अग्नि पुराण दो सौ तिहत्तरवाँ अध्याय ! Agni Purana 273 Chapter !
अग्नि पुराण 273 अध्याय - सूर्य्यवंशकीर्त्तनम्
अग्निरुवाच
सूर्य्यवंशं सोमवंशं राज्ञां वंशं वदामि ते ।
हरेर्ब्रह्मा पद्मगोऽभून्मरीचिर्ब्रह्मणाः सुतः ।। १ ।।
मरीचेः कश्यपस्तस्माद्विवस्वांस्तस्य पत्न्यपि ।
संज्ञा राज्ञी प्रभा तिस्रो राज्ञी रैवतपुत्रिका ।। २ ।।
रेवन्तं सुषुवे पुत्रं प्रभातञ्च चप्रभा रवेः ।
त्वाष्ट्री संज्ञा मनुं पुत्रं यमलौ यमुनां यमम् ।। ३ ।।
छाया संज्ञा च सावर्णिं मनुं वैवस्वतं सुतम् ।
शनिञ्चि तपतीं विष्टिं संज्ञायाञ्चाश्विनौ पुनः ।। ४ ।।
मनोर्वैवस्वतस्यासन् पुत्रा वे न च तत्समाः ।
इक्ष्वाकुश्चैव नाभागो धृष्टः शर्य्यातिरेव च ।। ५ ।।
नरिष्यन्तस्तथा प्रांशुर्नाभागादिष्टसत्तमाः ।
करुषश्च पूषध्रश्च अयोध्यायां महाबलाः ।। ६ ।।
कन्येला च मनोरासीद्बुधात्तस्यां पुरूरवाः ।
पुरूरवसमुत्पाद्य सेला सुद्युम्नताङ्गता ।। ७ ।।
सुद्युम्नादुत्कलगयौ विनताश्वस्त्रयो नृपाः ।
उत्कलस्योत्कलं राष्ट्र विनताश्वस्य पश्चिमा ।। ८ ।।
दिक् सर्व्वा राजवर्य्यस्य गयस्य तु गयापुरी ।
वशिष्ठवाक्यात् सुद्युम्नः प्रतिष्ठानमवाप ह ।। ९ ।।
तत् पुरूरवसे प्रादात्सुद्युम्नो राज्यमाप्य तु ।
नरिष्यतः शकाः पुत्रा नाभागस्य च वैष्णवः ।। १० ।।
अम्बरीषः प्रजापालो धार्ष्टकं धृष्टतः कुलम् ।
सुकल्गनर्त्तौ शर्य्यातेर्वैरोह्यानर्त्ततो नृपः ।। ११ ।।
अनार्त्तविषयश्चासीत् पुरी चासीत् कुशस्थली ।
रेवस्य रैवतः पुत्रः ककुद्मी नाम धार्मिकः ।। १२ ।।
ज्येष्ठः पुत्रशतस्यासीद्राज्यं प्राप्य कुशस्थलीम् ।
स कन्यासहितः श्रुत्वा गान्धर्व्वं ब्रह्मणोऽन्तिके ।। १३ ।।
मुहूर्त्तभूतं देवस्य मर्त्ये बहुयुगं गतम् ।
आजगाम जवेनाथ स्वां पुरीं यादवैर्वृताम् ।। १४ ।।
कृतां द्वारवतीं नाम बहुद्वारां मनोरमाम् ।
भोजवृष्णयन्धकैर्गुप्तां वासुदेवपुरोगमैः ।। १५ ।।
रेवतीं बलदेवाय ददौ ज्ञात्वा ह्यनिन्दिताम ।
तपः सुमेरुशिखरे तप्त्वा विष्णवालयं गतः ।। १६ ।।
नाभागस्य च पुत्रौ द्वौ वैश्यौ ब्राह्मणातां गतौ ।
करूषस्य तु कारूषाः क्षत्रिया युद्धदुर्म्मदाः ।। १७ ।।
शूद्रत्वञ्च पृषध्रोऽगाद्धिंसयित्वा गुरोश्च गाम् ।
मनुपुत्रादथेक्षआकोर्विकुक्षइर्देवराडभूत् ।। १८ ।।
विकुक्षेस्तु ककुत्स्थोऽभूत्तस्य पुत्रः सुयोधनः ।
तस्य पुत्रः पृथुर्न्नाम विश्वगश्वः पृथोः सुतः ।। १९ ।।
आयुस्तस्य च पुत्रोऽभुत्तस्य पुत्रः सुथोधनः ।
तस्य पुत्रः पृथुर्न्नाम विश्वगश्वः पृथोः सुतः ।। २० ।।
