अग्नि पुराण तीन सौवाँ अध्याय अध्याय ! Agni Purana 300 Chapter !
अग्नि पुराण तीन सौवाँ अध्याय - ग्रहहृन्मन्त्रादिकम्
अग्निरुवाच
ग्रहापहारमन्त्रादीन् वक्ष्ये ग्रहविमर्दनान् ।
हर्षेच्छाभयशोकादिविरुद्धाशुचिभोजनात् ॥१
गुरुदेवादिकोपाच्च पञ्चोन्मादा भवन्त्यथ ।
त्रिदोषजाः सन्निपाता आगन्तुरिति ते स्मृताः ॥२
देवादयो ग्रहा जाता रुद्रक्रोधादनेकधा ।
सरित्सरस्तडागादौ शैलोपवनसेतुषु ॥३
नदीसङ्गे शून्यगृहे विलद्वार्येकवृक्षके ।
ग्रहा गृह्णन्ति पुंसश्च श्रियः सुप्ताञ्च गर्भिणीम् ॥४
आसन्नपुष्पान्नग्नाञ्च ऋतुस्नानं करोति या ।
अवमानं नृणां वैरं विघ्नं भाग्यविपर्ययः ॥५
देवतागुरुधर्मादिसदाचारादिलङ्घनम् ।
पतनं शैलवृक्षादेर्विधुन्वन्मूर्धजं मुहुः ॥६
रुदन्नृत्यति रक्ताक्षो हूंरूपोऽनुग्रही नरः ।
उद्विग्नः शूलदाहार्तः क्षुत्तृष्णार्तः शिरोर्तिमान् ॥७
देहि दहीति याचेत बलिकामग्रही नरः ।
स्त्रीमालाभोगस्नानेच्छूरतिकामग्रही नरः ॥८
महासुदर्शनो व्योमव्यापी विटपनासिकः।
पातालनारसिंहाद्या चण्डीमन्त्रा ग्रहार्दनाः ॥९
पृश्नीहिङ्गुवचाचक्रशिरीषदयितम्परम् ।
पाशाङ्कुशधरं देवमक्षमालाकपालिनम् ॥१०
खट्टाङ्गाब्जादिशिक्तिञ्च दधानं चतुराननम् ।
अन्तर्वाह्यादिखट्टाङ्गपद्मस्थं रविमण्डले ॥११
आदित्यादियुतं प्रार्च्य उदितेर्केऽर्घ्यकं ददेत् ।
श्वासविषाग्निविप्रकुण्डीहृल्लेखासकलो भृगुः ॥१२
अर्काय भूर्भुवःस्वश्च ज्वालिनीं कुलमुद्गरम् ।
पद्मासनोऽरुणो रक्तवस्त्रसद्युतिविश्वकः ॥१३
उदारः पद्मधृग्दोर्भ्यां सौम्यः सर्वाङ्गभूषितः ।
रक्ता हृदादयः सौम्या वरदाः पद्मधारिणः ॥१४
विद्युत्पुञ्जनिभं वस्त्रं श्वेतः सौम्योऽरुणः कुजः ।
बुधस्तद्वद्गुरुः पीतः शुक्लः शुक्रः शनैश्चरः ॥१५
कृष्णाङ्गारनिभो राहुर्धूम्रः केतुरुदाहृतः ।
वामोरुवामहस्तान्ते दक्षहस्ताभयप्रदा ॥१६
स्वनामाद्यन्तु वीजास्ते हस्तौ संशोध्य चास्त्रतः ।
अङ्गुष्ठादौ तले नेत्रे हृदाद्यं व्यापकं न्यसेत् ॥१७
मूलवीजैस्त्रिभिः प्राणध्यायकं न्यस्य साङ्गकम् ।
प्रक्षाल्य पात्रमस्त्रेण मूलेनापूर्य वारिणा ॥१८
गन्धपुष्पाक्षतं न्यस्य दूर्वामर्घ्यञ्च मन्त्रयेत् ।
आत्मानं तेन सम्प्रोक्ष्य पूजाद्रव्यञ्च वै ध्रुवम् ॥१९
प्रभूतं विमलं सारमाराध्यं परमं सुखम् ।
पीठाद्यान् कल्पयेदेतान् हृदा मध्ये विदिक्षु च ॥२०
पीठोपरि हृदा मध्ये दिक्षु चैव विदिक्षु च ।
पीठोपरि हृदाब्जञ्च केशवेष्वष्टशक्तयः ॥२१
वां दीप्तां वीं तथा सुक्ष्मां वुञ्जयां वूञ्च भाद्रिकां ।
वें विभूतीं वैं विमलां वोमसिघातविद्युताम् ॥२२
