अग्नि पुराण दो सौ छिहत्तरवाँ अध्याय ! Agni Purana 276 Chapter !
अग्नि पुराण 276 अध्याय - द्वादशसङ्ग्रामाः
अग्निरुवाच
कश्यपो वसुदेवोऽभूद्देवकी चादितिर्व्वरा ।
देवक्यां वसुदेवात्तु कृष्णोऽभूत्तपसान्वितः ।। १ ।।
धर्म्मसंरक्षणार्थाय ह्यधर्म्महरणाय च ।
सुरादेः पालनार्थञ्च दैत्यादेर्म्मथनाय च ।। २ ।।
रुक्मिणी सत्यभामा च सत्या नग्नजिती प्रिया ।
सत्यभामा हरेः सेव्या गान्धारी लक्ष्मणा तथा ।। ३ ।।
मित्रविन्दा१ च कालिन्दी देवी जाम्बवती तथा ।
सुशीला च तथा माद्री कौशल्या विजया जया ।। ४ ।।
एवमादीनि देवीनां सहस्राणि तु षोड़श ।
प्रद्युम्नाद्याश्च रुक्मिण्यां भीमाद्याः सत्यभामया ।। ५ ।।
जाम्बवत्याञ्च शाम्बाद्याः कृष्णस्यासंस्तथापरे ।
शतं शतसहस्राणां पुत्राणां तस्य धीमतः ।। ६ ।।
अशीतिश्च सहस्राणि यादवाः कृष्णरक्षिताः ।
प्रद्युम्नस्य तु वैदर्भ्यामनिरुद्धो रणप्रियः ।। ७ ।।
अनिरुद्धस्य वज्राद्या यादवाः सुमहावलाः ।
तिस्रः कोट्यो यादवानां षष्टिर्लक्षाणि दानवाः ।। ८ ।।
मनुष्ये बाधका ये तु नन्नाशाय बभूव सः ।
कर्त्तु कर्मव्यवस्थानं मनुष्यो जायते हरिः ।। ९ ।।
देवासुराणां सङ्ग्रामा दायार्थं द्वादशाभवन् ।
प्रथमो नारसिंहस्तु द्वितीयो वामनो रणः ।। १० ।।
सङ्ग्रामस्त्वथ वाराहश्चतुर्थोऽमृतमन्थनः ।
तारकामयसङ्ग्रामः षष्ठो ह्याजीवको रणः ।। ११ ।।
त्रैपुरश्चान्धकबधो नवमो वृत्रघातकः ।
जितो हालाहलश्चाथ घोरः कोलाहलो रणः ।। १२ ।।
हिरण्यकशिपोश्चोरो विदार्य्य च नखैः पुरा ।
नारसिंहो देवपालः प्रह्लादं कृतवान् नृपम् ।। १३ ।।
देवासुरे वामनश्च छतित्वा बलिमूर्ज्जतम् ।
महेन्द्राय ददौ राज्यं काश्यपोऽदितिसम्भवः ।। १४ ।।
वराहस्तु हिरण्याक्षं हत्वा देवानपालयत् ।
उज्जहार भुवं मग्नां देवदेवैरभिष्टुतः ।। १५ ।।
मन्थानं मन्दरं कृत्वा नेत्रं कृत्वा तु वासुकिम् ।
सुरासुरैश्च मथितं२ देवेभ्यश्चामृतं ।। १६ ।।
तारकामयसङ्ग्रामे तदा देवाश्च पालिताः ।
निवार्य्येन्द्रं गुरून् देवान् दानवान्सोमवंशकृत् ।। १७ ।।
विश्वामित्रवशिष्ठात्रिकवयश्च रणे सुरान् ।
अपालयन्ते निर्व्यार्य्य रगद्वेषादिदानवान् ।। १८ ।।
पृथ्वीरथे ब्रह्मयन्तुरीशस्य शरणो हरिः ।
ददाह त्रिपुरं देवपालको दैत्यमर्दनः ।। १९ ।।
गौरीं जिहीर्षुणा रुद्रमन्धकेनार्दितं हरिः ।
अनुरक्तश्च रेवत्यां चक्रेचान्धासुरार्दनम् ।। २० ।।
अपां फेनमयो भूत्वा देवासुररणे हरन्३ ।
वृत्रे देवहरं विष्णुर्देवधर्म्मानपालयत् ।। २१ ।।
शाल्वादीन् दानवान् जित्वा हरिः परशुरामकः ।
अपालयत् सुरादींश्च दुष्टक्षत्रं निहत्य च ।। २२ ।।
हालाहलं विषं दैत्यं निराकृत्य महेश्वरात् ।
भयं निर्णाशयामास देवानां मधुसूदनः ।। २३ ।।
हालाहलं विषं यश्च दैत्यः कोलाहलो जितः ।
पालिताश्च सुराः सर्व्वे विष्णुना धम्मपालनात् ।। २४ ।।
