अग्नि पुराण दो सौ सत्तरवाँ अध्याय ! Agni Purana 270 Chapter !

अग्नि पुराण दो सौ सत्तरवाँ अध्याय ! Agni Purana 270 Chapter !

अग्नि पुराण 270 अध्याय - विष्णु पञ्जरम्

पुष्कर उवच

त्रिपुरञ्जघ्नुषः पूर्वं ब्रह्मणा विष्णुपञ्जरं ।
शङ्करस्य द्विजश्रेष्ठ रक्षणाय निरूपितं ॥१

वागीशेन च शक्रस्य बलं हन्तुं प्रयास्यतः ।
तस्य स्वरूपं वक्ष्यामि तत्त्वं शृणु जयादिमत् ॥२

विष्णुः प्राच्यां स्थितश्चक्री हरिर्दक्षिणतो गदी ।
प्रतीच्यां शार्ङ्गधृग्विष्णुर्जिष्णुः खड्गी ममोत्तरे ॥३

हृषीकेशो विकोणेषु तच्छिद्रेषु जनार्दनः ।
क्रोडरूपी हरिर्भूमौ नरसिंहोऽम्बरे मम ॥४

क्षुरान्तममलञ्चक्रं भ्रमत्येतत्सुदर्शनं ।
अस्यांशुमाला दुष्प्रेक्ष्या हन्तुं प्रेतनिशाचरान् ॥५

गदा चेयं सहस्रार्चिःप्रदीप्तपावकोज्ज्वला ।
रक्षोभूतपिशाचानां डाकिनीनाञ्च नाशनी ॥६

शार्ङ्गविस्फूर्जितञ्चैव वासुदेवस्य मद्रिपून् ।
तिर्यङ्मनुष्यकूष्माण्डप्रेतादीन् हन्त्वशेषतः ॥७

खड्गधारोज्ज्वलज्योत्स्नानिर्धूता ये समाहिताः ।
ते यान्तु शाम्यतां सद्यो गरुडेनेव पन्नगाः ॥८

ये कूष्माण्डास्था यक्षा ये दैत्या ये निशाचराः ।
प्रेता विनायकाः क्रूरा मनुष्या जम्भगाः खगाः ॥९

सिंहादयश्च पशवो दन्दशूकाश्च पन्नगाः ।
सर्वे भवन्तु ते सौम्याः कृष्णशङ्खरवाहताः ॥१०

चित्तवृत्तिहरा ये मे ये जनाः स्मृतिहारकाः ।
बलौजसञ्च हर्तारश्छायाविभ्रंशकाश्च ये ॥११

ये चोपभोगहर्तारो ये च लक्षणनाशकाः ।
कूष्माण्डास्ते प्रणश्यन्तु विष्णुचक्ररवाहताः ॥१२

बुद्धिस्वास्थ्यं मनःस्वास्थ्यं स्वास्थ्यमैन्द्रियकं तथा ।
ममास्तु देवदेवस्य वासुदेवस्य कीर्तनात् ॥१३

पृष्ठे पुरस्तान्मम दक्षिणोत्तरे विकोणतश्चास्तु जनार्दनो हरिः ।
तमीड्यमीशानमनन्तमच्युतं जनार्दनं प्रणिपतितो न सीदति ॥१४

यथा परं ब्रह्म हरिस्तथा परः जगत्स्वरूपश्च स एव केशवः ।
सत्येन तेनाच्युतनामकीर्तनात्प्रणाशयेत्तु त्रिविधं ममाशुभं ॥१५

इत्यादिमहा पुराणे आग्नेये विष्णु पञ्जरं नाम सप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।

अग्नि पुराण - दो सौ सत्तरवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 270 Chapter!-In Hindi

