अग्नि पुराण तीन सौ दसवाँ अध्याय ! Agni Purana 310 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ दसवाँ अध्याय ! Agni Purana 310 Chapter !

अग्नि पुराण 310 अध्याय - त्वरितामन्त्रादि

अग्निरुवाच

अपरां त्वरिताविद्यां वक्ष्येऽहं भुक्तिमुक्तिदां ।
परेवज्राकुले१ देवीं रजोभिर्लिखिते यजेत् ।। १ ।।

पद्मगर्भे दिग्विदिक्षु चाष्टौ वज्राणि वीथिकां ।
द्वाशोभोपशोभाञ्च लिखेच्छीघ्रं स्मरेन्नरः ।। २ ।।

अष्टादशभुजां सिंहे वामजङ्घा प्रतिष्ठिता ।
दक्षिणा द्विगुणा तस्याः पादपीठे समर्पिता ।। ३ ।।

नागभूषां वज्रकुण्डे खड्गं चक्रं गदां क्रमात् ।
शूलं शरं तथा शक्तिं वरदं दक्षिणैः करैः ।। ४ ।।

धनः पाशं शरं घष्टां तर्ज्जनीं शङ्खमङ्कुशम् ।
अभयञ्च तता वज्रं वामपार्श्वे घृतायुधम् ।। ५ ।।

पूजनाच्छत्रुनाशः स्याद्राष्ट्रं जयति लीलया ।
दीर्घायूराष्ट्रभूतिः स्याद्दिव्यादिव्यादिसिद्धिभाक् ।। ६ ।।

तलोतिसप्तपातालाः कालाग्निभुवनान्तकाः ।
ओं कारादिस्वरारभ्य यावद्‌ब्रह्माण्डवाचकम् ।। ७ ।।

ओं काराद्‌भ्रामयेत्तोयन्तोतला त्वरिता ततः ।
प्र्स्तावं सम्प्रवक्ष्यामि स्वरवर्गं लिखेद्‌भुवि ।। ८ ।।

तालुवर्गः कवर्गः स्यात्तृतीयो जिह्वतालुकः ।
चतुर्थस्तालुजिह्वाग्रो जिह्वादन्तस्तु पञ्चमः ।। ९ ।।

षष्ठोऽष्टपुटसम्पन्नो मिश्रवर्गस्तु सप्तमः ।
ऊष्माणः स्याच्छवर्गस्तु उद्धरेच्च मनुं ततः ।। १० ।।

षष्ठस्वरसमारूढं ऊष्मणान्तं सविन्दुकम् ।
तालुवर्गाद्वितीयन्तु स्वरैकादशयोजितम् ।। ११ ।।

जिह्वातालुसमायोगः प्रथमं केवलं भवेत् ।
तदेव च द्वितायन्तु अधस्ताद्‌विनियोजयेत् ।। १२ ।।

एकादशस्वरैर्युक्तं प्रथमं तालुवर्गतः ।
ऊष्णाणस्य१ द्वितीयन्तु अधस्ताद् दृश्य योजयेत् ।। १३ ।।

षोड़शस्वरसंयुक्तमूष्माणस्य द्वितीयकम् ।
जिह्वादन्तसमायोगे प्रथमं योजयेदधः ।। १४ ।।

मिश्रवर्गाद्‌ द्वितीयन्तु अधस्तात् पुनरेव तु ।
चतुर्थस्वरसमि न्नं तालुवर्गादिसंयुतम् ।। १५ ।।

ऊष्मणश्च द्वितीयन्तु अधस्ताद्विनियोजयेत् ।
स्वरैकादशभिन्नन्तु ऊष्मणान्तं सविन्दुकम् ।। १६ ।।

पञ्चस्वरसमारूढं ओष्ठसम्पुटयोगतः ।
द्वितीयमक्षरञ्चान्यज्जिह्वाग्रे तालुयोगतः ।। १७ ।।