देवासुरे रणे यश्च दैत्यः कोलाहलो जितः ।
पालिताश्च सुराः सर्व्वे विष्णुना धर्म्मपालनात् ।। २५ ।।
राजानो राजपुत्राश्च मुनयो देवता हरिः ।
यदुक्तं यच्छ नैवोक्तमवतारा हरेरिमे ।। २६ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये द्वादशसङ्ग्रामा नाम षट्सप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।
अग्नि पुराण - दो सौ छिहत्तरवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 276 Chapter!-In Hindi
दो सौ छिहत्तरवाँ अध्याय - श्री कृष्ण की पत्नियों तथा पुत्रों के संक्षेप से नामनिर्देश तथा द्वादश-संग्रामों का संक्षिप्त परिचय
अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ महर्षि कश्यप वसुदेवके रूपमें अवतीर्ण हुए थे और नारियोंमें श्रेष्ठ अदितिका देवकीके रूपमें आविर्भाव हुआ था। वसुदेव और देवकीसे भगवान् श्रीकृष्णका प्रादुर्भाव हुआ। वे बड़े तपस्वी थे। धर्मकी रक्षा, अधर्मका नाश, देवता आदिका पालन तथा दैत्य आदिका मर्दन यही उनके अवतारका उद्देश्य था। रुक्मिणी, सत्यभामा और नग्रजित्कुमारी सत्या- ये भगवान्की प्रिय रानियाँ थीं।
इनमें भी सत्यभामा उनकी आराध्य देवी थीं। इनके सिवा गन्धार-राजकुमारी लक्ष्मणा, मित्रविन्दा, देवी कालिन्दी, जाम्बवती, सुशीला, माद्री, कौसल्या, विजया और जया आदि सोलह हजार देवियाँ भगवान् श्रीकृष्णकी पत्नियाँ थीं। रुक्मिणीके गर्भसे प्रद्युम्न आदि पुत्र उत्पन्न हुए थे और सत्यभामाने भीम आदिको जन्म दिया था। जाम्बवतीके गर्भसे साम्ब आदिकी उत्पत्ति हुई थी। ये तथा और भी बहुत से श्रीकृष्णके पुत्र थे। परम बुद्धिमान् भगवान् के पुत्रोंकी संख्या एक करोड़ अस्सी हजारके लगभग थी। समस्त यादव भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित थे। प्रद्युम्नसे विदर्भराजकुमारी रुक्मवतीके गर्भसे अनिरुद्ध नामक पुत्र हुआ। अनिरुद्धको युद्ध बहुत ही प्रिय था। अनिरुद्धके पुत्र वज्र आदि हुए। सभी यादव अत्यन्त बलवान् थे। यादवोंकी संख्या कुल मिलाकर तीन करोड़ थी। उस समय साठ लाख दानव मनुष्य-योनिमें उत्पन्न हुए थे, जो लोगोंको कष्ट पहुँचा रहे थे। उन्हींका विनाश करनेके लिये भगवान्का अवतार हुआ था। धर्म मर्यादाकी रक्षा करनेके लिये ही भगवान् श्रीहरि मनुष्यरूपमें प्रकट होते हैं ॥ १-९॥
देवता और असुरोंमें अपने दायभागके लिये बारह संग्राम हुए हैं। उनमें पहला 'नारसिंह' और दूसरा 'वामन' नामवाला युद्ध है। तीसरा 'वाराह संग्राम' और चौथा 'अमृत मन्थन' नामक युद्ध है। पाँचवाँ 'तारकामय संग्राम' और छठा 'आजीवक' नामक युद्ध हुआ। सातवाँ 'त्रैपुर' आठवाँ 'अन्धकवध 'और नाँ 'वृत्रविघातक संग्राम' है। दसवाँ 'जित्', ग्यारहवाँ 'हालाहल' और बारहवाँ 'घोर कोलाहल' नामक युद्ध हुआ है॥ १०-१२॥
