अग्नि पुराण दो सौ सरसठवाँ अध्याय ! Agni Purana 267 Chapter !

अग्नि पुराण दो सौ सरसठवाँ अध्याय ! Agni Purana 267 Chapter !

अग्नि पुराण 267 अध्याय माहेश्वर स्नान लक्षकोटिहोमादयः

पुष्कर उवाच

स्नानं माहेश्रं वक्ष्ये राजादेर्जयवर्द्धनम् ।
दानवेन्द्राय बलये यज्जगादोशनाः पुरा ।। १ ।।

बास्करेऽनुदिते पीठे प्रातः संस्नापयेद्‌ घटैः ।
ॐ नमो भगवते रुद्राय च बलाय च पाण्डरोचितभस्मानुलिप्तगायाय ।

तद्यथा जय जय सर्वान् शत्रून् मूकय कलहविग्रहविवादेषु भञ्जय ।
ॐ मथ मथ सर्व्वपथिकान् योसौ युगान्तकाले 

दिधक्षति इमां पूजां रौद्रमूर्त्तिः सहस्त्रांशुः
शुक्लः स ते रक्षतु जीवतं ।

सम्बर्त्तकाग्नितुल्यश्च त्रिपुरान्तकरः शिवः ।
सर्वदेवमयः सोपि तव रक्षतु जीवितं लिखि लिखि खिलि स्वाहा ।।

एवं स्नातस्तु मन्त्रेण जुहुयात्तिलतण्ड्डलम् ।। २ ।।

पञ्चामृतैस्तु संस्नाप्य पूजयेच्छूलपाणिनं ।
स्नानान्यन्यानि वक्ष्यामि सर्वदा विजयाय ते ।। ३ ।।

स्नानं घृतेन कथितमायुष्यवर्द्धनं परम् ।
गोमयेन च लक्ष्मीः स्याद् गोमूत्रेणाघमर्द्दनम् ।। ४ ।।

क्षीरेण बलबुद्धिः स्याद्दध्ना लक्षअमीविवर्द्धनं ।
कुशोदकेन पापान्तः वञ्चगव्येन सर्वभाक् ।। ५ ।।

शतमूलेन सर्वाप्तिर्गोश्रृङ्गोदकतोऽर्घजित् ।
पलाशविल्वकमलकुशस्नानन्तु सर्व्वदं ।। ६ ।।

वचा हरिद्रे द्वे मुस्तं स्नानं रक्षोहणं परं ।
आयुष्यञ्च यशस्यञ्च धर्म्ममेधाविवर्द्धनम् ।। ७ ।।

हैमाद्भिश्चैव माङ्गल्यं रूप्यताम्रोदकैस्तथा ।
रत्नोदकैस्तु विज्यः सौभाग्यञ्च प्रियङ्गुणा ।। ८ ।।

फलाद्बिश्च तथारोग्यं धात्र्यद्भिः परमां श्रियम् ।
तिलसिद्धार्थकैर्ल्लक्ष्मीः सौभाग्यञ्च प्रियङ्गुणा ।। ९ ।।

पद्मोत्पलकदम्बैश्च श्रीर्बलं बलाद्रुमोदकैः ।
विष्णुपादोदकस्नानं सर्वस्नानेभ्य उत्तमम् ।। १० ।।

एकाकी एककामायेत्येकोर्कं१ विधिवच्चरेत् ।
अक्रन्दयति सूक्तेन प्रबध्नीयान्मणिं करे ।। ११ ।।

कुष्ठपाठा वचा शुण्ठी शङ्खलोहादिको मणिः ।
सर्व्वेषामेव कामानामीश्वरो भगवान् हरिः ।। १२ ।।

तस्य संपूजनादेव सर्व्वान्कामान्समश्नुते ।
स्नापयित्वा घृतक्षीरैः पूजयित्वा च पित्तहा ।। १३ ।।

पञ्चमुद्‌गबलिन्दत्वा अतिसारात् प्रमुच्यते ।
पञ्चगव्येन संस्नाप्य वातव्याधिं विनाशयेत् ।। १४ ।।

द्विस्रेहस्नपनात् श्लेष्मरोगहा चातिपूजया ।
घृतं तैलं तथा क्षौद्रं स्नानन्तु त्रिरसं परं ।। १५ ।।

स्नानं घृताम्बु द्विस्नेहं समलं घृततैलकम् ।
क्षौद्रमिक्षुरसं क्षीरं स्नानं त्रिमधुरं स्मृतम् ।। १६ ।।

घृतमिक्षुरसं तैलं क्षौद्रञ्च त्रिरसं श्रिये ।
अनुलेपस्त्रिशुक्लस्तु कर्पूरोशीरचन्दनैः ।। १७ ।।

चन्दनागुरुकर्पूरमृगदर्पैः सकुङ्कुमैः ।
पञ्चानुलेपनं विष्णोः सर्वकामफलप्रदं ।। १८ ।।

