अग्नि पुराण दो सौ चौरानबेवाँ अध्याय ! Agni Purana 294 Chapter !
अग्नि पुराण दो सौ चौरानबेवाँ अध्याय - नागलक्षणानि
अग्निरुवाच
नागादयोऽथ भावादिदशस्थानानि कर्म्म च ।
सूतकं दष्टचेष्टेति सप्तलक्षणमुच्यते ।। १ ।।
शेषवासुकितक्षाख्याः कर्कटोऽब्जो महाम्बुजः ।
शङ्खपालश्च कुलिक इत्याष्टौ नागवर्य्यकाः ।। २ ।।
दशाष्टपञ्चत्रिगुणशतमूर्द्धान्वितौ क्रमात् ।
विप्रौ नृपो विशौ शूद्रौ द्वौ द्वौ नागेषु कीर्त्तितौ ।। ३ ।।
तदन्वयाः पञ्चशतं तेभ्यो जाता असंख्यकाः ।
फणिमण्डलिराजीलवातपित्तकफात्मकाः ।। ४ ।।
व्यन्तरा दोषमिश्रास्ते सर्पा दर्व्वीकराः समृताः ।
रथाङ्गलाङ्गलच्छत्रस्वस्तिकाङ्कुशधारिणः ।। ५ ।।
गोनसा मन्दगा दीर्घा मण्डलैर्विविधैस्चिताः ।
राजिलाश्चित्रिताः स्निग्धास्तिर्य्यगूद्र्ध्वञ्च वाजिभिः ।। ६ ।।
व्यन्तरा मिश्रचिह्नाश्च भूवर्षाग्नेयवायवः ।
चतुर्विधास्ते षड्विंशभेदाः षोड़श गोनसाः ।। ७ ।।
त्रयोदश च राजीला व्यन्तरा एकविशतिः ।
येऽनुक्तकाले जायन्ते सर्पास्ते व्यन्तराः स्मृताः ।। ८ ।।
आषाढादित्रिमासैः स्याद् गर्भो माषटतुष्टये ।
अण्डकानां शते द्वे च तत्वारिंशत् प्रसूयते ।। ९ ।।
सर्पा ग्रसन्ति सूतौघान् विना स्त्रीपुन्नपुंसकान् ।
उन्मीलतेऽक्षि सप्ताहात् कृष्णो मासाद्भवेद्वहिः ।। १० ।।
द्वादशाहात् सुबोधः स्यात् दन्ताः स्युः सूर्य्यदर्शनात् ।
द्वात्रिंशद्दिनविंशत्या चतुस्रस्तेषु दंष्ट्रिकाः ।। ११ ।।
कराली मकरी कालरात्री च यमदूतिका ।
एतास्तीः सविषा दंष्ट्रा वामदक्षिणपार्श्वगाः ।। १२ ।।
षण्मासान्मुच्यते कृत्तिं जीवेत्षष्टिसमाद्वयं ।
नागाः सूर्य्यादिवारेशाः सप्त उक्ता दिवा निशि ।। १३ ।।
स्वेषां षट् प्रतिवारेषु कुलिकः सर्व्वसन्धिषु ।
शङ्खेन वा महाव्जेन सह तस्योदयोऽथवा ।। १४ ।।
द्वयोर्व्वा नाड़िकामन्त्रमन्त्रकं कुलिकोदयः ।
दुष्टः स कालः सर्व्वत्र सर्पदंशे विशेषतः ।। १५ ।।
कृत्तिका भरणी स्वाती मूलं पूर्व्वत्रयाश्विनी ।
विशाखार्द्रा मघाश्लेषा श्रवणरोहिणो ।। १६ ।।
हस्ता मन्दकुजौ वारौ पञ्चमी चाष्टमी तिथिः ।
षष्ठी रिक्ता शिवा निन्द्या पञ्चमी च चतुर्द्दशी ।। १७ ।।
सन्ध्याचतुष्टयं दुष्टं दग्धयोगाश्च राशयः ।
एकद्विबहवो दंशा दष्टविद्धञ्च खण्डितम् ।। १८ ।।
अदंशमवगुप्तं स्याद्दंशमेवं चतुर्विधम् ।
त्रयो द्व्येकक्षता दंशा वेदना रुधिरोल्वणा ।। १९ ।।
नक्तन्त्वेकाङ्घ्रिकूर्म्माबा दंशाश्च यमचोदिताः ।
दीहीपिपीलिकास्पर्शी कण्ठशोथरुजान्वितः ।। २० ।।
सतोदो ग्रन्थितो दंशः सविषो न्यस्तनिर्व्विषः ।
देवालये शून्यगृहे वल्मीकोद्यानकोटरे ।। २१ ।।
रथ्यासन्धौ श्मशाने च नद्याञ्च सिन्धुसङ्गमे ।
द्वीपे चतुष्पथे सौधे गृहेऽब्जे पर्व्वताग्रतः ।। २२ ।।
विलद्वारे जीर्णकूपे जीर्णवेश्मनि कुड्यके ।
शिग्रुश्लेष्मातकाक्षेषु जम्बू डुम्बरणेषु च ।। २३ ।।
