अग्नि पुराण दो सौ अट्ठानबेवाँ अध्याय ! Agni Purana 298 Chapter !
अग्नि पुराण 298 अध्याय - गोनसादि चिकित्सा
अग्निरुवाच
गोनसादिचिकित्साञ्च वशिष्ठ श्रृणु वच्मि ते ।
ह्रीँ ह्रीँ अमलपक्षि स्वाहा ।।
ताम्बूलखादनान्मन्त्री हरेन्मण्डलिनो विषं ।। १ ।।
लशुनं रामठफ्लं कुष्ठाग्निव्योषकं विषे ।
स्नुहीक्षीरं गव्यघृतं पक्षं पीत्वाऽहिजे विषे ।। २ ।।
अथ राजिलदष्टे च पेया कृष्णा ससैन्धवा ।
आज्यक्षौद्रशकृत्तोयं पुरीतत्या विषापहं ।। ३ ।।
सकृष्णाखण्डदुग्धाज्यं पातव्यन्तेन माक्षिकं ।
व्योषं पिच्छं विडालास्थि नकुलाङ्गरुहैः समैः ।। ४ ।।
चूर्णितैर्म्मेषदुग्धाक्तैर्धूपः सर्वविषापहः ।
रोमनिर्गुण्डिकाकोलवर्णैर्वा लशुनं समं ।। ५ ।।
मुनिपत्रैः कृतस्वेदं दष्टं काञ्जिकपाचितैः ।
मूषिकाः षोडश प्रोक्ता रसङ्कार्पासकजम्पिवेत् ।। ६ ।।
सतैलं मूषिकार्त्तिघ्नं फलिनीकुसुमन्तथा ।
सनागरगुडम्भक्ष्यं तद्विषारोचकापहं ।। ७ ।।
चिकित्सा विंशतिर्भूता लूताविषहरो गणः ।
पद्मकं पाटली कुष्ठं नतमूशीरचन्दनं ।। ८ ।।
निर्गुण्डी शारिवा शेलु लूतार्त्तं सेचयेज्जलैः ।
गुञ्जानिर्गुण्डिकङ्कोलपर्णं शुण्ठी निशाद्वयं ।। ९ ।।
करञ्जास्थि च तत्पङ्कैः वृश्चिकार्त्तिहरं श्रृणु ।
मञ्जिष्ठा व्योषपुष्पं शिरीषकौमुदं ।। १० ।।
संयोज्याश्चतुरो योगा लेपादौ वृश्चिकापहाः ।।
ओं नमो भगवते रुद्राय चिवि छिन्द किरि
भिन्द खङ्गेन छेदय शुलेन भेदय चक्रेण दारय
ओं ह्रूँ फट् ।
मन्त्रेण मन्त्रितो देयो गर्द्धभादीन्निकृन्तति ।। ११ ।।
त्रिफलोशीरमुस्ताम्बुमांसीपद्मकचन्दनं ।
अजाक्षीरेण पानादेर्गर्द्धभादेर्विषं हरेत् ।। १२ ।।
हरेत् शिरीषपञ्चाङ्गं व्योषं शतपदीविषं ।
सकन्धरं शिरीषास्थि हरेदुन्दूरजं विषं ।। १३ ।।
व्योषं ससर्पिः पिण्डीतमूलमस्य विषं हरेत् ।
क्षारव्योषवचाहिङ्गुविडङ्गं सैन्धवन्नतं ।। १४ ।।
अम्बष्ठातिबलाकुष्ठं सर्वकीटविषं हरेत् ।
यष्टिव्योषगुडक्षीरयोगाः शुनो विषापहः ।। १५ ।।
ओं सुभद्रायै नमः ओं सुप्रभायै नमः ।
यान्यौषधानि गृह्यन्ते विदानेन विना जनैः ।। १६ ।।
तेषां वीजन्त्वया ग्राह्यमिति ब्रह्माऽव्रवीच्च नाम् ।
ताम्प्रणम्योषधीम्पश्चात् यवान् प्रक्षिप्य मुष्टिना ।। १७ ।।
दश जप्त्वा मन्त्रमिदं नमस्कुर्य्यात्तदौषधं ।
त्वामुद्धराम्यूद्र्ध्वनेत्रामनेनैव च भक्षयेत् ।। १८ ।।
नमः पुरुषसिंहाय नमो गोपालकाय च ।
आत्मनैवाभिजानाति रणे कृष्णपराजयं ।। १९ ।।
एतेन सत्यवाक्येन अगदो मेऽस्तु सिध्यतु ।।
नमो वैदूर्य्यमाते तन्न रक्ष मां सर्वविषेभ्यो गौरि गान्धारि
चाण्डालि मातङ्गिनि स्वाहा हरिमाये ।
औषधादौ प्रयोक्तव्यो मन्त्रोऽयं स्थावरे विषे ।। २० ।।
भुक्तमात्रे स्थिते ज्वाले पद्मं शीताम्बुसेवितं ।
पाययेत्सघृतं क्षौद्रं विषञ्चेत्तदनन्तरं ।। २१ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये गोनसादिचिकित्सा नाम अष्टनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।
अग्नि पुराण - दो सौ अट्ठानबेवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 298 Chapter !- In Hindi
