अग्नि पुराण दो सौ उनहत्तरवाँ अध्याय ! Agni Purana 269 Chapter !

अग्नि पुराण दो सौ उनहत्तरवाँ अध्याय ! Agni Purana 269 Chapter !

अग्नि पुराण 269 अध्याय - छत्रादिमन्त्रादयः

पुष्कर उवाच

छत्रादिमन्त्रान् वक्ष्यामि यैस्तत् पूज्य जयादिकम् ।
ब्रह्मणः सत्यवाक्येन सोमस्य वरुणस्य च ।।१ ।।

सूर्य्यस्य च प्रभावेन वर्द्धस्व त्वं महामते ।
पाण्डराभप्रतीकाश हिमकुन्देन्दुसुप्रभ ।।२ ।।

यथाम्बुदश्छादयते शिवायैनां वसुन्धरां ।
तथाच्छादय राजानं विजयारोग्यवृद्धये ।।३ ।।

गन्धर्वकुलजातस्त्वं माभूयाः कुलदूषकः ।
ब्रह्मणः सत्यवाक्येन सोमस्य वरुणस्य च ।।४ ।।

प्रभावाच्च हुताशस्य वर्द्धस्व त्वं तुरङ्गम ।
तेजसा चैव सूर्य्यस्य मुनीनां तपसा तथा ।।५ ।।

रुद्रस्य ब्रह्मचर्य्येण पवनस्य बलेन च ।
स्मर त्वं राजपुत्रोऽसि कौस्तुभन्तु मणिं स्मर ।।६ ।।

यां गतिं ब्रहाहा गच्छेत् पितृहा मातृहा मातृहा तथा ।
भूम्यर्थेऽनृतवादी च क्षत्रियश्च पराङ्मुखः ।।७ ।।

ब्रजेस्त्वन्तां गतिं क्षिप्रं मा तत् पापं भवेत्तव ।
विकृतिं मापगच्छेस्त्वं युद्धेऽध्वनि तुरङ्गम ।।८ ।।

रिपून् विनिघ्नन् समरे सह भर्त्रा सुखी भव ।
शक्रकेतो महावीर्य्यः सुवर्णस्त्वामुपाश्रितः ।।९ ।।

पतत्रिराड्वैनतेयस्तथा नारायणध्वजः ।
काश्यपेयोऽमृताहर्त्ता नागादिर्विष्णुवाहनः ।।१० ।।

अप्रमेयो दुराधर्षो रणे देवारिसूदनः ।
महाबलो महावेगे महाकायोऽमृताशनः ।।११ ।।

गरुत्माम्मारुतगतिस्त्वयि सन्निहितः स्थितः ।
विष्णुना देवदेवेन शक्रार्थं स्थापितो ह्यसि ।।१२ ।।

जयाय भव मे नित्यं वृद्धयेऽथ बलस्य च ।
साश्ववर्मायुधान्योधान् रक्षास्माकं रिपून् दह ।।१३ ।।

कुमुदैरावणौ पद्मः पुष्पदन्तोऽथ वामनः।।
सुप्रतीकोऽञ्जनो नील एतेऽष्टौ देवयोनयः ।।१४ ।।

तेषां पुत्राश्च पौत्राश्च बलान्यष्टौ समाश्रिताः ।
भद्रो मन्दो मृगश्चैव गजः संकीर्ण एव च ।।१५ ।।

वने वने प्रसूतास्ते स्मर योनिं महागजाः ।
पान्तु त्वां वसवो रुद्रा आदित्याः समरुद्गणाः ।।१६ ।।

भर्त्तारं रक्ष नागेन्द्र समयः परिपाल्यतां ।
ऐरावताधिरूढ़स्तु वज्रहस्तः शतक्रतुः ।।१७ ।।

पृष्ठतोऽनुगतस्त्वेष रक्षतु त्वां स देवराट् ।
अवाप्नुहि जयं युद्धे सुस्थश्चैव सदा व्रज ।।१८ ।।

अवाप्नुहि बलञ्चैव ऐरावतसमं युधि ।
श्रीस्ते सोमाद्‌बलं विष्णोस्तेजः सूर्य्याज्जवोऽनिलात् ।।१९ ।।

स्थैर्य्यं गिरेर्जयं रुद्राद् यशो देवात् पुरन्दरात् ।
युद्धे रक्षन्तु नागास्त्वां दिशश्च सह दैवतैः ।।२० ।।

अश्विनौ सह गन्धर्वैः पान्तु त्वां सर्वतो दिशः ।
मनवो वसवो रुद्रा वायुः सोमो महर्षयः ।।२१ ।।