वटे च जीर्णप्राकारे खास्यहृत्कक्षजत्रुणि ।
तालौ शङ्खे गले मूद्र्ध्नि चिवुके नाभिपादयोः ।। २४ ।।
दंशोऽशुभः शुभो दूनः पुष्पहस्तः सुवाक् सुधीः ।
लिङ्गवर्णंसमानश्च शुक्लवस्त्रोऽमलः शुचिः ।। २५ ।।
अपद्वारगतः शस्त्री प्रमादी भूगतेक्ष्णः ।
विवर्णवासाः पाशादिहस्तो गदगदवर्णभाक् ।। २६ ।।
शुष्ककाष्ठाश्रितः खिन्नस्तिलाक्तककरांशुकः ।
आर्द्रवासाः कृष्णारक्तपुष्पयुक्तशिरोरुहः ।। २७ ।।
कुचमर्दीं नखच्छेदी गुदस्पृक् पादलेखकः ।
केशमुञ्ची तृणच्छेदी दुष्टा दूतास्तथैकशः ।। २८ ।।
इड़ान्या वा वहेद्द्वेधा यदि दूतस्य चात्मनः ।
आभ्यां द्वाभ्यां पुष्टयास्मान् विद्यास्त्रीपुन्नपुंसकान् ।। २९ ।।
दूतः स्पृशति यद्गात्रं तस्मिन् दंशमुदाहरेत् ।
दूताङ्घ्रिचलनं दुष्टमुत्थितिर्निश्चला शुभा ।। ३० ।।
जीवपार्श्वे शुभो दूतो दुष्टोऽन्यत्र समागतः ।
जीवो गतागतैर्दुष्टः शुभो दूतनिवेदने ।। ३१ ।।
द्तस्य वाक् प्रदुष्टा सा पूर्व्वामजार्द्धनिन्दिता ।
विभक्तैस्तस्य वाक्यान्तैर्विषैर्निर्व्विषकालता ।। ३२ ।।
आद्यैः स्वरैश्च काद्यैश्च वर्गैर्भिन्नलिपिर्द्विधा ।
स्वरजो वसुमान्वर्गी इतिक्षेपा च मातृका ।। ३३ ।।
वाताग्नीन्द्रजलात्मानो वर्गेषु च चतुष्टयम् ।
नपुंसकाः पञ्चमाः स्युः स्वराः शक्राम्बुयोनयः ।। ३४ ।।
दुष्टौ दूतस्य वाक्पादौ वातग्नी मध्यमो हरिः ।
प्रशस्ता वारुणा वर्णा अतिदुष्टा नपुंसकाः ।। ३५ ।।
प्रस्थाने मङ्गलं वाक्यं गर्ज्जितं मेघहस्तिनोः ।
प्रदक्षिणं फले वृक्षे वामस्य च रुतं जितं ।। ३६ ।।
शुभा गीतादिशब्दाः स्युरीदृशं स्यादसिद्धये ।
अनर्थगीरथाक्रन्दो दक्षिणे विरुतं क्षुतम् ।। ३७ ।।
वेश्या क्षुतो नृपः कन्या गौर्द्दन्ती मुरजध्वजौ ।
क्षीराज्यदधिङ्खाम्बु छत्रं भेरी फलं सुराः ।। ३८ ।।
तण्डुला हेम रूप्यञ्च सिद्धयेऽभिमुखा अमी ।
सकाष्ठः सानलः कारुर्म्मलिनाम्बरभावभृत् ।। ३९ ।।
गलस्थटङ्को गोमायुगृध्रोलूककपर्द्दिकाः ।
तैलं कपालकार्पासा निषेधे भस्म नष्टये ।। ४० ।।
विषरोगाश्च सप्त स्युर्धातोर्धात्वन्तराप्तितः ।
विषदंशो ललाटं यात्यतो नेत्रं ततो मुखम् ।
आस्याच्च वचनीनाड्यौ धातून् प्राप्नोति हि क्रमात् ।। ४१ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये नागलक्षणादिर्नाम चतुर्नवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।
अग्नि पुराण - दो सौ चौरानबेवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 294 Chapter!-In Hindi
दो सौ चौरानबेवाँ अध्याय नाग-लक्षण
अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ ! अब मैं नागोंकी उत्पत्ति, सर्पदंश में अशुभ नक्षत्र आदि, सर्पदंश के विविध भेद, देशके स्थान, मर्मस्थल, सूतक और सर्पदष्ट मनुष्यकी चेष्टा-इन सात लक्षणों को कहता हूँ ॥१॥
