अग्नि पुराण तीन सौ बारहवाँ अध्याय ! Agni Purana 312 Chapter !
अग्नि पुराण तीन सौ बारहवाँ अध्याय त्वरिताविद्या
अग्निरुवाच
विद्याप्रस्तावमाख्यास्ये धर्म्मकामादिसिद्धिदम् ।
नवकोष्ठविभागेन विद्याभेदञ्च विन्दति ।। १ ।।
अनुलोमविलोमेन समस्तव्यस्तयोगतः ।
कर्णाविकर्णयोगेन अत ऊद्र्ध्वं विभागशः ।। २ ।।
त्रित्रिकेण च योगेन देव्या सन्नद्धविग्रहः ।
जानाति सिद्धिदान्मन्त्रान् प्रस्तावान्निर्गतान् बहून् ।। ३ ।।
शास्त्रे शास्त्रे स्मृता मन्त्राः प्रयोगास्तत्र दुर्ल्लभाः ।
गुरुः स्यात् प्रथमो वर्णः पूर्व्वेद्युर्न च वर्ण्यते ।। ४ ।।
प्रस्तावे तत्र चैकार्णा द्व्यर्णस्त्र्यर्णादयोऽभवन् ।
तिर्य्यगूद्र्ध्वगता रेखाश्चतुरश्चतुरो भजेत् ।। ५ ।।
नव कोष्ठा भवन्त्येवं मध्यदेशे तथा इमान् ।
प्रदक्षिणेन संस्थाप्य प्रस्तावं भेदयेत्ततः ।। ६ ।।
प्र्स्तावक्रमयोगेन प्रस्तावं यस्तु विन्दति ।
करमुष्टिस्थितास्तस्य साधकस्य हि सिद्धयः ।। ७ ।।
त्रैलोक्यं पादमूले स्यान्नवखण्डां भुवं लभेत् ।
कपाले तु समालिख्य शिवतत्त्वं समन्ततः ।। ८ ।।
श्मशानकर्पटे वाथ वाह्यं निष्क्रम्य मन्त्रवित् ।
तस्य मध्ये लिखेन्नाम कर्णिकोपरि संस्थितम् ।। ९ ।।
तापयेत्खादिराङ्गारैर्भूर्जमाक्रम्य पादयोः ।
सप्ताहादानयेत् सर्व्वं त्रैलोक्यं सचराचरम् ।। १० ।।
वज्रसम्पुटगर्भे तु द्वादशारे तु लेखयेत् ।
मध्ये गर्भगतं नाम सदाशिवविदर्मितम् ।। ११ ।।
कुड्ये१ फलकके वाथ शिलापट्टे हरिद्रया।
मुखस्तम्भं गतिस्तम्भं सैन्यस्तम्भन्तु जायते ।। १२ ।।
विषरक्तेन संलिख्य शमशाने कर्परे बुधः ।
षट्कोणं दण्डमाक्रान्तं समन्ताच्छक्तियोजितम् ।। १३ ।।
मारयेदचिरादेष श्मशाने निहतं रिपुं ।
छेदं करोति राष्ट्रस्य चक्रमध्ये न्यसेद्रिपुं ।। १४ ।।
चक्रधाराङ्गतां शक्तिं रिपुनाम्ना रिपुं हरेत् ।
तार्क्ष्येणैव चु वीजेन खड्गमध्ये तु लोखयेत् ।। १५ ।।
विदर्भरिपुनामाथ श्मशानाङ्गारलेखितम् ।
सप्ताहात्साधयेद्देशं ताडयेत् प्रेतभस्मना ।। १६ ।।
भेदने छेदने चैव मारणेषु शिवो भवेत् ।
तारकं नेत्रमुद्देष्टं शान्तिपुष्टी नियोजयेत् ।। १७।।
दहनादिप्रयोगोयं शाकिनीञ्चैव कर्षयेत् ।
मध्यादिवारुणीं यावद्वक्रतुण्डसमन्वितः ।। १८ ।।
कुष्ठाद्या व्याधयो ये तु नाशयेत्तान्न संशयः ।
मध्यादिउत्तरान्तन्तु करालीबन्धनाज्जपेत् ।। १९ ।।
रक्षयेदात्मनो विद्यां प्रतिवादी यदा शिवः ।
वारुण्यादि ततो न्यस्य ज्वरकाशविनाशनम् ।। २० ।
सौम्यादि मध्यमान्तन्तु गुरुत्वं जायते वटे ।
पूर्व्वादि मध्यमान्तन्तु लघुत्वं कुरुते क्षणात् ।। २१ ।।
भूर्ज्जे रोचनया लिख्य एतद्वज्राकुलं पुरम् ।
क्रमस्थैर्म्मन्त्रवीजैस्तु रक्षां देहेषु कारयेत् ।। २२ ।।
वेष्टिता भावहेम्ना च रक्षेयं मृत्युनाशिनी ।
विघ्नपापारिदमनी सौभाग्यायुःप्रदा धृता ।। २३ ।।
द्यूते रणे च जयदा शक्रसैन्ये न संशयः ।
बन्ध्यानां पुत्रदा ह्येणा चिन्तामणिरिवापरा ।। २४ ।।