वौं सर्वतोमुखीं वं पीठं वः प्रार्च्य रविं यजेत् ।
आवाह्य दद्यात्पाद्यादि हृत्षडङ्गेन सुव्रत ॥२३
खकारौ दण्डिनौ चण्डौ मज्जा दशनसंयुता ।
मांसदीर्घा जरद्वायुहृदैतत्सर्वदं रवेः ॥२४
वह्नीशरक्षो मरुतां किक्षु पूज्या हृदादयः ।
स्वमन्त्रैः कर्णिकान्तस्था दिक्ष्वस्त्रं पुरतः सदृक् ॥२५
पूर्वादिदिक्षु सम्पूज्याश्चन्द्रज्ञगुरुभार्गवाः ।
नस्याञ्जनादि कुर्वीत साजमूत्रैर्ग्रहापहैः ॥२६
पाठापथ्यावचाशिग्रुसिन्धूव्योषैः पृथक्फलैः ।
अजाक्षीराढके पक्वसर्पिः सर्वग्रहान् हरेत् ॥२७
वृश्चिकालीफलीकुष्ठं लवणानि च शार्ङ्गकम् ।
अपस्मारविनाशाय तज्जलं त्वभिभोजयेत् ॥२८
विदारीकुशकाशेक्षुक्वाथजं पाययेत्पयः ।
द्रोणे सयष्टिकुष्माण्डरसे सर्पिश्च संस्कृतौ ॥२९
पञ्चगव्यं घृतं तद्वद्योगं ज्वरहरं शृणु ।
ओं भस्मास्त्राय विद्महे एकदंष्ट्राय धीमहि तन्नो ज्वरः प्रचोदयात्
कृष्णोषणनिशारास्नाद्राक्षातैलं गुडं लिहेत् ॥३०
श्वासवानथ वा भार्गीं सयष्टिमधुसर्पिषा ।
पाठा तिक्ता कणा भार्गी अथवा मधुना लिहेत् ॥३१
धात्री विश्वसिता कृष्णा मुस्ता खर्जूरमागधी ।
पिवरश्चेति हिक्काघ्नं तत्त्रयं मधुना लिहेत् ॥३२
कामली जीरमाण्डूकीनिशाधात्रीरसं पिवेत् ।
व्योषपद्मकत्रिफलाकिडङ्गदेवदारवः ।
रास्नाचूर्णं समं खण्डैर्जग्ध्वा कासहरं ध्रुवम् ॥३३
इत्याग्नेये महापुराणे ग्रहहृन्मन्त्रादिकं नाम नवनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥
अग्नि पुराण - तीन सौवाँ अध्याय अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 300 Chapter!-In Hindi
तीन सौवाँ अध्याय - ग्रहबाधा एवं रोगों को हरने वाले मन्त्र तथा औषध आदि का कथन
अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! अब मैं ग्रहोंके उपहार और मन्त्र आदिका वर्णन करूँगा, जो ग्रहोंको शान्त करनेवाले हैं। हर्ष, इच्छा, भय और शोकादिसे, प्रकृतिके विरुद्ध तथा अपवित्र भोजनसे और गुरु एवं देवताके कोपसे मनुष्यको पाँच प्रकारके उन्माद होते हैं। वे वातज, कफज, पित्तज, सन्निपातज और आगन्तुक कहे जाते हैं। भगवान् रुद्रके क्रोधसे अनेक प्रकारके देवादि ग्रह उत्पन्न हुए। वे ग्रह नदी, तालाब, पोखरे, पर्वत, उपवन, पुल, नदी-संगम, शून्य गृह, बिलद्वार और एकान्तवर्ती इकले वृक्षपर रहते और वहाँ जानेवाले पुरुषों को पकड़ते हैं। इसके सिवा वे सोयी हुई गर्भवती स्त्रीको, जिसका ऋतुकाल निकट है उस नारीको, नंगी औरत को तथा जो ऋतुस्नान कर रही हो, ऐसी स्त्रीको भी पकड़ते हैं। मनुष्योंके