अग्नि पुराण तीन सौ दोवाँ अध्याय ! Agni Purana 302 Chapter !
अग्नि पुराण तीन सौ दोवाँ अध्याय - नाना मन्त्राः
अग्नि रुवाच
वाक्कर्म्मपार्श्वयुक्शुक्रतोककृते मतो प्लवः ।
हुतान्ता देशवर्णेयं विद्या मुख्या सरस्वती ।। १ ।।
अक्षाराशी वर्णलक्षं जपेत् स मतिमान् भवेत् ।
अत्रिः सवह्निर्वामाक्षिविन्दुरिन्द्राय हृत्परः ।। २ ।
वज्रपद्मधरं शक्रं पीतमावाह्य पूजयेत् ।
नियुतं होमयेदाज्यतिलांस्तेनाभिषेचयेत् ।। ३ ।।
नृपादिर्भ्रष्टराज्यादीन्राज्यपुत्रादिमाप्नुयात् ।
हृल्लेखा शक्तिदेवाख्या दोषारग्निर्द्दण्डिदण्डवान् ।। ४ ।।
शिवमिष्ट्वा जपेच्छक्तिमष्टम्यादिचतुर्द्दशीं ।
चक्रपाशाङ्कुशधरां साभयां वरदायिकां ।। ५ ।।
होमादिना च सौभाग्यं कवित्वं पुत्रवान् भवेत् ।
ओं ह्रीं ओं नमः कामाय कर्व्वजनहिताय सर्व्वजनमोहनाय
प्रज्वलिताय सर्व्वजनहृदयं ममात्मगतं कुरु ओं ।
एतज्जपादिना मन्त्रो वशयेत् सकलं जगत् ।। ६ ।।
ओं ह्रीं चामुण्डेअमुकन्दह पच मम वशमानय ठ ।
वशीकरणकृन्मन्त्रश्चामुण्डायाः प्रकीर्त्तितः ।
फलत्रयकषायेण वरङ्गं क्षालयेद्वशे ।। ७ ।।
अश्वगन्धायवैः स्त्री तु निशाक्कर्पूरकादिना ।
पिप्पलीतण्डुलान्यष्टौ मरिचानि च विंशतिः ।। ८ ।।
वृहतीरसलेपश्च वशे स्यान्मरणान्तिकं ।
कटीरमूलत्रिकटुक्षौद्रलेपस्तथा भवेत् ।। ९ ।।
हिमं कपित्थकरभं मागधी मधुकं मधु ।
तेषां लेपः प्रयुक्तस्तु दम्पत्योः स्वस्तिमावहेत् ।। १० ।।
सशर्क्करयोनिलेपात् कदम्बरसको मधु ।
तेषां लेपः प्रयुक्तस्तु दम्पत्योः स्वस्तिमावहेत् ।। ११ ।।
एतच्चूर्णं शिरःक्षिप्तं वशमुत्तमम् ।
त्रिफला चन्दनक्काथप्रश्था द्विकुड़वम् पृथ्क् ।। १२ ।।
भृङ्गहेमरसन्दोषातावती चुञ्चुकं मधु ।
घृतैः पक्का निशा छाया शुष्का लोप्या तु रञ्जनी ।। १३ ।।
विदारीं सोच्चटामाषचूर्णीभूतां सशर्करां ।
मथितां यः पिवेत् क्षीरैर्नित्यं स्त्रीशतकं ब्रजेत् ।। १४ ।।
गुल्ममाषतिलव्रीहिचूर्णक्षीरसितान्वितं ।
अश्वत्थवंशदर्भाणं मूलं वै वैष्णवीश्रियोः ।। १५ ।।
मूलं दूर्व्वाश्वगन्धोत्थं पिवेत् क्षीरैः सुतार्थिनी ।
कौन्तीलक्ष्म्याः शिफा धात्री वज्रं लोध्रं वटाङ्कुरम् ।। १६ ।।
आज्यक्षीरमृतौ पेयं पुत्रार्थ त्रिदिवं स्त्रिया ।
पुत्रार्थिनी विबेत् क्षीरं श्रीमृलं सवटाह्कुरम् ।। १७
श्रीवटाङ्कुरदेवीनां रसं तस्ये पिवेच्च सा ।
श्रीपद्ममूलमुत्क्षीरमश्वत्थोत्तरमूलयुक् ।। १८ ।।
तरलं पयसा युक्तं कार्पासफलपल्लवं ।
अपामार्गस्य पुष्पाग्रं नवं समहिषीपयः ।। १९ ।।
पुत्रार्थञ्चार्द्धषट्शाकैर्योगाश्चत्वार ईरिताः ।
शर्करोत्पलपुष्पाक्षलोद्रचन्दनसारिवाः ।। २० ।।
स्नवमाणे स्त्रिया गर्भे दातव्यास्तण्डुलाम्भसा ।
लाजा यष्टिसिताद्राक्षाक्षौद्रसर्पींषि वा लिहेत् ।। २१ ।।
अटरुषकलाङ्गुल्यः काकमाच्याः शिफा पृथक् ।
नाभेरघः समालिप्य प्रसूते प्रमदा सुखम् ।। २२ ।।
रक्तं शुक्लं जवापुष्पं रक्तशुक्लस्रुतौ पिवेत् ।
केशरं वृहतीमूलं गोपीयष्टितृणोत्पलम् ।। २३ ।।
साजक्षीरं सतैलं तद्भक्षणं रोमजन्मकृत् ।
शीर्य्यमाणेषु केशेषु स्थापनञ्च भवेदिदम् ।। २४ ।।