त्रिसुगन्धञअच कर्पूरं तथा चन्दनकुङ्कुमैः ।
मृगदर्पं सकर्पूरं मलयं सर्व्वकामदम् ।। १९ ।।

जातीफलं सकर्पूरं चन्दनञ्च त्रिशीतकम् ।
पीतानि शुक्लवर्णानि तथा शुक्लानि भार्गव ।। २० ।।

कृष्णानि चैव रक्तानि पञ्चवर्णानि निर्द्दिशेत् ।
उत्पलं पद्मजाती च त्रिशीतं हरिपूजने ।। २१ ।।

कुङ्कुमं रक्तपद्मानि त्रिरक्तं रक्तमुत्पलं ।
धूपदीपादिभिः प्रार्च्य विष्णुं शान्तिर्भवेन्नृणां ।। २२ ।।

चतुरस्रकरे कुण्डे ब्राह्मणाश्चाष्ट षोडस ।
लक्षहोमङ्कोटिहोमन्तिलाज्ययवधान्यकैः ।। २३ ।।

ग्रहानभ्यर्च्य गायत्र्या सर्व्वशान्तिः क्रमाद्भवेत् ।

इत्यादिमहापुराणो आग्नेये माहेश्वरस्नानलक्षकोटिहोमादयो नाम सप्तषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।

अग्नि पुराण - दो सौ सरसठवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 267 Chapter!-In Hindi

दो सौ सरसठवाँ अध्याय - माहेश्वर-स्नान आदि विविध स्त्रानोंका वर्णन; भगवान् विष्णुके पूजनसे तथा गायत्रीमन्त्रद्वारा लक्ष होमादिसे शान्तिकी प्राप्तिका कथन

पुष्कर कहते हैं- अब मैं राजा आदिकी विजयश्रीको बढ़ानेवाले 'माहेश्वर-खान' का वर्णन करता हूँ, जिसका पूर्वकाल में शुक्राचार्यने दानवेन्द्र बलिको उपदेश किया था। प्रातःकाल सूर्योदयके पूर्व भद्रपीठपर आचार्य जलपूर्ण कलशोंसे राजाको खान करावे ॥ १ ॥

(स्त्रान के समय निम्नाङ्कित मन्त्र का पाठ करे) 'ॐ नमो भगवते रुद्राय च बलाय चपाण्डरोचितभस्मानुलिप्तगात्राय (तद्यथा) जय जय सर्वान् शत्रून् मूकयस्व कलहविग्रहविवादेषु भञ्जय भञ्जय। ॐ मथ मथ। सर्वप्रत्यर्थिकान् योऽसौ युगान्तका ले दिधक्षति। इमां पूजां रौद्रमूर्तिः सहस्त्रांशुः शुक्लः स ते रक्षतु जीवितम्। संवर्तकाग्नितुल्यश्च त्रिपुरान्तकरः शिवः। सर्वदेवमयः सोऽपि तव रक्षतु जीवितम् ॥ लिखि लिखि खिलि स्वाहा।'

'धवल भस्मका अनुलेपन अपने अङ्गोंमें लगाये महाबलशाली भगवान् रुद्रको नमस्कार है। आपकी जय हो, जय हो। समस्त शत्रुओंको गूँगा कर दीजिये। कलह, युद्ध एवं विवादमें भग्र कीजिये, भग्न कीजिये। मथ डालिये, मथ डालिये। जो प्रलयकालमें सम्पूर्ण लोकोंको भस्म कर देना चाहते हैं, वे रुद्र समस्त प्रतिपक्षियोंको भस्म कर डालें। इस पूजाको स्वीकार करके वे रौद्रमूर्ति, सहस्र किरणोंसे सुशोभित, शुक्लवर्ण शिव तुम्हारे जीवनकी रक्षा करें। प्रलयकालीन अग्निके समान तेजस्वी, सर्वदेवमय, त्रिपुरनाशक शिव तुम्हारे जीवनकी रक्षा करें।' इस प्रकार मन्त्रसे स्नान करके तिल एवं तण्डुलका होम करे। फिर त्रिशूलधारी भगवान् शिवको पञ्चामृतसे खान कराके उनका पूजन करे ॥ २-६३ ॥

अब मैं तुम्हारे सम्मुख सदा विजयकी प्राप्ति करानेवाले अन्य स्नानोंका वर्णन करता हूँ। घृत- स्रान आयुकी वृद्धि करनेमें उत्तम है। गोमयसे स्नान करनेपर लक्ष्मीप्राप्ति, गोमूत्रसे खान करनेपर पाप नाश, दुग्धसे स्नान करनेपर बलवृद्धि एवं दधिसे स्रान करनेपर सम्पत्तिकी वृद्धि होती है। कुशोदकसे स्नान करनेपर पापनाश, पञ्चगव्यसे स्नान करनेपर समस्त अभीष्ट वस्तुओंकी प्राप्ति, शतमूलसे स्नान करनेपर सभी कामनाओंकी सिद्धि तथा गोशृङ्गके जलसे स्नान करनेपर पापोंकी शान्ति होती है। पलाश, बिल्वपत्र, कमल एवं कुशके जलसे खान करना सर्वप्रद है। बचा, दो प्रकारकी हल्दी और मोथामिश्रित जलसे किया गया स्त्रान राक्षसोंके विनाशके लिये उत्तम है। इतना ही नहीं, वह आयु, यश, धर्म और मेधाकी भी वृद्धि करनेवाला है। 

