अग्नि पुराण दो सौ इक्यानबेवाँ अध्याय ! Agni Purana 291 Chapter !

अग्नि पुराण दो सौ इक्यानबेवाँ अध्याय ! Agni Purana 291 Chapter !

अग्नि पुराण दो सौ इक्यानबेवाँ अध्याय - गज शान्तिः

शालिहोत्र उवाच

गजशान्तिं प्रवक्ष्यामि गजरोगविमर्द्दनीम् ।
विष्णुं श्रियञ्च पञ्चम्यां नागमैरावतं यजेत् ।। १ ।।

ब्रह्माणं शङ्करं विष्णुं शक्रं वैश्रवणं यमं ।
चद्रार्कौ वरुणं वायुमग्निं पृथ्वीं तथा च खं ।। २ ।।

शेषं शैलान् कुञ्जरांश्च ये तेऽष्टौ देवयोनयः ।
विरूपाक्षं महापद्मं भद्रं सुमनसन्तथा ।। ३ ।।

कुमुदैरावणः पद्मः पुष्पदन्तोऽथ वामनः ।
सुप्रतीकोञ्जनो नागा अष्टौ होमोऽथ दक्षिणाम् ।। ४ ।।

गजाः शान्त्युदकासिक्ता वृद्धौ नैमित्तिकं श्रृणु ।
गजानां मकरादौ च ऐशान्यां नगराद्बहिः ।। ५ ।।

स्थण्डिले कमले मध्ये विष्णुं लक्ष्मीञ्च केशरे ।
ब्रह्माणं भास्करं पृथ्वीं यजेत् स्कन्दं ह्यनन्तकं ।। ६ ।।

खं शिवं सोममिन्द्रादींस्तदस्त्राणि दले क्रमात् ।
वज्रं शक्तिञ्च दण्डञ्च तोमरं पाशकं गदां ।। ७ ।।

शूलं पद्मं बहिर्वृन्ते चक्रे सूर्य्यन्तथाश्विनौ ।
वसूनष्टौ तथा साध्यान् याम्येऽथ नैर्ऋते दले ।। ८ ।।

देवानाङ्गिरसश्चाश्विभृगवो मरुतोऽनिले ।
विश्वेदेवांस्तथा दक्षे रुद्रा रौद्रेऽथ मण्डले ।। ९ ।।

ततो वृत्तया रेखया तु देवान् वै बाह्यतो यजेत् ।
सूत्रकारानृषीन् वाणीं पूर्व्वादौ सरितो गिरीन् ।। १० ।।

महाभूतानि कोणेषु ऐशान्यादिषु संयजेत् ।
पद्मं चक्रं गदां शंखं चतुरस्रन्तु मण्डलं ।। ११ ।।

चतुर्द्वारं ततः कुम्भाः अग्न्यादौ च पताकिकाः।
चत्वारस्तोरणा द्वारि नागानैरावतादिकान् ।। १२ ।।

पूर्व्वादौ चौषधीभिश्च देवानां भाजनं पृथक् ।
पृथक्शताहुतीश्चाज्यैर्गजानर्च्य प्रदक्षिणं ।। १३ ।।

नागं वह्निं देवतादीन् बाह्यैर्जग्मुः स्वकं गृहम् ।
द्विजेभ्यो दक्षिणां दद्यात् हस्तिवैद्यादिकांस्तथा ।। १४ ।।

करिणीन्तु समारुह्य वदेत् कर्णन्तु कालवित् ।
नागाराजेऽमृते शान्तिं कृत्वाऽमुष्मिन् जपन्मनुम् ।। १५

श्रीगजस्त्वं कृतो राज्ञा भवानस्य गजाग्रणीः ।
प्रभुर्माल्याग्रभक्तैस्त्वां पूजयिष्यति पार्थिवः ।। १६ ।।

लोकस्तदाज्ञया पूजां करिष्यति तदा तव ।
पालनीयस्त्वया राजा युद्धेऽध्वनि तथा गृहे ।। १७ ।।

तिर्य्यग्भावं समुत्‌सृज्य दिव्यं भावमनुस्मर ।
देवासुरे पुरा युद्धे श्रीगजस्त्रिदशैः कृतः ।। १८ ।।