श्रावन्ताद् वृहदश्वोऽभूत कुबलाश्वस्ततो नृपः ।
धुन्धुमारत्वमगमद्धुन्धोर्न्नाम्ना च वै पुरा ।। २१ ।।
धुन्धुमारास्त्रयो भूपा दृढ़ाश्वो दण्ड एव च ।
कपिलोऽथ दृढ़ाश्वात्तु हर्य्यश्वश्च चप्रमोदकः ।। २२ ।।
हर्यश्वाच्च निकुम्भोऽभूत् संहताश्वो निकुम्भतः ।
अकृशाश्वश्च संहताश्वसुतावुभौ ।। २३ ।।
युवनाश्वो रणाश्वस्य मान्धाता युवनाश्वतः ।
मान्धातुः पुरुकुत्सोऽभून्मुचुकुन्दो द्वितीयकः ।। २४ ।।
पुरुकुत्सादसस्युश्च सम्भूतो नर्मदाभवः ।
सम्भूतस्य सुधन्वाऽभूत्त्रिधन्वाथ सुधन्वनः ।। २५ ।।
त्रिधन्वनस्तु तरुणस्तस्य सत्यव्रतः सुतः ।
सत्यव्रतात्सत्यरथो हरिश्चन्द्रश्च तत् सुतः ।। २६ ।।
हरिश्चन्द्राद्रोहिताश्वो रोहिताश्वाद्वृकोऽभवत् ।
वृकाद्वाहुश्च वाहोश्च सगरस्तस्य च प्रिया ।। २७ ।।
प्रबा षष्टिसहस्राणां सुतानां जननी ह्यऽभूत् ।
तुष्टादौर्वान्नृपादेकं भानुमत्यसमञ्जसम् ।। २८ ।।
खनन्तः पृथिवीं दग्धा विष्णुना बहुसागराः ।
असमञ्जसोंऽशुमांश्च दिलीपोंऽशुमतोऽभवत् ।। २९ ।।
भगीरथो दिलीपात्तु येन गङ्गावतारिता ।
भगीरथात्तु नाभागो नाभागादम्बरीषकः ।। ३० ।।
सिन्धुद्वीपोऽम्बरीषात्तु श्रुतायुस्तत्सुतः स्मृतः ।
श्रुतायोर्ऋतपर्णोऽभूत्तस्य कल्माषपादकः ।। ३१ ।।
कल्माषाङ्घ्रेः सर्व्वकर्म्मा ह्यनरण्यस्ततोऽभवत् ।
अनरण्यात्तु निघ्नोऽथ अनमित्रस्ततो रघुः ।। ३२ ।।
रघोरभूद्दिलीपस्तु दिलीपाच्चाप्यजो नृपः ।
दीर्घवाहुरजात् कालस्त्वजापालस्ततोऽभवत् ।। ३३ ।।
तथा दशरथो जातस्तस्य पुत्रचतुष्टयम् ।
नारायणात्मकाः सर्वे रामस्तस्याग्रजोऽभवत् ।। ३४ ।।
रावणान्तकरो राजा ह्ययोध्यायां रघूत्तमः ।
वाल्मीकिर्यस्य चरितं चक्रे तन्नारदश्रवात् ।। ३४ ।।
रावणान्तकरो राजा ह्ययोध्यायां रघूत्तमः ।
वाल्मीकिर्यस्य चरितं चक्रे तन्नारदश्रवात् ।। ३५ ।।
रामपुत्रौ कुशलवौ सीतायां कुलवर्द्धनौ ।
अतिथिश्च कुशाज्जज्ञे निषधस्तस्य चात्मजः ।। ३६ ।।
निषधात्तु नलो जज्ञे नभोऽजायत वै नलात् ।
नभसः पुण्डरीकोऽभूत् सुधन्वा च ततोऽभवत् ।। ३७ ।।
सुधन्वनो देवानीको ह्यहीनाश्वश्च तुत्सुतः ।
अहीनाश्वात् सहस्राश्वश्चन्द्रालोकस्ततोऽभवत् ।। ३८ ।।
चन्द्रावलोकतस्तारापीड़ोऽस्माच्चन्द्रपर्वतः ।
चन्द्रगिरेर्भानुरथः श्रुतायुस्तस्य चात्मजः ।।
इक्षाकुवंशप्रभवाः सूर्य्यवंशधराः स्मृताः ।। ३९ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये सूर्य्यवंशकीर्त्तनं नाम त्रिसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।