धात्रीभृड्गरसप्रस्थतैलञ्च क्षीरमाढकम् ।
ओं नमो भगवते त्र्यम्बकाय उपशमयचुलुमिलि
भिद गोमानिनि चक्रिण ह्रूं फट् ।।
अस्मिन् ग्रामे गोकुलस्य रक्षां कुरु शान्तिं कुरु
घण्टाकर्णो महासेनो वीरः प्रोक्तो महाबलः ।। २५ ।।
मारीनिर्नाशनकरः स मां पातु जगत्पतिः ।
श्लोकौ चैव न्यसेदेतौ मन्त्रौ गोरक्षकौ पृथक् ।। २६ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये नानामन्त्रा नाम द्व्यधिकत्रिशततमोध्यायः ।।
अग्नि पुराण - तीन सौ दोवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 302 Chapter!-In Hindi
तीन सौ दोवाँ अध्याय - नाना प्रकार के मन्त्र और औषधों का वर्णन
अग्निदेव कहते हैं- 'ऐं कुलजे ऐं सरस्वति स्वाहा'- यह ग्यारह अक्षरोंका मन्त्र मुख्य 'सरस्वती विद्या' है। जो क्षारलवण से रहित आहार ग्रहण करते हुए मन्त्रों की अक्षरसंख्या के अनुसार उतने लाख मन्त्र का जप करता है, वह बुद्धिमान् होता है। अत्रि (द), अग्रि (र), वामनेत्र (ई) तथा बिन्दु (') 'द्रीं'- यह मन्त्र महान् विद्रावणकारी (शत्रुको मार भगाने वाला) है। वज्र और कमल धारण करनेवाले पीत वर्णवाले इन्द्रका आवाहन करके उनकी पूजा करे और घी तथा तिलकी एक लाख आहुतियाँ दे। फिर तिलमिश्रित जलसे इन्द्र देवता का अभिषेक करे। ऐसा करनेसे राजा आदि अपने छीने गये राज्य आदि तथा राजपुत्र आदि (मनोवाञ्छित वस्तुओं) को पा सकते हैं। इल्लेखा (हीं)- यह 'शक्तिदेवा' नामसे प्रसिद्ध है। इसका उद्धार यों है-घोष (ह), अग्नि (र), दण्डी (ई), दण्ड (') 'ह्रीं'। शिवा और शिवका पूजन करके शक्तिमन्त्र (ह्रीं) का जप करे। अष्टमीसे लेकर चतुर्दशीतक आराधना में संलग्र रहे। हाथोंमें चक्र, पाश, अङ्कश एवं अभयकी मुद्रा धारण करनेवाली वरदायिनी देवीकी आराधना करके होम आदि करने पर उपासक को सौभाग्य एवं कवित्व शक्ति की प्राप्ति होती है तथा वह पुत्रवान् होता है ॥ १-५।
'ॐ ह्रीं ॐ नमः कामाय सर्वजनहिताय सर्वजनमोहनाय प्रज्वलिताय सर्वजनहृदयं ममाऽऽत्मगतं कुरु कुरु ॐ॥'- इसके जप आदि करनेसे यह मन्त्र सम्पूर्ण जगत्को अपने वशमें कर सकता है॥ ६-७॥
'ॐ ह्रीं चामुण्डे अमुकं दह दह पच पच मम वशमानयानय स्वाहा ॐ।' यह चामुण्डाका वशीकरणमन्त्र कहा गया है। स्त्रीको चाहिये कि वशीकरणके प्रयोगकालमें त्रिफलाके ठंडे पानीसे अपनी योनिको धोये। अश्वगन्धा, यवक्षार, हल्दी और कपूर आदिसे भी स्त्री अपनी योनिका प्रक्षालन कर सकती है। पिप्पलीके आठ तन्दुल, कालीमिर्चके बीस दाने और भटकटैयाके रसका योनिमें लेप करनेसे उस स्त्रीका पति आमरण उसके वशमें रहता है। कटीरमूल, त्रिकटु (सोंठ, मिर्च और पीपल) का लेप भी उसी तरह लाभदायक होता है। हिम, कैथका रस, मागधीपिप्पली, मुलहठी और मधु - इनके लेपका प्रयोग दम्पतिके लिये कल्याणकारी होता है। शक्कर मिला हुआ कदम्ब रस और मधु- इसका योनिमें लेप करनेसे भी वशीकरण होता है। सहदेई, महालक्ष्मी, पुत्रजीवी, कृताञ्जलि (लज्जावती) - इन सबका चूर्ण बनाकर सिरपर डाला जाय तो इहलोकके लिये उत्तम वशीकरणका साधन है। त्रिफला और चन्दनका क्वाथ एक प्रस्थ अलग हो और दो कुडव अलग हो, भँगरैया तथा नागकेसरका रस हो, उतनी ही हल्दी, क्षम्बुक, मधु, घीमें पकायी हुई हल्दी और सूखी हल्दी- इन सबका लेप करे तथा बिदारीकंद और जटामांसीके चूर्णमें चीनी मिलाकर उसको खूब मथ दे। फिर दूधके साथ प्रतिदिन पीये। ऐसा करनेवाला पुरुष सैकड़ों स्त्रियोंके साथ सहवासकी शक्ति प्राप्त कर लेता है॥ ८-१६ ॥
