अग्नि पुराण दो सौ इक्यासीवाँ अध्याय ! Agni Purana 281 Chapter !

अग्नि पुराण दो सौ इक्यासीवाँ अध्याय ! Agni Purana 281 Chapter !

अग्नि पुराण 281 अध्याय - रसादिलक्षणम्

धन्वन्तरिरुवाच

रसादिलक्षणं वक्ष्ये भेषजानां गुणं श्रृणु ।
रसवीर्य्यविपाकज्ञो नृपादीन्रक्षयेन्नरः ।। १ ।।

रसाः स्वाद्वम्ललवणाः सोमजाः परिकीर्त्तिताः ।
कटुतिक्तकषायानि तथाग्नेया महाभुज ।। २ ।।

त्रिधा विपाको द्रव्यस्य कट्‌वम्ल्लवणआत्मकः ।
द्विधा वीय्य समुद्दिष्टमुष्णं शीतं तथैव च ।। ३ ।।

अनिर्देश्यप्रभावश्च ओषधीनां द्विजोत्तम ।
मधुरश्च कषायश्च तिक्तश्चैव तथा रसः ।। ४ ।।

शीतवीर्य्याः समुद्दिष्टाः शेषास्तूष्णाः प्रकीर्त्तिताः ।
गुडुची तत्र तिक्तापि भवत्युष्णातिवीर्यतः ।। ५ ।।

उष्णा कषायापि तथा पथ्या भवति मानद ।
मधुरोपि तथा मांस उष्ण एव प्रकीर्त्तितः ।। ६ ।।

लवणो मधुरश्चैव विपाकमधुरौ स्मृतौ ।
अम्लोष्णश्च तथा प्रोक्तः शेषाः कटुविपाकिनः ।। ७ ।।

वीर्य्यपाके विपर्य्यस्ते प्रभावात्तत्र निश्चयः ।
मधुरोऽपि कटुः पाके यच्चः क्षौद्रं प्रकीर्त्तितं ।। ८ ।।

क्काथयेत् षोडशगुणं पिवेद्‌द्रव्याच्चतुर्गुणम् ।
कल्पनैषा कषायस्य यत्र नोक्तो विधिर्भवेत् ।। ९ ।।

कषायन्तु भवेत्तोयं स्नेहपाके चतुर्गुणं ।
द्रव्यतुल्यं समुद्‌धृत्य द्रव्यं स्नेहं क्षिपेद्‌बुधः ।। १० ।।

तावत्प्रमाणं द्रव्यस्य स्नेहपादं ततः क्षिपेत् ।
तोयवर्ज्जन्तु यद्‌द्रव्यं स्नेहद्रब्यं तथा भवेत् ।। ११ ।।

संवर्त्तितौषधः पाकः स्नेहानां परिकीर्त्तितः ।
तत्तुल्यता तु लेह्यस्य तथा भवति सुश्रुत ।। १२

स्वच्छमल्पौषधं क्काथं कषायञ्चोक्तवद्भवेत् ।
अक्षं चूर्णस्य निर्दिष्टं कषायस्य चतुष्पलं ।। १३ ।।

मध्यमैषा स्मृता मात्रा नास्ति मात्राविकल्पना ।
वयः कालं बलं वह्निं देशं द्रव्यं रुजं तथा ।। १४ ।।

समवेक्ष्य महाभाग मात्रायाः कल्पना भवेत् ।
सौम्यास्तत्र रसाः प्रायो विज्ञेया धातुवर्द्धनाः ।। १५ ।।

मधुरास्तु विशेषेण विज्ञेया धातुवर्द्धनाः ।
दोषाणाञ्चैव धातूना द्रव्यं समगुणन्तु यत् ।। १६ ।।

तदेव वृद्धये ज्ञेयं विपरीतं क्षमावहम् ।
उपस्तम्भत्रयं प्रोक्तं देहेऽस्मिन्मनुजोत्तम ।। १७ ।।

आहारो मैथुनं निद्रा तेषु यत्नः सदा भवेत् ।
असेवनात् सेवनाच्च अत्यन्तं नाशमाप्नुयात् ।। १८ ।।

