अग्नि पुराण दो सौ सत्तानबेवाँ अध्याय ! Agni Purana 297 Chapter !

अग्नि पुराण दो सौ सत्तानबेवाँ अध्याय ! Agni Purana 297 Chapter !

अग्नि पुराण 297 अध्याय - विषहृन्मन्त्रौषधम्


अग्निरुवाच

ओं नमो भगवते रुद्राय छिन्द विषं ज्वलितपरशुपाणये च ।
नमो भगवते पक्षिरुद्राय दष्टकं उत्थापय दष्टकं कम्पय
जल्पय सर्प्पदष्टमुत्थापय लल बन्व मोचय
वररुद्र गच्छ बध त्रुट वुक भीषय मुष्टिना  संहर विषं ठ ठ ।
पक्षिररुद्रेण ह विषं नाशमायाति मन्त्रणात् ।।

ओं नमो भगवते रुदज्र नाशय विषं स्थावरजङ्गमं
कृत्रिमाकृत्रिमविषमुपविषं नाशय नानाविषं दष्टकविषं
नाशय धम दम वम मेघान्धकारधाराकर्षर्निर्विषयीभव
संहर गच्छ आवेशय विषोत्थापनरूपं मन्त्रान्ताद्विषधारणं
ओं क्षिप ओं क्षिप स्वाहा । ओं ह्राँ ह्रीँ खीँ सः ठन्द्रौँ ह्रीँ ठः ।
जपादिना साधितस्तु सर्पान् बध्नाति नित्यशः ।। १ ।।

एकद्वित्रिचतुर्वीजः कृष्णचक्राङ्गपञ्चकः ।
गोपीजनवल्लभाय स्वाहा सर्वार्थसाधकः ।। २ ।।

ओं नमो भगवते रुद्राय प्रेताधिपतये गुत्त्व गर्ज्ज भ्रामय
मुञ्च मुह्य कट आविश सुवर्णपतङ्ग रुद्रो ज्ञापयति ठ ।
पातालक्षोभमन्त्रोयं मन्त्रणाद्विषनाशनः ।
दंशकाहिदंशे सद्यो दष्टः काष्ठशिलादिना ।। ३ ।।

विषशान्त्यै दहेद्दंशं ज्वालकोकनदादिना ।
शिरीषवीजपुष्पार्कक्षीरवीजकटुत्रयं ।। ४ ।।

विषं विनाशयेत् पानलेपनेनाञ्जनादिना ।
शिरिषपुष्पस्य रसभावितं मरिचं सितं ।। ५ ।।

पाननस्याञ्चनाद्यैश्च विषं हन्यान्न संशयः ।
कोषातकीवचाहिङ्गुशिरीषार्कपयोयुतं ।। ६ ।।

कुटुत्रयं समेषाम्बो हरेन्नस्यादिना विषं ।
रामठेक्ष्वाकुशर्वाङ्गचूर्णं नस्याद्विषापहं ।। ७ ।।

इन्द्रबलाग्निकन्द्रोणं तुलसी देविका सहा ।
तद्रसाक्तं त्रिकटुकं चूर्णम्भक्ष्यविषापहं ।। ८ ।।

पञ्चाङ्गं कृष्णपञ्चम्यां शिरीषस्य विषापहं ।। ९ ।।

इत्यादिमहापुराणए आग्नेये विषहृन्मन्त्रौषधं नाम सप्तनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।

अग्नि पुराण - दो सौ सत्तानबेवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 297 Chapter!-In Hindi

दो सौ सत्तानबेवाँ अध्याय - विषहारी मन्त्र तथा औषध

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ ! ॐ नमो भगवते रुद्राय च्छिन्द-च्छिन्द विषं ज्वलितपरशुपाणये स्वाहा।' इस मन्त्रसे और 'ॐ नमो भगवते पक्षिरुद्राय दष्टकमुत्थापयोत्थापय, दष्टकं कम्पय कम्पय जल्पय जल्पय सर्पदष्टमुत्थापयोत्थापय लल लल बन्ध बन्ध मोचय मोचय वररुन्द्र गच्छ गच्छ वध वध त्रुट त्रुट बुक वुक भीषय भीषय मुष्टिना विषं संहर संहर ठ ठ।' इस 'पक्षिरुद्र मन्त्र 'से सर्पदष्ट मनुष्य को अभिमन्त्रित करनेपर उस के विषका नाश हो जाता है। ॐ नमो भगवते रुद्र नाशय विषं स्थावरजङ्गमं कृत्रिमाकृत्रिमं विषमुपविषं नाशय नानाविषं दष्टकविषं नाशय धम धम दम दम वम वम मेधान्धकारधारावर्षकर्ष निर्विषीभव संहर संहर गच्छ गच्छ आवेशय आवेशय विषोत्थापनरूपं मन्त्राद् विषधारणम्' ॐ लिप ॐ क्षिप स्वाहा ॐ ह्रां ह्रीं खीं सः ठं द्रीं ह्रीं ठः।' यह मन्त्र जप आदिके द्वारा सिद्ध होनेपर सदैव सौँको बाँध लेता है। 'गोपीजनवल्लभाय स्वाहा' यह मन्त्र सम्पूर्ण अभीष्ट अर्थोंको सिद्ध करनेवाला है। इसमें आदिके एक, दो, तीन और चौथा अक्षर बीजके रूपमें होगा। इससे हृदय, सिर, शिखा और कवच का न्यास होगा। फिर 'कृष्णचक्राय अस्वाय फट्' बोलनेसे पञ्चाङ्गन्यासकी क्रिया पूरी होगी। 'ॐ नमो भगवते रुद्राय प्रेताधिपतये हुलु हुलु गर्ज गर्ज नागान् भ्रामय भ्रामय मुञ्च मुञ्च मोहय मोहय कट्ट कट्ट आविश आविश सुवर्णपतङ्ग रुद्रो ज्ञापयति स्वाहा ॥ १-५॥

यह 'पातालक्षोभ मन्त्र' है। इस के द्वारा रोगी को अभिमन्त्रित करने से यह उसके लिये विषनाशक होता है। दंशक सर्पके डेंस लेनेपर जलते काष्ठ, तप्त शिला, आगकी ज्वाला अथवा गरम कोकनद (कमल) आदिके द्वारा दंश- स्थानको जला दे-सेंक देः इससे विषका उपशमन होता है। शिरीषवृक्षके बीज और पुष्प, आकके दूध और बीज एवं सोंठ, मिर्च तथा पीपल- ये पान, लेपन और अञ्जन आदिके द्वारा विषका नाश करते हैं। शिरीष पुष्पके रससे भावित सफेद मिर्च पान, नस्य और अञ्जन आदिके द्वारा विषका उपसंहार करती है, इस में संशय नहीं है। कड़वी तोरई, वच, हींग तथा शिरीष और आकका दूध, त्रिकटु और मेषाम्भ- इनका नस्य आदि के रूप में प्रयोग होने पर ये विषका हरण करते हैं। अङ्कोल और कड़वी तुम्बीके सर्वाङ्गके चूर्णसे नस्य लेनेसे विषका अपहरण होता है। इन्द्रायण, चितंक, द्रोण (गूमा), तुलसी, धतूरा और सहा- इनके रसमें त्रिकटुके चूर्णको भिगोकर खानेसे विषका नाश होता है। कृष्णपक्षको पञ्चमीको लाया हुआ शिरीषका पञ्चाङ्ग विषहारी है॥ ६-१२॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'विषहारी मन्त्रौषधका कथन' नामक दो सौ सत्तानवेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २९७॥

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