गुप्ता, उड़द, तिल, चावल- इन सबका चूर्ण बनाकर दूध और मिश्री मिलाये। पीपल, बाँस और कुशकी जड़, 'वैष्णवी' और 'श्री' नामक ओषधियोंकी जड़ तथा दूर्वा और अश्वगन्धाका मूल-इन सबको पुत्रकी इच्छा रखनेवाली नारी दूधके साथ पीये। कौन्ती, लक्ष्मी, शिवा और धात्री (आँवलेका बीज), लोध्र और वटके अङ्कुरको स्त्री ऋतुकालमें घी और दूधके साथ पीये। इससे उसको पुत्रकी प्राप्ति होती है। पुत्रार्थिनी नारी 'श्री' नामक ओषधिकी जड़ और वटके अङ्करको दूधके साथ पीये। श्री, वटाङ्कर और देवी-इनके रसका नस्य ले और पीये भी। 'श्री' और 'कमल'की जड़को, अश्वत्थ और उत्तरके मूलको दूधके साथ पीये। कपासके फल और पल्लवको दूधमें पीसकर तरल बनाकर पीये। अपामार्गके नूतन पुष्पाग्रको भैंसके दूधके साथ पीये। उपर्युक्त साढ़े पाँच श्लोकोंमें पुत्रप्राप्तिके चार योग बताये गये हैं॥ १७-२१॥
यदि स्त्रीका गर्भ गलित हो जाता हो तो उसे शक्कर, कमलके फूल, कमलगट्टा, लोध, चन्दन और सारिवालता- इनको चावलके पानीमें पीसकर दे या लाजा, यष्टि (मुलहठी), सिता (मिश्री), द्राक्षा, मधु और घी-इन सबका अवलेह बनाकर वह स्त्री चाटे॥ २२-२३॥
आटरूप (अडसा), कलाङ्गली, काकमाची, शिफा (जटामांसी)- इन सबको नाभिके नीचे पीसकर छाप दे तो स्त्री सुखपूर्वक प्रसव कर सकती है ॥ २४ ॥
लाल और सफेद जवाकुसुम, लाल चौता और होंगपत्री पौये। केसर, भटकटैयाकी जड़,गोपी, षष्ठी (साठीका तृण) और उत्पल-इनको बकरीके दूधमें पीसकर तैल मिलाकर खाय तो सिरमें बाल उगते हैं। अगर सिरके बाल झड़ रहे हों तो यह उनको रोकनेका उपाय है॥ २५-२६ ॥
आँवला और भैंगरैयाका एक सेर तैल, एक आढक दूध, षष्ठी और अञ्जनका एक पल तैल- ये सब सिरके बाल, नेत्र और सिरके लिये हितकारक होते हैं॥ २७॥
हल्दी, राजवृक्षकी छाल, चिञ्चा (इमलीका बीज), नमक, लोध और पीली खारी ये गौओंके पेट फूलनेकी बीमारीको तत्काल रोक देते हैं॥ २८ ॥
'ॐ नमो भगवते त्र्यम्बकायोपशमयोपशमय चुलु चुलु मिलि मिलि भिदि भिदि गोमानिनि चक्रिणि हूं फट्। अस्मिन् ग्रामे गोकुलस्य रक्षां कुरु शान्ति कुरु कुरु कुरु ठठठ' ॥ २९-३० ॥
यह गोसमुदायको रक्षाका मन्त्र है। 'घण्टाकर्ण महासेन वीर बड़े बलवान् कहे गये हैं। वे जगदीश्वर महामारीका नाश करनेवाले हैं, अतः मेरी रक्षा करें।' ये दोनों श्लोक और मन्त्र गोरक्षक हैं, इनको लिखकर घरपर टाँग देना चाहिये ॥ ३१ ॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'नाना प्रकारके मन्त्र और औषधोंका कथन' नामक तीन सौ दोवों अध्याय पूरा हुआ॥ ३०२॥
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