अग्नि पुराण दो सौ बानबेवाँ अध्याय ! Agni Purana 292 Chapter !

अग्नि पुराण दो सौ बानबेवाँ अध्याय ! Agni Purana 292 Chapter !

अग्नि पुराण 292 अध्याय - शान्त्यायुर्वेदः

धन्वन्तरिरुवाच

गोविप्रपालनं कार्य्यं राज्ञा गोशान्तिमावदे ।
गावः पवित्रा माङ्गल्या गोषु लोकाः प्रतिष्ठिताः ।। २ ।।

शकृन्‌मूत्रं परं तासामलक्षमीनाशनं परं ।
गवां कण्डूयनं वारि श्रृह्गस्याघौघमर्द्दनम् ।। ३ ।।

रोचना विषरक्षोघ्नी ग्रासदः स्वर्गगो गवां ।
यद्‌गृहे दुःखिता गावः स याति नरकन्नरः ।। ४ ।।

परगोग्रासदः स्वर्गी गोहितो ब्रह्मलोकभाक् ।
गोदानात्‌कीर्त्तनाद्रक्षां कृत्वा चोद्धरते कुलम् ।। ५ ।।

गवां श्वासात् पवित्रा भूस्पर्शनात्किल्विषक्षयः ।
गोमृत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्पिः कुशोदकम् ।। ६ ।।

एकरात्रोपवासश्च श्वपाकमपि शोधयेत् ।
सर्व्वाशुभविनाशाय पुराचरितमीश्वरैः ।। ७ ।।

प्रत्येकञ्च त्र्यहाभ्यस्तं महासान्तपनं स्मृतं ।
सर्वकामप्रदञ्चैतत् सर्व्वाशुभवीमर्द्दनम् ।। ८ ।।

कृच्छ्रातिकृच्छ्रं पयसा दिवसानेकविंशतिं ।
निर्म्मलाः सर्व्वकामाप्त्या स्युर्गगाः स्युर्न्नरोत्तमाः ।। ९ ।।

त्र्यहमुष्णं पिवेन्मूत्रं त्र्यहमुष्णं घृतं पिवेत् ।
त्र्यहमुष्णं पयः पीत्वाः वायुभक्षः परं त्र्यहम् ।। १० ।।

तप्तकृच्छ्रव्रतं सर्व्वपापघ्नं ब्रह्मलोकदं ।
शीतैस्तु शीतकृच्छ्रं स्याद्‌ब्रह्मोक्तं ब्रह्मलोकदं ।। ११ ।।

गोमूत्रेणाचरेत्स्नानं वृत्तिं कुर्य्याच्च गोरसैः ।
गोभिर्व्रजेच्च भुक्तासु भुञ्जीताथ च गोव्रती ।। १२ ।।

मासेनैकेन निष्पापो गोलोकी स्वर्गगो भवेत् ।
विद्याञ्च गोमतीं जप्त्वा गोलोकं परमं व्रजेत् ।। १३ ।।

गौतैर्न्नृत्येरप्सरोभिविंमाने तत्र मोदते ।
गावः सुरभयो नित्यं गावो गुग्गुलगन्धिकाः ।। १४ ।।

गावः प्रतिष्ठा भूतानां गावः स्वस्त्ययनं परं ।
अन्नमेव परं गावो देवानां हविरुत्तमम् ।। १५ ।।

पावनं सर्व्वभूतानां क्षरन्ति च वदन्ति च ।
हविषा मन्त्रपूतेन तर्पयन्त्वमरान्दिवि ।। १६ ।।

ऋषीणामग्निहोत्रेषु गावो होमेषु योजिताः ।
सर्व्वेषामेव भूतानां गावः शरणमुत्तमं ।। १७ ।।

गावः पचित्रं परमं गावो माङ्गल्यमुत्तमं ।
गावः स्वर्गस्य सोपानं गावो धन्याः सनातनाः ।। १८ ।।

नमो गोभ्यः श्रीमतीभ्यः सौरभेयीभ्य एव च ।
नमो ब्रह्मसुताभ्यश्च पवित्राब्यो नमो नमः ।। १९ ।।

