अग्नि पुराण दो सौ छियानबेवाँ अध्याय ! Agni Purana 296 Chapter !

अग्नि पुराण दो सौ छियानबेवाँ अध्याय ! Agni Purana 296 Chapter !

अग्नि पुराण 296 अध्याय ! - पञ्चाह्गरुद्रविधानम्

अग्निरुवाच

वक्ष्ये रुद्रविधानन्तु पञ्चाङ्गं सर्व्वदं परं ।
हृदयं शिवसङ्कल्पः शिवः सूक्तन्तु पौरुषम् ।। १ ।।

शिखाद्भ्यः सम्भृतं सूक्तमाशुः कवचमेव च ।
शतरुद्रीयमस्त्रञ्च रुद्रस्याङ्गानि पञ्च हि ।। २ ।।

पञ्चाङ्गान्न्यस्य तं ध्यात्वा जपेद्रुद्रांस्ततः क्रमात् ।
यज्जाग्रत इति सूक्तं षडृचं मानसं विदुः ।। ३ ।।

ऋषिः स्याच्छिवसङ्कल्पश्छन्दस्त्रिष्टुबुदाहृतं ।
शिवः सहस्रशीर्षेति तस्य नारायणोऽप्यृषिः।। ४ ।।

देवता पुरुषोऽनुष्टुप्‌छन्दो ज्ञेयञ्च त्रैष्टुभम् ।
अद्भ्यः सम्भृतं सूक्तमृषिरुत्तरगोनरः ।। ५ ।।

आद्यानान्तिसृणां त्रिष्टुप्‌छन्दोऽनुष्टुब्द्वयोरपि ।
छन्दस्त्रैष्टुभमन्त्यायाः पुरुषोऽस्यापि देवता ।। ६ ।।

आशुरिन्द्रो द्वादशानां छन्दस्त्रिष्टुबुदाहृतं ।
ऋषिः प्रोक्तः प्रतिरथः सूक्ते सप्तदशार्च्चके ।। ७ ।।

पृथक्‌पृथक् देवताः स्युः पुरुविदङ्गदेवता ।
अवशिष्टदैवतेषु छन्दोऽनुष्टुबुदाहृतं ।। ८ ।।

असौ यस्ताम्रो भवतीन्द्रः पुरुलिङ्गोक्तदेवताः ।
पङ्क्तिच्छन्दोऽथ मर्म्माणि त्वपो लिङ्गोक्तदेवताः ।। ९ ।।

रौद्राध्याये च सर्व्वस्मिन्नृषिः स्यात् परमेष्ठ्यपि ।
प्रजापतिर्व्वा देवानां कुत्सस्य तिसृणां पुनः ।। १० ।।

मनोद्वयोरुमैका स्याद्रुद्रो रुद्राश्च देवताः ।
आद्योनुवाकोऽथ पूर्व्व एकरुद्राख्यदैवतः ।। ११ ।।

छन्दो गायत्रमाद्याया अनुष्टुप्‌ तिसृणामृचाम् ।
तिसृणाञ्च तथा पङ्क्तिरनुष्टुबथ संस्मृतम् ।। १२ ।।

द्वयोश्च जगतीछन्दो रुद्राणामप्यशीतयः ।
हिरण्यबाहवस्तिस्रो नमो वः किरिकाय च ।। १३ ।।

पञ्चर्च्चो रुद्रदेवाः स्युर्मन्त्रे रुद्रानुवाकके ।
विंशके रुद्रदेवास्ताः प्रथमा बृहती स्मृता ।। १४ ।।

ऋग्‌द्वितीया त्रिजगती तृतीया त्रिष्टुबेव च ।
अनुष्टुभो यजुस्तिस्र आर्योभिज्ञः सुसिद्धिभाक् ।। १५ ।

त्रैलोक्यमोहनेनापि विषव्याध्यरिमर्द्दनं ।
इँ श्रीँ ह्रीँ ह्रैँ हूँ त्रैलोक्यमोहनाय विष्णवे नमः ।। १६ ।।

ओं हं इँ उग्रवीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखं ।
नृसिंहं भीषणं भद्रं मृत्युमृत्युन्नमाम्यहं ।। १७ ।।

अयमेव तु पञ्चाङ्गो मन्त्रः सर्वार्थसाधकः ।
द्वादशाष्टाक्षरौ मन्त्रौ विषव्याधिविमर्द्दनौ ।। १८ ।।

कुब्जिका त्रिपुरा गौरी चन्द्रिका विषहारिणी ।
प्रसादमन्त्रो विषहृदायुरारोग्यवर्द्धनं ।। १९ ।।

सौरो विनायकस्तद्वद्रुद्रमन्त्राः सदाखिलाः ।। २० ।।

इत्यादि महा पुराणे आग्नेये पञ्चाङ्ग रुद्र विधानं नाम षण्नवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।

अग्नि पुराण - दो सौ छियानबेवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 296 Chapter!-In Hindi

