अग्नि पुराण तीन सौ ग्यारहवाँ अध्याय ! Agni Purana 311 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ ग्यारहवाँ अध्याय ! Agni Purana 311 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ ग्यारहवाँ अध्याय - त्वरितामूलमन्त्रादिः

अग्निरुवाच

दीक्षादि वक्ष्ये विन्यस्य सिंहवज्राकुलेऽब्जके ।
हे हुति वज्रदन्त पुरु लुलु गर्ज्ज इह सिंहासनाय नमः ।
तिर्य्यगूद्‌र्ध्वगता रेखाश्चत्वारश्चतुरो भवेत् ।। १ ।।

नवभागविभागेन कोष्ठकान् कारयेद्‌बुधः ।
ग्राह्या दिशागताः कोष्ठा विदिशासु विनाशयेत् ।। २ ।।

वाह्ये वै कोष्ठकोणेषु वाह्यरेखाष्टकं स्मृतम् ।
वाह्यरेखा भवेद्वका द्विभङ्गा कारयेद्‌बुधः ।। ३ ।।

वज्रस्य मध्यमं श्रृङ्गं द्विधार्धतः ।
वाह्यरेखा भवेद्वक्रा द्विभङ्गा कारयेद्‌बुधः ।। ४ ।।

मध्यकोष्ठं भवेत्पद्मं पीतकर्णिकमुज्ज्वलम् ।
कृष्णेन रजसा लिख्य कुलिशासिशिरोद्‌र्ध्वता ।। ५ ।।

वाह्यतश्चतुरस्रन्तु वज्रसम्पुटलाञ्छितम् ।
द्वारे प्रदापयेन्मन्त्री चतुरो वज्रसम्पुटान् ।। ६ ।

पद्मनाम भवेद्वामवीथी चैव समा भवेत् ।
गर्भं रक्तं केशराणि मण्डले दीक्षिताः स्त्रियः ।। ७ ।।

जयेच्च परराष्ट्राणि क्षइप्रं राज्यमवाप्नुयात् ।
मूर्त्ति प्रणवसन्दीप्तां हूँकारेण नियोजयेत् ।। ८ ।।

मूलविद्यां समुच्चार्य्यं मरुद्व्योमगतां द्विज ।
प्रथमेन पुनश्चैव कणिकायां प्रपूजयेत् ।। ९ ।।

एवं प्रदक्षिणं पूज्य एकैकं वीजमादितः ।
दलमध्ये तु विद्याङ्गा आग्नेय्यां पञ्च नैर्ऋतम् ।। १० ।।

मध्येनेत्रं दिशारूञ्च स्वैः स्वैर्म्मन्त्रैः प्रपूजयेत् ।
मध्येनेत्रं दिशारूञ्च गुह्यकाङ्गे तु रक्षणम् ।। ११ ।।

पञ्च पञ्च प्रपूज्यास्तु स्वैः स्वैर्म्मन्त्रैः प्रपूजयेत् ।
लोकपालान्न्यसेदष्टौ वाह्यतो गर्भमण्डले ।। १२ ।।

वर्णान्तमग्निमारूढं षष्ठस्वरविभेदितं ।
पञ्चदशेन चाक्रान्तं स्वैः स्वैर्नामभि योजयेत् ।। १३ ।।

शीघ्रं सिंहे कर्णिकायां यजेद् गन्धादिभिः श्रिये ।
अष्टाभिर्वेष्टयेत् कुम्भैर्म्मन्त्राष्टशतमन्त्रितैः ।। १४ ।।

मन्त्रमष्टसहस्रन्तु जप्त्वाङ्गानां दशांशकम् ।
होमं कुर्य्यादग्निगुण्डे वह्निमन्त्रेण चालयेत् ।। १५ ।।

निक्षिपेद् हृदयेनाग्निं शक्तिं मध्येऽग्निगां स्मरेत् ।
गर्भाधानं पुंसवनं जातकर्म्म च होमयेत् ।। १६ ।।

हृदयेन शतं ह्येकं गुह्याङ्गे जनयेच्छिखिम् ।
पूर्णाहुत्या तु विद्यायाः शिवाग्निर्ज्वलियो भवेत् ।। १७ ।।

होमयेन्मूलमन्त्रेण शतञ्चाङ्गं दशांशतः ।
निवेदयेत्ततो देव्यास्ततः शिष्यं प्रवेशयेत् ।। १८ ।।

अस्त्रेण ताडनं कृत्वा गुह्याङ्गानि ततो न्यसेत् ।
विद्याङ्गैश्चेव सन्नद्धं विद्याङ्गेषु नियोजयेत् ।। १९ ।।

पुष्पं क्षिपाययेच्छिष्यमानयेदग्निकुण्डकम् ।
यवैर्द्वान्यैस्तिलैराज्यैर्मूलविद्याशतं हुनेत् ।। २० ।।