दो सौ अट्ठानबेवाँ अध्याय - गोनसादि-चिकित्सा
अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! अब मैं तुम्हारे सम्मुख गोनस आदि जातिके सर्पों के विषकी चिकित्सा का वर्णन करता हूँ, ध्यान देकर सुनो। 'ॐ ह्रां ह्रीं अमलपक्षि स्वाहा'- इस मन्त्रसे अभिमन्त्रित ताम्बूलके प्रयोग से मन्त्रवेत्ता मण्डली (गोनस) सर्पके विषका हरण करता है। लहसुन अङ्कोल, त्रिफला, कूट, वच और त्रिकटु- इनका सर्पविषमें पान करे। सर्पविषमें खुहोदुग्ध, गोदुग्ध, गोदधि और गोमूत्र में पकाया हुआ गोघृत पान करना चाहिये। राजिलजातीय सर्पके हँस लेनेपर सैन्धवलवण, पीपल, घृत, मधु, गोमयरस और साहीकी आँतका भक्षण करना चाहिये। सर्पदष्ट मनुष्यको पीपल, शर्करा, दुग्ध, घृत और मधुका पान करना चाहिये। त्रिकटु, मयूरपिच्छ, विडालकी अस्थि और नेवले का रोम-इन सबको समान भाग लेकर चूर्ण बना ले। फिर भेड़के दूधमें भिगोकर उसकी धूप देनेसे सभी प्रकारके विषोंका विनाश होता है। पाठा, निर्गुण्डी और अङ्कोलके पत्रको समान भागमें लेकर तथा सबके समान लहसुन लेकर बनाया हुआ धूप भी विषनाशक है। अगस्त्यके पत्तोंको काँजीमें पकाकर उसकी भापसे डसे हुए स्थानको सेंका जाय, इससे विष उतर जाता है॥ १-७॥ मूषक सोलह प्रकारके कहे गये हैं। कपासका रस तेलके साथ पान करनेसे 'मूषक-विष'का नाश होता है। फलिनी (फलिहारी) के फूलोंका सौंठ और गुड़के साथ भक्षण करना चाहिये। यह विषरोगनाशक है। लूताएँ (मकड़ी) बीस प्रकारकी कही गयी हैं। इनके विषकी सावधानीसे चिकित्सा करनी चाहिये। पद्म, पद्माक, काष्ठ, पाटला, कूट, तगर, नेत्रबाला, खस, चन्दन, निर्गुण्डी, सारिवा और शेलु (लिसोडा)- ये लूता-विषहारीगण हैं। गुञ्ज, निर्गुण्डी और अङ्कोलके पत्र, सोंठ, हल्दी, दारुहल्दी, करञ्जकी छाल इनको पकाकर 'लुताविष 'से पीड़ित मनुष्यका पूर्वोक्त ओषधियोंसे युक्त जलके द्वारा सेचन करे ॥ ८-१३॥
अब 'वृश्चिक विष'का अपहरण करने वाली ओषधियों को सुनो। मञ्जिष्ठा, चन्दन, त्रिकटु तथा शिरीष, कुमुदके पुष्प- इन चारों योगोंको एकत्रित करना चाहिये। ये योग लेप आदि करनेपर वृश्चिक-विषका विनाश करते हैं। 'ॐ नमो भगवते रुद्राय चिवि विवि च्छिन्द च्छिन्द किरि किरि भिन्द भिन्द खड्गेन च्छेदय च्छेदय शूलेन भेदय भेदय चक्रेण दारय दारय ॐ हूं फट् ।' इस मन्त्रसे अभिमन्त्रित अगद (औषध) विषार्त मनुष्यको दे। यह गर्दभ आदिके विषका विनाश करता है। त्रिफला, खस, नागरमोथा, नेत्रबाला, जटामांसी, पद्मक और चन्दन - इनको बकरीके दूधके साथ पिलानेपर गर्दभ आदिके विषोंका नाश होता है। शिरीषका पञ्चाङ्ग और त्रिकटु गोजरके विषका हरण करता है। खुही- दुग्धके साथ सिरसकी छाल 'उन्दूरज दर्दुर' (मेढक) के विषका शमन करती है। त्रिकटु और तगरमूल घृतके साथ प्रयुक्त होनेपर 'मत्स्यविष'का नाश करते हैं। यवक्षार, त्रिकटु, वच, हींग, बायबिडंग, सैन्धवलवण, तगर, पाठा, अतिबला और कूट ये सभी प्रकारके 'कीट-विषों' का विनाश करते हैं। मुलहठी, त्रिकटु, गुड़ और दुग्धका इनका योग 'पागल कुत्ते के विषका हरण करता है॥ १४-१७॥