क्षयस्य बृंहणं कार्यं स्थूलदेहस्य कर्षणम् ।
रक्षणं मध्यकायस्य देहभेदास्त्रयो मताः ।। १९ ।।

उपक्रमद्वयं प्रोक्तं तर्पणं वाप्यतर्पणं ।
हिताशीच मिताशी च जीर्णाशी च तथा भवेत् ।। २० ।।

ओषधीनां पञ्चविधा तथा भवति कल्पना ।
रसः कल्कः श्रृतः शीतः फाण्टश्च मनुजोत्तम ।। २१ ।।

रसश्च पीडको ज्ञेयः कल्क आलोड़िताद्‌ भवेत् ।
क्कथितश्च श्रृतो ज्ञेयः शीतः पर्युषितो निशां ।। २२ ।।

सद्योभिश्रृतपूतं यत् तत् फाण्टमभिधीयते ।
करणानां शतञ्चैव षष्टिश्चैवाधिका स्मृता ।। २३ ।।

यो वेत्ति स ह्यजेयः स्यात्सम्बन्धे वाहुशौण्डिकः ।
आहारशुद्धिरगन्यर्थमग्निमूलं बलं नृणां ।। २४ ।।

ससिन्धुत्रिफलाञ्चाद्यात्सुराज्ञि अभिवर्णदां ।
जाङ्गलञ्च रसं सिन्धुयुक्तं दधि पयः कणां ।। २५ ।।

रसाधिकं समं कुर्य्यान्नरो वाताधिकोऽपि वा ।
निदाघे मर्द्दनं प्रोक्तं शिशिरे च समं बहु ।। २६ ।।

वसन्ते मध्यमं ज्ञेयन्निदाघे मर्दनोल्वणं ।
त्वचन्तु प्रथमं मर्द्द्यमङ्गञ्च तदनन्तरं ।। २७ ।।

स्नायुरुधिरदेहेषु अस्थि भातीव मांसलं ।
स्कन्धौ बाहू तथैवेह तथा जङ्घे सजानुनी ।। २८ ।।

अरिवन्‌मर्द्दयेत् प्राज्ञो जत्रु वक्षश्च पूर्ववत् ।
अङ्गसन्धिषु सर्व्वेषु निष्पीड्य बहुलं तथा ।। २९ ।।

प्रसारयेदङ्गसन्धीन्न च क्षेपेण चाक्रमात् ।
नाजीर्णे तु श्रमं कुर्य्यान्न भुक्त्वा पीतवान्नरः ।। ३० ।।

दिनस्य तु चतुर्भाग ऊद्‌र्ध्वन्तु प्रहरार्द्धके ।
व्यायामं नैव कर्त्तव्यं स्नायाच्छीताम्बुना सकृत् ।। ३१ ।।

वार्य्युष्णञ्च श्रमं जह्याद्‌धृदा श्वासन्न धारयेत् ।
व्यायामश्च कफं हन्याद्वातं हन्याच्च मर्द्दनम् ।। ३२ ।।

स्नानं पित्ताधिकं हन्यात्तस्यान्ते चातपाः प्रियाः ।
आतपक्लेशकर्मादौ क्षेमव्यायामिनो नराः ।। ३३ ।।

इत्यादि महा पुराणे आग्नेये रसादिलक्ष्णं नामैकाशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।

अग्नि पुराण - दो सौ इक्यासीवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 281 Chapter!-In Hindi

दो सौ इक्यासीवाँ अध्याय - रस आदि के लक्षण

भगवान् धन्वन्तरिने कहा- सुश्रुत। अब मैं ओषधियों के रस आदिके लक्षणों और गुणोंका वर्णन करता हूँ, ध्यान देकर सुनो। जो ओषधियोंके रस, वीर्य और विपाकको जानता है, वही चिकित्सक राजा आदिकी रक्षा कर सकता है ॥ १ ॥