स्थावरत्वं पुरा होमं सरीसृपमतः परं ।
पक्षिमृगपशुत्वञ्च मानुषं ब्राह्ममेव च ।। २१ ।।

विष्णुत्वञ्चैव रुद्रत्वमन्ते पूर्णाहुतिर्भवेत् ।
एकया चैव ह्याहुत्या शिष्यः स्याद्दीक्षितो भवेत् ।। २२ ।।

अधिकारो भवेदेवं श्रृणु मोक्षमतः परम् ।
सुमेरुस्थो यदा मन्त्री सदाशिवपदे स्थितः ।। २३ ।।

परे च होमयेत् स्वस्थोऽकर्म्मकर्म्मशतान् दश ।
पूर्णाहुत्या तु तद्योगी धर्म्माधर्मैर्न लिप्यते ।। २४ ।।

मोक्षं याति परंस्थानं यद्‌गत्वा न निवर्त्तते ।
यथा जले जले क्षिप्तं जलं देही शिरस्तथा ।। २५ ।।

कुम्भैः कुर्य्याच्चाभिषेकं जयराज्यादिसर्वभाक् ।
कुमारी ब्राह्मणी पूज्या गुर्व्वादेर्दक्षिणं ददेत् ।। २६ ।।

यजेत् सहस्रमेकन्तु पूकजां कृत्वा दिने दिने ।
तिलाज्यपुरहोमेन देवी श्रीः कामदा भवेत् ।। २७ ।।

ददाति विपुलान् भोगान् यदन्यच्च समीहते ।
जप्त्वा ह्यक्षरलक्षन्तु निधानाधिपतिर्भवेत् ।। २८ ।।

द्विगुणेन भवेद्राज्यं त्रिगुणेन च यक्षिणी ।
चतुर्गुणेन ब्रह्मत्वं ततो विष्णुपदं भवेत् ।। २९ ।।

षड्‌गुणेन महासिद्धिर्ल्लक्षेणैकेन पापहा ।
दश जप्त्वा देहशुद्ध्यै तीर्थस्नानफलं शतात् ।। ३० ।।

पटे वा प्रतिमायां वा शीघ्रां वै स्थण्डिले यजेत् ।
शतं सहस्रमयुतं जपे होमे प्रकीर्त्तितम् ।। ३१ ।।

एवं विधानतो जप्त्वा लक्षमेकन्तु होमयेत् ।
महिषाजमेषमांसेन नरजेन पुरेण वा ।। ३२ ।।

तिलैर्यवैस्तथा लाजैर्ब्रीहिगोधूमकाम्रकैः ।
श्रीफलैराज्यसंयुक्तैर्होमयित्वा व्रतञ्चरेत् ।। ३३ ।।

अर्द्धरात्रेषु सन्नद्धः खड्गचापशरादिमान् ।
एकवासा विचित्रेण रक्तपीतासितेन वा ।। ३४ ।।

नीलेन वाथ वस्त्रेण देवीं तैरेव चार्च्चयेत् ।
व्रजेद्दक्षिणदिग्‌भागं द्वारे दद्याद्‌बलिं बुधः ।। ३५ ।।

दूतीमन्त्रेण द्वारादौ एकवृक्षे श्मशानके ।
एवञ्च सर्व्वकामाप्तिर्भुङ्‌क्ते सर्व्वां महीं नृपः ।। ३६ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये त्वरितामूलमन्त्रो नामैकादशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।

अग्नि पुराण - तीन सौ ग्यारहवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 311 Chapter!-In Hindi

तीन सौ ग्यारहवाँ अध्याय - त्वरिता-मन्त्रके दीक्षा ग्रहणकी विधि

अग्निदेव कहते हैं- मुने। अब सिंहासनपर स्थित वज्रसे व्याप्त कमलमें मन्त्र न्यासपूर्वक दीक्षा आदिका विधान बताऊँगा ॥ १ ॥

'हे हे हुति वज्रदन्त पुरु पुरु लुलु गर्ज गर्ज इह सिंहासनाय नमः ।' यह सिंहासनके पूजनका मन्त्र है। चार रेखा खड़ी और चार रेखा तिरछी या (पड़ी) खींचे। इस प्रकार नौ भागोंके विभाग करके विद्वान् पुरुष नौ कोष्ठ बनाये। प्रत्येक दिशाके कोष्ठ तो रख ले और कोणवर्ती कोष्ठ मिटा दे। अब बाह्य दिशामें जो कोष्ठ बच जाते हैं, उनके कोणोंतक जो रेखाएँ आयी हैं, उनकी संख्याएँ आठ कही गयी हैं। बाह्यकोष्ठके बाह्य भागमें ठीक बीचों-बीचमें वज्रका मध्यवर्ती शृङ्ग होता है। बाह्यरेखाके दो भाग करनेपर जो रेखार्द्ध बनता है, उतना ही बड़ा शृङ्ग होना चाहिये। 