ब्राह्मणाश्चैव गावश्च कुलमेकं द्विधा कृतम् ।
एकत्र मन्त्रास्तिष्ठन्ति हविरेकत्र तिष्ठति ।। २० ।।

देवब्राह्मणगोसाधुसाध्वीभिः सकलं जगत् ।
धार्य्यते वै सदा सस्मात् सर्व्वे पूज्यतमा मताः ।। २१ ।।

पिवन्ति यत्र तत्तीर्थं गह्गाद्या गाव एव हि ।
गवां माहात्म्यमुक्तं हि चिकित्साञ्च तथा श्रृणु ।। २२ ।।

श्रृङ्गामयेषु धेनूनां तैलं दद्यात् ससैन्धवं ।
श्रृङ्गवेरबलामांसकल्कसिद्धं समाक्षिकं ।। २३ ।।

कर्णशूलेषु सर्वेषु मञ्जिष्ठाहिङ्गुसैन्धवैः ।
सिद्धं तैलं प्रदातव्यं रसोनेनैथ वा पुनः ।। २४ ।।

विल्वमूलमपामार्गन्धातकी च सपाटला ।
कुटजन्दन्तमूलेषु लेपात्तच्छूलनाशनं ।। २५ ।।

दन्तशूलहरैर्द्रव्यैर्घृतं राम विपाचितं ।
मुखरोगहरं ज्ञेयं जिह्वारोगेषु सैन्धवं ।। २६ ।।

श्रृङ्गवेरं हरिद्रे द्वे त्रिफला च गलग्रहे ।
हृच्छूले वस्तिशुले च वातरोगे क्षये तथा ।। २७ ।।

त्रिफला घृतमिश्रा च गवां पाने प्रशस्यते ।
अतीसारे हरिद्रे द्वे पाठाञ्चैव प्रदापयेत् ।। २८ ।।

सर्वेषु कोष्ठरोगेषु तथा शाखागदेषु च ।
श्रृङ्गवेरञ्च भार्गीञ्च कासे श्वासे प्रदापयेत् ।। २९ ।।

दातव्या भग्नसन्धाने प्रियङ्गुर्लवणान्विता ।
तैलं वातहरं पित्ते मधुयष्टीविपाचितं ।। ३० ।।

कफे व्योषञ्च समधु सपुष्टकरजोऽस्रजे ।
तैलाज्यं हरितालञ्च भग्नक्षतिश्रृतन्ददेत् ।। ३१ ।।

माषास्तिलाः सगोधूमाः पशुक्षीरं घृतं तथा ।
एषां पिण्डी सलवणा वत्सानां पुष्टिदा त्वियं ।। ३२ ।।

बलप्रदा विषाणां स्याद् ग्रहनाशाय धूपकः ।
देवदारु वचा मांसी गुग्गुलुहिङ्गुसर्षपाः ।। ३३ ।।

ग्रहादिगदनाशाय एष धुपो गवां हितः ।
घष्टा चैव गवां कार्या धूपेनानेन धूपिता ।। ३४ ।।

अश्वगन्धातिलैः शुक्लं तेन गौः क्षीरिणी भवेत् ।
रसायनञ्च पिन्याकं मत्तो यो धार्य्यते गृहे ।। ३५ ।।

गवां पुरीषे पञ्चम्यां नित्यं शान्त्यै श्रियं यजेत् ।
वासुदेवञ्च गन्धाद्यैरपरा शान्तिरुच्यते ।। ३६ ।।

अश्वयुक्‌शुक्लपक्षस्य पञ्चदश्यां यजेद्धरिं ।
हरिरुद्रमजं सूर्य्यं श्रियमग्निं घृतेन च ।। ३७ ।।

दधि सम्प्राश्य गाः पूज्य कार्य्यं वह्निप्रदक्षिणं ।
वृषाणां योजयेद् युद्धं गीतवाद्यरवैर्वहिः ।। ३८ ।।