अपमान, वैर, विघ्न, भाग्यमें उलट-फेर इन ग्रहोंसे ही होते हैं। जो मनुष्य देवता, गुरु, धर्मादि तथा सदाचार आदिका उल्लङ्घन करता है, पर्वत और वृक्ष आदिसे गिरता है, अपने केशोंको बार-बार नोचता है तथा लाल आँखें किये रुदन और नर्तन करता है, उसको 'रूप' ग्रहविशेषसे पीड़ित जानना चाहिये। जो मानव उद्वेगयुक्त, दाह और शूलसे पीड़ित, भूख-प्याससे व्याकुल और शिरोरोगसे आतुर होता और 'मुझे दो, मुझे दो-यों कहकर याचना करता है, उसे 'बलिकामी' ग्रहसे पीड़ित जाने। स्त्री, माला, स्रान और सम्भोगकी इच्छासे युक्त मनुष्यको 'रतिकामी' ग्रहसे गृहीत समझना चाहिये ॥ १-८ ॥
व्योमव्यापी, महासुदर्शनमन्त्र, विटपनासिक, पातालनारसिंहादि मन्त्र तथा चण्डीमन्त्र- ये ग्रहोंका मर्दन ग्रहपीड़ाका निवारण करनेवाले हैं ॥ ९॥
(अब ग्रहपीडानाशन भगवान् सूर्यकी आराधना बतलाते हैं) सूर्यदेव अपने दाहिने हाथोंमें पाश, अङ्कुश, अक्षमाला और कपाल तथा बायें हाथोंमें खट्वाङ्ग, कमल, चक्र और शक्ति धारण करते हैं। उनके चार मुख हैं। वे आठ भुजा और बारह नेत्र धारण करते हैं। सूर्यमण्डलके भीतर कमलके आसनपर विराजमान हैं और आदित्यादि देवगणोंसे घिरे हुए हैं। इस प्रकार उनका ध्यान और पूजन करके सूर्योदयकालमें उन्हें अर्घ्य दे। अर्घ्यदानका मन्त्र इस प्रकार है-श्वास (य), विष (ओं), अग्रिमान् रण्डी (र्ओं), हल्लेखा (हीं)- ये संकेताक्षर हैं। इन सबको जोड़कर शुद्ध मन्त्र हुआ) 'याँ रीं ऐं ह्रीं कलशार्कायभूर्भुवः स्वरों ज्वालिनीकुलमुद्धर।' ॥ १०-१२ ॥
ग्रहोंका ध्यान
सूर्यदेव कमलके आसनपर विराजमान हैं। उनकी अङ्गकान्ति अरुण है। वे रक्तवस्त्र धारण करते हैं। उनका मण्डल ज्योतिर्मय है। वे उदार स्वभावके हैं और दोनों हाथोंमें कमल धारण करते हैं। उनको प्रकृति सौम्य है तथा सारे अङ्ग दिव्य आभूषणोंसे विभूषित हैं। सूर्य आदि सभी ग्रह सौम्य, बलदायक तथा कमलधारी हैं। उन सबका वस्त्र विद्युत्-पुञ्जके समान प्रकाशमान है। चन्द्रमा श्वेत, मङ्गल और बुध लाल, बृहस्पति पीतवर्ण, शुक्र शुक्लवर्ण, शनैश्वर काले कोयलेके समान कृष्ण तथा राहु और केतु धूमके समान वर्णवाले बताये गये हैं। इन सबके बायें हाथ बायीं जाँघपर स्थित हैं और दाहिने हाथमें अभयमुद्रा शोभा पाती है। ग्रहोंके अपने-अपने नामके आदि अक्षर बिन्दुयुक्त होकर बीजमन्त्र होते हैं। 