बाहरी रेखा टेढ़ी होनी चाहिये। विद्वान् पुरुष उसे द्विभङ्गी बनाये। मध्यवर्ती कोष्ठको कमलकी आकृतिमें परिणत करे। वह पीले रंगकी कर्णिकासे सुशोभित हो। काले रंगके चूर्णसे कुलिशचक्र बनाकर उसके ऊपरी सिरे या शृङ्गकी आकृति खङ्गाकार बनाये। चक्रके बाह्यभागमें चौकोर (भूपुर-चक्र) लिखे, जो वज्रसम्पुटसे चिह्नित हो। भूपुरके द्वारपर मन्त्रोपासक चार वज्रसम्पुट दिलाये। पद्म और वामवीथी सम होनी चाहिये। कमलका भीतरी भाग (कर्णिका) और केसर लाल रंगके लिखे और मण्डलमें स्त्रियोंको दीक्षित करके मन्त्र जपका अनुष्ठान करवाये तो राजा शीघ्र ही परराष्ट्रोंपर विजय पाता है और यदि अपना राज्य छिन गया हो तो उसे भी वह शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है। प्रणव-मन्त्र (ॐकार) से संदीप्त (अतिशय तेजस्विनी) की हुई मूर्तिको हुंकारसे नियोजित करे। ब्रह्मन् ! वायु तथा आकाशके बीज (यं हं) से सम्पुटित मूलविद्याका उच्चारण करके आदि और अन्तमें भी कर्णिकामें पूजन करे। इस प्रकार प्रदक्षिण-क्रमसे आदिसे ही एक-एक अक्षररूप बीजका उच्चारण करते हुए कमलदलोंमें पूजन करना चाहिये ॥ २-११॥

दलोंमें विद्याके अङ्गोंकी पूजा करे। आग्रेय दिशासे लेकर वामक्रमसे नैऋत्य दिशातक हृदय, सिर, शिखा, कवच तथा नेत्र- इन पाँच अङ्गोंकी पूजा करके मध्यभाग (कर्णिका) में पुनः नेत्रकी तथा सम्पूर्ण दिशाओंमें अस्त्रकी पूजा करनी चाहिये। गुह्याङ्गमें रक्षाकी तथा केसरोंमें वाम दक्षिण-पार्श्वमें विद्यमान पाँच-पाँच हुतियोंकी अपने-अपने नाम-मन्त्रोंसे पूजा करे। गर्भमण्डलके बाह्यभागमें आठ लोकपालोंका न्यास करे। वर्णान्त (क्ष या ह) को अग्नि (२) के ऊपर चढ़ाकर उसे छठे स्वर (ऊ) से विभेदित करे और पंद्रहवें स्वर  बिन्दुओंको उसके सिरपर चढ़ाकर उस (अथवा हूं) बीजको आदिमें रखकर दिक्पालंकि अपने-अपने नाममन्त्रोंसे संयुक्त करके उनकी पूजा करे। फिर शीघ्र ही सिंहासनपर कमलकी कर्णिकामें गन्ध आदि उपचारोंद्वारा पूजन करे। इससे श्रीकी प्राप्ति होती है॥ १२-१५॥

तदनन्तर एक सौ आठ मन्त्रोंद्वारा अभिमन्त्रित आठ कलशोंद्वारा कमलको वेष्टित कर दे। फिर एक हजार बार मन्त्र जप करके दशांश होम करे। पहले अग्रि मन्त्र (रं) से कुण्डमें अग्रिको ले जाय और हृदयमन्त्र (नमः) से उसको वहाँ स्थापित करे। साथ ही कुण्डके भीतर अग्नियुक्त शक्तिका ध्यान करे। तदनन्तर उस शक्तिमें गर्भाधान, पुंसवन तथा जातकर्म-संस्कारके उद्देश्यसे हृदयमन्त्रद्वारा एक सौ आठ बार होम करे। फिर गुह्याङ्गके द्वारसे नूतन अग्रिके जन्म होनेकी भावना करे। फिर मूलविद्याके उच्चारणपूर्वक पूर्णाहुति दे। इससे शिवाग्रिका जन्म सम्पादित होता है। फिर मूलमन्त्रसे उसमें सौ आहुतियाँ दे। तत्पश्चात् अङ्गकि उद्देश्यसे दशांश होम करे। इसके बाद शिष्यको देवीके हाथमें सौंपे और उसका मण्डलमें प्रवेश कराये। फिर अस्त्र- मन्त्रसे ताड़न करके गुह्याङ्गोंका न्यास करे। विद्याके अङ्गॉसे संनद्ध शिष्यको विद्याङ्गोंमें नियोजित करे। उसके द्वारा पुष्पका प्रक्षेप करवाये तथा उसे अग्निकुण्डके समीप ले जाय। तदनन्तर जौ, धान्य, तिल और घीसे मूलविद्याके उच्चारणपूर्वक सौ आहुतियाँ दे। प्रथम होम स्थावरयोनिमें पहुंचाकर उससे मुक्ति दिलाता है और दूसरा सरीसृप (साँप, बिच्छू आदि) की योनिसे। तदनन्तर क्रमशः पक्षी, मृग, पशु और मानव- योनिकी प्राप्ति और उससे मुक्ति होती है। फिर क्रमशः ब्रह्मपद, विष्णुपद तथा अन्तमें रुद्रपदकी प्राप्ति होती है। अन्तमें पूर्णाहुति कर देनी चाहिये। एक आहुतिसे शिष्य दीक्षित होता है और उसे मोक्षप्राप्तिका अधिकार मिल जाता है। अब मोक्ष कैसे होता है, यह सुनो ॥ १६-२४॥ 