'ॐ सुभद्रायै नमः, ॐ सुप्रभायै नमः'- यह ओषधि उखाड़नेका मन्त्र है। भगवान् ब्रह्माने सुप्रभादेवीको आदेश दे रखा है कि मानवगण जो ओषधियाँ बिना विधि-विधानके ग्रहण करते हैं, तुम उन ओषधियोंका प्रभाव ग्रहण करो। इसलिये पहले सुप्रभादेवीको नमस्कार करके ओषधिके चारों ओर मुट्ठीसे जौ बिखेरकर पूर्वोक्त मन्त्र का दस बार जप करके ओषधिको नमस्कार करे और कहे- 'तुम ऊर्ध्वनेत्रा हो; मैं तुम्हें उखाड़ता हूँ।' इस विधिसे ओषधि को उखाड़े और निम्नाङ्कित मन्त्र से उस का भक्षण करे-
नमः पुरुषसिंहाय नमो गोपालकाय च।
आत्मनैवाभिजानाति रणे कृष्णः पराजयम्।
अनेन सत्यवाक्येन अगदो मेऽस्तु सिद्धयतु ॥
'पुरुषसिंह भगवान् गोपाल को बारंबार नमस्कार है। युद्धमें अपनी पराजयकी बात श्रीकृष्ण ही जानते हैं- इस सत्य वाक्यके प्रभावसे यह अगद मुझे सिद्धिप्रद हो।' स्थावर विषकी ओषधि आदिमें निम्नलिखित गज-चिकित्सक आदिको दक्षिणा देनी चाहिये। तत्पश्चात् कालज्ञ विद्वान् गजराजपर आरूढ़ होकर उसके कानमें निम्नाङ्कित मन्त्र कहे। उस नागराजके मृत्युको प्राप्त होनेपर शान्ति करके दूसरे हाथीके कान में मन्त्र का जप करे ॥५- १५॥
"महाराजने तुमको 'श्रीगज 'के पदपर नियुक्त किया है। अबसे तुम इस राजाके लिये 'गजाग्रणी' (गजोंके अगुआ) हो। ये नरेश आजसे गन्ध, माल्य एवं उत्तम अक्षतोंद्वारा तुम्हारा पूजन करेंगे। उनकी आज्ञासे प्रजाजन भी सदा तुम्हारा अर्चन करेंगे। तुमको युद्धभूमि, मार्ग एवं गृहमें महाराजकी सदा रक्षा करनी चाहिये। नागराज। तिर्यग्भाव (टेढ़ापन) को छोड़कर अपने दिव्यभावका स्मरण करो। पूर्वकालमें देवासुर संग्राममें देवताओंने ऐरावतपुत्र श्रीमान् अरिष्ट नागको 'श्रीगज'का पद प्रदान किया था। श्री गज का वह सम्पूर्ण तेज तुम्हारे शरीर में प्रतिष्ठित है। नागेन्द्र। तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारा अन्तर्निहित दिव्यभावसम्पन्न तेज उद्बुद्ध हो उठे। तुम रणाङ्गणमें राजा की रक्षा करो" ॥ १६-२० ॥
राजा पूर्वोक्त अभिषिक्त गजराज पर शुभ मुहूर्तमें आरोहण करे। शस्त्रधारी श्रेष्ठ वीर उसका अनुगमन करें। राजा हस्तिशालामें भूमिपर अङ्कित कमल के बहिर्भाग में दिक्पालों का पूजन करे। केसर के स्थान पर महाबली नागराज, भूदेवी और सरस्वतीका यजन करे। मध्यभागमें गन्ध, पुष्प और चन्दनसे डिण्डिम की पूजा एवं हवन करके ब्राह्मणोंको रसपूर्ण कलश प्रदान करे। पुनः गजाध्यक्ष, गजरक्षक और ज्यौतिषी का सत्कार करे। तदनन्तर, डिण्डिम गजाध्यक्ष को प्रदान करे। वह भी इस को बजावे। गजाध्यक्ष नागराज के जघनप्रदेशपर आरूढ़ होकर शुभ एवं गम्भीर स्वरमें डिण्डिमवादन करे॥ २१-२४॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'गज-शान्तिका कथन' नामक दो सौ इक्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २९९ ॥
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