शेष, वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शंखपाल एवं कुलिक ये आठ नागोंमें श्रेष्ठ हैं। इन नागोंमेंसे दो नाग ब्राह्मण, दो क्षत्रिय, दो वैश्य और दो शूद्र कहे गये हैं। ये चार वर्षोंक नाग क्रमशः दस सौ, आठ सौ, पाँच सौ और तीन सौ फणोंसे युक्त हैं। इनके वंशज पाँच सौ नाग हैं। उनसे असंख्य नागोंकी उत्पत्ति हुई है। आकार भेद से सर्प फणी, मण्डली और राजिल-तीन प्रकारके माने जाते हैं। ये वात, पित्त और कफप्रधान हैं। इनके अतिरिक्त व्यन्तर, दोषमिश्र तथा दर्वोकर जाति वाले सर्प भी होते हैं। ये चक्र, हल, छत्र, स्वस्तिक और अंकुश के चिह्नों से युक्त होते हैं। गोन स सर्प विविध मण्डलोंसे चित्रित, दीर्घकाय और मन्दगामी होते हैं। राजिल सर्प स्निग्ध तथा ऊर्ध्व भाग और पार्श्वभाग में रेखाओंसे सुशोभित होते हैं। व्यन्तर सर्प मिश्रित चिह्नोंसे युक्त होते हैं। इनके पार्थिव, आप्य (जलसम्बन्धी), आग्रेय और वायव्य - ये चार मुख्य भेद और छब्बीस अवान्तर भेद हैं। गोनस सर्पोंके सोलह, राजिलजातीय सर्पोंके तेरह और व्यन्तर सर्पोंके इक्कीस भेद हैं। सर्पोंकी उत्पत्तिके लिये जो काल बताया गया है, उससे भिन्न कालमें जो सर्प उत्पन्न होते हैं, वे 'व्यन्तर' माने गये हैं आषाढ़से लेकर तीन मासोंतक सर्पोंकी गर्भस्थिति होती है। गर्भस्थितिके चार मास व्यतीत होनेपर (सर्पिणी) दो सौ चालीस अंडे प्रसव करती है।
सर्प-शावकके उन अंडोंसे बाहर निकलते ही उनमें स्त्री, पुरुष और नपुंसकके लक्षण प्रकट होनेसे पूर्व ही प्रायः सर्पगण उनको खा जाते हैं। कृष्णसर्प आँख खुलनेपर एक सप्ताहमें अंडेसे बाहर आता है। उसमें बारह दिनोंके बाद ज्ञानका उदय होता है। बीस दिनोंके बाद सूर्यदर्शन होनेपर उसके बत्तीस दाँत और चार दाड़ें निकल आती हैं। सर्पकी कराली, मकरी, कालरात्रि और यमदूतिका ये चार विषयुक्त दाढ़ें होती हैं। ये उसके वाम और दक्षिण पार्श्वमें स्थित होती हैं। सर्प छः महीनेके बाद केंचुलको छोड़ता है और एक सौ बीस वर्षतक जीवित रहता है। शेष आदि सात नाग क्रमशः रवि आदि वारोंके स्वामी माने गये हैं। वे वारेश दिन तथा रात्रिमें भी रहते हैं। (दिनके सात भाग करनेपर पहला भाग वारेशका होता है। शेष छः भागोंका अन्य छः नाग क्रमशः उपभोग करते हैं।) शेष आदि सात नाग अपने- । अपने वारोंमें उदित होते हैं, किंतु कुलिकका उदय सबके संधिकालमें होता है। अथवा महापद्म और शङ्खपालके साथ कुलिकका उदय माना जाता है। मतान्तरके अनुसार महापद्म और शङ्खपालके मध्यकी दो घड़ियोंमें कुलिक का उदय होता है। कुलिकोदयका समय सभी कार्योंमें दोषयुक्त माना गया है। सर्पदंशमें तो वह विशेषतः अशुभ है। कृत्तिका, भरणी, स्वाती, मूल, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वभाद्रपदा, अश्विनी, विशाखा, आर्दा, आश्लेषा, चित्रा, श्रवण, रोहिणी, हस्त नक्षत्र, शनि तथा मङ्गलवार एवं पञ्चमी, अष्टमी, षष्ठी, रिक्ता-चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशी एवं शिवा (तृतीया) तिथि सर्पदंशमें निन्द्य मानी गयी हैं।