साधयेत् परराष्ट्राणि राज्यञ्च पृथिवीं जयेत् ।
फट् स्त्रीं क्षें हूँ लक्षज्प्याद्यक्षादिर्वशगो भवेत् ।। २५ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये त्वरिताविद्या नाम द्वादशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।
अग्नि पुराण - तीन सौ बारहवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 312 Chapter!-In Hindi
तीन सौ बारहवाँ अध्याय त्वरिता-विद्यासे प्राप्त होनेवाली सिद्धियोंका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं- मुने। अब मैं विद्याप्रस्तावका वर्णन करूँगा, जो धर्म, काम आदिकी सिद्धि प्रदान करनेवाला है। नौ कोष्ठोंके विभागसे विद्याभेदकी उपलब्धि होती है। अनुलोम विलोमयोग, समास-व्यासयोग, कर्णाविकर्णयोग, अध-ऊर्ध्व-विभागयोग तथा त्रित्रिकयोगसे देवीके द्वारा जिसके शरीरकी सुरक्षा सम्पादित हुई है, वह साधक सिद्धिदायक मन्त्रों तथा बहुत-से निर्गत प्रस्तावोंको जानता है। शास्त्र-शास्त्रमें मन्त्र बताये गये हैं, किंतु वहाँ उनके प्रयोग दुर्लभ हैं। प्रथम गुरु वर्ण ही होता है। उसका पूर्वकालमें वर्णन नहीं हुआ है। वहाँ प्रस्तावमें एकाक्षर, द्वयक्षर तथा त्र्यक्षर मन्त्र प्रकट हुए। चार-चार खड़ी तथा पड़ी रेखाएँ खींचे। इस प्रकार नौ कोष्ठ होते हैं। मध्यकोष्ठसे आरम्भ करके प्रदक्षिणक्रमसे मन्त्रके अक्षरोंका उनमें न्यास करे।
तदनन्तर प्रस्ताव भेदन करे। प्रस्तावक्रमयोगसे जो प्रस्तावको प्राप्त करता है, उस साधक की मुडीमें सारी सिद्धियाँ आ जाती हैं। सारी त्रिलोकी उसके चरणोंमें झुक जाती है। वह नौ खण्डोंमें विभक्त जम्बूद्वीपकी सम्पूर्ण भूमिपर अधिकार प्राप्त कर लेता है। कपाल (खप्पर) पर अथवा श्मशानके वस्त्र (शवके ऊपरसे उतारे हुए कपड़े) पर सब ओर शिवतत्त्व लिखकर मन्त्रवेत्ता पुरुष बाहर निकले और मध्यभागमें कर्णिकाके ऊपर अभीष्ट व्यक्तिविशेषका भोजपत्रपर नाम लिखकर रख दे। फिर खैरकी लकड़ीसे तैयार किये गये अङ्गारोंद्वारा उस भोजपत्रको तपाकर दोनों पैरोंके नीचे दबा दे। यह प्रयोग एक ही सप्ताहमें चराचर प्राणियाँसहित समस्त त्रिभुवनको भी चरणोंमें ला सकता है। वज्रसम्पुट गर्भसे युक्त द्वादशारचक्रके मध्यमें द्वेष्य व्यक्तिका नाम लिखकर रखे। उस नामको 'सदाशिव' मन्त्रसे विदर्भित (कुशोंद्वारा मार्जित) कर दे। उक्त द्वादशारचक्र तथा नाम आदिका उल्लेख हल्दीसे दीवारपर, काष्ठफलकपर अथवा शिलापट्टपर करना चाहिये। ऐसा करनेसे शत्रुके मुख, गमनशक्ति तथा सेनाका भी स्तम्भन (अवरोध) हो जाता है॥ १-१२॥
श्मशानके वस्त्रपर विषमिश्रित रक्तसे षट्कोणचक्रका उल्लेख कर उसके मध्यमें शत्रुका नाम लिखे। फिर उस चक्रको चारों ओर शक्तिबीजसे योजित करके उसपर डंडा रख दे। फिर साधक श्मशानभूमिपर रखे हुए उस शत्रुपर शीघ्र दण्डसे प्रहार करे। यह प्रयोग उस शत्रु-राजाके राष्ट्रको खण्डित कर देता है। इसी तरह चक्राकार मण्डल बनाकर उसके मध्यभागमें शत्रुके नामको स्थापित कर दे। चक्रकी धारामें शक्तिबीजका न्यास करे।