ऐरावणसुतः श्रीमानरिष्टो नाम वारणः ।
श्रीगजानान्तु तत् तेजः सर्व्वमेवोपतिष्ठते ।। १९ ।।

तत्तेजस्तव नागेन्द्र दिव्यभावसमन्वितं ।
उपतिष्ठतु भद्रन्ते रक्ष राजानमाहवे ।। २० ।।

इत्येवमभिषिक्तैनमारोहेत शुभे नृपः ।
तस्यानुगमनं कुर्युः सशस्त्रनवसद्‌गजाः ।। २१ ।।

शालास्वसौ स्थण्डिलेऽब्जे दिकपालादीन् यजेद्वहिः ।
केशरेषु बलं नागं भुवञ्चैव सरस्वतीं ।। २२ ।।

मध्येषु डिण्डिमं प्रार्च्य गन्धमाल्यानुलेपनैः ।
हुत्वा देयस्तु कलशो रसपूर्णो द्विजाय च ।। २३ ।।

गजाध्यक्षं हस्तिपं च गणितज्ञञ्च पूजयेत् ।
गजाध्यक्षाय तन्दद्यात् डिण्डिमं सोपि वादयेत् ।। २४ ।।

शुभगम्भीरशब्दैः स्याज्जघनस्थोऽभिवादयेत् ।। २५ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये गजशान्तिर्नामैकनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।

अग्नि पुराण - दो सौ इक्यानबेवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 291 Chapter!-In Hindi

दो सौ इक्यानबेवाँ अध्याय - गज-शान्ति

शालिहोत्र कहते हैं- मैं गजरोगोंका प्रशमन करनेवाली गज-शान्ति के विषय में कहूँगा। किसी भी शुक्ला पञ्चमीको विष्णु, लक्ष्मी तथा नागराज ऐरावतकी पूजा करे। फिर ब्रह्मा, शिव, विष्णु इन्द्र, कुबेर, यमराज, चन्द्रमा, सूर्य, वरुण, वायु, अग्नि, पृथिवी, आकाश, शेषनाग, पर्वत, विरूपाक्ष, महापद्म, भद्र, सुमनस और देवजातीय आठ हाथियोंका पूजन करे। उन आठ नागों के नाम ये हैं- कुमुद, ऐरावत, पद्म, पुष्पदन्त, वामन, सुप्रतीक, अञ्जन और नील। तत्पश्चात् होम करे और दक्षिणा दे। शान्ति-कलशके जलसे हाथियोंका अभिषेक किया जाय तो वे वृद्धिको प्राप्त होते हैं। (यह नित्य विधि है) अब नैमित्तिक शान्तिकर्मके विषयमें सुनो ॥ १-४ ॥ 

