अग्नि पुराण दो सौ इकसठवाँ अध्याय ! Agni Purana 261 Chapter !
अग्नि पुराण 251 अध्याय - सामविधानम्
पुष्कर उवाच
यजुर्व्विधानङ्कथितं वक्ष्ये साम्नां विधानकं ।
संहितां वैष्णवीञ्जप्त्वा हुत्वा स्यात् सर्व्वकामभाक् ।। १ ।।
संहिताञ्छान्दसीं साधु जप्त्वा प्रीणाति शङ्करं ।
स्कान्दीं पैत्र्यां संहिताञ्च जप्त्वा स्यात्तु प्रसादवान् ।। २ ।।
यत इन्द्र भजामहे हिंसादोषविनाशनं ।
अवकीर्णी मुच्यते च अग्निस्तिग्मेति वै जपन् ।। ३ ।।
सर्व्वंपापहरं ज्ञेयं परितोयञ्च तासु च ।
अविक्रेयञ्च विक्रीय जपेद्घृतवतीति च ।। ४ ।।
अयानो देव सवितर्ज्ञेयन्दुःस्वप्ननाशनं ।
अबोध्यग्निरितिमन्त्रेण घृतं राम यथाविधि ।। ५ ।।
अभ्युक्ष्य घृतशेषेण मेखलाबन्ध इष्यते ।
स्त्रीणां यासान्तु गर्भाणि पतन्ति भृगुसत्तम ।। ६ ।।
मणिं जातस्य बालस्य वध्नीयात्तदनन्तरं ।
सोमं राजानमेतेन व्याधिभिर्विप्रमुच्यते ।। ७ ।।
सर्पसाम प्रयुञ्चानो नाप्नुयात् सर्पजम्भयं ।
माद्य त्वा वाद्यतेत्येतद्धुत्वा विप्रः सहस्रशः ।। ८ ।।
सतावरिमणिम्बद्ध्वा नाप्नुयाच्छस्त्रतो भयं ।
दीर्घतससोर्क्क इति हुत्वान्नं प्राप्नुयाद्वहु ।। ९ ।।
स्वमध्यायन्तीति जपन्न म्रियेत् पिपासया ।
त्वमिमा ओषधी ह्येतज्जप्त्वा ब्याधिंन वाप्नुयात् ।। १० ।।
पथि देवव्रतञ्जप्त्वा भयेब्यो विप्रमुच्यते ।
यदिन्द्रो मुनये त्वेति हुतं सौभाग्यवर्द्धनं ।। ११ ।।
भगो न चित्र हत्येवं नेत्रयो रञ्जनं हितं ।
सौभाग्यवर्द्धनं राम नात्र कार्य्या विचारणा ।। १२ ।।
जपेदिन्द्रेति वर्गञ्च तथा सौभाग्यवर्द्धनं ।
परि प्रिया हि वः कारिः काभ्यां संश्रावयेत् स्त्रियं ।। १३ ।।
सा तङ्कामयते राम नात्र कार्य्या विचारणा ।
रथन्तरं वामदेव्यं ब्रह्मवर्च्चसवर्द्धनं ।। १४ ।।
प्राशयेद्वालकं नित्यं वचाचूर्णं घृतप्लुतं ।
इन्द्रमिद्गाथिनं जप्त्वा भवेच्छ्रुतिधरस्त्वसौ ।। १५ ।।
हुत्वा रथन्तरञ्जप्त्वा पुत्रमाप्नोत्यसंशयं ।
मयि श्रीरिति मन्त्रोयं जप्तव्यः श्रीविवर्द्धनः ।। १६ ।।
वैरूप्यस्याष्टकं नित्यं प्रयुञ्जानः श्रियं लभेत् ।
सप्ताष्टकं प्रयुञ्चानः सर्व्वान् कामानवाप्नुयात् ।। १७ ।।
गव्येषुणेति यो नित्यं सायं प्रातरतन्त्रितः ।
उपस्थानं गवां कुर्य्यात्तस्य स्युस्ताः सदा गृहे ।। १८ ।।
घृताक्तन्तु यवद्रोणं वात आवातु भेषजं ।
अनेन हुत्वा विधिवत् सर्व्वां मायां व्यपोहति ।। १९ ।।
प्रदेवो दासेन तिलान् हुत्वा कार्म्मणकृन्तनं ।
अभि त्वा पूर्व्वपीतये वषट़कारसमन्वितं ।। २० ।।
वासकेध्मसहस्रन्तु हुतं युद्धे जयप्रदं ।
हस्त्यश्वपुरुषान् कुर्य्याद् बुधः पिष्टमयान् शुभान् ।। २१ ।।
परकीयानथोद्देश्य प्रधानपुरुषांस्तथा ।
सुस्विन्नान् पिष्टकवरान् क्षुरेणोत्कृत्य भागशः ।। २२ ।।
अभि त्वा शूर णोनुमो मन्त्रेणानेन मन्त्रवित् ।
कृत्वा सर्षपतैलाक्तान् क्रोधेन जुहुयात्ततः ।। २३ ।।
