अग्नि पुराण दो सौ छियासीवाँ अध्याय ! Agni Purana 286 Chapter !

अग्नि पुराण दो सौ छियासीवाँ अध्याय ! Agni Purana 286 Chapter !

अग्नि पुराण 286 अध्याय - कल्पसागरः

धन्वन्तरिरुवाच

कल्पान्मृत्युञ्चयान्वक्ष्ये ह्यायुर्द्दान्रोगमर्द्दनान् ।
त्रिशती रोगहा सेव्या मध्वाज्यत्रिफलामृता ।। १ ।।

पलं पलार्द्धं कर्षं वा त्रिफलां सकलां तथा ।
विल्वतैलस्य नस्यञ्च मासं पञ्चशती कवि ।। २ ।।

रीगापमृत्युबलिजत् तिलं भल्लातकं तथा ।
पञ्चाङ्गं वाकुचीचूर्णं षण्मासं शकदिरोदकैः ।। ३ ।।

क्काथैः कुष्ठञ्जयेत् सेव्यं चूर्णं लीलकुरुण्टजम् ।
क्षीरेण मधुना वापि शतायुः खण्डदुग्धभुक् ।। ४ ।।

मध्वाज्यशुण्ठीं संसेव्य पलं प्रातः स मृत्युजित् ।
बलीपलितजिज्जीवेन्माण्डूकी चूर्णदुग्धपाः ।। ५ ।।

उच्चटामधुना कर्ष पयःपा मृत्युजिन्नरः ।
मध्वाज्यैः पयसा वापि निर्गुण्डी रोगमृत्युजित् ।। ६ ।।

पलाशतैलं कर्षैकं षण्मासं मधुना पिवेत् ।
दुग्धभोजी पञ्चशती सहस्रायुर्भ्वेन्नरः ।। ७ ।।

ज्योतिष्मतीपत्ररसं पयसा त्रिफलां पिवेत् ।
मधुनाज्यन्ततस्तद्वत् शतावर्य्या रजः पलं ।। ८ ।।

क्षौद्राज्यैः पयसा वापि निर्गुण्‌डी रोगमृत्युजित् ।
रुदन्तिकाकज्यमधुभुक् दुग्धभोजी च मृत्युजित् ।। ९ ।।

कर्षं भृङ्गरसेनापि रोगजीच्चामरो भवेत् ।
रुदन्तिकाज्यमधुभुक् दुग्धभोजी च मृत्युजित् ।। १० ।।

कर्षचूर्णं हरीतक्या भावितं भृङ्गराड्रसैः ।
घृतेन मधुना सेव्य त्रिशतायुश्च रोगजित् ।। ११ ।।

वाराहिका भृङ्गरसं लोहचूर्णं शतावरी ।
साज्यं कर्षं पञ्चशती कार्त्तचूर्णं शतावरी ।। १२ ।।

भावितं भृङ्गराजेन मध्वाज्यन्त्रिशती भवेत् ।
ताम्रं मृतं मृततुल्यं गन्धकञ्च कुमारिका ।। १३ ।।

रसैविमृज्य द्वे गुञ्जे साज्यं पञ्चशताब्दवान् ।
अश्वगन्धा पलं तैलं साज्यंखण्डं शताब्दवान् ।। १४ ।।

पलम्पुनर्न्नवाचूर्णं मध्वाज्यपयसा पिवन् ।
अशोकचूर्णस्य पलं मध्वाज्यं पयसार्त्तिन्त् ।। १५ ।।

तिलस्य तैलं समधु नस्यात् कृष्णकचः शती ।
कर्षमक्षं समध्वाज्यं शतायुः पयसा पिवन् ।। १६ ।।

अभयं सगुडञ्जग्ध्वा घृतेन मधुरादिभिः ।
दुग्धान्नभुक् कृष्णकेशोऽरोगी पञ्चशताब्दवान् ।। १७ ।।

पलङ्कुष्माण्डिकाचूर्णं मध्वाज्यपयसा पिवन् ।
मासं दुग्धान्नभोजी च सहस्रायुविंशोगवान् ।। १८ ।।

शालूकचूर्णं भृङ्गाज्यं समध्वाज्यं शताब्दकृतं ।
कटुतुम्बीतैलनस्यं कर्षं शतद्वयाब्दवान् ।। १९ ।।