स्वर्णजलसे किया गया स्त्रान मङ्गलकारी होता है। रजत और ताम्नजल से किये गये स्नान का भी यही फल है। रत्नमिश्रित जलसे स्नान करनेपर विजय, सब प्रकारके गन्धोंसे मिश्रित जलद्वारा स्रान करनेपर सौभाग्य, फलोदकसे स्रान करनेपर आरोग्य तथा धात्रीफलके जलसे खान करनेपर उत्तम लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है। तिल एवं श्वेत सर्षपके जलसे स्नान करनेपर लक्ष्मी, प्रियंगुजलसे खान करनेपर सौभाग्य, पद्म, उत्पल तथा कदम्बमिश्रित जलसे स्रान करनेपर लक्ष्मी एवं बला-वृक्षके जलसे खान करनेपर बलकी प्राप्ति होती है। भगवान् श्रीविष्णुके चरणोदकद्वारा स्नान सब स्त्रानोंसे श्रेष्ठ है॥७-१३॥ एकाकी मनुष्य मनमें एक कामना लेकर विधिपूर्वक एक ही स्नान करे। वह 'आक्रन्दयति०' आदि सूक्तसे अपने हाथमें मणि (मनका) बाँधे। वह मणि कूट, पाट, वचा, सोंठ, शङ्ख अथवा लोहे आदिकी होनी चाहिये। समस्त कामनाओंके ईश्वर भगवान् श्रीहरि ही हैं, अतः उनके पूजनसे ही मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य घृतमिश्रित दुग्धसे स्नान कराके श्रीविष्णुका पूजन करता है, वह पित्तरोगका नाश कर देता है। उनके उद्देश्यसे पाँच मूँगों की बलि देकर मनुष्य अतिसार से छुट कारा पाता है।

भगवान् श्री हरि को पञ्चगव्य से स्नान कराने वाला वातरोग का नाश करता है। द्विस्नेह-द्रव्य से स्नान करा के अतिशय श्रद्धा पूर्वक उनका पूजन करने वाला कफ-सम्बन्धी रोग से मुक्त हो जाता है। घृत, तैल एवं मधुद्वारा कराया गया स्नान 'त्रिरस-स्नान' माना गया है, घृत और जलसे किया गया स्रान 'द्विस्त्रेह स्रान' है तथा घृत-तेल-मिश्रित जलका स्नान 'समल स्नान' है। मधु, ईखका रस और दूध-इन तीनोंसे मिश्रित जलद्वारा किया गया स्त्रान 'त्रिमधुर-स्रान' है। घृत, इक्षुरस तथा शहद यह 'त्रिरस-स्त्रान लक्ष्मीकी प्राप्ति करानेवाला है। कर्पूर, उशीर एवं चन्दनसे किया गया अनुलेप 'त्रिशुक्ल' कहलाता है। चन्दन, अगुरु, कर्पूर, कस्तूरी एवं कुङ्कुम- इन पाँचोंके मिश्रण से किया गया अनुलेपन यदि विष्णुको अर्पित किया जाय तो वह सम्पूर्ण मनोवाञ्छित फलों को देने वाला है। कर्पूर, चन्दन एवं कुङ्कुम अथवा कस्तूरी, कपूर और चन्दन- यह 'त्रिसुगन्ध' समस्त कामनाओंको प्रदान करनेवाला है। जायफल, कर्पूर और बन्दन- ये 'शीतत्रय' माने गये हैं। पीला, सुग्गापंखी, शुक्ल, कृष्ण एवं लाल- ये पञ्च वर्ण कहे गये हैं।॥ १४-२४॥

श्री हरि के पूजन में उत्पल, कमल, जाती पुष्प तथा त्रिशीत उपयोगी होते हैं। कुङ्कुम, रक्त कमल और लाल उत्पल ये 'त्रिरक्त' कहे जाते हैं। श्रीविष्णुका धूप-दीप आदिसे पूजन करनेपर मनुष्योंको शान्तिकी प्राप्ति होती है। चार हाथके चौकोर कुण्ड में आठ या सोलह ब्राह्मण तिल, घी और चावलसे लक्षहोम या कोटिहोम करें। ग्रहोंकी पूजा करके गायत्री मन्त्र से उक्त होम करने पर क्रमशः सब प्रकार की शान्ति सुलभ होती है ॥ २५-२७॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'माहेश्वर-खान तथा लक्षकोटिहोम आदिका कथन' नामक दो सौ सरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २६७ ॥

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