।' मूलमन्त्रसे हृदयादि न्यास करे'॥ ७-१२॥

(अब प्रयोगविधि बतायी जाती है-) गोसमूहके मध्यमें स्थित हो, श्मशान आदिके वस्त्रपर चिताके कोयलेसे अष्टदलकमलका चक्र लिखे या लिखावे। उसमें द्वेषपात्रका नाम लिखकर लपेट दे। फिर चिताकी राखको सानकर एक मूर्ति बनावे। उसमें द्वेषपात्रकी स्थितिका चिन्तन करके उक्त यन्त्रको नीले रंगके डोरेसे लपेटकर मूर्तिके पेटमें घुसेड़ दे। ऐसा करनेसे उस व्यक्तिका उच्चाटन हो जाता है॥ १३-१४॥

ज्वालामालिनी-मन्त्र

'ॐ नमो भगवति ज्वालामालिनि गृध्रगणपरिवृते स्वाहा।' इस मन्त्रका जप करते हुए युद्धमें जानेवाले पुरुषको प्रत्यक्ष विजय प्राप्त होती है ॥ १५-१६ ॥

श्रीमन्त्र

'ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्रियै नमः ॥ १७ ॥

चतुर्दल कमलमें उत्तरादि दलके क्रमसे क्रमशः घृणिनी, सूर्या, आदित्या और प्रभावती-इन चार श्रीदेवियोंका उक्त मन्त्रसे पूजन करके मन्त्र जपनेसे श्रीकी प्राप्ति होती है। ये सभी श्रीदेवियाँ सुवर्णगिरिके समान परम सुन्दर कान्तिवाली हैं ॥ १८ ॥

गौरी मन्त्र

'ॐ ह्रीं गौर्यै नमः ।'

- इस मन्त्रद्वारा जप, होम, ध्यान तथा पूजन किया जाय तो यह साधकको सब कुछ प्रदान करनेवाला है। गौरीदेवीकी अङ्गकान्ति अरुणाभ गौर है। उनके चार भुजाएँ हैं। वे दाहिने दो हाथोंमें पाश तथा वरदमुद्रा धारण करती हैं और बायें दो हाथोंमें अङ्कुश एवं अभय। शुद्ध चित्तसे गौरीदेवीकी प्रार्थना (आराधना) करनेवाला बुद्धिमान् पुरुष सौ वर्षोंतक जीवित रहता है तथा उसे चोर आदिका भय नहीं प्राप्त होता है। युद्धस्थलमें इस मन्त्रसे अभिमन्त्रित जलको पी लेनेसे अपने ऊपर क्रोधसे भरा हुआ पुरुष भी प्रसन्न हो जाता है। 

इस मन्त्रसे अञ्जन और तिलक लगानेपर वशीकरण सिद्ध होता है तथा जिह्वाग्रपर इसके लेखसे (अथवा जपसे भी) कवित्व-शक्ति प्रस्फुटित होती है। इसके जपसे स्त्री-पुरुषके जोड़े वशमें हो जाते हैं। इसके जपसे सूक्ष्म योनियोंके भी दर्शन होते हैं। स्पर्श करनेमात्रसे मनुष्य वशमें हो जाता है। इस मन्त्रद्वारा तिलकी आहुति देनेपर सारे मनोरथ सिद्ध होते हैं। इस मन्त्रसे सात बार अभिमन्त्रित करके अन्नका भोजन करनेवाले पुरुषके पास सदा श्री (धन-सम्पत्ति) बनी रहती है। इसके आदिमें लक्ष्मी-बीज (श्रीं) और वैष्णव-बीज (क्लीं) जोड़ दिया जाय तो यह 'अर्धनारीश्वर- मन्त्र' हो जाता है। अनङ्गरूपा, मदनातुरा, पवनवेगा, भुवनपाला, सर्वसिद्धिदा, अनङ्गमदना और अनङ्गमेखला- ये शक्तियाँ हैं। इनके नाममन्त्रोंक जपसे लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है। कमलके दलोंमें हीं, स्वर, कादि व्यञ्जन लिखकर बीचमें अभीष्ट स्त्रीका नाम लिखे। षट्‌कोण-चक्र या कलशमें भी लिख सकते हैं। लिखकर उसके उद्देश्यसे जप करनेपर 'वशीकरण' होता है ॥ १९-२६ ॥