एतत् कृत्वा बुघः कर्म्म संग्रामे जयमाप्नुयात् ।
गारुड़ं वामदेव्यञ्च रथन्तरबृहद्रथौ ।। २४ ।।
सर्वपापप्रशमनाः कथिताः संशयं विना ।
इत्यादि महापुराणे आग्नेये सामविधानं नाम एकषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।
अग्नि पुराण दो सौ इकसठवाँ अध्याय हिन्दी मे -Agni Purana 261 Chapter In Hindi
दो सौ इकसठवाँ अध्याय - सामविधान- सामवेदोक्त मन्त्रों का भिन्न-भिन्न कार्यों के लिये प्रयोग
पुष्कर कहते हैं- परशुराम। मैंने तुम्हें 'यजुर्विधान' कह सुनाया, अब मैं 'सामविधान' कहूँगा। 'वैष्णवी-संहिता' का जप करके उसका दशांश होम करे। इस से मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं का भागी होता है।' छान्दसी संहिता' का विधि पूर्वक जप करके मानव भगवान् शंकरको प्रसन्न कर लेता है। 'स्कन्द-संहिता' और 'पितृ-संहिता'का जप करने से प्रसन्नता की प्राप्ति होती है। 'यत इन्द्र भजामहे० (१३२१)- इस मन्त्रका जप हिंसा-दोषका नाश करनेवाला है।' अग्निस्तिग्मेन' (२२) इत्यादि मन्त्रका जप करने वाला अवकीर्णी (जिस का ब्रह्मचर्यावस्थामें ही ब्रह्मचर्य खण्डित हो गया हो, वह) पुरुष भी अपने पाप-दोष से मुक्त हो जाता है। 'परीतोऽषिञ्चता सुतम् ०' (५१२) इत्यादि साममन्त्र समस्त पापोंका नाश करनेवाला है, ऐसा जानना चाहिये। जिस ने प्रमादवश निषिद्ध वस्तु का विक्रय कर लिया हो, वह उस के प्रायश्चित्त रूप से 'घृतवती भुवना० (३७८) इत्यादि मन्त्रका जप करे। 'अद्य नो देव सवितः (१४१) - यह मन्त्र दुःस्वप्नोंका नाश करने वाला है। भृगुश्रेष्ठ परशु राम ।
'अबोध्यग्निः० (१७४६) इत्यादि मन्त्र से विधि वत् घृतका हवन करे। फिर शेष घृत से मेखलाबन्ध (करधनी आदि) का सेचन करे। वह मेखलाबन्ध ऐसी स्त्रियोंको धारण करावे, जिनके गर्भ गिर जाते रहे हों। तदनन्तर बालकके उत्पन्न होनेपर उसे पूर्वोक्त मन्त्रसे अभिमन्त्रित मणि पहनावे। 'सोमं राजानम्०' (९१) मन्त्र के जप से रोगी व्याधियोंसे छुटकारा पाता है। सर्प- सामका प्रयोग करनेवालेको कभी सर्पोंसे भय नहीं प्राप्त होता। ब्राह्मण 'मा पापत्वाय नोः०' (९१८)- इस मन्त्रसे सहस्र आहुतियाँ देकर शतावरीयुक्त मणि बाँधनेसे शस्त्रभयको नहीं प्राप्त होता। 'दीर्घतमसोऽर्कः- इस साममन्त्रसे हवन करने पर प्रचुर अन्न की प्राप्ति होती है। 'समन्या यन्तिः० (६०७) - इस सामका जप करनेवाला प्याससे नहीं मर सकता। 'त्वमिमा ओषधीः०' (६०४) - इस मन्त्रका जप करनेसे मनुष्य कभी व्याधिग्रस्त नहीं होता। मार्गमें 'देवव्रत-साम 'का जप करके मानव भय से छुटकारा पा जाता है। 'यदिन्द्रो अनुनयत्०' (१४८)- यह मन्त्र हवन करनेपर सौभाग्यकी वृद्धि करता है। परशुराम ! 'भगो न चित्रो० (४४९)- इस मन्त्रका जप करके नेत्रोंमें लगाया गया अञ्जन हितकारक एवं सौभाग्यवर्द्धक होता है, इसमें अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। 'इन्द्र'- इस पदसे प्रारम्भ होने वाले मन्त्रवर्ग का जप करे।