अग्नि पुराण - दो सौ तिहत्तरवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 273 Chapter In Hindi
दो सौ तिहत्तरवाँ अध्याय सूर्यवंश का वर्णन
अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! अब मैं तुमसे सूर्यवंश तथा राजाओं के वंश का वर्णन करता हूँ। भगवान् विष्णु के नाभिकमलसे ब्रह्मा जी प्रकट हुए हैं। ब्रह्माजी के पुत्र का नाम मरीचि है। मरीचिसे कश्यप तथा कश्यप से विवस्वान् (सूर्य) का जन्म हुआ है। सूर्यको तीन स्त्रियाँ हैं- संज्ञा, राज्ञी और प्रभा। इनमें से 'राजी' रैवत की पुत्री हैं। उन्होंने 'रेवन्त' नामवाले पुत्रको जन्म दिया है। सूर्यकी 'प्रभा' नामवाली पत्नीसे 'प्रभात' नामवाला पुत्र हुआ। 'संज्ञा' विश्वकर्मा की पुत्री है। उनके गर्भसे वैवस्वत मनु तथा जुड़वीं संतान यम और यमुनाकी उत्पत्ति हुई है। (संज्ञाकी छायाको भी, जो स्त्रीरूपमें प्रतिष्ठित थी, 'छाया संज्ञा' कहते हैं।) छाया-संज्ञाने सूर्यके अंशसे सावर्णि मनु तथा शनैश्चर नामक पुत्रको और तपती एवं विष्टि नामवाली कन्याओं को जन्म दिया। तदनन्तर (अश्वारूपधारिणी) संज्ञासे दोनों अश्विनीकुमारों की उत्पत्ति हुई ॥ १-४॥
वैवस्वत मनुके दस पुत्र हुए, जो उन्हींके समान तेजस्वी थे।उनके नाम इस प्रकार हैं इक्ष्वाकु, नाभाग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यन्त, प्रांशु, नृग, सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ दिष्ट, करूष और पृषभ्र- ये दसों महाबली राजा अयोध्यामें हुए। मनुकी इला नामवाली एक कन्या भी थी, जिसके गर्भसे बुधके अंशसे पुरूरवाका जन्म हुआ। पुरूरवाको उत्पन्न करके इला पुरुषरूपमें परिणत हो गयी। उस समय उसका नाम सुद्युम्न हुआ। सुद्युम्नसे उत्कल, गय और विनताश्व-इन तीन राजाओंका जन्म हुआ। उत्कलको उत्कलप्रान्त (उड़ीसा) का राज्य मिला, विनताश्वका पश्चिमदिशापर अधिकार हुआ तथा राजाओंमें श्रेष्ठ गय पूर्वदिशाके राजा हुए, जिनकी राजधानी गयापुरी थी। राजा सुद्युम्न वसिष्ठ ऋषिके आदेशसे प्रतिष्ठानपुरमें आ गये और उसीको अपनी राजधानी बनाया। उन्होंने वहाँका राज्य पाकर उसे पुरूरवाको दे दिया। नरिष्यन्तके पुत्र 'शक' नामसे प्रसिद्ध हुए। नाभागसे परमवैष्णव अम्बरीषका जन्म हुआ। वे प्रजाओंका अच्छी तरह पालन करते थे। राजा धृष्टसे धाष्टक वंशका विस्तार हुआ। सुकन्या और आनर्त- ये दो शर्यातिकी संतानें हुई। आनर्तसे 'रेव' नामक नरेशकी उत्पत्ति हुई। आनर्तदेशमें उनका राज्य था और कुशस्थली उनकी राजधानी थी। रेवके पुत्र रैवत हुए, जो 'ककुद्मी' नामसे प्रसिद्ध और धर्मात्मा थे। वे अपने पिताके सौ पुत्रोंमें सबसे बड़े थे, अतः कुशस्थलीका राज्य उन्हींको मिला ॥ ५-१२ ॥