प्रथमं पञ्चमे योज्यं स्वरार्द्धेनोद्‌धृता इमे ।
ओंकाराद्या नमोन्ताश्च जपेत् स्वाहाग्निकार्य्यके ।। १८ ।।

ओं ह्रीँ ह्रूँ ह्रः हृदयं हां हश्चेति शिरः । ह्रीँ ज्वल ज्वल शिखा
स्यात् कवचं हनुद्वयम् । हीँ श्रीँ शून्नेत्रत्रयाय विद्यानेत्रं प्रकीर्त्तितम्
क्षौँ हः खौँ हूँ फडस्त्राय गुह्याङ्गानि पुरा न्यसेत् ।
त्वरिताङ्गानि वक्ष्यामि विद्याङ्गानि श्रृणुष्व मे ।
आदिद्विहृदयं प्रोक्तं त्रिचतुःशिर इष्यते ।। १९ ।।

पञ्चषष्ठः शिखा प्रोक्ता कवचं सप्तमाष्टमम् ।
तोरकन्तु भवेन्तेत्रं नवार्द्धाक्षरलक्षणं ।। २० ।।

तोतलेति समाख्याता वज्रतुण्डे ततो भवेत् ।
ख ख हूँ दशवीजा स्याद्वज्रतुण्डेक्षरलक्षणं ।। २१ ।।

खेचरि ज्वालिनीज्वाले खखेति ज्वालिनीदश ।
वर्च्चे शरविभीषणि खखेति च शवर्य्यपि ।। २२ ।।

छे छेदनि करालिनि खखेति च कराल्यपि ।
वक्षःश्रवद्रवप्लवनी ख ख दूतीप्लवंख्यपि ।। २३ ।।

स्त्रीबालकारे धुननि शास्त्री वसनवेगिका ।
क्षे पक्षे कपिले हस हस कपिला नाम दूतिका ।। २४ ।।

ह्रूँ तेजोवति रौद्री च मातङ्गरौद्रिदूतिका ।
पुटे पुटे ख ख खड्गे फट् ब्रह्मकदूतिका ।। २५ ।।

वैतालिनि दशार्णाः स्युस्त्यजान्यहिपलालवत् ।
हृदादिकन्यासादौ स्यान् मध्ये नेत्रे न्यसेत्सुधीः ।। २६ ।।

पादादारभ्य मूर्द्धान्तं शिर आरभ्य पादयोः ।
अङ्घ्निजानूरुगुह्ये च नाभिहृत्‌कण्ठदेशतः ।। २७ ।।

वज्रमण्डलमूर्द्धे च अधोद्‌र्ध्वे चादिवीजतः ।
सोमरूपं ततो गावं धारामृतसुवर्षिणम् ।। २८ ।।

विशन्तं ब्रह्मन्ध्रेण साधकस्तु विचिन्तयेत् ।
मूर्द्धास्यकण्ठहृन्नाभौ गुह्येरुजानुपादयोः ।। २९ ।।

आदिवीजं न्यसेन्मन्त्री तर्ज्जन्यादि पुनः पुनः ।
ऊद्‌र्ध्वं सोममधः पद्म शरीरं वीजविग्रहं ।। ३० ।।

योजानाति न मृत्युः स्यात्तस्य न व्याधयो ज्वराः ।
यजेज्जपेत्तां विन्यस्य ध्यायेद्‌वेवीं शताष्टकम् ।। ३१ ।।

मुद्रा वक्ष्ये प्र्णीताद्याः प्रणीताः पञ्चधा स्मृताः ।
ग्रथितौ तु करौ कृत्वा मध्येऽङ्गुष्ठौ निपातयेत् ।। ३२ ।

तर्ज्जनीं मूर्दिध्न संलग्नां विन्यसेत्तां शिरोपरि ।
प्रणीतेयं समाख्याता हृद्देशे तां समानयेत् ।। ३३ ।।

