अग्नि पुराण दो सौ चौंसठवाँ अध्याय ! Agni Purana 264 Chapter !

अग्नि पुराण दो सौ चौंसठवाँ अध्याय ! Agni Purana 264 Chapter !

अग्नि पुराण 264 अध्याय - देवपूजावैश्व देव बलिः

पुष्कर उवाच

देवपूजादिकं कर्म वक्ष्ये चोत्पातमर्दनम् ।
आपोहिष्ठेति तिसृभिः स्नातोऽर्घ्यं विष्णवेर्पयेत् ।। १ ।।

हिरण्यवर्णा इति च पाद्यञ्च तिसृभिर्द्विज ।
शन्न आपो ह्याचमनमिदमापोऽभिषेचनं ।। २ ।।

रथे अक्षे च तिसृभिर्गन्धं युवेति वस्त्रकं ।
पुष्पं पुष्पवतीत्येवं धूपं धूपोसि चाप्यथ ।। ३ ।।

तेजोसि शुक्रं दीपं स्यान्मधुपर्कं दधीति च ।
हिरण्यगर्भ इत्यष्टावृचः प्रोक्ता निवेदने ।। ४ ।।

अन्नस्य मनुजश्रेष्ठ पानस्य च सुगन्धिनः ।
चामरव्यजनोपानच्छत्रं यानासने तथा ।। ५ ।।

यत् किञ्चिदेवमादि स्यात्सावित्रेण निवेदयेत् ।
पौरुषन्तु जपेत् सूक्तं तदेब जुहुयात्तथा ।। ६ ।।

अर्च्चाभावे तथा वेद्याञ्जले पूर्णघटे तथा ।
नदीतीतरेऽथ कमले शान्तिः स्याद्विष्णुपूजनात् ।। ७ ।।

ततो होमः प्रकर्त्तव्यो दीप्यमाने विभावसौ ।
परिसम्मृज्य पर्य्युक्ष्य परिस्तीर्य्य परिस्तरैः ।। ८ ।।

सर्व्वान्नाग्रं समुद्‌धृत्य जुहुयात् प्रयतस्ततः ।
वासुदेवाय देवाय प्रभवे चाव्ययाय च ।। ९ ।।

अग्नये चैव सोमाय मित्राय वरुणाय च ।
इन्द्राय च महाभाग इन्द्राग्निभ्यां तथैव च ।। १० ।।

विश्वेभ्यशचैव देवेब्यः प्रजानां पतये नमः ।
अनुमत्यै तथा राम धन्वन्तरय एव च ।। ११ ।।

वास्तोष्पत्यै ततो देव्यै ततः स्विष्टिकृतेऽग्नये ।
सच्तुर्थ्यन्तनाम्ना तु हुत्वैतेब्यो बलिं हरेत् ।। १२ ।।

तक्षोपतक्षमभितः पूर्वेणाग्निमतः परम् ।
अश्वानामपि धर्मज्ञ ऊर्णानामानि चाप्यथ ।। १३ ।।

निरुन्धी धूम्रिणीका च अस्वपन्ती तथैव च ।
मेघपत्नी च नामानि सर्व्वेषामेव भार्गव ।। १४ ।।

आग्नेयाद्याः क्रमेणाथ ततः शक्तिषु निक्षिपेत् ।
नन्दिन्यै च सुभाग्यै च सुमङ्गल्यै च भार्गव ।। १५ ।।

भद्रकाल्यै ततो दत्वा स्थूणायाञ्च तथा श्रिये ।
हिरणअयकेश्यै च तथा वनस्पतय एव च ।। १६ ।।

धर्म्माधर्ममयौ द्वारे गृहमध्ये ध्रुवाय च ।
मृत्यवे च बहिर्दद्याद्वरुणायोदकाशये ।। १७ ।।

भूतोभ्यश्च बहिर्द्दद्याच्छरणे धनदाय च ।
इन्द्रायेन्द्रपुरुषेभ्यो दद्यात् पूर्वेण मानवः ।। १८ ।।

यमाय तत् पुरुषेभ्यो दद्याद्दक्षिणतस्तथा ।
वरुणाय तत्पुरुषेभ्यो दद्यात्पश्चिमतस्तथा ।। १९ ।।

सोमाय सोमपुरुषेभ्य उदग्दद्यादनन्तरं ।
ब्रह्मणे ब्रह्मपुरुषेभ्यो मध्ये दद्यात्तथैव च ।। २० ।।

आकाशे च तथा चोद्‌र्ध्वे स्थण्डिलाय क्षितौ तथा ।
दिवा दिवाचरेभ्यश्च रात्रौ रात्रिचरेषु च ।। २१ ।।