नागकिन्नरगन्धर्वयक्षभूतगणा ग्रहाः ।
प्रमथास्तु सहादित्यैर्भूतेशो मातृभिः सह ।।२२ ।।

शक्रः सेनापतिः स्कन्दो वरुणश्चाश्रितस्त्वयि ।
प्रदहन्तु रिपून् सर्वान् राजा विजयमृच्छतु ।।२३ ।।

यानि प्रयुक्तान्यरिभिर्भूषणानि समन्ततः ।
पतन्तु तव शत्रणां हतानि तव तेजसा ।।२४ ।।

कालनेमिबधे यद्वत् युद्धे त्रिपुरघातने ।
हिरण्यकशिपोर्युद्धे बधे सर्वासुरेषु च ।।२५ ।।

शोभितासि तथैवाद्य शोभस्व समयं स्मर ।
नीलस्वेतामिमान्दृष्ट्वा नश्यन्त्वाशु नृपारयः ।।२६ ।।

व्याधिभिर्विविधैर्घोरैः शस्त्रैश्च युधि निर्ज्जिताः ।
पूतना रेवती लेखा कालरात्रीति पठ्यते ।।२७ ।।

दहन्त्वाशु रिपून् सर्वान् पताके त्वामुपाश्रिताः ।
सर्वमेधे महायज्ञे देवदेवेन शूलिना ।।२८ ।।

शर्वेण जगतश्चैव सारेण त्वं विनिर्म्मितः ।
नन्दकस्यापरां मूर्त्तिं स्मर शत्रुनिवर्हण ।।२९ ।।

नीलोत्पलदलश्याम कृष्ण दुःस्वप्ननाशन ।
असिर्विशसनः खड्गस्तीक्ष्णधारो दुरासदः ।।३० ।।

औगर्भो विजयश्चैव धर्म्मपालस्तथैव च ।
इत्यष्टौ तव नामानि पुरोक्तानि स्वयम्भुवा ।।३१ ।।

नक्षत्रं कृत्तिका तुभ्यं गुरुर्देवो महेश्वरः ।
हिरण्यञ्च शरीरन्ते दैवतन्ते जनार्दनः ।।३२ ।।

राजानं रक्ष निस्त्रिंशं सबलं सपुरन्तथा ।
पिता पितामहो देवः स त्वं पालय सर्वदा ।।३३ ।।

शर्मप्रदस्त्वं समरे वर्मन् सैन्ये यशोऽद्य मे ।
रक्ष मां रक्षणीयोऽहन्तवानघ नमोऽस्तुते ।।३४ ।

दुन्दुभे त्वं सप्त्नानां घोषाद्‌धृदयकम्पनः ।
भव भूमिपसैन्यानां यथा विजयवर्द्धनः ।।३५ ।।

यथा जीमूतघोषेण हृष्यन्ति वरवारणाः ।
तथास्तु तव शब्देन हर्षोऽस्माकं मुदावह ।।३६ ।।

यथा जीमूतशब्देन स्त्रीणं त्रासोऽभिजायते ।
तथा तु तव शब्देन त्रस्यन्त्वस्मद्‌द्विषो रणे ।।३७ ।।

मन्त्रैः सदार्च्चनीयास्ते योजनीया जयादिषु ।
घृतकम्बलविष्णादेस्त्वभिषेकञ्च वत्सरे ।।३८ ।।

राज्ञोऽभिषेकः कर्त्तव्यो दैवज्ञेन पुरोधसा । ३९।।

इत्यादिम्हापुराणए आग्नेये छत्रादिमन्त्रादयो नाम ऊनषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।

अग्नि पुराण - दो सौ उनहत्तरवाँ  अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 269 Chapter!-In Hindi

दो सौ उनहत्तरवाँ अध्याय - छत्र, अश्व, ध्वजा, गज, पताका, खड्ग, कवच और दुन्दुभिकी प्रार्थनाके मन्त्र

पुष्कर कहते हैं - परशुराम ! अब मैं छत्र आदि राजोपकरणों के प्रार्थनामन्त्र बतलाता हूँ, जिनसे उन की पूजा कर के नरेशगण विजय आदि प्राप्त करते हैं॥ १ ॥

छत्र-प्रार्थना-मन्त्र

'महामते छत्र देव! तुम हिम, कुन्द एवं चन्द्रमाके समान श्वेत कान्ति से सुशोभित और पाण्डुर वर्ण की-सी आभा वाले हो। ब्रह्मा जी के सत्यवचन तथा चन्द्र, वरुण और सूर्य के प्रभाव से तुम सतत वृद्धिशील होओ। जिस प्रकार मेघ मङ्गल के लिये इस पृथ्वी को आच्छादित करता है, उसी प्रकार तुम विजय एवं आरोग्य की वृद्धि के लिये राजा को आच्छादित करो' ॥ १-३॥