प्राचीनकालमें देवपालक भगवान् नरसिंहने हिरण्यकशिपुका हृदय विदीर्ण करके प्रह्लादको दैत्योंका राजा बनाया था। फिर देवासुर संग्रामके अवसरपर कश्यप और अदितिसे वामनरूपमें प्रकट होकर भगवान्ने बल और प्रतापमें बढ़े- चढ़े हुए राजा बलिको छला और इन्द्रको त्रिलोकीका राज्य दे दिया। 'वाराह' नामक युद्ध उस समय हुआ था, जबकि भगवान्ने वाराह अवतार धारण करके हिरण्याक्षको मारा, देवताओंकी रक्षा की और जलमें डूबी हुई पृथ्वीका उद्धार किया। उस समय देवाधिदेवोंने भगवान्की स्तुति की ॥ १३-१५ ॥
एक बार देवता और असुरोंने मिलकर मन्दराचलको मथानी और नागराज वासुकिको नेती (बन्धनकी रस्सी) बना समुद्रको मथकर अमृत निकाला, किंतु भगवान्ने वह सारा अमृत देवताओंको ही पिला दिया। (उस समय देवताओं और दैत्योंमें घोर युद्ध हुआ था।) तारकामय-संग्रामके अवसरपर भगवान् ब्रह्माने इन्द्र, बृहस्पति, देवताओं तथा दानवोंको युद्धसे रोककर देवताओंकी रक्षा की और सोमवंशको स्थापित किया। आजीवक-युद्धमें विश्वामित्र, वसिष्ठ और अत्रि आदि ऋषियोंने राग-द्वेषादि दानवोंका निवारण करके देवताओंका पालन किया। पृथ्वीरूपी रथमें वेदरूपी घोड़े जोतकर भगवान् शंकर उसपर बैठे (और त्रिपुरका नाश करनेके लिये चले)। उस समय देवताओंके रक्षक और दैत्योंका विनाश करनेवाले भगवान् श्रीहरिने शंकरजीको शरण दी और बाण बनकर स्वयं ही त्रिपुरका दाह किया। गौरीका अपहरण करनेकी इच्छासे अन्धकासुरने रुद्रदेवको बहुत कष्ट पहुँचाया- यह जानकर रेवतीमें अनुराग रखनेवाले श्रीहरिने उस असुरका विनाश किया (यही आठवाँ संग्राम है)।
देवताओं और असुरोंके युद्धमें वृत्रका नाश करनेके लिये भगवान् विष्णु जलके फेन होकर इन्द्रके वज्रमें लग गये। इस प्रकार उन्होंने देवराज इन्द्र और देवधर्मका पालन करनेवाले देवताओंको संकटसे बचाया। ('जित्' नामक दसवाँ संग्राम वह है, जब कि) भगवान् श्री हरिने परशुराम अवतार धारण कर शाल्व आदि दानवोंपर विजय पायी और दुष्ट क्षत्रियोंका विनाश करके देवता आदिकी रक्षा की। (ग्यारहवें संग्रामके समय) मधुसूदनने हालाहल विषके रूपमें प्रकट हुए दैत्यका शंकरजी के द्वारा नाश कराकर देवताओं का भय दूर किया। देवासुर संग्राम में जो 'कोलाहल' नामका दैत्य था, उसको परास्त करके भगवान् विष्णुने धर्मपालनपूर्वक सम्पूर्ण देवताओं की रक्षा की। राजा, राज कुमार, मुनि और देवता- सभी भगवान् के स्वरूप हैं। मैंने यहाँ जिनको बतलाया और जिनका नाम नहीं लिया, वे सभी श्री हरि के ही अवतार हैं॥ १६-२५ ॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'द्वादश संग्रामों का वर्णन' नामक दो सौ छिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २७६॥
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