नित्यक्लिन्ना-मन्त्र

'ॐ ह्रीं ऐं नित्यक्लिन्ने मदद्रवे स्वाहा।

किसी-किसीने इस मन्त्रको पञ्चदशाक्षर भी माना है। उस दशामें 'स्वाहा' से पहले 'ऐं ह्रीं' जोड़ा जाता है। यह छः अङ्गोंवाला मूलमन्त्र है (तीन बीज और तीन पद मिलाकर छः अङ्ग होते हैं)। लाल रंगके त्रिकोण-चक्रमें अष्टदल कमलका चिन्तन करके उसमें 'द्राविणी' आदिका पूजन करे। पूर्वादि दिशाओंमें 'द्राविणी' आदि चार शक्तियों तथा ईशानादि कोणोंमें 'अपरा' आदि चार शक्तियोंका चिन्तन-पूजन करना चाहिये। उनके क्रमानुसार नाम यों जानने चाहिये- द्राविणी, वामा, ज्येष्ठा, आह्लादकारिणी, अपरा, क्षोभिणी, रौद्री तथा गुणशक्ति। देवीका ध्यान इस प्रकार करे- 'वे रक्तवर्णा हैं और उसी रंगके वस्त्राभूषण धारण करती हैं। 

उनके दो हाथोंमें पाश और अड्कुश है, दो हाथोंमें कपाल तथा कल्पवृक्ष हैं तथा दो हाथोंसे उन्होंने वीणा ले रखी है।' नित्या, अभया, मङ्गला, नववीरा, सुमङ्गला, दुर्भगा और मनोन्मनी तथा द्रावा- इन आठ देवियोंका पूर्वादि दिशाके कमल-दलोंमें पूजन करे। ['श्रीविद्यार्णवतन्त्र' में ये नाम इस प्रकार मिलते हैं- नित्या, सुभद्रा, समङ्गला, वनचारिणी, सुभगा, दुर्भगा, मनोन्मनी तथा रुद्ररूपिणी। इनके बाह्यभागमें पाँच दलोंमें कामदेवोंका पूजन होता है। 'ॐ ह्रीं अनङ्गाय नमः। ॐ ह्रीं स्मराय नमः। ॐ ह्रीं मन्मथाय नमः। ॐ ह्रीं माराय नमः। ॐ ह्रीं कामाय नमः।' ये ही पाँच काम हैं। कामदेवोंके हाथोंमें पाश, अङ्कुश, धनुष और बाणका चिन्तन करे। इनके भी बाह्यभागमें दस दलोंमें क्रमशः रति-विरति, प्रीति-विप्रीति, मति-दुर्मति, धृति-विधृति, तुष्टि-वितुष्टि-इन पाँच कामवल्लभाओंका पूजन करे ॥ २७-३३॥ 

'ॐ छं (ऐं) नित्यक्लिन्ने मदद्रवे ओं ओं (स्वाहा) अ आ इ ई उ ऊऋऋ लृलू ए ऐ ओ औ अं अः क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ मय र ल व श ष सहक्षः ॐ छं (एँ) नित्यक्लिन्ने मदद्रवे स्वाहा।' यह 'नित्यक्लिन्ना- विद्या' है ॥ ३४ ॥

सिंहासनपर आधारशक्ति तथा पद्मका पूजन करके उसके दलोंमें हृदय आदि अङ्गोंकी स्थापना एवं पूजन करनेके अनन्तर मध्यकर्णिकामें देवीकी पूजा करनी चाहिये ॥ ३५ ॥ गौरीमन्त्र (२) 'ॐ ह्रीं गौरि रुद्रदयिते योगेश्वरि हूं फट् स्वाहा ॥ ३६ ॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'नाना प्रकारके मन्त्रोंका वर्णन' नामक तीन सी तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३१३॥

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