ऊद्‌र्ध्वन्तु कन्यसामध्ये सवीजान्तां विदुर्द्धिजाः ।
नियोज्य तर्ज्जनीमध्येऽनेकलग्नां परस्पराम् ।। ३४ ।।

ज्येष्ठाग्रं निक्षिपेन्मध्ये भेदनी स प्रकीर्त्तिता ।
नाभिदेशे तु तां बद्‌ध्वा अङ्गुष्ठानुन्‌क्षिपेत्ततः ।। ३५ ।।

कराली तु महामुद्रा हृदये योज्य मन्त्रिणः ।
पुनस्तु पूर्व्ववद् बद्धलग्नां ज्येष्ठां समुत्‌क्षिपेत् ।। ३६ ।।

वज्रतुण्डा समाख्याता वज्रदेशे तु बन्धयेत् ।
उभाभ्याञ्चैव हस्ताभ्यां मणिबन्धन्तु बन्धयेत् ।। ३७ ।।

त्रीणि त्रीणि प्रसार्य्येति वज्रमुद्रा प्रकीर्त्तिता ।
दण्डः खड्गञ्चक्रगदा मुद्रा चाकारतः स्मृता ।। ३८ ।।

अङ्गष्ठेनाक्रमेत् त्रीणि त्रिशूलञ्चोद्‌र्ध्वतो भवेत् ।
एकातु मध्यमोद्‌र्ध्वा तु शक्तिरेव विधीयते ।। ३९ ।।

शरञ्च वरदञ्चापं पाशं भारञ्च घण्टया ।
शङ्खमङ्कुशमभयं पद्ममष्ट च विंशतिः ।। ४० ।।

अग्नि पुराण - तीन सौ दसवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 310 Chapter!-In Hindi

तीन सौ दसवाँ अध्याय अपरत्वरिता-मन्त्र एवं मुद्रा आदि का वर्णन

अग्निदेव कहते हैं- मुने। अब मैं दूसरी 'अपरा विद्या'का वर्णन करता हूँ, जो भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली है। धूलिसे निर्मित, वज्र चिह्नसे आवृत और चौकोर भूपुरमण्डलमें त्वरितादेवीकी पूजा करे। उस मण्डलके भीतर योगपीठपर कमलका निर्माण भी होना चाहिये। मण्डलके पूर्वादि दिशाओं तथा कोणोंमें कुल मिलाकर आठ वज्र अङ्कित होंगे। मण्डलके भीतर वीथी, द्वार, शोभा तथा उपशोभाकी भी रचना करे। उसके भीतर उपासक मनुष्य त्वरितादेवीका चिन्तन करे। उनके अठारह भुजाएँ हैं। उनकी बायीं जड्डा तो सिंहकी पीठपर प्रतिष्ठित है और दाहिनी जड्डा उससे दुगुनी बड़ी आकृतिमें पीड़े या खड़ाऊँपर अवलम्बित है। वे नागमय आभूषणोंसे विभूषित हैं। दायें भागके हाथोंमें क्रमशः वज्र, दण्ड, खङ्ग, चक्र, गदा, शूल, बाण, शक्ति तथा वरद मुद्रा धारण करती हैं और वामभागके हाथोंमें क्रमशः धनुष, पाश, शर, घण्टा, तर्जनी, शङ्ख, अङ्कुश, अभयमुद्रा तथा वज्र नामक आयुध लिये रहती हैं॥ १-५॥

त्वरितादेवीके पूजनसे शत्रुका नाश होता है। त्वरिताका आराधक राज्यको भी अनायास ही जीत लेता है। वह दीर्घायु तथा राष्ट्रकी विभूति बन जाता है। दिव्य और अदिव्य (दैविक और लौकिक) सभी सिद्धियाँ उसके अधीन हो जाती हैं। (त्वरिताको 'तोतला त्त्वरिता' भी कहते हैं। इस नामकी व्युत्पत्ति इस प्रकार समझनी चाहिये) 'तल' शब्दसे सातों पाताल, काल, अग्नि और सम्पूर्ण भुवन गृहीत होते हैं। ॐकारसे परमेश्वरसे लेकर जितना भी ब्रह्माण्ड है, उन सबका प्रतिपादन होता है। अपने मन्त्रके आदि अक्षर ॐकारसे देवी तलपर्यन्त 'तोय'का त्वरित भ्रामण (प्रक्षेपण) करती हैं, इसलिये वे 'तोतला त्वरिता' कही गयी हैं॥ ६-७ ॥ 