गवान्तु लवणन्देयं ब्राह्मणानाञ्च दक्षिणा ।
नैमित्तिके माकरादौ यजेद्विष्णुं सह श्रिया ।। ३९ ।।

स्थणअडिलेव्जे मध्यगते कदिक्षु केशरगान् सुरान् ।
सुभद्राजो रविः पूज्यो बहुरूपो बलिर्वहिः ।। ४० ।।

खं विश्वरूपा सिद्धिस्च ऋद्धिः शान्तिश्च रोहिणी ।
दिग्धेनवो हि पूर्वाद्याः कृशरैश्चन्द्र ईश्वरः ।। ४१ ।।

दिक्‌पालाः पद्मपत्रेषु कुम्भेष्वग्नौ च होमयेत् ।
क्षीरवृक्षस्य समिधः सर्षपाक्षततण्डुलान् ।। ४२ ।।

शतं शतं सुवर्णञ्च कांस्यादिकं द्विजे ददेत् ।
गावः पूज्या विमोक्तव्याः शान्त्यै क्षीरादिसंयुताः ।। ४३ ।।

शालिहोत्रः सुश्रुताय हयायुर्वेदमुक्तवान् ।
पालकाप्योऽङ्गराजाय गजायुर्वेदमब्रवीत् ।। ४४ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये शान्त्यायुर्वेदो नाम द्विनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।

अग्नि पुराण - दो सौ बानबेवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 292 Chapter!-In Hindi

दो सौ बानबेवाँ अध्याय - गवायुर्वेद

धन्वन्तरि कहते हैं- सुश्रुत! राजाको गौओं और ब्राह्मणोंका पालन करना चाहिये। अब मैं 'गोशान्ति 'का वर्णन करता हूँ। गौएँ पवित्र एवं मङ्गलमयी हैं। गौओंमें सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित है। गौओंका गोबर और मूत्र अलक्ष्मी (दरिद्रता) के नाशका सर्वोत्तम साधन है। उनके शरीरको खुजलाना, सींगोंको सहलाना और उनको जल पिलाना भी अलक्ष्मीका निवारण करनेवाला है। गोमूत्र, गोबर, गोदुग्ध, दधि, घृत और कुशोदक यह 'षडङ्ग' (पञ्चगव्य) पीनेके लिये उत्कृष्ट वस्तु तथा दुःस्वप्रों आदिका निवारण करनेवाला है। गोरोचना विष और राक्षसोंको विनाश करती है। गौओंको ग्रास देनेवाला स्वर्गको प्राप्त होता है। जिसके घरमें गौएँ दुःखित होकर निवास करती हैं, वह मनुष्य नरकगामी होता है। दूसरेकी गायको ग्रास देनेवाला स्वर्गको और गोहित में तत्पर ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है। गोदान, गो-माहात्म्य- कीर्तन और गोरक्षणसे मानव अपने कुलका उद्धार कर देता है। यह पृथ्वी गौओंके श्वाससे पवित्र होती है। उनके स्पर्शसे पापोंका क्षय होता है। एक दिन गोमूत्र, गोमय, घृत, दूध, दधि और कुशका जल एवं एक दिन उपवास चाण्डाल को भी शुद्ध कर देता है। पूर्वकालमें देवताओंने भी समस्त पापोंके विनाशके लिये इसका अनुष्ठान किया था। इनमेंसे प्रत्येक वस्तुका क्रमशः तीन तीन दिन भक्षण करके रहा जाय, उसे 'महासान्तपन व्रत' कहते हैं। यह व्रत सम्पूर्ण कामनाओंको सिद्ध करनेवाला और समस्त पापोंका विनाश करनेवाला है। केवल दूध पीकर इक्कीस दिन रहनेसे 'कृच्छ्रातिकृच्छ्र व्रत' होता है। इसके अनुष्ठानसे श्रेष्ठ मानव सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओंको प्राप्तकर पापमुक्त हो स्वर्गलोकमें जाते हैं। तीन दिन गरम गोमूत्र, तीन दिन गरम घृत, तीन दिन गरम दूध और तीन दिन गरम वायु पीकर रहे। यह 'तप्तकृच्छ व्रत' कहलाता है, जो समस्त पापोंका प्रशमन करनेवाला और ब्रह्मलोककी प्राप्ति करानेवाला है। यदि इन वस्तुओंको इसी क्रमसे शीतल करके ग्रहण किया जाय, तो ब्रह्माजीके द्वारा कथित 'शीतकृच्छा' होता है, जो ब्रह्मलोकप्रद है।॥ १-११ ॥