अश्व-प्रार्थना-मन्त्र

'अश्व! तुम गन्धर्वकुलमें उत्पन्न हुए हो, अतः अपने कुलको दूषित करनेवाला न होना। ब्रह्माजीके सत्यवचनसे तथा सोम, वरुण एवं अग्निदेवके प्रभावसे, सूर्यके तेजसे, मुनिवरोंके तपसे, रुद्रके ब्रह्मचर्यसे और वायुके बलसे तुम सदा आगे बढ़ते रहो। याद रखो, तुम अश्वराज उच्चैः श्रवाके पुत्र हो; अपने साथ ही प्रकट हुए कौस्तुभरत्नका स्मरण करो। (तुम्हें भी उसीकी भाँति अपने यशसे प्रकाशित होते रहना चाहिये।) ब्रह्मघाती, पितृघाती, मातृहन्ता, भूमिके लिये मिथ्याभाषण करनेवाला तथा युद्धसे पराङ्मुख क्षत्रिय जितनी शीघ्रतासे अधोगतिको प्राप्त होता है, तुम भी युद्धसे पीठ दिखानेपर उसी दुर्गतिको प्राप्त हो सकते हो; किंतु तुम्हें वैसा पाप या कलङ्क न लगे। तुरंगम। तुम युद्धके पथपर विकारको न प्राप्त होना। समराङ्गण में शत्रुओं का विनाश करते हुए अपने स्वामी के साथ तुम सुखी होओ' ॥ ४-८ ॥

ध्वजा-प्रार्थना-मन्त्र 

'महापराक्रमके प्रतीक इन्द्रध्वज ! भगवान् नारायणके ध्वज विनतानन्दन पक्षिराज गरुड तुममें प्रतिष्ठित हैं। वे सर्पशत्रु, विष्णुवाहन, कश्यपनन्दन तथा देवलोकसे हठात् अमृत छीन लानेवाले हैं। उनका शरीर विशाल और बल एवं वेग महान् है। वे अमृतभोगी हैं। उनकी शक्ति अप्रमेय है। वे युद्धमें दुर्जय रहकर देवशत्रुओंका संहार करनेवाले हैं। उनकी गति वायुके समान तीव्र है। वे गरुड तुममें प्रतिष्ठित हैं। देवाधिदेव भगवान् विष्णुने इन्द्रके लिये तुममें उन्हें स्थापित किया है, तुम सदा मुझे विजय प्रदान करो। मेरे बलको बढ़ाओ। घोड़े, कवच तथा आयुधों सहित हमारे योद्धाओं की रक्षा करो और शत्रुओं को जलाकर भस्म कर दो' ॥ ९-१३॥

गज-प्रार्थना-मन्त्र

'कुमुद, ऐरावत, पद्म, पुष्पदन्त, वामन, सुप्रतीक, अञ्जन और नील- ये आठ देवयोनि में उत्पन्न गजराज हैं। इनके ही पुत्र और पौत्र आठ वनोंमें निवास करते हैं। भद्र, मन्द, मृग एवं संकीर्णजातीय गज वन-वनमें उत्पन्न हुए हैं। हे महागजराज। तुम अपनी योनिका स्मरण करो। वसुगण, रुद्र, आदित्य एवं मरुद्गण तुम्हारी रक्षा करें। गजेन्द्र ! अपने स्वामीकी रक्षा करो और अपनी मर्यादाका पालन करो। ऐरावतपर चढ़े हुए वज्रधारी देवराज इन्द्र तुम्हारे पीछे-पीछे आ रहे हैं, ये तुम्हारी रक्षा करें। तुम युद्धमें विजय पाओ और सदा स्वस्थ रहकर आगे बढ़ो। तुम्हें युद्धमें ऐरावतके समान बल प्राप्त हो। तुम चन्द्रमासे कान्ति, विष्णुसे बल, सूर्यसे तेज, वायुसे वेग, पर्वतसे स्थिरता, रुद्रसे विजय और देवराज इन्द्रसे यश प्राप्त करो। युद्धमें दिग्गज दिशाओं और दिक्पालोंके साथ तुम्हारी रक्षा करें। गन्धर्वोके साथ अश्विनीकुमार सब ओरसे तुम्हारा संरक्षण करें। मनु, वसु, रुद्र, वायु, चन्द्रमा, महर्षिगण, नाग, किंनर, यक्ष, भूत, प्रमथ, ग्रह, आदित्य, मातृ काओं सहित भूतेश्वर शिव, इन्द्र, देव सेनापति कार्तिकेय और वरुण तुममें अधिष्ठित हैं। वे हमारे समस्त शत्रुओं को भस्मसात् कर दें और राजा विजय प्राप्त करें ॥ १४-२३ ॥