अब मैं त्वरिता मन्त्रको प्रस्तुत करनेका प्रकार (अर्थात् मन्त्रोद्धार) बता रहा हूँ। भूतलपर स्वरवर्ग लिखे। (स्वरवर्गमें सोलह अक्षर हैं- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ ऋ, लू, लू, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः। इसके बाद व्यञ्जन वर्णोंको भी वर्गक्रमसे लिखे कवर्गके लिये सांकेतिक नाम तालुवर्ग है। स्वरवर्ग पहला है और तालुवर्ग दूसरा। तीसरा जिह्वा तालुकवर्ग है। (इसमें चवर्गके अक्षर संयोजित हैं।) चतुर्थ वर्ग तालु-जिह्वाग्र कहा गया है। (इसमें टवर्गके अक्षर हैं।) पञ्चम जिह्वादन्तक वर्ग है। (इसमें तवर्गके अक्षर हैं।) षष्ठ वर्गका नाम है-ओष्ठपुट सम्पन्न। (इसमें पवर्गके अक्षर हैं।) सातवाँ मिश्रवर्ग है। (इसमें अन्तःस्थ य, र, ल, वका समावेश है।) आठवाँ वर्ग ऊष्मा या शवर्ग है। इन्हीं वर्गोंके अक्षरोंसे मन्त्रका उद्धार करे ॥ ८-१० ॥

छठे स्वर ऊकारपर आरूढ़ ऊष्माका द्वितीय अक्षर हकार बिन्दु (अनुस्वार) से युक्त हो (हूं)। तालुवर्गका द्वितीय अक्षर 'खकार' ग्यारहवें स्वर 'एकार 'से युक्त हो (खे)। जिह्वा तालु-समायोगका केवल प्रथम अक्षर 'चकार' हो, उसके नीचे उसी वर्गका दूसरा अक्षर 'छकार' हो और वह ग्यारहवें स्वर 'एकार 'से संयुक्त (च्छे) हो। तालुवर्गका प्रथम अक्षर 'कृ' हो, फिर उसके नीचे ऊष्माका द्वितीय अक्षर 'घ्' को देखकर जोड़ दे और उसे सोलहवें स्वर 'अः 'से संयुक्त करे (क्ष:)। ऊष्माका तीसरा अक्षर 'स्' हो, उसके नीचे जिह्वादन्त-समायोगके प्रथम अक्षर 'तकार'को जोड़े। उसके नीचे मिश्रवर्गका दूसरा अक्षर 'रकार' जोड़े और उसे चौथे स्वर 'ईकार 'से जोड़ दे (स्त्री)। तदनन्तर तालुवर्गके आदि अक्षर 'क्' के नीचे ऊष्माका द्वितीय अक्षर 'प्' जोड़ दे और उसको ग्यारहवें स्वरसे मिला दे- (थे)। इसके बाद ऊष्माके अन्तिम अक्षर 'हकार'को अनुस्वारयुक्त करके पाँचवें स्वरपर आरूढ़ कर दे (हुं)। ओष्ठसम्पुटयोगसे दूसरा अक्षर 'फू' और जिह्वाग्र तालुयोगसे द्वितीय अक्षर 'ट्'को पञ्चम 'ण'के रूपमें परिणत करके जोड़ना चाहिये। स्वर तथा अर्द्ध-व्यञ्जन वणाँके साथ उद्धृत हुए- ये अक्षर 'तोतला त्वरिता 'के मन्त्र हैं। इनके आदिमें ॐकार और अन्तमें 'नमः' जोड़नेपर जो मन्त्र बने, उसका तो जप करे, किंतु अग्रिकार्य (हवन) में 'नमः 'को हटाकर 'स्वाहा' जोड़ देना चाहिये। (तात्पर्य यह है कि 'ॐ हूं खे च्छे क्षः स्वी क्षे हुं फट् नमः।'- यह जपमन्त्र है और 'ॐ हूं खे च्छे क्षः स्त्री क्षे हुं फट् स्वाहा' - यह हवनोपयोगी मन्त्र है) ॥ ११-१८ ॥ 