पञ्चमी और चतुर्दशी तिचियोंमें सर्पका दंशन विशेषतः निन्दित है। यदि सर्प चारों संध्याओंके समय, दग्धयोग या दग्धराशिमें हँस ले, तो अनिष्टकारक होता है। एक, दो और तीन दंशनोंको क्रमशः 'दष्ट', 'विद्ध' और 'खण्डित' कहते हैं। सर्पका केवल स्पर्श हो, परंतु वह हँसे नहीं तो उसे 'अदेश' कहते हैं। इसमें मनुष्य सुरक्षित रहता है। इस प्रकार सर्पदंशके चार भेद हुए। इनमें तीन, दो एवं एक दंश वेदनाजनक और रक्तस्राव करनेवाले हैं। एक पैर और कूर्मके समान आकारवाले दंश मृत्युसे प्रेरित होते हैं। अङ्गोंमें दाह, शरीरमें चीटियोंके रेंगनेका-सा अनुभव, कण्ठशोथ एवं अन्य पीड़ासे युक्त और व्यथाजनक गाँठवाला दंशन विषयुक्त माना जाता है, इनसे भिन्न प्रकारका सर्पदंश विषहीन होता है। देवमन्दिर, शून्यगृह, वल्मीक (बाँबी), उद्यान, वृक्षके कोटर, दो सड़कों या मार्गोंकी संधि, श्मशान, नदी-सागर-संगम, द्वीप, चतुष्पथ (चौराहा), राजप्रासाद, गृह, कमलवन, पर्वतशिखर, बिलद्वार, जीर्णकूप, जीर्णगृह, दीवाल, शोभाञ्जन, श्लेष्मातक (लिसोडा) वृक्ष, जम्बूवृक्ष, उदुम्बरवृक्ष, वेणुवन (बैसवारी), वटवृक्ष और जीर्ण प्राकार (चहारदीवारी) आदि स्थानोंमें सर्प निवास करते हैं। इन्द्रिय-छिद्र, मुख, हृदय, कक्ष, जत्रु (ग्रीवामूल), तालु, ललाट, ग्रीवा, सिर, चिबुक (ठुड्डी), नाभि और चरण- इन अङ्गोंमें सर्पदंश अशुभ है। विषचिकित्सकको सर्पदंशकी सूचना देनेवाला दूत यदि हाथोंमें फूल लिये हो, सुन्दर वाणी बोलता हो, उत्तम बुद्धिसे युक्त हो, सर्पदष्ट मनुष्यके समान लिङ्ग एवं जातिका हो, श्वेतवस्त्रधारी हो, निर्मल और पवित्र हो, तो शुभ माना गया है। इसके विपरीत जो दूत मुख्यद्वारके सिवा दूसरे मार्गसे आया हो, शस्त्रयुक्त एवं प्रमादी हो, भूमिपर दृष्टि गड़ाये हो, गंदा या बदरंग वस्त्र पहने हो, हाथमें पाश आदि लिये हो, गद्गदकण्ठसे बोल रहा हो, सूखे काठपर बैठा हो, खिन्न हो तथा जो हाथमें काले तिल लिये हो या लाल रंगके धब्बेसे युक्त वस्त्र धारण किये हो अथवा भीगे वस्त्र पहने हुए हो, जिसके मस्तकके बालोंपर काले और लाल रंगके फूल पड़े हों, अपने कुचोंका मर्दन, नखोंका छेदन या गुदाका स्पर्श कर रहा हो, भूमिको पैरसे खुरच रहा हो, केशोंको नोंच रहा हो या तिनके तोड़ रहा हो, ऐसे दूत दोषयुक्त कहे गये हैं। इन लक्षणोंमेंसे एक भी हो तो अशुभ है॥ २-२८॥