महाबाहो ! मधुर, अम्ल और लवण रस चन्द्रमासे उत्पन्न कहे गये हैं। कटु, तिक्त एवं कषाय रस अग्निसे उत्पन्न माने गये हैं। द्रव्यका विपाक तीन प्रकारका होता है-कटु, अम्ल और लवणरूप। वीर्य दो प्रकारके कहे गये हैं- शीत और उष्ण। द्विजोत्तम! ओषधियोंका प्रभाव अकथनीय है। मधुर, तिक्त और कषायरस 'शीतवीर्य' कहे गये हैं एवं शेष रस 'उष्णवीर्य' माने गये हैं; किंतु गुडूची (गिलोय) तिक्तरसवाली होनेपर भी अत्यन्त वीर्यप्रद होनेसे उष्ण है ॥ २-५॥

मानद । इसी प्रकार हरड़ कषायरससे युक्त होनेपर भी 'उष्णवीर्य' होती है तथा मांस (जटामांसी) मधुररससे युक्त होनेपर भी 'उष्णवीर्य' ही कहा गया है। लवण और मधुर- ये दोनों रस विपाकमें मधुर माने गये हैं। अम्लोष्णका विपाक भी मधुर होता है। शेष रस विपाकमें कटु हैं। इसमें संशय नहीं है कि विशेष वीर्ययुक्त द्रव्यके विपाकमें उसके प्रभावके कारण विपरीतता भी हो जाती है; क्योंकि शहद मधुर होनेपर भी विपाकमें कटु माना गया है॥६-८॥

द्रव्यसे सोलहगुना जल लेकर क्वाथ करे। प्रक्षिप्त द्रव्यसे चारगुना जल शेष रहनेपर (क्वाथको) छानकर पीवे। यह क्वाथके निर्माणकी विधि है। जहाँ क्वाथकी विधि न बतलायी गयी हो, वहाँ इसीको प्रमाण जानना चाहिये ॥ ९॥

स्नेह (तैल या घृत) पाककी विधिमें स्नेह से चौगुना' कषाय (क्वथित द्रव्य) अथवा बराबर बराबर तैल एवं विभिन्न द्रव्योंके क्वाथ लेने चाहिये। तैलका परिपाक तब समझना चाहिये, जब कि उसमें डाली हुई ओषधियाँ उफनते हुए तैलमें गलकर ऐसी हो जायें, कि उन्हें ठंडा करके यदि हाथपर रगड़ा जाय तो उनकी बत्ती-सी बन जाय। विशेष बात यह है कि उस बत्तीका सम्बन्ध अग्ग्रिसे किया जाय तो चिड़‌चिड़ाहटकी प्रतीति न हो, तब सिद्धतैल मानना चाहिये ॥ १०-११॥

सुश्रुत ! लेह्य (चाटनेयोग्य) औषधद्रव्योंमें भी इसीके समान प्रक्षेप आदि होते हैं। निर्मल तथा उचित औषध प्रक्षेपद्वारा निर्मित क्वाथ उत्तम होता है (तथा उसका प्रयोग लेह्य आदिमें करना चाहिये)। चूर्णकी मात्रा एक अक्ष (तोला) और क्वाथकी मात्रा चार पल' है। यह मध्यम मात्रा (साधारण मात्रा) बतलायी गयी है। वैसे मात्राका परिमाण कोई निश्चित परिमाण नहीं है। महाभाग ! रोगीको अवस्था, बल, अग्रि, देश, काल, द्रव्य और रोगका विचार करके मात्राकी कल्पना होती है। उसमें सौम्य रसोंको प्रायः धातुवर्द्धक जानना चाहिये ॥ १२-१५॥

मधुर रस तो विशेषतया शरीरके धातुओंकी वृद्धिके लिये जानना चाहिये। दोष, धातु और द्रव्य' समानगुणयुक्त होनेपर शरीरकी वृद्धि करते हैं और इसके विपरीत होनेपर क्षयकारक होते हैं। नरश्रेष्ठ। इस शरीरमें तीन प्रकारके उपस्तम्भ (खंभे) कहे गये हैं-आहार, मैथुन और निद्रा। मनुष्य इनके प्रति सदा सावधानी रखे। इनके पूर्णतया परित्याग या अत्यन्त सेवनसे शरीर क्षयको प्राप्त होता है। कृश शरीरका 'बृंहण' (पोषण), स्थूल शरीरका 'कर्षण' और मध्यम शरीरका 'रक्षण' करना चाहिये। ये शरीरके तीन भेद माने गये हैं। 'तर्पण' और 'अतर्पण' इस प्रकार आहारादि उपक्रमोंके दो भेद होते हैं। मनुष्यको सदा 'हिताशी' होना चाहिये (हितकारी पदाथोंको ही खाना चाहिये) और 'मिताशी' बनना चाहिये (परिमित भोजन करना चाहिये) तथा 'जोर्णाशी' होना चाहिये (पूर्वभुक्त अन्नका परिपाक हो जानेपर ही पुनः भोजन करना चाहिये) ॥ १६-२०॥ 