इसका अङ्गन्यास इस प्रकार है-ॐ ह्रीं हूं ह्रः हृदयाय नमः। हां हः शिरसे स्वाहा। ह्रीं ज्वल ज्वल शिखायै वषट्। हनु हनु (अथवा हुलु हुलु), कवचाय हुम्। ह्रीं श्रीं श्रृं नेत्रत्रयाय वौषट्। नवाँ (फ) और आधा अक्षर (ट्) रूप जो तोतला- त्वरिता विद्या है, उसीको देवीका नेत्र कहा गया है। 'श्रीं हः खी हूं फट् अस्त्राय फट्।' ये गुहा अङ्गमन्त्र हैं। इनका पहले न्यास करे ॥ १९-२० ॥

त्वरिताके अङ्गोंका वर्णन आगे चलकर करूँगा। इस समय त्वरिता विद्याके अङ्गोंका वर्णन मुझसे सुनो प्रथम दो बीजाक्षर या मन्त्राक्षर हृदय हैं, तीसरा और चौथा ये दो अक्षर स्थिर हैं, पाँचवाँ और छठा ये अक्षर शिखाके मन्त्र कहे गये हैं। सातवाँ और आठवाँ कवच मन्त्र हैं, नवाँ और आधा अक्षर तारक (फट्) है। यही नेत्र कहा गया है। (प्रयोगॐ हूं हृदयाय नमः। खे च्छे शिरसे स्वाहा। क्षः स्वी शिखायै वषट्। क्षे हुम् कवचाय हुम्। फट् नेत्रत्रयाय वौषट्ः) ॥ २१-२२ ॥

'तोतले वज्रतुण्डे ख ख हूं'- इन दस अक्षरोंसे युक्त 'वज्रतुण्डिका' नामक 'इन्द्रदूतिका विद्या' है। 'खेचरि ज्वालिनि ज्वाले ख ख'- इन दस अक्षरोंसे युक्त 'ज्वालिनी विद्या' है। 'वर्चे शरविभीषणि (अथवा शवरि भीषणि) ख खे'- यह दशाक्षरा 'शबरी विद्या' है। 'छे छेदनि करालिनि ख ख'- यह दशाक्षरा 'कराली विद्या' है। 'क्षः श्रव द्रव प्लवङ्गि ख खे' यह दशाक्षर 'प्लवङ्गदूती विद्या' है। 'स्त्रीबलं कलिधुननि शासी'- यह दशाक्षरा' श्वसनवेगिका विद्या' है। 'क्षे पक्षे कपिले हंस' यह दशाक्षरा 'कपिलादूतिका विद्या' है। 'हूं तेजोवति रौद्रि मातङ्गि'- यह दशाक्षरा 'रौद्री' दूतिका है 'पुढे पुटे ख ख खड्गे फट्'- यह दशाक्षरा 'ब्रह्मदूतिका विद्या' है। 'वैताली' में उक्त सभी मन्त्र दशाक्षर होते हैं। अन्य विस्तारकी बातें पुआलकी भाँति सारहीन हैं। उन्हें छोड़ देना चाहिये। न्यास आदिमें हृदयादि अङ्गोंका उपयोग है। नेत्रका सुधी पुरुष मध्यमें न्यास करे ॥ २३-२८ ॥