बलिं बहिस्तथा दद्यात्सायं प्रातस्तु प्रत्यहं ।
पिण्डनिर्वपणं कुर्य्यात् प्रातः सायं न कारयेत् ।। २२ ।।

पित्रे तु प्रथमं दद्यात्तत्पित्रे तदनन्तरम् ।
प्रतिपामहाय तन्मात्रे पितृमात्रे ततोऽर्पयेत् ।। २३ ।।

तन्मात्रे दक्षिणाग्रेषु कुशेष्वेवं यज्ते पितृन् ।
इन्द्रवारुणवायव्या याम्या वा नैर्ऋताश्च ये ।। २४ ।।

ते काकाः प्रतिगृह्णन्तु इमं पिण्डं मयोद्धृतम् ।
काकपिण्डन्तु मन्त्रेण शुनः पिण्डं प्रदापयेत् ।। २५ ।।

विवस्वतः कुले जातौ द्वौ श्यावशबलौ शुनौ ।
तेषां पिण्डं प्रदास्यामि पथि रक्षन्तु मे सदा ।। २६ ।।

सौरभेय्यः सर्वहिताः पवित्राः पापनाशनाः ।
प्रतिगृह्लन्तु मे ग्रासं गावस्त्रैलोक्यमातरः ।। २७ ।।

गोग्रासञ्च स्वस्त्ययनं कृत्वा बिक्षां प्रदापयेत् ।
अतिथीन्दीनान् पूजयित्वा गृही भुञ्जीत च स्वयं ।। २८ ।।

ओं भूः स्वाहा ओं भुवः स्वाहा ओं स्वः स्वाहा ओं भूर्भुवः स्वः स्वाहा ।
ओं देवकृतस्यैनसोऽवयकजनमसि स्वाहा ।
ओं पितृकृतस्यैनसोऽवयकजनमसि स्वाहा ।। २९ ।।

ओं आत्मकृतस्यैनसोऽवयजनमसि स्वाहा ।
ओं मनुष्यकृतस्यैनसोऽवयजनमसि स्वाहा ।।

ओं एनस एनसोऽवयजनमसि स्वाहा ।
यच्चाहमेनो विद्वाश्चकार यच्चाविद्वांस्तस्य ।।

सर्वस्यैनसोऽवयजनमसि स्वाहा।अग्नेये स्विष्टिकृते स्वाहा ।
ओं प्र्जापतये स्वाहा ।।

विष्णु पूजा वैश्वदेवबलिस्ते कीर्त्तितो मया ।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये देवपूजावैश्वदेवबलिर्नाम चतुःषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।

अग्नि पुराण दो सौ चौंसठवाँ अध्याय हिन्दी मे -Agni Purana 264 Chapter In Hindi

दो सौ चौंसठवाँ अध्याय - देवपूजा तथा वैश्वदेव-बलि आदि का वर्णन

पुष्कर कहते हैं- परशु राम ! अब मैं देवपूजा आदि कर्मका वर्णन करूँगा, जो उत्पातों को शान्त करने वाला है। मनुष्य खान करके 'आपो हि ष्ठा०' (यजु० ३६।१४-१६) आदि तीन मन्त्रोंसे भगवान् श्रीविष्णुको अर्घ्य समर्पित करे। फिर 'हिरण्यवर्णा०' (ऋ०प० ११।११।१-३) आदि तीन मन्त्रों से पाद्य समर्पित करे। 'शं नो आपः ०' इस मन्त्र से आचमन एवं 'इदमापः०' (यजु० ६।१७) मन्त्र से अभिषेक अर्पण करे। 'रथे०, अक्षेषु० एवं चतस्त्रः' इन तीन मन्त्रों से भगवान्‌ के श्रीअङ्गोंमें चन्दनका अनुलेपन करे। फिर 'युवा सुवासाः०' (ऋक्० ३।८।४) मन्त्रसे वस्त्र और 'पुष्पवती' (अथर्व० ८।७।२७) इत्यादि मन्त्रसे पुष्प एवं 'धूरसि०' (यजु० १।८) आदि मन्त्र से धूप समर्पित करे। 'तेजोऽसि शुक्रमसि०' (यजु० १।३१) इस मन्त्रसे दीप तथा 'दधिक्राव्णो' (यजु० २३।३२) मन्त्रसे मधुपर्क निवेदन करे। नरश्रेष्ठ। तदनन्तर 'हिरण्यगर्भः०' आदि आठ ऋचाओंका पाठ करके अन्न एवं सुगन्धित पेय पदार्थका नैवेद्य समर्पित करे। इसके अतिरिक्त भगवान्‌ को चामर, व्यजन, पादुका, छत्र, यान एवं आसन आदि जो कुछ भी समर्पित करना हो, वह सावित्र मन्त्रसे अर्पण करे। फिर 'पुरुषसूक्त' का जप करे और उसीसे आहुति दे। भगवद्विग्रहके अभावमें वेदिकापर स्थित जलपूर्ण कलश में, अथवा नदी के तटपर, अथवा कमल के पुष्प में भगवान् विष्णु का पूजन करने से उत्पातों की शान्ति होती है॥ १-७॥

