अग्नि पुराण तीन सौ तीनवाँ अध्याय ! Agni Purana 303 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ तीनवाँ अध्याय ! Agni Purana 303 Chapter !

अग्नि पुराण तीन सौ तीनवाँ अध्याय - अङ्गाक्षरार्च्चनम्

अग्नि रुवाच

यदा जन्मर्क्षगश्चन्द्रो भानुः सप्तमराशिगः ।
पौष्णः कालः स विज्ञेयस्तदा ग्रासं परीक्षयेत् ।। १ ।।

कण्ठेष्ठै चलतः स्थानाद्यस्य वक्रा च नासिका ।
कृष्णा च जिह्वा सप्ताहं जीवितं तस्य वै भवेत् ।। २ ।।

तारो मेषो विषं दन्ती नरो दीर्घो घणा रसः ।
क्रुद्धोल्काय महोल्काय वीरोत्लाय शिखा भवेत् ।। ३ ।।

ह्यल्काय सहसोल्काय वैष्णवोष्टाक्षरो मनुः ।
कनिष्ठादितदष्टानामङ्गुलीनाञ्च पर्वसु ।। ४ ।।

ज्येष्ठाग्रेण क्रमात्तावन् मूर्द्धन्यष्टाक्षरं न्यसेत् ।
तर्ज्जन्यान्तारमङ्गुष्ठे लग्ने मध्यमया च तत् ।। ५ ।।

तलेङ्गुष्ठे तदुत्तारं वीजोत्तारं ततो न्यसेत् ।
रक्तगौरधूम्रहरिज्जातरूपाः सितास्त्रथः ।। ६ ।।

एवं रूपानिमान् वर्णान् भाववुद्धान्न्यसेत् क्रमात् ।
हृदास्यनेत्रमूर्द्धाङ्घ्रितालुगुह्यकरादिषु ।। ७ ।।

अङ्गानि च न्यसेद्वीजान्न्यस्याथ करदेहयोः ।
यथात्मनि तथा देवेन्यासः सार्य्यः करं विना ।। ८ ।।

हृदादिस्थानगान् वर्णान् गन्धपुष्पैः समर्च्चयेत् ।
धर्म्माद्यग्न्याद्यधर्मादि गात्रे पीठेऽम्बुजे न्यसेत् ।। ९ ।।

यत्र केशरकिञ्चल्कव्यापिसूर्य्येन्दुदाहिनां ।
मण्डलन्त्रितयन्तावद् भेदैस्तत्र न्यसेत् क्रमात् ।। १० ।।

गुणाश्च तन्त्रसत्वाद्याः केशरम्थाश्च शक्तयः ।
विमलोत्कर्षणीज्ञानक्रियायोगाश्च वै क्रमात् ।। ११ ।।

प्रह्वी सत्या तथेशानानुग्रहा मध्यतस्ततः ।
योगपीठं समभ्यर्च्य समावाह्य हरिं यजेत् ।। १२ ।।

पाद्यार्घ्याचमनीयञ्च पीतवस्त्रविभूषणं ।
योगपीठं समभ्यर्च्य समावाह्य हरिं यजेत् ।। १२ ।।

वासुदेवादयः पूज्याश्चत्वारो दिक्षु मूर्त्तयः ।
विदिक्षु श्रईसरस्वत्यै रतिशान्त्यै च पूजयेत् ।। १४ ।।

शङ्खं चक्रं गदां पद्मं मुषलं खड्गशार्ङ्गिके ।
वनमालान्वितं दिक्षु विदिक्षु च यजेत् क्रमात् ।। १५ ।।

अब्यर्च्य च चवहिस्तार्क्ष्यं देवस्य पुरतोऽर्च्चयेत् ।
विश्वक्सेनञ्च सोमेशं मध्ये आवरणाद्वहिः ।। १६ ।।

इन्द्रादिपरिचारेण पूज्य सर्व्वमवाप्नुयात् ।। १७ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये अङ्गाक्षरार्च्चनं नाम त्र्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।।

अग्नि पुराण - तीन सौ तीनवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 303 Chapter!-In Hindi

तीन सौ तीनवाँ अध्याय - अष्टाक्षर मन्त्र तथा उसकी न्यासादि विधि

जब चन्द्रमा जन्म-नक्षत्रपर हों और सूर्य सातवीं राशिपर हो तो उसे 'पूषाका काल' समझना चाहिये। उस समय श्वासको परीक्षा करे। जिसके कण्ठ और ओष्ठ अपने स्थानसे चलित हो रहे हों, जिसकी नाक टेढ़ी हो गयी और जीभ काली पड़ गयी हो, उसका जीवन अधिक से अधिक सात दिन और रह सकता है॥ १-२॥ 