दो सौ सत्तरवाँ अध्याय - विष्णु पञ्जर स्तोत्र का कथन

पुष्कर कहते हैं- द्विजश्रेष्ठ परशु राम। पूर्वकाल में भगवान् ब्रह्माने त्रिपुर संहार के लिये उद्यत शंकर की रक्षा के लिये 'विष्णुपञ्जर' नामक स्तोत्र का उपदेश किया था। इसी प्रकार बृहस्पति ने बल दैत्यका वध करने के लिये जाने वाले इन्द्र की रक्षा के लिये उक्त स्तोत्र का उपदेश दिया था। मैं विजय प्रदान करने वाले उस विष्णु पञ्जर का स्वरूप बतलाता हूँ, सुनो ॥ १-२॥

'मेरे पूर्वभाग में चक्रधारी विष्णु एवं दक्षिणपाश्वं में गदाधारी श्री हरि स्थित हैं। पश्चिम भाग में शार्ङ्गपाणि विष्णु और उत्तर भाग में नन्दक खड्गधारी जनार्दन विराज मान हैं। भगवान् इषीकेश दिक्कोणों में एवं जनार्दन मध्यवर्ती अवकाश में मेरी रक्षा कर रहे हैं। वराह रूप धारी श्री हरि भूमिपर तथा भगवान् नृसिंह आकाश में प्रतिष्ठित होकर मेरा संरक्षण कर रहे हैं। जिस के किनारे के भागों में जुरे जुड़े हुए हैं, वह यह निर्मल 'सुदर्शन चक्र' घूम रहा है। यह जब प्रेतों तथा निशाचरों को मारने के लिये चलता है, उस समय इसकी किरणों की ओर देखना किसी के लिये भी बहुत कठिन होता है। भगवान् श्री हरि की यह 'कौमोद की' गदा सहस्रों ज्वालाओं से प्रदीप्त पावक के समान उज्वल है। यह राक्षस, भूत, पिशाच और डाकिनियों का विनाश करने वाली है। भगवान् वासुदेव के शार्ङ्ग धनुष की टंकार मेरे शत्रुभूत मनुष्य, कूष्माण्ड, प्रेत आदि और तिर्यग्योनिगत जीवों का पूर्णतया संहार करे। जो भगवान् श्री हरि को खड्गधारामयी उज्वल ज्योत्स्रा में खान कर चुके हैं, वे मेरे समस्त शत्रु उसी प्रकार तत्काल शान्त हो जाएँ, जैसे गरुडके द्वारा मारे गये सर्प शान्त हो जाते हैं'॥ ३-८॥

'जो कूष्माण्ड, यक्ष, राक्षस, प्रेत, विनायक, क्रूर मनुष्य, शिकारी पक्षी, सिंह आदि पशु एवं हँसने वाले सर्प हों, वे सब-के-सब सच्चिदानन्द स्वरूप श्री कृष्ण के शङ्खनाद से आहत हो सौम्यभाव को प्राप्त हो जायें। जो मेरी चित्तवृत्ति और स्मरणशक्तिका हरण करते हैं, जो मेरे बल और तेज का नाश करते हैं तथा जो मेरी कान्ति या तेजको विलुप्त करनेवाले हैं, जो उपभोग सामग्री को हर लेने वाले तथा शुभ लक्षणों का नाश करने वाले हैं, वे कूष्माण्डगण श्री विष्णु के सुदर्शन चक्र के वेग से आहत होकर विनष्ट हो जायें। देवाधि देव भगवान् वासुदेव के संकीर्तन से मेरी बुद्धि, मन और इन्द्रियों को स्वास्थ्यलाभ हो। मेरे आगे-पीछे, दायें-बायें तथा कोणवर्तिनी दिशाओं में सब जगह जनार्दन श्री हरि का निवास हो। सबके पूजनीय, मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले अनन्तरूप परमेश्वर जनार्दन के चरणों में प्रणत होने वाला कभी दुखी नहीं होता। जैसे भगवान् श्री हरि पर ब्रह्म हैं, उसी प्रकार वे परमात्मा केशव भी जगत्स्वरूप हैं- इस सत्यके प्रभाव से तथा भगवान् अच्युत के नाम कीर्तन से मेरे त्रिविध पापों का नाश हो जाय ॥ ९-१५ ॥ 

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराण में 'विष्णुपञ्जर स्तोत्र का कथन' नामक दो सौ सत्तस्वाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २७० ॥

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