'फट्' का उच्चारण करके दोनों हाथोंका संशोधन करे। फिर अङ्गुष्ठसे लेकर करतलपर्यन्त करन्यास और नेत्ररहित हृदयादि पञ्चाङ्गन्यास करके भानुके मूल बौजस्वरूप तीन अक्षरों (ह्रां, ह्रीं, सः) द्वारा व्यापकन्यास करे। उसका क्रम इस प्रकार है- मूलाधारचक्रसे पादाग्रपर्यन्त प्रथम बीजका, कण्ठसे मूलाधारपर्यन्त द्वितीय बीजका और मूर्धासे लेकर कण्ठपर्यन्त तृतीय बीजका न्यास करे। इस प्रकार अङ्गन्याससहित व्यापकन्यासका सम्पादन करके अर्घ्यपात्रको अस्व मन्त्रसे प्रक्षालित करे और पूर्वोक्त मूलमन्त्रका उच्चारण करके उस पात्रको जलसे भर दे। फिर उसमें गन्ध, पुष्प, अक्षत और दूर्वा डालकर पुनः उसे अभिमन्त्रित करे। उस अभिमन्त्रित जलसे अपना और पूजाद्रव्यका अवश्य ही प्रोक्षण करे ॥ १३-१९ ॥
तत्पश्चात् योगपीठकी कल्पना करके उस पीठके पायोंके रूपमें 'प्रभूत' आदिकी कल्पना करे। वे क्रमशः इस प्रकार हैं- प्रभूत, विमल, सार, आराध्य और परमसुख। आग्नेयादि चार कोणोंमें और मध्यभागमें इनके नामके अन्तमें 'नमः' पद जोड़कर इनका आवाहन-पूजन करे। योगपीठके ऊपर हृदयकमलमें तथा दिशा- विदिशाओंमें दीप्ता आदि शक्तियोंकी स्थापना करे। पीठके ऊपरी भागमें हृदयकमलको स्थापित करके उसके केसरोंमें आठ शक्तियोंकी पूजा करनी चाहिये। 'रां दीप्तायै नमः पूर्वस्याम्। रीं सूक्ष्मायै नमः आग्रेयकेसरे। रूं जयायै नमः दक्षिणकेसरे। रें भद्रायै नमः नैर्ऋत्यकेसरे। रैं विभूत्यै नमः पश्चिमकेसरे। रीं विमलायै नमः वायव्यकेसरे। रौं अमोघायै नमः उत्तरकेसरे। रं विद्युतायै नमः ईशानकेसरे। रः सर्वतोमुख्यै नमः मध्ये।' इस प्रकार शक्तियोंकी अर्चना करके 'ॐ ब्रह्मविष्णुशिवात्मकाय सौराय योगपीठाय नमः।' इस मन्त्रसे समस्त पीठकी पूजा करे। सुव्रत। तत्पश्चात् रवि आदि मूर्तियोंका आवाहन करके उन्हें पाद्यादि समर्पित करे और क्रमशः हृदादि षडङ्गन्यासपूर्वक पूजन करे। 'खं कान्तौ' इत्यादि संकेतसे 'खं खखोल्काय नमः' यह मन्त्र प्रकट होता है। (यथा 'खं' मन्त्रका स्वरूप है- कान्त 'ख' है, दण्डिनी- 'ख' है, चण्ड- 'उकार' है (संधि करनेपर 'खो' हुआ) मज्जादशनसंयुता मांसा 'ल' दीर्घा दीर्घस्वर आकारसे युक्त जल 'क' अर्थात् 'का' तथा वायु 'यकार'। इन सबके अन्तमें हृद् नमः) इसके उच्चारणपूर्वक 'आदित्यमूर्ति परिकल्पयामि, रविमूर्ति परिकल्पयामि, भानुमूर्ति परिकल्पयामि भास्करमूर्ति परिकल्पयामि, सूर्यमूर्ति परिकल्पयामि' -यों कहना चाहिये। इन मूर्तियोंक पूजनका मन्त्र इस प्रकार है-'ॐ आदित्याय नमः। एं रवये नमः। ॐ भानवे नमः। ई भास्कराय नमः। अं सूर्याय नमः।' अग्निकोण, नैऋत्यकोण, ईशान कोण और वायव्यकोण- इन चार कोणोंमें तथा मध्यमें हृदादि पाँच अङ्गोंकी उनके नाम-मन्त्रोंसे पूजा करनी चाहिये। वे कर्णिकाके भीतर ही उक्त दिशाओंमें पूजनीय हैं। अस्त्रकी पूजा अपने सामनेकी दिशामें करनी चाहिये। पूर्वादि दिशाओंमें क्रमशः चन्द्रमा, बुध, गुरु और शुक्र पूजनीय हैं तथा आग्नेय आदि कोणोंमें मङ्गल, शनैश्चर, राहु और केतुकी पूजा करनी चाहिये ॥ २०-२५॥