एक समयकी बात है वे अपनी कन्या रेवतीको साथ लेकर ब्रह्माजी के पास गये और वहाँ संगीत सुनने लगे। वहाँ ब्रह्माजीके समयसे दो ही घड़ी बीती, किंतु इतनेहीमें मर्त्यलोकके अंदर अनेक युग समाप्त हो गये। संगीत सुनकर वे बड़े वेगसे अपनी पुरीको लौटे, परंतु अब उसपर यदुवंशियोंका अधिकार हो गया था। उन्होंने कुशस्थलीकी जगह द्वारका नामकी पुरी बसायी थी, जो बड़ी मनोरम और अनेक द्वारोंसे सुशोभित थी। भोज, वृष्णि और अन्धकवंशके वासुदेव आदि वीर उसकी रक्षा करते थे। वहाँ जाकर रैवतने अपनी कन्या रेवतीका बलदेवजीसे विवाह कर दिया और संसारकी अनित्यता जानकर सुमेरु पर्वतके शिखरपर जाकर तपस्या करने लगे। अन्तमें उन्हें विष्णुधामकी प्राप्ति हुई ॥ १३-१६ ॥
नाभागके दो पुत्र हुए, जो वैश्याके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। वे (अपनी विशेष तपस्याके कारण) ब्राह्मणत्वको प्राप्त हुए। करूषके पुत्र 'कारूष' नामसे प्रसिद्ध क्षत्रिय हुए, जो युद्धमें मतवाले हो उठते थे। पृषध्रने भूलसे अपने गुरुकी गायकी हिंसा कर डाली थी, अतः वे शापवश शूद्र हो गये। मनुपुत्र इक्ष्वाकुके पुत्र विकुक्षि हुए, जो (कुछ कालके लिये) देवताओंके राज्यपर आसीन हुए थे। विकुक्षिके पुत्र ककुत्स्थ हुए। ककुत्स्थका पुत्र सुयोधन नामसे प्रसिद्ध हुआ। उसके पुत्रका नाम 'पृथु' था। पृथुसे विश्वगश्वका जन्म हुआ। उसका पुत्र आयु और आयुका पुत्र युवनाश्व हुआ। युवनाश्वसे श्रावन्तकी उत्पत्ति हुई, जिन्होंने पूर्वदिशामें श्रावन्तिकी' नामकी पुरी बसायी। श्रावन्तसे बृहदश्व और बृहदश्वसे कुवलाश्व नामक राजाका जन्म हुआ। इन्होंने पूर्वकालमें धुन्धु नामसे प्रसिद्ध दैत्यका वध किया था, अतः उसीके नामपर ये 'धुन्धुमार' कहलाये। धुन्धुमारसे तीन पुत्र हुए। वे तीनों ही राजा थे। उनके नाम थे- दृढाश्व, दण्ड और कपिल। दृढाश्वसे हर्यश्व और प्रमोदकने जन्म ग्रहण किया। हर्यश्वसे निकुम्भ और निकुम्भसे संहताश्वकी उत्पत्ति हुई। संहताश्वके दो पुत्र हुए-अकृशाश्व तथा रणाश्च। रणाश्वके पुत्र युवनाश्व और युवनाश्वके पुत्र राजा मांधाता हुए। मांधाताके भी दो पुत्र हुए, जिनमें एकका नाम पुरुकुत्स था और दूसरेका नाम मुचुकुन्द ॥ १७-२४॥