मकर आदिकी संक्रान्तियोंमें हाथियोंका नगरके बहिर्भागमें ईशानकोणमें (पूजन करे)। वेदी या पद्मासनपर अष्टदल कमलका निर्माण करके उसमें केसरके स्थानपर श्रीविष्णु और लक्ष्मीकी अर्चना करे। तदनन्तर अष्टदलोंमें क्रमशः ब्रह्मा, सूर्य, पृथ्वी, स्कन्द, अनन्त, आकाश, शिव तथा चन्द्रमाकी पूजा करे। उन्हीं आठ दलोंमें पूर्वादिके क्रमसे इन्द्रादि दिक्पालोंका भी पूजन करे। देवताओंके साथ कमलदलोंमें उनके वज्र, शक्ति, दण्ड, तोमर, पाश, गदा, शूल और पद्म आदि अस्त्रोंकी अर्चना करनी चाहिये। दलोंके बाह्यभागमें चक्रमें सूर्य और अश्विनीकुमारोंकी पूजा करे। , अष्टवसुओं एवं साध्यदेवोंका दक्षिणभागमें तथा भार्गवाङ्गिरस देवताओंका नैऋत्यकोणमें यजन करे। वायव्यकोणमें मरुद्गणोंका, दक्षिणभागमें विश्वेदेवोंका एवं रौद्रमण्डल (ईशान) में रुद्रोंका पूजन करना चाहिये। वृत्तरेखाके द्वारा निर्मित अष्टदल कमलके बहिर्भागमें सरस्वती, सूत्रकार और देवर्षियोंकी अर्चना करे। पूर्वभागमें नदी, पर्वतों एवं ईशान आदि कोणोंमें महाभूतोंकी पूजा करे। तदनन्तर पद्म, चक्र, गदा तथा शङ्खसे सुशोभित चतुष्कोण एवं चतुर्दारयुक्त भूपुरमण्डलका निर्माण करके आग्रेय आदि कोणोंमें कलशोंकी भी स्थापना करे तथा चारों ओर पताकाओं और तोरणोंका निवेश करे। सभी द्वारोंपर ऐरावत आदि नागराजोंका पूजन करे। पूर्वादि दिशाओंमें समस्त देवताओंके लिये पृथक् पृथक् सर्वोषधियुक्त पात्र रखे। हाथियोंका पूजन करके उनकी परिक्रमा करे। सभी देवताओंके उद्देश्यसे पृथक् पृथक् सौ-सौ आहुतियाँ प्रदान करे। तदनन्तर नागराज, अग्रि और देवताओंको साथ लेकर बाजे बजाते हुए अपने घरोंको लौटना चाहिये। ब्राह्मणों एवं गज-चिकित्सक आदिको दक्षिणा देनी चाहिये। तत्पश्चात् कालज्ञ विद्वान् गजराजपर आरूढ़ होकर उसके कानमें निम्नाङ्कित मन्त्र कहे। उस नागराजके मृत्युको प्राप्त होनेपर शान्ति करके दूसरे हाथीके कानमें मन्त्रका जप करे ॥५- १५॥

"महाराजने तुमको 'श्रीगज 'के पदपर नियुक्त किया है। अबसे तुम इस राजाके लिये 'गजाग्रणी' (गजोंके अगुआ) हो। ये नरेश आजसे गन्ध, माल्य एवं उत्तम अक्षतोंद्वारा तुम्हारा पूजन करेंगे। उनकी आज्ञासे प्रजाजन भी सदा तुम्हारा अर्चन करेंगे। तुमको युद्धभूमि, मार्ग एवं गृह में महाराज की सदा रक्षा करनी चाहिये। नागराज। तिर्यग्भाव (टेढ़ापन) को छोड़कर अपने दिव्यभावका स्मरण करो। पूर्वकालमें देवासुर संग्राममें देवताओंने ऐरावतपुत्र श्रीमान् अरिष्ट नागको 'श्रीगज'का पद प्रदान किया था। श्रीगजका वह सम्पूर्ण तेज तुम्हारे शरीर में प्रतिष्ठित है। नागेन्द्र। तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारा अन्तर्निहित दिव्यभावसम्पन्न तेज उद्‌बुद्ध हो उठे। तुम रणाङ्गण में राजा की रक्षा करो" ॥ १६-२० ॥

राजा पूर्वोक्त अभिषिक्त गजराजपर शुभ मुहूर्तमें आरोहण करे। शस्त्रधारी श्रेष्ठ वीर उसका अनुगमन करें। राजा हस्तिशालामें भूमिपर अङ्कित कमलके बहिर्भागमें दिक्पालोंका पूजन करे। केसरके स्थानपर महाबली नागराज, भूदेवी और सरस्वतीका यजन करे। मध्यभागमें गन्ध, पुष्प और चन्दनसे डिण्डिमकी पूजा एवं हवन करके ब्राह्मणोंको रसपूर्ण कलश प्रदान करे। पुनः गजाध्यक्ष, गजरक्षक और ज्यौतिषीका सत्कार करे। तदनन्तर, डिण्डिम गजाध्यक्षको प्रदान करे। वह भी इसको बजावे। गजाध्यक्ष नागराजके जघनप्रदेशपर आरूढ़ होकर शुभ एवं गम्भीर स्वरमें डिण्डिमवादन करे॥ २१-२४॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'गज-शान्तिका कथन' नामक दो सौ इक्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २९९ ॥

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