पृश्निपर्णी, हींग, बच, चक्र (पित्तपापड़ा), शिरीष, लहसुन और आमय इन ओषधियोंको बकरेके मूत्रमें पीसकर अञ्जन और नस्य तैयार कर ले। उस अञ्जन और नस्यके रूपमें उक्त औषधोंका उपयोग किया जाय तो वे ग्रहबाधाका निवारण करनेवाले होते हैं। पाठा, पथ्या (हरै), वचा, शियु (सहिजन), सिन्धु (सेंधा नमक), व्योष (त्रिकटु) इन औषधोंको पृथक् पृथक् एक-एक पल लेकर उन्हें बकरीके एक आढ़क दूधमें पका ले और उस दूधसे घी निकाल ले। वह घी समस्त ग्रह बाधाओंको हर लेता है। वृश्चिकाली (बिच्छू घास), फला, कूट, सभी तरहके नमक तथा शार्ङ्गक-इनको जलमें पका ले। उस जलका अपस्मार रोग (मिरगी) के विनाशके लिये उपयोग करे। विदारीकंद, कुश, काश तथा ईखके क्वाथसे सिद्ध किया हुआ दूध रोगीको पिलाये। जेठी- मधु और भथएके एक दोन रसमें घीको पकाकर दे। अथवा पञ्चगव्य घीका उस रोगमें प्रयोग करे। अब ज्वर-निवारक उपाय सुनो ॥ २६-३०॥
ज्वर-गायत्री
ॐ भस्मास्त्राय विद्महे। एकदंष्ट्राय धीमहि। तन्नो ज्वरः प्रचोदयात् ॥ ३१ ॥ इस मन्त्र के जप से ज्वर दूर होता है।) श्वास (दमा) का रोगी कृष्णोषण (काली मिर्च), हल्दी, रास्ना, द्राक्षा और तिलका तैल एवं गुड़का आस्वादन करे। अथवा वह रोगी जेठीमधु (मुलहठी) और घीके साथ भार्गीका सेवन करे या पाठा, तिक्ता (कुटकी), कर्णा (पिप्पली) तथा भार्गीको मधुके साथ चाटे। धात्री (आँवला), विश्वा (सोंठ), सिता (मिश्री), कृष्णा (पिप्पली), मुस्ता (नागरमोथा), खजूर मागधी (खजूर और पीपल) तथा पोवरा (शतावर)- ये औषध हिक्का (हिचकी) दूर करनेवाले हैं। उपर्युक्त तीनों योग मधुके साथ लेने चाहिये। कामल- रोगसे ग्रस्त मनुष्यको जीरा, माण्डूकपर्णी, हल्दी और आँवलेका रस पिलाना चाहिये। त्रिकटु, पद्मकाष्ठ, त्रिफला, वायविडङ्ग, देवदारु तथा राख्स्त्रा इन सबको सममात्रामें लेकर चूर्ण बना ले और खाँड मिलाकर उसे खाये। इस औषधसे अवश्य ही खाँसी दूर हो जाती है॥ ३२-३५॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'ग्रहबाधाहारी मन्त्र तथा औषधका कथन' नामक तीन सौवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३००॥
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