पुरुकुत्स से त्रसद्दस्यु का जन्म हुआ। वे नर्मदाके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। उनका दूसरा नाम 'सम्भूत' भी था। सम्भूतके सुधन्वा और सुधन्वाके पुत्र त्रिधन्वा हुए। त्रिधन्वाके तरुण और तरुणके पुत्र सत्यव्रत थे। सत्यव्रतसे सत्यरथ हुए, जिनके पुत्र हरिश्चन्द्र थे। हरिश्चन्द्रसे रोहिताश्वका जन्म हुआ, रोहिताश्वसे वृक हुए, वृकसे बाहु और बाहुसे सगरकी उत्पत्ति हुई। सगरकी प्यारी पत्नी प्रभा थी, जो प्रसन्न हुए और्व मुनिकी कृपासे साठ हजार पुत्रोंकी जननी हुई तथा उनकी दूसरी पत्नी भानुमतीने राजासे एक ही पुत्रको उत्पन्न किया, जिसका नाम असमञ्जस था। सगरके साठ हजार पुत्र पृथ्वी खोदते समय भगवान् कपिलके क्रोधसे भस्म हो गये। असमञ्जसके पुत्र अंशुमान् और अंशुमान्के दिलीप हुए। दिलीपसे भगीरथका जन्म हुआ, जिन्होंने गङ्गाको पृथ्वीपर उतारा था। भगीरथसे नाभाग और नाभागसे अम्बरीष हुए। अम्बरीषके सिन्धुद्वीप और सिन्धुद्वीपके पुत्र श्रुतायु हुए। श्रुतायुके ऋतुपर्ण और ऋतुपर्णके पुत्र कल्माषपाद थे। कल्माषपादसे सर्वकर्मा और सर्वकर्मासे अनरण्य हुए। अनरण्यके निघ्न और निघ्नके पुत्र दिलीप हुए। राजा दिलीपके रघु और रघुके पुत्र अज थे। अजसे दशरथका जन्म हुआ। दशरथके चार पुत्र हुए वे सभी भगवान् नारायणके स्वरूप थे। उन सबमें ज्येष्ठ श्रीरामचन्द्रजी थे। उन्होंने रावणका वध किया था।
रघुनाथजी अयोध्याके सर्वश्रेष्ठ राजा हुए। महर्षि वाल्मीकिने नारदजीके मुँहसे उनका प्रभाव सुनकर (रामायणके नामसे) उनके चरित्रका वर्णन किया था। श्रीरामचन्द्रजीके दो पुत्र हुए, जो कुलकी कीर्ति बढ़ानेवाले थे। वे सीताजीके गर्भसे उत्पन्न होकर कुश और लवके नामसे प्रसिद्ध हुए। कुशसे अतिथिका जन्म हुआ। अतिथिके पुत्र निषध हुए। निषधसे नलकी उत्पत्ति हुई (ये सुप्रसिद्ध राजा दमयन्तीपति नलसे भिन्न हैं); नलसे नभ हुए। नभसे पुण्डरीक और पुण्डरीकसे सुधन्वा उत्पन्न हुए। सुधन्वाके पुत्र देवानीक और देवानीकके अहीनाश्व हुए। अहीनाश्वसे सहस्राश्च और सहस्राश्वसे चन्द्रालोक हुए। चन्द्रालोकसे तारापीड, तारापीडसे चन्द्रगिरि और चन्द्रगिरिसे भानुरथका जन्म हुआ। भानुरथका पुत्र श्रुतायु नामसे प्रसिद्ध हुआ। ये इक्ष्वाकुवंशमें उत्पन्न राजा सूर्यवंशका विस्तार करने वाले माने गये हैं॥ २५-३९॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'सूर्यवंशका वर्णन नामक दो सौ तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २७३॥
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