एक मासतक गोन्नती होकर गोमूत्रसे प्रतिदिन स्नान करे, गोरससे जीवन चलावे, गौओंका अनुगमन करे और गौओंके भोजन करनेके बाद भोजन करे। इससे मनुष्य निष्पाप होकर गोलोकको प्राप्त करता है। गोमती विद्याके जपसे भी उत्तम गोलोककी प्राप्ति होती है। उस लोकमें मानव विमानमें अप्सराओंके द्वारा नृत्य गीतसे सेवित होकर प्रमुदित होता है। गौएँ सदा सुरभिरूपिणी हैं। वे गुग्गुलके समान गन्धसे संयुक्त हैं। गौएँ समस्त प्राणियोंकी प्रतिष्ठा हैं। गौएँ परम मङ्गलमयी हैं। गौएँ परम अन्न और देवताओंके लिये उत्तम हविष्य हैं। वे सम्पूर्ण प्राणियोंको पवित्र करनेवाले दुग्ध और गोमूत्रका वहन एवं क्षरण करती हैं और मन्त्रपूत हविष्यसे स्वर्गमें स्थित देवताओंको तृप्त करती हैं। ऋषियोंके अग्निहोत्रमें गौएँ होमकार्यमें प्रयुक्त होती हैं। गौएँ सम्पूर्ण मनुष्योंकी उत्तम शरण हैं। गौएँ परम पवित्र, महामङ्गलमयी, स्वर्गकी सोपानभूत, धन्य और सनातन (नित्य) हैं। श्रीमती सुरभि पुत्री गौओंको नमस्कार है। ब्रहासुताओंको नमस्कार है। पवित्र गौओंको बारंबार नमस्कार है। ब्राह्मण और गौएँ- एक ही कुलकी दो शाखाएँ हैं। एकके आश्रयमें मन्त्रकी स्थिति है और दूसरीमें हविष्य प्रतिष्ठित है। देवता, ब्राह्मण, गौ, साधु और साध्वी स्त्रियोंके बलपर यह सारा संसार टिका हुआ है, इसीसे वे परम पूजनीय हैं। गौएँ जिस स्थानपर जल पीती हैं, वह स्थान तीर्थ है। गङ्गा आदि पवित्र नदियाँ गोस्वरूपा ही हैं। सुश्रुत। मैंने यह गौओंके माहात्म्यका वर्णन किया; अब उनकी चिकित्सा सुनो ॥ १२-२२॥