अपनी और दूतको यदि इडा अथवा पिङ्गला या दोनों ही नाड़ियाँ चल रही हों, उन दोनोंक इन चिह्नोंसे हँसनेवाले सर्पको क्रमशः स्त्री, पुरुष अथवा नपुंसक जाने। दूत अपने जिस अंगका स्पर्श करे, रोगीके उसी अंगमें सर्पका दंश हुआ जाने। दूतके पैर चञ्चल हों तो अशुभ और यदि स्थिर हों तो शुभ माने गये हैं॥ २९-३०॥
किसी जीवके पाश्र्श्वदिशमें स्थित दूत शुभ और अन्य भागोंमें स्थित अशुभ माना गया है। दूतके निवेदनके समय किसी जीवका आगमन शुभ और गमन अशुभ है। दूतकी वाणी यदि अत्यन्त दोषयुक्त हो अथवा सुस्पष्ट प्रतीत न होती हो तो वह निन्दित कही गयी है। उसके सुस्पष्ट एवं विभक्त वचनोंद्वारा यह ज्ञात होता है कि सर्पका दंशन विषयुक्त है अथवा विषरहित। दूतके वाक्यके आदिमें 'स्वर' और 'कादि' वर्गके भेदसे लिपिके दो प्रकार माने जाते हैं। दूतके वचनसे वाक्यके आरम्भमें स्वर प्रयुक्त हो, तो सर्पदष्ट मनुष्यकी जीवनरक्षा और कादिवर्गोंके प्रयुक्त होनेपर अशुभकी आशङ्का होती है। यह मातृका-विधान है। 'क' आदि वर्गोंमें आरम्भके चार अक्षर क्रमशः वायु, अग्नि, इन्द्र और वरुणदेवता-सम्बन्धी होते हैं। कादि वर्गोंके पञ्चम अक्षर नपुंसक माने गये हैं। 'अ' आदि स्वर ह्रस्व और दीर्घके भेदसे क्रमशः इन्द्र एवं वरुणदेवता-सम्बन्धी होते हैं। दूतके वाक्यारम्भमें वायु और अग्निदैवत्य अक्षर दूषित और ऐन्द्र अक्षर मध्यम फलप्रद हैं। वरुणदैवत्य वर्ण उत्तम और नपुंसक वर्ण अत्यन्त अशुभ हैं ॥ ३१-३५ ॥
विषचिकित्सकके प्रस्थानकालमें मङ्गलमय वचन, मेघ और गजराजकी गर्जना, दक्षिणपार्श्वमें फलयुक्त वृक्ष हो और वामभागमें किसी पक्षीका कलरव हो रहा हो, तो वह विजय या सफलताका सूचक है। प्रस्थानकालमें गीत आदिके शब्द शुभ होते हैं। दक्षिणभागमें अनर्थसूचक वाणी, चक्रवाकका रुदन ऐसे लक्षण सिद्धिके सूचक हैं। पक्षियोंकी अशुभ ध्वनि और छींक ये कार्यमें असिद्धि प्रदान करते हैं। वेश्या, ब्राह्मण, राजा, कन्या, गौ, हाथी, ढोलक, पताका, दुग्ध, घृत, दही, शङ्ख, जल, छत्र, भेरी, फल, मदिरा, अक्षत, सुवर्ण और चाँदी- ये लक्षण सम्मुख होनेपर कार्यसिद्धिके सूचक हैं। काष्ठपर अग्रिसे युक्त शिल्पकार, मैले कपड़ोंका बोझ ढोनेवाले पुरुष, गलेमें टंक (पाषाणभेदक शस्त्र) धारण किये हुए मनुष्य, श्रृंगाल, गृध्र, उलूक, कौड़ी, तेल, कपाल और निषिद्ध भस्म- ये लक्षण नाशके सूचक हैं। विषके एक धातुसे दूसरे धातुमें प्रवेश करनेसे विषसम्बन्धी सात रोग होते हैं। विषदंश पहले ललाटमें, ललाटसे नेत्रमें और नेत्रसे मुखमें जाता है। मुखमें प्रविष्ट होनेके बाद वह सम्पूर्ण धमनियोंमें व्याप्त हो जाता है। फिर क्रमशः धातुओंमें प्रवेश करता है॥ ३६-४१ ॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'नागलक्षणकथन नामक दो सौ चौरानवेयाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २९४॥
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