दो सौ छियानबेवाँ अध्याय - पञ्चाङ्ग-रुद्रविधान

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! अब मैं 'पञ्चाङ्ग रुद्र-विधान 'का वर्णन करता हूँ। यह परम उत्तम तथा सब कुछ प्रदान करने वाला है। 'शिवसंकल्प' इस का हृदय, 'पुरुष सूक्त' शीर्ष, 'अद्भ्यः सम्भूतः ० (यजु० ३१।१७) आदि सूक्त शिखा और 'आशुः शिशानः' आदि अध्याय इसका कवच है। शतरुद्रिय-संज्ञक रुद्रके ये पाँच अङ्ग हैं। रुद्रदेवका ध्यान करके इसके पञ्चाङ्गभूत रुद्रोंका क्रमशः जप करे। 'यज्ञ्जाग्रतो०' आदि छः ऋचाओंका शिवसंकल्प-सूक्त (यजु० ३४।१- ६) इसका हृदय है। इसके शिवसंकल्प ऋषि और त्रिष्टुप् छन्द कहे गये हैं। 'सहस्रशीर्षां०' (यजु० ३१) से प्रारम्भ होनेवाला पुरुषसूक्त इसका शीर्षस्थानीय है। इसके नारायण ऋषि, पुरुष देवता और अनुष्टुप् एवं त्रिष्टुप् छन्द जानने चाहिये। 'अद्भ्यः सम्भूतः०' आदि सूक्तके उत्तरगामी नर ऋषि हैं। इनमें क्रमशः पहले तीन मन्त्रोंका त्रिष्टुप् छन्द, फिर दो मन्त्रोंका अनुष्टुप् छन्द और अन्तिम मन्त्रका त्रिष्टुप् छन्द है तथा पुरुष इसके देवता हैं। 'आशुः शिशानः ०' (यजु० १७।३३) आदि सूक्तमें बारह मन्त्रोंके इन्द्र देवता और त्रिष्टुप् छन्द हैं। इन सत्रह ऋचाओं के सूक्त के ऋषि 'प्रतिरथ' कहे गये हैं, किंतु देवता भिन्न-भिन्न माने गये हैं। 

कुछ मन्त्रों के पुरुवित् देवता हैं। अवशिष्ट देवतासम्बन्धी मन्त्रोंका छन्द अनुष्टुप् कहा गया है। 'असौ यस्ताम्रो०' (यजु० १६।६) मन्त्रके पुरुलिङ्गोक्त देवता और पंक्ति छन्द हैं। 'मर्माणि ते०' (यजु० १७।४९) मन्त्र का त्रिष्टुप् छन्द और लिङ्गोक्त देवता हैं। सम्पूर्ण रुद्राध्याय के परमेष्ठी ऋषि, 'देवानाम्' इत्यादि मन्त्रों के प्रजापति ऋषि और तीनों ऋचाओं के कुत्स ऋषि हैं। 'मा नो महान्तमुत मा नो०' (यजुर्वेद १६ । १५) और 'मा नस्तोके०' (यजु० १६।१६) आदि दो मन्त्रोंके एकमात्र उमा तथा अन्य मन्त्रोंके रुद्र और रुद्रगण देवता हैं। सोलह ऋचाओं वाले आद्य अनुवाक के रुद्र देवता हैं। प्रथम मन्त्रका छन्द गायत्री, तीन ऋचाओं का अनुष्टुप्, तीन ऋचाओं का पंक्ति, सात ऋचाओं का अनुष्टुप् और दो मन्त्रोंका जगती छन्द है। 'नमो हिरण्यबाहवे०' (यजु० १६।१७) मन्त्रसे लेकर 'नमो वः किरिकेभ्यः ०' (यजु० १६।४६) तक रुद्रगणकी तीन अशीतियाँ हैं। रुद्रानुवाक के पाँच ऋचाओं के रुद्र देवता हैं। बीसवीं ऋचा भी रुद्रदेवता-सम्बन्धिनी है। पहली ऋचाका छन्द बृहती, दूसरी का त्रिजगती, तीसरी का त्रिष्टुप् और शेष तीन का अनुष्टुप् छन्द है। श्रेष्ठ आचरणसे युक्त पुरुष इसका ज्ञान पाकर उत्तम सिद्धिका लाभ करता है। ' त्रैलोक्य-मोहन' मन्त्र से भी विष-व्याधि आदि का विनाश होता है। वह मन्त्र इस प्रकार 'इं है- श्रीं ह्रीं हूं त्रैलोक्यमोहनाय विष्णवे नमः।' (त्रैलोक्य मोहन विष्णु को नमस्कार है) निम्नाङ्कित आनुष्टुभ नृसिंह-मन्त्र से भी विष- व्याधिका विनाश होता है ॥ १-१६ ॥
(आनुष्टुभ नृसिंह-मन्त्र) 

ॐ हूं ई उग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखम् । 
नृसिंहं भीषणं भद्रं मृत्युमृत्युं नमाम्यहम् ।।

'जो उग्र, वीर, सर्वतोमुखी तेजसे प्रज्वलित, भयंकर तथा मृत्युकी भी मृत्यु होते हुए भी भक्तजनोंक लिये कल्याण स्वरूप हैं, उन महाविष्णु नृसिंहका मैं भजन करता हूँ।' हृदयादि पाँच अङ्गोंके न्याससे युक्त यही मन्त्र समस्त अर्थोंको सिद्ध करनेवाला है। श्रीविष्णुके द्वादशाक्षर और अष्टाक्षर मन्त्र भी विष-व्याधिका नाश करनेवाले हैं। 'कुब्जिका त्रिपुरा गौरी चन्द्रिका विषहारिणी।'- यह प्रसादमन्त्र विषहारक तथा आयु और आरोग्यका वर्धक है। सूर्य और विनायकके मन्त्र भी विषहारी कहे गये हैं। इसी तरह समस्त रुद्रमन्त्र भी विषका नाश करनेवाले हैं ॥ १७-२१ ॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'पञ्चाङ्ग रुद्रविधान' नामक दो सौ छियानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २९६ ॥

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