पताका-प्रार्थना-मन्त्र

'पताके! शत्रुओंने सब ओर जो घातक प्रयोग किये हों, शत्रुओं के वे प्रयोग तुम्हारे तेज से अभिहत होकर नष्ट हो जायें। तुम जिस प्रकार कालनेमिवध एवं त्रिपुरसंहारके युद्धमें, हिरण्यकशिपुके संग्राममें तथा सम्पूर्ण दैत्योंके वधके समय सुशोभित हुई हो, आज उसी प्रकार सुशोभित होओ। अपने प्रणका स्मरण करो। इस नौलोज्ज्वलवर्णको पताकाको देख कर राजा के शत्रु युद्ध में विविध भयंकर व्याधियों एवं शस्त्रों से पराजित होकर शीघ्र नष्ट हो जायें। तुम पूतना, रेवती, लेखा और कालरात्रि आदि नामों से प्रसिद्ध हो। पताके! हम तुम्हारा आश्रय ग्रहण करते हैं, हमारे सम्पूर्ण शत्रुओंको दग्ध कर डालो। सर्वमेध महायज्ञ में देवाधि देव भगवान् रुद्रने जगत्‌ के सारतत्त्व से तुम्हारा निर्माण किया था' ॥ २४-२८॥ 

खड्ग-प्रार्थना-मन्त्र

'शत्रुसूदन खड्ग । तुम इस बातको याद रखो कि नारायणके 'नन्दक' नामक खड्गकी दूसरी मूर्ति हो। तुम नीलकमलदल के समान श्याम एवं कृष्णवर्ण हो। दुःस्वप्नोंका विनाश करनेवाले हो। प्राचीनकालमें स्वयम्भू भगवान् ब्रह्माने असि, विशसन, खड्ग, तीक्ष्णधार, दुरासद, श्रीगर्भ, विजय और धर्म पाल ये तुम्हारे आठ नाम बतलाये हैं। कृत्ति का तुम्हारा नक्षत्र है, देवाधिदेव महेश्वर तुम्हारे गुरु हैं, सुवर्ण तुम्हारा शरीर है और जनार्दन तुम्हारे देवता हैं। खड्ग! तुम सेना एवं नगरसहित राजाकी रक्षा करो। तुम्हारे पिता देवश्रेष्ठ पितामह हैं। तुम सदा हमलोगोंकी रक्षा करो' ॥ २९-३३ ॥

कवच-प्रार्थना-मन्त्र

'हे वर्म! तुम रणभूमिमें कल्याणप्रद हो। आज मेरी सेनाको यश प्राप्त हो। निष्पाप! मैं तुम्हारे द्वारा रक्षा पानेके योग्य हूँ। मेरी रक्षा करो। तुम्हें नमस्कार है' ॥ ३४॥

दुन्दुभि-प्रार्थना-मन्त्र

'दुन्दुभे ! तुम अपने घोषसे शत्रुओंका हृदय कम्पित करने वाली हो; हमारे राजा की सेनाओं के लिये विजय वर्धक बन जाओ। मोददायक दुन्दुभे। जैसे मेघ की गर्जना से श्रेष्ठ हाथी हर्षित होते हैं, वैसे ही तुम्हारे शब्दसे हमारा हर्ष बढ़े। जिस प्रकार मेघकी गर्जना सुनकर स्त्रियाँ भयभीत हो जाती हैं, उसी प्रकार तुम्हारे नादसे युद्धमें उपस्थित हमारे शत्रु त्रस्त हो उठें ॥ ३५-३७॥

इस प्रकार पूर्वोक्त मन्त्रोंसे राजोपकरणोंकी अर्चना करे एवं विजयकार्यमें उनका प्रयोग करे। दैवज्ञ राजपुरोहितको रक्षाबन्धन आदिके द्वारा राजाकी रक्षाका प्रबन्ध करके प्रतिवर्ष विष्णु आदि देवताओं एवं राजाका अभिषेक करना चाहिये ॥ ३८-३९॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'छत्र आदि को प्रार्थना के मन्त्र का कथन' नामक दो सौ उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ २६९

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