जब मन्त्रोपासक सुमेरुपर सदाशिवपदमें स्थित हो तो दूसरे दिन स्वस्थचित्त होकर अकर्म और कर्मक्षयके लिये एक हजार आहुतियाँ दे। फिर पूर्णाहुति करके मन्त्रयोगी पुरुष धर्म-अधर्मसे लिप्त नहीं होता है, मोक्ष प्राप्त कर लेता है। वह उस परमपदको पहुँच जाता है, जहाँ जाकर मनुष्य फिर इस संसारमें नहीं लौटता। जैसे जलमें डाला हुआ जल उसमें मिलकर एकरूप हो जाता है, उसी प्रकार जीव शिवमें मिलकर शिवरूप हो जाता है। जो कलशों द्वारा अभिषेक करता है, वह विजय तथा राज्य आदि सब अभीष्ट वस्तुओंको प्राप्त कर लेता है। ब्राह्मणकुलमें उत्पन्न कुमारी कन्याका पूजन करे तथा गुरु आदिको दक्षिणा दे। प्रतिदिन पूजा करके एक सहस्र आहुतियाँ अग्निमें देनी चाहिये। तिल और घीसे पूर्ण आहुति देनेपर त्वरिता देवी लक्ष्मी एवं अभिमत वस्तु देती हैं। वे विपुल भोग प्रदान करती हैं तथा और भी जो कुछ साधक चाहता है, उसे माता त्वरिता पूर्ण करती हैं। 

मन्त्र के जितने अक्षर हैं, उतने लाख जप करनेसे मनुष्य निधियोंका अधिपति होता है, दुगुना जप करनेपर राज्यकी प्राप्ति होती है, त्रिगुण जप करे तो यक्षिणी सिद्ध हो जाती है, चौगुने जपसे ब्रह्मपद, पाँचगुने जपसे विष्णुपद तथा छःगुने जपसे महासिद्धि सुलभ होती है। मन्त्रके एक लाख जपसे मनुष्य अपने पापोंका नाश कर देता है, दस बार जप करनेसे देहशुद्धि होती है, सौ बारके जपसे तीर्थस्त्रानका फल होता है। वेदीपर पट या प्रतिमा रखकर उसके समक्ष सौ, हजार अथवा दस हजारकी संख्यामें जप करके हवन करना बताया गया है। इस प्रकार विधानपूर्वक जप करके एक लाख हवन करे। तिल, जौ, लावा, धान, गेहूँ, कमल पुष्प (पाठान्तरके अनुसार आमके फल) तथा श्रीफल (बेल) - इन सबको एकत्र करके इनमें घी मिलावे और उस होम-सामग्रीसे हवन करके व्रत करे। रातमें कवच आदिसे संनद्ध हो खङ्ग, धनुष तथा बाण आदि लेकर एक वस्त्र धारण करके उपर्युक्त वस्तुओंसे ही देवीकी पूजा करे। वस्त्रका रंग चितकबरा, लाल, पीला, काला अथवा नीला होना चाहिये। मन्त्रवेत्ता विद्वान् दक्षिणदिशामें जाकर मण्डपके द्वारपर दूती-मन्त्रसे बलि अर्पित करे। यह बलि द्वार आदिमें अथवा एक वृक्षवाले श्मशानमें भी दी जा सकती है। ऐसा करनेसे साधक राजा हो समस्त कामनाओंका तथा सारी पृथ्वीके राज्यका उपभोग कर सकता है॥ २५-३७॥

'इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'त्वरिता मूलमन्त्रकी दीक्षा आदिका कथन' नामक तीन सौ ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३११॥

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