अग्नि पुराण दो सौ एकहत्तरवाँ अध्याय ! Agni Purana 271 Chapter !

अग्नि पुराण दो सौ एकहत्तरवाँ अध्याय ! Agni Purana 271 Chapter !

अग्नि पुराण 271 अध्याय वेद शाखादिकीर्त नम्

पुष्कर उवाच

सर्वानुग्राहका मन्त्राश्चतुर्वर्गप्रसाधकाः ।
ऋगथर्व तथा साम यजुः संख्या तु लक्षकं ॥१

भेदः साङ्ख्यायनश्चैक आश्वलायनो द्वितीयकः ।
शतानि दश मन्त्राणां ब्राह्मणा द्विसहस्रकं ॥२

ऋग्वेदो हि प्रमाणेन स्मृतो द्वैपायनादिभिः ।
एकोनिद्विसहस्रन्तु मन्त्राणां यजुषस्तथा ॥३

शतानि दश विप्राणां षडशीतिश्च शाखिकाः ।
काण्वमाध्यन्दिनी संज्ञा कठी माध्यकठी तथा ॥४

मैत्रायणी च संज्ञा च तैत्तिरीयाभिधानिका ।
वैशम्पायनिकेत्याद्याः शाखा यजुषि संस्थिताः ॥५

साम्नः कौथुमसंज्ञैका द्वितीयाथर्वणायनी ।
गानान्यपि च चत्वारि वेद आरण्यकन्तथा ॥६

उक्था ऊहचतुर्थञ्च मन्त्रा नवसहस्रकाः ।
सचतुःशतकाश्चैव ब्रह्मसङ्घटकाः स्मृताः ॥७

पञ्चविंशतिरेवात्र साममानं प्रकीर्तितं ।
सुमन्तुर्जाजलिश्चैव श्लोकायनिरथर्वके ॥८

शौनकः पिप्पलादश्च मुञ्जकेशादयोऽपरे ।
मन्त्राणामयुतं षष्टिशतञ्चोपनिषच्छतं ॥९

व्यासरूपी स भगवान् शाखाभेदाद्यकारयत् ।
शाखाभेदादयो विष्णुरितिहासः पुराणकं ॥ १०

प्राप्य व्यासात्पुराणादि सूतो वै लोमहर्षणः ।
सुमतिश्चाग्निवर्चाश्च मित्रयुःशिंशपायनः ॥ ११

कृतव्रतोथ सावर्णिः षट्शिष्यास्तस्य चाभवन् ।
शांशपायनादयश्चक्रुः पुराणानान्तु संहिताः ॥ १२

ब्राह्मादीनि पुराणानि हरिविद्या दशाष्ट च ।
महापुराणे ह्याग्नेये विद्यारूपो हरिः स्थितः ॥ १३

सप्रपञ्चो निष्प्रपञ्चो मूर्तामूर्तस्वरूपधृक् ।
तं ज्ञात्वाभ्यर्च्य संस्तूय भुक्तिमुक्तिमवाप्नुयात् ॥ १४

विष्णुर्जिष्णुर्भविष्णुश्च अग्नि सूर्या दिरूपवान् ।
अग्निरूपेण देवादेर्मुखं विष्णुः परा गतिः ॥ १५

वेदेषु सपुराणेषु यज्ञमूर्तिश्च गीयते ।
आग्नेयाख्यं पुराणन्तु रूपं विष्णोर्महत्तरं ॥ १६

आग्नेयाख्यपुराणस्य कर्ता श्रोता जनार्दनः ।
तस्मात्पुराणमाग्नेयं सर्ववेदमयं महत् ॥ १७

सर्वविद्यामयं पुण्यं सर्वज्ञानमयं वरम् ।
सर्वात्म हरिरूपं हि पठतां शृण्वतां नृणां ॥ १८

विद्यार्थिनाञ्च विद्यादमर्थिनां श्रीधनप्रदम् ।
राज्यार्थिनां राज्यदञ्च धर्मदं धर्मकामिनाम् ॥१९

स्वर्गार्थिनां स्वर्गदञ्च पुत्रदं पुत्रकामिनां ।
गवादिकामिनाङ्गोदं ग्रामदं ग्रामकामिनां ॥२०

कामार्थिनां कामदञ्च सर्वसौभाग्यसम्प्रदम् ।
गुणकीर्तिप्रदन्नॄणां जयदञ्जयकामिनाम् ॥२१

सर्वेप्सूनां सर्वदन्तु मुक्तिदं मुक्तिकामिनां ।
पापघ्नं पापकर्तॄणामाग्नेयं हि पुराणकम् ॥२२

इत्याग्नेये महापुराणे वेदशाखादिकीर्तिनं नाम एकसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।

अग्नि पुराण - दो सौ एकहत्तरवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 271 Chapter In Hind

दो सौ एकहत्तरवाँ अध्याय - वेदों के मन्त्र और शाखा आदि का वर्णन तथा वेदों की महिमा