पैरसे लेकर मस्तकतक तथा मस्तकसे लेकर पैरोंतक चरण, जानु, ऊरु, गुह्य, नाभि, हृदय तथा कण्ठदेशसे मुखमण्डलपर्यन्त ऊपर-नीचे आदिबीजसे निर्गत सोमरूप 'अकार', जो अमृतकी धारा एवं सुवाससे परिपूर्ण है, ब्रह्मरन्ध्रसे मुझमें प्रवेश कर रहा है, ऐसा साधक चिन्तन करे। मन्त्रोपासक मूर्धा, मुख, कण्ठ, हृदय, नाभि, गुह्य, ऊरु, जानु और पैरोंमें तथा तर्जनी आदिमें आदिबीजका बारंबार न्यास करे। ऊपर अमृतमय सोम है, नीचे बीजाक्षररूप शरीर-कमल है। इस गूढ़ रहस्यको जो जानता है, उसकी मृत्यु नहीं होती है। इस मन्त्रके जपसे रोग-व्याधिका अभाव हो जाता है। न्यास और ध्यानपूर्वक त्वरितादेवीका पूजन और उनके मन्त्रका एक सौ आठ बार जप करे ॥ २९-३३॥

अब मैं 'प्रणीता' आदि मुद्राओंका वर्णन करूँगा। 'प्रणीता' मुद्राएँ पाँच प्रकारकी मानी गयी हैं- 'प्रणीता', 'सबीजा प्रणीता', 'भेदनी', 'कराली' और 'वज्रतुण्डा'। दोनों हाथोंको परस्पर ग्रथित करके बीचमें अँगूठोंको डाल दे और तर्जनीको ऊपर लगाये रखे, इसका नाम 'प्रणीता' है। इसे हृदयदेशमें लगाये। इसी मुद्रामें कनिष्ठिका अँगुलीको ऊपरकी ओर उठाकर मध्यमें रखे तो वह द्विजोंद्वारा 'सबीजा 'के नामसे मानी जाती है। यदि तर्जनीके बीचमें अनामिकाको परस्पर संलग्न करके अङ्गुष्ठके अग्रभागको मध्यभागमें रखे तो वह 'भेदनी' मुद्रा कही गयी है। उस मुद्राको नाभिदेशमें निबद्ध करके अङ्गुष्ठका जल छिड़के। उसीको मन्त्रसाधक के हृदयमें योजित करनेपर 'कराली' नामक महामुद्रा होती है। फिर पूर्ववत् ब्रह्मलग्ग्रा ज्येष्ठाको ऊपर उठाये तो वह 'वज्रतुण्डा मुद्रा' होती है। उसको वज्रदेशमें आबद्ध करे। दोनों हाथोंसे मणिबन्ध (कलाई) को बाँधे और तीन-तीन अँगुलियोंको फैलाये रखे, इसे 'वज्रमुद्रा' कहते हैं। दण्ड, खड्ग, चक्र और गदा आदि मुद्राएँ उनकी आकृतिके अनुसार बतायी गयी हैं। अङ्गष्ठसे तीन अँगुलियोंको आक्रान्त करे, वे तीनों ऊर्ध्वमुख हों तो 'त्रिशूलमुद्रा' होती है। एकमात्र मध्यमा अँगुली ऊपरकी ओर उठी रहे तो 'शक्तिमुद्रा' सम्पादित होती है। बाण, वरद, धनुष, पाश, भार, घण्टा, शङ्ख, अङ्कुश, अभय और पद्म-ये (प्रणीतासे लेकर पद्मतक कुल) अट्ठाईस मुद्राएँ कही गयी हैं। ग्रहणी, मोक्षणी, ज्वालिनी, अमृता और अभया- ये पाँच 'प्रणीता' नामवाली मुद्राएँ हैं। इनका पूजन और होममें उपयोग करना चाहिये ॥ ३४-४०॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'त्वरितामन्त्र तथा मुद्रा आदिका वर्णन' नामक तीन सौ दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३१०॥

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