त्रिफला पिप्पली शुण्ठी सेविता त्रिशताव्दकृत् ।
शतावर्य्याः पूर्वयोगः सहस्रायुर्बलातिकृत् ।। २० ।।

चित्रकेन तथा पूर्वस्तथा शुण्ठीविडङ्गतः ।
लोहेन भृङ्गराजेन बलया निम्बपञ्चकैः ।। २१ ।।

खदिरेण च निर्गुण्ड्या कण्टकार्य्याथ वासकात् ।
वर्षाभुवा तद्रसैर्वा भावितो वटिकाकृतः ।। २२ ।।

चूर्णङ्‌घृतैर्वा मधुना गुडाद्यैर्वारिणा तथा ।
ॐ ह्रूं स इति मन्त्रेण मन्त्रितो योगराजकः ।। २३ ।।

मृतसञ्जीवनीकल्पो रोगमृत्युञ्जयो भवेत् ।
सुरासुरैश्च मुनिभिः सेविताः कल्पसागराः ।। २४ ।।

गजायुर्वेदं प्रोवाच पालकाप्योऽङ्गराजकं ।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये कल्पसागरो नाम षडशीत्यधिकद्विशततमोऽध्ययः ।।

अग्नि पुराण - दो सौ छियासीवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 286 Chapter!-In Hindi

दो सौ छियासीवाँ अध्याय मृत्युञ्जय योगोंका वर्णन

भगवान् धन्वन्तरि कहते हैं- सुश्रुत। अब मैं मृत्युञ्जय-कल्पोंका वर्णन करता हूँ, जो आयु देनेवाले एवं सब रोगोंका मर्दन करनेवाले हैं। मधु, घृत, त्रिफला और गिलोयका सेवन करना चाहिये। यह रोगको नष्ट करनेवाली है तथा तीन सौ वर्षतककी आयु दे सकती है। चार तोले, दो तोले अथवा एक तोलेकी मात्रामें त्रिफलाका सेवन वही फल देता है। एक मासतक बिल्व तैलका नस्य लेने से पाँच सौ वर्षकी आयु और कवित्व-शक्ति उपलब्ध होती है। भिलावा एवं तिलका सेवन रोग, अपमृत्यु और वृद्धावस्थाको दूर करता है। वाकुचीके पञ्चाङ्गके चूर्णको खैर (कत्था) के क्वाथके साथ छः मासतक प्रयोग करनेसे रोगी कुष्ठपर विजयी होता है। नीली कटर्सरैयाके चूर्णका मधु या दुग्धके साथ सेवन हितकर है। खाँडयुक्त दुग्धका पान करनेवाला सौ वर्षोंकी आयु प्राप्त करता है। 

प्रतिदिन प्रातःकाल मधु, घृत और सोंठका चार तोलेकी मात्रामें सेवन करनेवाला मनुष्य मृत्युविजयी होता है। ब्राह्मीके चूर्णके साथ दूधका सेवन करनेवाले मनुष्यके चेहरेपर झुर्रियाँ नहीं पड़ती हैं और उसके बाल नहीं पकते हैं; वह दीर्घजीवन लाभ करता है। मधुके साथ उच्चटा (भुईं आँवला) को एक तोलेकी मात्रामें खाकर दुग्धपान करनेवाला मनुष्य मृत्युपर विजय पाता है। मधु, घी अथवा दूधके साथ मेउड़के रसका सेवन करनेवाला रोग एवं मृत्युको जीतता है। छः मासतक प्रतिदिन एक तोलेभर पलाश-तैलका मधुके साथ सेवन करके दुग्धपान करनेवाला पाँचे सौ वर्षोंकी आयु प्राप्त करता है। दुग्धके साथ काँगनीके पत्तोंके रसका या त्रिफलाका प्रयोग करे। इससे मनुष्य एक हजार वर्षोंकी आयु प्राप्त कर सकता है। इसी प्रकार मधुके साथ घृत और चार तोलेभर शतावरी-चूर्णका सेवन करनेसे भी सहस्रों वर्षोंकी आयु प्राप्त हो सकती है। घी अथवा दूधके साथ मेउड़की जड़का चूर्ण या पत्रस्वरस रोग एवं मृत्युका नाश करता है। 