इससे सौभाग्यकी वृद्धि होती है। 'परि प्रिया दिवः कविः०' (४७६) यह मन्त्र, जिसे प्राप्त करनेकी इच्छा हो, उस स्त्रीको सुनावे। परशुराम। ऐसा करनेसे वह स्त्री उसे चाहने लगती है, इसमें अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। 'रथन्तर-साम' एवं 'वामदेव्य-साम' ब्रह्मतेजकी वृद्धि करनेवाले हैं। 'इन्द्रमिद्गाथिनो०' (१९८) इत्यादि मन्त्रका जप करके घृतमें मिलाया हुआ बचा चूर्ण प्रतिदिन बालकको खिलाये। इससे वह त्रुतिधर हो जाता है, अर्थात् एक बार सुननेसे ही उसे शास्त्रकी पंक्तियाँ याद हो जाती हैं। 'रथन्तर-साम' का जप एवं उसके द्वारा होम करके पुरुष निस्संदेह पुत्र प्राप्त कर लेता है। 'मयि श्रीः' ('मयि वर्षों अधो०) (६०२)- यह मन्त्र लक्ष्मीकी वृद्धि करनेवाला है। इसका जप करना चाहिये। प्रतिदिन 'वैरूप्याष्टक' (वैरूप्य सामके आठ मन्त्र) का पाठ करनेवाला लक्ष्मीकी प्राप्ति करता है। 'सप्ताष्टक 'का प्रयोग करनेवाला समस्त कामनाओंको प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य प्रतिदिन प्रातःकाल एवं सार्यकाल आलस्यरहित होकर 'गव्योषुणो यथा०' (१८६) - इस मन्त्र से गौओं का उपस्थान करता है, उसके घरमें गौएँ सदा बनी रहती हैं। 'वात आ वातु भेषजम्०'(१८४) मन्त्र से एक द्रोण घृतमिश्रित यवोंका विधिपूर्वक होम करके मनुष्य सारी मायाको नष्ट कर देता है। 'प्र दैवोदासो०' (५१) आदि सामसे तिलों का होम करके मनुष्य अभिचारकर्मको शान्त कर देता है। 'अभि त्वा शूर नोनुमो०' (२३३)- इस सामको अन्तमें वषट्कारसे संयुक्त करके [इससे वासक (अडूसा) वृक्षकी एक हजार समिधाओंका होम युद्धमें विजयकी प्राप्ति कराने वाला है।
उसके साथ 'वामदेव्यसाम 'का सहस्र बार जप और उसके द्वारा होम किया जाय तो वह युद्धमें विजयदायक होता है। विद्वान् पुरुष सुन्दर पिष्टमय हाथी, घोड़े एवं मनुष्यों का निर्माण करे। फिर शत्रुपक्ष के प्रधान-प्रधान वीरोंको लक्ष्य में रखकर उन पसीजे हुए पिष्टकमय पुरुषों के छूरे से टुकड़े-टुकड़े कर डाले। तदनन्तर मन्त्रवेत्ता पुरुष उन्हें सरसें कि तेलमें भिगोकर 'अभि त्वा शूर नोनुमो० (२३३) इस मन्त्रसे उनका क्रोधपूर्वक हवन करे। बुद्धिमान् पुरुष यह अभिचारकर्म करके संग्राम में विजय प्राप्त करता है। गारुड, वामदेव्य, रथन्तर एवं बृहद्रथ साम निस्संदेह समस्त पापों का शमन करने वाले कहे गये हैं॥ १-२४॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'साम-विधान' नामक दो सौ इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ २६१
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