पुष्कर कहते हैं- परशुराम! वेदमन्त्र सम्पूर्ण विश्वपर अनुग्रह करने वाले तथा चारों पुरुषार्थों के साधक हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद- ये चार वेद हैं। इन के मन्त्रों की संख्या एक लाख है। ऋग्वेद की एक शाखा 'सांख्यायन' और दूसरी शाखा 'आश्वलायन' है। इन दो शाखाओंमें एक सहस्त्र तथा ऋग्वेदीय ब्राह्मणभागमें दो सहस्र मन्त्र हैं। श्री कृष्ण द्वैपायन आदि महर्षियों ने ऋग्वेद को प्रमाण माना है। यजुर्वेद में उन्नीस सौ मन्त्र हैं। उस के ब्राह्मण ग्रन्थोंमें एक हजार मन्त्र हैं और शाखाओं में एक हजार छियासी। यजुर्वेद में मुख्यतया काण्वी, माध्यन्दिनी, कठी, माध्यकठी, मैत्रायणी, तैत्तिरीया एवं वैशम्पायनीया- ये शाखाएँ विद्यमान हैं। सामवेद में कौथुमी और आथर्वणायनी (राणायनीया)- ये दो शाखाएँ मुख्य हैं। इसमें वेद, आरण्यक, उक्था और ऊह-ये चार गान हैं। सामवेद में नौ हजार चार सौ पचीस मन्त्र हैं। वे ब्रह्मसे सम्बन्धित हैं। यहाँतक सामवेद का मान बताया गया ॥ १-७॥

अथर्ववेदमें सुमन्तु, जाजलि, श्लोकायनि, शौनक, पिप्पलाद और मुञ्जकेश आदि शाखाप्रवर्तक ऋषि हैं। इसमें सोलह हजार मन्त्र और सौ उपनिषद् हैं। व्यासरूपमें अवतीर्ण होकर भगवान् श्रीविष्णुने ही वेदोंकी शाखाओंका विभाग आदि किया है। वेदों के शाखाभेद आदि इतिहास और पुराण सब विष्णुस्वरूप हैं। भगवान् व्याससे लोमहर्षण सूतने पुराण आदिका उपदेश पाकर उनका प्रवचन किया। उनके सुमति, अग्रिवर्चा, मित्रयु, शिंशपायन, कृतव्रत और सावर्णि- ये छः शिष्य हुए। शिंशपायन आदिने पुराणोंकी संहिताका निर्माण किया। भगवान् श्रीहरि ही 'ब्राह्म' आदि अठारह पुराणों एवं अष्टादश विद्याओंके रूपमें स्थित हैं। वे सप्रपञ्च निष्प्रपञ्च तथा मूर्त-अमूर्त स्वरूप धारण करनेवाले विद्यारूपी श्रीविष्णु 'आग्रेय महापुराण 'में स्थित हैं। 

उनको जानकर उनकी अर्चना एवं स्तुति करके मानव भोग और मोक्ष दोनोंको प्राप्त कर लेता है। भगवान् विष्णु विजयशील, प्रभावसम्पन्न तथा अग्रि सूर्य आदिके रूपमें स्थित हैं। वे भगवान् विष्णु ही अग्निरूपसे देवता आदिके मुख हैं। वे ही सबकी परमगति हैं। वे वेदों तथा पुराणोंमें 'यज्ञमूर्ति के नामसे गाये जाते हैं। यह 'अग्रिपुराण' श्रीविष्णुका ही विरारूप है। इस अग्नि-आग्रेय पुराणके निर्माता और श्रोता श्रीजनार्दन ही हैं। इसलिये यह महापुराण सर्ववेदमय, सर्वविद्यामय तथा सर्वज्ञानमय है। यह उत्तम एवं पवित्र पुराण पठन और श्रवण करनेवाले मनुष्योंक लिये सर्वात्मा श्रीहरिस्वरूप है। यह 'आग्रेय- महापुराण' विद्यार्थियोंके लिये विद्याप्रद, अर्थार्थियोंक लिये लक्ष्मी और धन-सम्पत्ति देनेवाला, राज्यार्थियोंके लिये राज्यदाता, धर्मार्थिवंकि लिये धर्मदाता, स्वर्गाधियोंके लिये स्वर्गप्रद और पुत्रार्थियोंके लिये पुत्रदायक है। गोधन चाहनेवालेको गोधन और ग्रामाभिलाषियोंको ग्राम देने वाला है। यह कामार्थी मनुष्योंको काम, सम्पूर्ण सौभाग्य, गुण तथा कीर्त्ति प्रदान करने वाला है। विजयाभिलाषी पुरुषोंको विजय देता है, सब कुछ चाहने वालों को सब कुछ देता है, मोक्षकामियों को मोक्ष देता है और पापियों के पापों का नाश कर देता है॥८-२२॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'वेदोंको शाखा आदिका वर्णन' नामक दो सौ इकहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ २७१॥

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