(काम्य बलिवैश्वदेव-प्रयोग) भूमिस्थ वेदी का मार्जन एवं प्रोक्षण कर के उस के चारों ओर कुशको बिछावे। फिर उसपर अग्रिको प्रदीप्त करके उसमें होम करें। महाभाग परशुराम ! मन और इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए सब प्रकार की रसोईमें से अग्राशन निकालकर गृहस्थ द्विज क्रमशः वासुदेव आदिके लिये आहुतियाँ दे। मन्त्रवाक्य इस प्रकार हैं
'प्रभवे अव्ययाय देवाय वासुदेवाय नमः स्वाहा। अग्नये नमः स्वाहा। सोमाय नमः स्वाहा। मित्राय नमः स्वाहा। वरुणाय नमः स्वाहा। इन्द्राय नमः स्वाहा। इन्द्राग्रीभ्यां नमः स्वाहा। विश्वेभ्यो देवेभ्यो नमः स्वाहा। प्रजापतये नमः स्वाहा। अनुमत्यै नमः स्वाहा। धन्वन्तरये नमः स्वाहा। वास्तोष्पतये नमः स्वाहा। देव्यै नमः स्वाहा। एवं अग्ग्रये स्विष्टकृते नमः स्वाहा।' इन देवताओंको उनका चतुर्थ्यन्त नाम लेकर एक-एक ग्रास अन्नकी आहुति दे। तत्पश्चात् निम्नाङ्कित रोतिसे बलि समर्पित करे ॥ ८-१२॥

धर्मज्ञ ! पहले अग्रि दिशा से आरम्भ करके तक्षा, उपतक्षा, अश्वा, ऊर्जा, निरुन्धी, धूत्रिणी का, अस्वपन्ती तथा मेघपत्नी इनको बलि अर्पित करे। भृगुनन्दन। ये ही समस्त बलिभागिनी देवियोंक नाम हैं। क्रमशः आग्रेय आदि दिशाओंसे आरम्भ करके इन्हें बलि दे। (बलि-समर्पणके वाक्य इस प्रकार हैं-तक्षायै नमः आग्नेय्याम्, उपतक्षायै नमः याम्ये, अश्वाभ्यो नमः नैऋत्ये, ऊर्णाभ्यो नमः वारुण्याम्, निरुन्ध्यै नमः वायव्ये, धूम्रिणीकायै नमः उदीच्याम्, अस्वपन्त्यै नमः ऐशान्याम्, मेघपत्न्यै नमः प्राच्याम्।) भार्गव । तदनन्तर नन्दिनी आदि शक्तियोंको बलि अर्पित करे। यथा- नन्दिन्यै नमः, सुभगायै नमः (अथवा सौभाग्यायै नमः), सुमङ्गल्यै नमः, भद्रकाल्यै। नमः। इन चारोंके लिये पूर्वादि चारों दिशाओंमें बलि देकर किसी खम्भे या खूँटेपर लक्ष्मी आदिके लिये बलि दे। यथा- श्रियै नमः, हिरण्यकेश्यै नमः तथा वनस्पतये नमः। द्वारपर दक्षिणभागमें 'धर्ममयाय नमः', वामभागमें 'अधर्ममयाय नमः', घरके भीतर 'ध्रुवाय नमः', घरके बाहर 'मृत्यवे नमः' तथा जलाशय में 'वरुणाय नमः' इस मन्त्र से बलि अर्पित करे। फिर घरके बाहर 'भूतेभ्यो नमः' इस मन्त्रसे भूतबलि दे। घरके भीतर 'धनदाय नमः' कहकर कुबेरको बलि दे। इसके बाद मनुष्य घरसे पूर्वदिशामें 'इन्द्राय नमः, इन्द्रपुरुषेभ्यो नमः' इस मन्त्र से इन्द्र और इन्द्रके पार्षदपुरुषों को बलि अर्पित करे। तत्पश्चात् दक्षिणमें 'यमाय नमः, यमपुरुषेभ्यो नमः' इस मन्त्रसे, 'वरुणाय नमः, वरुणपुरुषेभ्यो नमः' इस मन्त्रसे पश्चिममें, 'सोमाय नमः, सोमपुरुषेभ्यो नमः' इस मन्त्रसे उत्तरमें और 'ब्रह्मणे वास्तोष्यतये नमः, ब्रह्मपुरुषेभ्यो नमः' इस मन्त्रसे गृहके मध्यभागमें बलि दे। 'विश्वेभ्यो देवेभ्यो नमः' इस मन्त्रसे घरके आकाश में ऊपर की ओर बलि अर्पित करे। 'स्थण्डिलाय नमः' इस मन्त्रसे पृथ्वीपर बलि दे। तत्पश्चात् 'दिवाचारिभ्यो भूतेभ्यो नमः' इस मन्त्रसे दिनमें बलि दे तथा 'रात्रिचारिभ्यो भूतेभ्यो नमः' इस मन्त्रसे रात्रिमें बलि अर्पित करे। घरके बाहर जो बलि दी जाती है, उसे प्रतिदिन सार्यकाल और प्रातःकाल देते रहना चाहिये। यदि दिनमें श्राद्ध सम्बन्धी पिण्डदान किया जाय तो उस दिन सायंकालमें बलि नहीं देनी चाहिये ॥ १३-२२॥