शत्रुका नाम लेकर उसपर भावनाद्वारा उक्त चक्रधारसे प्रहार करे। इससे शत्रुका हरण होता है। इसी प्रकार खङ्गके मध्यभागमें गरुडबीजके साथ शत्रुका नाम लिखकर उसका पूर्ववत् ' विदर्भीकरण करे। उक्त नाम श्मशानभूमिकी चिताके कोयलेसे लिखना चाहिये। उसपर चिताके भस्मसे प्रहार करे। ऐसा करनेसे साधक एक ही सप्ताहमें शत्रुके देशको अपने अधिकारमें कर लेता है। वह छेदन, भेदन और मारणमें शिवके समान शक्तिशाली हो जाता है। तारक (फट्)- को नेत्र कहा गया है। उसका शान्ति पुष्टिकर्ममें नियोग करे। यह दहनादि प्रयोग शाकिनीको भी आकर्षित कर लेता है। पूर्वोक्त नौ चक्रोंमें मध्यगत मन्त्राक्षरसे लेकर पश्चिम दिशावर्ती कोष्ठतकके दो अक्षरोंको वक्रतुण्ड मन्त्रके साथ जपनेसे कुष्ठ आदि जितने भी चर्मगत रोग हैं, उन सबका नाश हो जाता है, इसमें संशय नहीं है। (यह अध- ऊर्ध्व विभागयोग है।) मध्यकोष्ठसे उत्तरवर्ती कोष्ठतकके दो अक्षरवाले मन्त्रको 'करालीबन्ध' के साथ जप करे तो वह द्वपक्षरी विद्या, यदि साक्षात् शिव प्रतिवादी हों तो उनसे भी अपनी रक्षा करवाती है। इसी प्रकार पश्चिमगत मन्त्राक्षरको आदिमें रखकर उत्तर कोष्ठतकके मन्त्राक्षरोंको 'वक्रतुण्ड मन्त्र'के साथ जप किया जाय तो ज्वर तथा खाँसीका नाश होता है। उत्तरकोष्ठसे लेकर मध्यकोष्ठतकके मन्त्राक्षरोंका एक-एक साथ जप किया जाय तो साधककी इच्छासे वटके बीजमें गुरुता (भारीपन) आ सकती है। इसी तरह पूर्वादि-मध्यमान्त अक्षरोंके जपसे वह तत्काल उसमें लघुता (हल्कापन) ला सकता है।
भोजपत्रपर गोरोचनाद्वारा वज्रसे व्याप्त भूपुरचक्र लिखकर, अनुलोमक्रमसे स्थित मन्त्र-बीजोंको लिखकर, उसे मन्त्रवत् धारण करके साधक अपने शरीरकी रक्षा करे। भावपूर्वक सुवर्णमें मढ़ाकर धारण किया गया यह 'रक्षायन्त्र' मृत्युका भी नाश करनेवाला होता है। वह विघ्न, पाप तथा शत्रुओंका दमन करनेवाला है तथा सौभाग्य और दीर्घायु देनेवाला है। यह रक्षायन्त्र' धारण किया जाय तो वह जुआ तथा युद्धमें भी विजयदायक होता है। इन्द्रकी सेनाके साथ संग्राम हो तो उसमें भी वह विजय दिलाता है, इसमें संशय नहीं है। यह 'रक्षायन्त्र' वन्ध्याको भी पुत्र देनेवाला तथा दूसरी चिन्तामणिके समान मनोवाञ्छाकी पूर्ति करनेवाला है। इससे रक्षित हुआ मनुष्य परराष्ट्रोंपर भी अधिकार पाता है तथा राज्य और पृथ्वीको जीत लेता है। 'फट् स्वीं शें हूं' इन चार अक्षरोंका एक लाख जप करनेसे यक्ष आदि भी वशीभूत हो । जाते हैं ॥ १३-२५ ॥
'इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'त्वरिता विद्यासे प्राप्त होनेवाली सिद्धियोंका वर्णन' नामक तीन सौ बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३१२॥
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