नीमके पञ्चाङ्ग चूर्णको खैरके क्वाथ (काढ़े) की भावना देकर भृङ्गराजके रसके साथ एक तोलाभर सेवन करनेसे मनुष्य रोगको जीतकर अमर हो सकता है। रुदन्तिकाचूर्ण घृत और मधुके साथ सेवन करनेसे या केवल दुग्धाहारसे मनुष्य मृत्युको जीत लेता है। हरीतकीके चूर्णको भृङ्गराजरसकी भावना देकर एक तोलेकी मात्रामें घृत और मधुके साथ सेवन करनेवाला रोगमुक्त होकर तीन सौ वर्षोंकी आयु प्राप्त कर सकता है। गेठी, लोहचूर्ण, शतावरी समान भागसे भृङ्गराज रस तथा घीके साथ एक तोला मात्रामें सेवन करनेसे मनुष्य पाँच सौ वर्षकी आयु प्राप्त करता है। लौहभस्म तथा शतावरीको भृङ्गराजके रसमें भावना देकर मधु एवं घीके साथ लेनेसे तीन सौ वर्षकी आयु प्राप्त होती है। ताम्रभस्म, गिलोय, शुद्ध गन्धक समान भाग घीकुँवारके रसमें घोटकर दो-दो रत्तीकी गोली बनाये। इसका घृतसे सेवन करनेसे मनुष्य पाँच सौ वर्षकी आयु प्राप्त करता है। असगन्ध, त्रिफला, चीनी, तैल और घृतमें सेवन करनेवाला सौ वर्षतक जीता है। गदहपूर्नाका चूर्ण एक पल मधु, घृत और दुग्धके साथ भक्षण करनेवाला भी शतायु होता है। अशोककी छालका एक पल चूर्ण मधु और घृतके साथ खाकर दुग्धपान करनेसे रोगनाश होता है। निम्बके तैलकी मधुसहित नस्य लेनेसे मनुष्य सौ वर्ष जीता है और उसके केश सदा काले रहते हैं। बहेड़ेके चूर्णको एक तोला मात्रामें शहद, घी और दूधसे पीनेवाला शतायु होता है। 

मधुरादिगणकी ओषधियों और हरीतकीको गुड़ और घृतके साथ खाकर दूधके सहित अन्न भोजन करनेवालोंके केश सदा काले रहते हैं तथा वह रोगरहित होकर पाँच सौ वर्षोंका जीवन प्राप्त करता है। एक मासतक सफेद पेठेके एक पल चूर्णको मधु, घृत और दूधके साथ सेवन करते हुए दुग्धान्नका भोजन करनेवाला नीरोग रहकर एक सहस्र वर्षकी आयुका उपभोग करता है। कमलगन्धका चूर्ण भाँगरेके रसकी भावना देकर मधु और घृतके साथ लिया जाय तो वह सौ वर्षोंकी आयु प्रदान करता है। कड़वी तुम्बीके एक तोलेभर तेलका नस्य दो सौ वर्षोंकी आयु प्रदान करता है। त्रिफला, पीपल और सोंठ इनका प्रयोग तीन सौ वर्षोंकी आयु प्रदान करता है। इनका शतावरीके साथ सेवन अत्यन्त बलप्रद और सहस्र वर्षोंकी आयु प्रदान करनेवाला है। इनका चित्रकके साथ तथा सोंठके साथ विडंगका प्रयोग भी पूर्ववत् फलप्रद है। त्रिफला, पीपल और सोंठ इनका लोह, भृङ्गराज, खरेटी, निम्ब पञ्चाङ्ग, खैर, निर्गुण्डी, कटेरी, अडूसा और पुनर्नवाके साथ या इनके रसकी भावना देकर या इनके संयोगसे बटी या चूर्णका निर्माण करके उसका घृत, मधु, गुड़ और जलादि अनुपानोंक साथ सेवन करनेसे पूर्वोक्त फलकी प्राप्ति होती है। 'ॐ हूं सः' इस मन्त्रसे अभिमन्त्रित योगराज मृतसंजीवनीके समान होता है। उसके सेवनसे मनुष्य रोग और मृत्युपर विजय प्राप्त करता है। देवता, असुर और मुनियोंने इन कल्प सागरोंका सेवन किया है॥ १-२३॥ गजायुर्वेद का वर्णन पालकाप्यने अङ्गराज (लोमपाद) से किया था ॥ २४॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'मृत्युञ्जय कल्प-कथन' नामक दो सौ छियासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २८६ ॥

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