नरश्रेष्ठ! ओषधियोंकी निर्माण विधि पाँच प्रकारकी मानी गयी है-रस, कल्क, क्वाथ, शीतकषाय तथा फाण्ट। औषधोंको निचोड़नेसे 'रस' होता है, मन्थनसे 'कल्क' बनता है, औटानेसे 'क्वाथ' होता है, रात्रिभर रखनेसे 'शीत' और तत्काल जलमें कुछ गरम करके छान लेनेसे 'फाष्ट' होता है॥ २१-२२॥

(इस प्रकार) चिकित्साके एक सौ आठ साधन हैं। जो वैद्य उनको जानता है, वह अजेय होता है। अर्थात् वह चिकित्सामें कहीं असफल नहीं होता है। वह 'बाहुशौण्डिक' कहा जाता है। आहार-शुद्धि अग्रिके संरक्षण, संवर्द्धन एवं संशुद्धि आदिके लिये आवश्यक है; क्योंकि मनुष्योंके बलका अग्नि ही मूल आधार है। बलके लिये सैन्धव लवणसे युक्त त्रिफला, कान्तिप्रद उत्तम पेय, जाङ्गल रस, सैन्धवयुक्त दही और दुग्ध तथा पिप्पली (पीपल) का सेवन करना चाहिये ॥ २३-२५ ॥

मनुष्यको चाहिये कि जो रस (या धातु आदि) अधिक हो गये, अर्थात् बढ़ गये हैं, उन्हें सम करे- साम्यावस्थामें लावे। वातप्रधान प्रकृतिके मनुष्यको अपनी परिस्थितिके अनुसार ग्रीष्म ऋतुमें अङ्गमर्दन करना चाहिये। शिशिर ऋतुमें साधारण या अधिक, वसन्त ऋतुमें मध्यम और ग्रीष्म ऋतुमें विशेषरूपसे अङ्गोंका मर्दन करे। पहले त्वचाका, उसके बाद मर्दन करनेयोग्य अङ्गका मर्दन करे ॥ २६-२७ ॥

स्नायु एवं रुधिरसे परिपूर्ण शरीरमें अस्थिसमूह अत्यन्त मांसल सा प्रतीत होता है। इसी प्रकार कंधे, बाहु, जानुद्वय तथा जल्लाद्वय भी मांसल प्रतीत होते हैं। बुद्धिमान् मनुष्य शत्रुके समान इनका मर्दन करे। जत्रु (हँसलीका भाग), वक्षःस्थल (छाती) इन्हें पूर्ववत् साधारण प्रकारसे मले तथा समस्त अङ्ग- संधियोंको खूब मलकर उन्हें (अङ्ग-संधियोंको) फैला दे। किंतु उनका प्रसारण हठात् एवं क्रमविरुद्ध न करे। मनुष्य अजीर्णमें, भोजनोपरान्त और तत्काल जल पीकर परिश्रम न करे ॥ २८-३० ॥

दिनके चार भाग (प्रहर) होते हैं। प्रथम प्रहरार्धके व्यतीत हो जानेपर व्यायाम न करे। शीतल जलसे एक बार स्नान करे। उष्ण जल थकावटको दूर करता है। हृदयके श्वासको अवरुद्ध न करे। व्यायाम कफको नष्ट करता है तथा मर्दन वायुका नाश करता है। स्नान पित्ताधिक्यका शमन करता है। स्नानके पश्चात् धूपका सेवन प्रिय है। व्यायामका सेवन करनेवाले मनुष्य धूप और परिश्रमयुक्त कार्यको सहन करनेमें समर्थ होते हैं।॥ ३१-३३॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'रसादि लक्षणोंका वर्णन' नामक दो सौ इक्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २८१॥

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