पितृ-श्राद्धमें दक्षिणाग्र कुशोंपर पहले पिताको, फिर पितामहको और उसके बाद प्रपितामहको पिण्ड देना चाहिये। इसी प्रकार पहले माताको, फिर पितामहीको, फिर प्रपितामहीको पिण्ड अथवा जल दे। इस प्रकार 'पितृयाग' करना चाहिये ॥ २३ ॥  बने हुए पाकमेंसे बलिवैश्वदेव करनेके बाद पाँच बलियाँ दी जाती हैं। उनमें सर्वप्रथम 'गो- बलि' है; किंतु यहाँ पहले 'काकबलि 'का विधान किया गया है-

काकबलि

इन्द्रवारुणवायव्या याम्या वा नैर्ऋताश्च ये । 
ते काकाः प्रतिगृह्णन्तु इमं पिण्डं मयोद्धृतम्।।

'जो इन्द्र, वरुण, वायु, यम एवं निर्ऋति देवताकी दिशामें रहते हैं, वे काक मेरेद्वारा प्रदत्त यह पिण्ड ग्रहण करें।' इस मन्त्रसे काकबलि देकर निम्नाङ्कित मन्त्रसे कुत्तोंके लिये अन्नका ग्रास दे॥ २४-२५ ॥

कुक्कुर-बलि

विवस्वतः कुले जातौ द्वौ श्यामशबली' शुनौ। 
ताभ्यां पिण्डं प्रदास्यामि रक्षां पथि मां सदा ॥

'श्याम और शबल (काले और चितकबरे) रंगवाले दो श्वान विवस्वान्‌के कुलमें उत्पन्न हुए हैं। मैं उन दोनोंके लिये पिण्ड प्रदान करता हूँ। वे लोक-परलोकके मार्गमें सदा मेरी रक्षा करें' ॥ २६ ॥

गो-ग्रास

सौरभेय्यः सर्वहिताः पवित्राः पापनाशनाः। 
प्रतिगृह्णन्तु में ग्रासं गावस्त्रैलोक्यमातरः ॥

'त्रैलोक्यजननी, सुरभिपुत्री गौएँ सबका हित करनेवाली, पवित्र एवं पापोंका विनाश करनेवाली हैं। वे मेरे द्वारा दिये हुए ग्रासको ग्रहण करें।' इस मन्त्रसे गो-ग्रास देकर स्वस्त्ययन करे। फिर याचकोंको भिक्षा दिलावे। तदनन्तर दीन प्राणियों एवं अतिथियोंका अन्नसे सत्कार करके गृहस्थ स्वयं भोजन करे ॥ २७-२८ ॥

(अनाहिताग्नि पुरुष निम्नलिखित मन्त्रोंसे जलमें अन्नकी आहुतियाँ दे-) ॐ भूः स्वाहा। ॐ भुवः स्वाहा। ॐ स्वः स्वाहा। ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा। ॐ देवकृतस्यैन सोऽवयजनमसि स्वाहा। ॐ पितृकृतस्यैनसोऽवय जनमसि स्वाहा। ॐ आत्मकृतस्यैनसोऽवयजनमसि स्वाहा। ॐ मनुष्यकृतस्यैनसोऽवयजनमसि स्वाहा। ॐ एनस एनसोऽवयजनमसि स्वाहा। यच्चाहमेनो विद्वांश्चकार यच्चाविद्वांस्तस्य सर्वस्यैनसोऽवयजनमसि स्वाहा। अग्रये स्विष्टकृते स्वाहा। ॐ प्रजापतये स्वाहा। यह मैंने तुम से विष्णु पूजन एवं बलिवैश्व देव का वर्णन किया ॥ २९ ॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'देवपूजा और वैश्वदेव बलिका वर्णन' नामक दो सौ चौसठयाँ अध्धाय पूरा हुआ २६४॥

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