गौओंक श्रृङ्गरोगोंमें सोठ, खरेटी और जटार्मासीको सिलपर पीसकर उसमें मधु, सैन्धव और तैल मिलाकर प्रयोग करे। सभी प्रकारके कर्णरोगोंमें मञ्जिष्ठा, हींग और सैन्धव डालकर सिद्ध किया हुआ तैल प्रयोग करना चाहिये या लहसुनके साथ पकाया हुआ तैल प्रयोग करना चाहिये। दन्तशूलमें बिल्वमूल, अपामार्ग, धानकी पाटला और कुटजका लेप करे। वह शूलनाशक है। दन्तशूलका हरण करनेवाले द्रव्यों और कूटको घृतमें पकाकर देनेसे मुखरोगोंका निवारण होता है। जिह्वा रोगोंमें सैन्धव लवण प्रशस्त है। गलग्रह-रोगमें सोंठ, हल्दी, दारुहल्दी और त्रिफला विहित है। हृद्रोग, वस्तिरोग, वातरोग और क्षयरोगमें गौओंको घृतमिश्रित त्रिफलाका अनुपान प्रशस्त बताया गया है। अतिसारमें हल्दी, दारुहल्दी और पाठा (नेमुक) दिलाना चाहिये। सभी प्रकारके कोष्ठगत' रोगोंमें, शाखा (पैर-पुच्छादि) गत रोगोंमें एवं कास, श्वास एवं अन्य साधारण रोगोंमें सोंठ, भारङ्गी देनी चाहिये। हड्डी आदि टूटनेपर लवणयुक्त प्रियङ्गुका लेप करना चाहिये। तैल वातरोगका हरण करता है। पित्तरोगमें तैलमें पकायी हुई मुलहठी, कफरोगमें मधुसहित त्रिकटु (सोंठ, मिर्च और पीपल) तथा रक्तविकारमें मजबूत नखोंका भस्म हितकर है। भग्रक्षतमें तैल एवं घृतमें पकाया हुआ हरताल दे। उड़द, तिल, गेहूँ, दुग्ध, जल और घृत-इनका लवणयुक्त पिण्ड गोवत्सोंके लिये पुष्टिप्रद है। विषाणी बल प्रदान करनेवाली है। ग्रहबाधाके विनाशके लिये धूपका प्रयोग करना चाहिये। देवदारु, वचा, जटामांसी, गुग्गुल, हिंगु और सर्षप- इनकी धूप गौओंके ग्रहजनित रोगोंका नाश करनेमें हितकर है। इस धूपसे धूपित करके गौओंके गलेमें घण्टा बाँधना चाहिये। असगन्ध और तिलोंके साथ नवनीतका भक्षण करानेसे गौ दुग्धवती होती है। जो वृष घरमें मदोन्मत्त हो जाता है, उसके लिये हिङ्गु परम रसायन है॥ २३-३५॥

पञ्चमी तिथिको सदा शान्तिके निमित्त गोमयपर भगवान् लक्ष्मी-नारायणका पूजन करे। यह 'अपरा शान्ति' कही गयी है। आश्विनके शुक्लपक्षकी पूर्णिमाको औहरिका पूजन करे। श्रीविष्णु, रुद्र, ब्रह्मा, सूर्य, अग्नि और लक्ष्मीका घृतसे पूजन करे। दही भलीभाँति खाकर गोपूजन करके अग्रिकी प्रदक्षिणा करे। गृहके बहिर्भागमें गीत और वाद्यको ध्वनिके साथ वृषभयुद्धका आयोजन करे। गौओंको लवण और ब्राह्मणोंको दक्षिणा दे। मकरसंक्रान्ति आदि नैमित्तिक पर्वोपर भी लक्ष्मीसहित श्रीविष्णुको भूमिस्थ कमलके मध्यमें और पूर्व आदि दिशाओंमें कमल-केसरपर देवताओंकी पूजा करे। कमलके बहिर्भागमें मङ्गलमय ब्रह्मा, सूर्य, बहुरूप, बलि, आकाश, विश्वरूपका तथा ऋद्धि, सिद्धि, शान्ति और रोहिणी आदि दिग्धेनु, चन्द्रमा और शिवका कृशर (खिचड़ी) से पूजन करे। दिक्पालोंकी कलशस्थ पद्मपत्रपर अर्चना करे। फिर अग्रिमें सर्वप, अक्षत, तण्डुल और खैर-वृक्षकी समिधाओंका हवन करे। ब्राह्मणको सौ-सौ भर सुवर्ण और काँस्य आदि धातु दान करे। फिर क्षीरसंयुक्त गौओंकी पूजा करके उन्हें शान्तिके निमित्त छोड़े ॥ ३६-४३॥

अग्रिदेव कहते हैं- वसिष्ठ। शालिहोत्रने सुश्रुतको 'अश्वायुर्वेद' और पालकाप्यने अङ्गराजको 'गवायुर्वेद'का उपदेश किया था ॥ ४४॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'गवायुर्वेदका कथन' नामक दो सौ बानवेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ २९२॥

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