तार (ॐ), मेष (न), विष (म), दन्ती (ओ), दीर्घस्वरयुक्त 'न' तथा 'र' (ना रा), 'य णा', रस (य)- यह भगवान् विष्णुका अष्टाक्षर- मन्त्र (ॐ नमो नारायणाय) है। इसका अङ्गन्यास इस प्रकार है-  'कुद्धोल्काय स्वाहा हृदयाय नमः। महोल्काय स्वाहा शिरसे स्वाहा। वीरोल्काय स्वाहा शिखायै वषट्। द्युल्काय स्वाहा कवचाय हुम्। सहस्रोल्काय स्वाहा अस्त्राय फट्।" इन मन्त्रों को क्रमशः पढ़ते हुए हृदय, सिर, शिखा, दोनों भुजा तथा सम्पूर्ण दिग्भागमें न्यास करे ॥ ३ ॥

कनिष्ठासे लेकर कनिष्ठातक आठ अँगुलियों के तीनों पर्वोंमें अष्टाक्षर मन्त्रके पृथक् पृथक् आठ अक्षरों को 'प्रणव' तथा 'नमः' से सम्पुटित करके बोलते हुए अङ्गष्ठके अग्रभागसे उनका क्रमशः न्यास करे। तर्जनी में, मध्यमा से युक्त अङ्गुष्ठमें, करतलमें तथा पुनः अङ्गुष्ठमें प्रणवका न्यास 'उत्तार' कहलाता है। अतः पूर्वोक्त न्यासके पश्चात् 'बीजोत्तारन्यास' करे। अष्टाक्षर मन्त्रके वर्षोंका रंग यों समझे-आदिके पाँच अक्षर क्रमशः रक्त, गौर, धूम्र, हरित और सुवर्णमय कान्तिवाले हैं तथा अन्तिम तीन वर्ण श्वेत हैं। इस रूपमें इन वर्षोंकी भावना करके इनका क्रमशः न्यास करना चाहिये। न्यासके स्थान हैं- हृदय, मुख, नेत्र, मूर्धा, चरण, तालु, गुह्य तथा हस्त आदि ॥ ४-७॥

हाथोंमें और अङ्गोंमें बीजन्यास करके फिर अङ्गन्यास करे। जैसे अपने शरीरमें न्यास किया जाता है, उसी तरह देवविग्रहमें भी करना चाहिये। किंतु देवशरीरमें करन्यास नहीं किया जाता है। देवविग्रहके हृदयादि अगोंमें विन्यस्त वर्षोंका गन्ध-पुष्पोंद्वारा पूजन करे। देवपीठपर धर्म आदि, अग्नि आदि तथा अधर्म आदिका भी यथास्थान न्यास करे। फिर उसपर कमल का भी न्यास करना चाहिये ॥ ८-९ ॥

पीठपर ही कमलके दल, केसर, किञ्जल्कका व्यापक सूर्यमण्डल, चन्द्रमण्डल तथा अग्निमण्डल इन तीन मण्डलोंका पृथक् पृथक् क्रमशः न्यास करे। वहाँ सत्त्व आदि तीन गुणोंका तथा केसरोंमें स्थित विमला आदि शक्तियोंका भी चिन्तन करे। उनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं- विमला, उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा, प्री, सत्या तथा ईशाना। ये आठ शक्तियाँ आठ दिशाओंमें स्थित हैं और नवीं अनुग्रहा शक्ति मध्यमें विराजमान है। योगपीठकी अर्चना करके उसपर श्रीहरिका आवाहन और पूजन करे ॥ १०-१२॥ 

पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय, पीताम्बर तथा आभूषण - ये पाँच उपचार हैं। इन सबका मूल (अष्टाक्षर) मन्त्रसे समर्पण किया जाता है। पीठके पूर्व आदि चार दिशाओंमें वासुदेव आदि चार मूर्तियों का तथा अग्रि आदि कोणों में क्रमशः श्री, सरस्वती, रति और शान्तिका पूजन करे ॥ १३-१४॥

इसी प्रकार दिशाओंमें शङ्ख, चक्र, गदा और पद्मका तथा विदिशाओं (कोणों) में मुसल,खड्ग, शार्ङ्गधनुष तथा वनमालाकी क्रमशः अर्चना करे ॥ १५ ॥

मण्डलके बाहर गरुडकी पूजा करके भगवान् नारायण देव के सम्मुख विराजमान विष्वक्सेन तथा सोमेश का मध्यभागमें और आवरणसे बाहर इन्द्र आदि परिचारकवर्गके साथ भगवान्‌ का सम्यक् पूजन करने से साधक को अभीष्ट फलकी प्राप्ति होती है ॥ १६-१७॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'अष्टाक्षर पूजा विधि वर्णन' नामक तीन सौ तीनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३०३॥

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