अग्नि पुराण दो सौ सत्तावनवाँ अध्याय ! Agni Purana 257 Chapter !

अग्नि पुराण दो सौ सत्तावनवाँ अध्याय ! Agni Purana 257 Chapter !

अग्नि पुराण 257 अध्याय - सीमाविवादादिनिर्णयः

अग्निरुवाच

सीग्नो विवादे क्षेत्रस्य सामन्ताः स्थविरा गणाः
गोपाः सीमाकृषाणा ये सर्वे च वनगोचराः ।। १ ।।

नयेयुरेते सीमानं स्थलाङ्गारतुषद्रुमैः ।
सेतुवल्मीकनिम्नास्थिचैत्याद्यैरुपलक्षिताम् ।। २ ।।

सामान्ता वा समं ग्रामाश्चत्वारोऽष्टौ दशापि वा ।
रक्तस्रग्वसनाः सीमान्नयेयुः क्षितिधारिणः ।। ३ ।।

अनृते तु पृथग्दण्ड्या राज्ञा मध्यमसाहसम् ।
अभावे ज्ञातृचिह्नानां राजा सीम्नः प्रवर्त्तकः ।। ४ ।।

आरामायतनग्रामनिपानोद्यानवेश्मसु ।
एष एव विधिर्ज्ञेयो वर्षाग्वुप्रवहेषु च ।। ५ ।।

मर्य्यादायाः प्रभेदेषु क्षेत्रस्य हरणे तथा ।
मर्य्यादायाश्च दण्ड्याः स्युरधमोत्तममध्यमाः ।। ६ ।।

न निषेध्योऽल्पबाधस्तु सेतुः कल्याणकारकः ।
परभूमिं हरन् कूपः स्वल्पक्षेत्रो बहूदकः ।। ७ ।।

स्वामिने योऽनिवेद्यैव क्षेत्रे सेतुं प्रकल्पयेत् ।
उत्पन्ने स्वामिनो भोगस्तदभावे महीपतेः ।। ८ ।।

फालाहतमपि क्षेत्रं यो न कुर्यान्न कारयेत् ।
स प्रदाप्योऽकृष्टफलं क्षेत्रमन्येन कारयेत् ।। ९ ।।

मासानष्टौ तु महिषो सस्यघातम्थ कारिणी ।
दण्डनाया तदर्द्धन्तु गौस्तदर्द्धनजाविकं ।। १० ।।

भक्षयित्वोपविष्टानां यथोक्ताद् द्विगुणो दमः ।
सममेषां विवितेपि खरेष्ट्रं महिषीसमम् ।। ११ ।।

यावत् सस्यं विनष्टन्तु तावत् क्षेत्री फलं लभेत् ।
पालस्ताड्योऽथ गोस्वामी पूर्वोक्तं दण्डमर्हति ।। १२ ।।

पथि ग्रामविवीतन्ते क्षेत्रे दोषो न विद्यते ।
अकामतः कामचारे चौरवद्दण्डमर्हति ।। १३ ।।

महोक्षोत्सृष्टपशवः सूतिकागन्तुका च गौः ।
पालो येषान्तु ते मोच्या दैवराजपरिप्लुताः ।। १४ ।।

यथार्पितान् पशून् गोपः सायं प्रत्यर्पयेत्तथा ।
प्रमादमृतनष्टांश्च प्रदाप्यः कृतवेतनः ।। १५ ।।

पालदोषविनाशे तु पाले दण्डो विधीयते ।
अर्द्धत्रयोदशपणः स्वामिनो द्रव्यमेव च ।। १६ ।।

ग्रामेच्छया गोप्रचारो भूमिराजवशेन वा ।
द्विजस्तृणैधः पुष्पाणि सर्वतः स्ववदाहरेत् ।। १७ ।।

धनुःशतं परीणाहो ग्रामक्षेत्रान्तरं भवेत् ।
द्वे शने खर्वटस्य स्यान्नगरस्य चतुःशतम् ।। १८ ।।

स्वं लभेतान्यविक्रीतं क्रेतुर्द्दोषोऽप्रकाशिते ।
हीनाद्रहो हीनमूल्ये वेलाहीने च तस्करः ।। १९ ।।

नष्टा पहृतमासाद्य हर्त्तारं ग्राहयेन्नरम् ।
देशकालातिपत्तौ वा गृहीत्वा स्वयमर्पयेत् ।। २० ।।

विक्रेतुर्द्दर्शनाच्छुद्धिः स्वामी द्रव्यं नृपो दमम् ।
क्रेता मूल्यं समाप्नोति तस्माद्यस्तव विक्रयी ।। २१ ।।

आगमेनोपभोगेन नष्टं भाव्यमतोऽन्यथा ।
पञ्चबन्धो दमस्तस्य राज्ञे तेनाप्यभाविते ।। २२ ।।

हृतं प्रनष्टं यो द्रव्यं परहस्तदवाप्नुयात् ।
अनिवेद्य नृपे दण्ड्यः स तु षण्णवतिं पणान् ।। २३ ।।

शौलिककैः स्थानपालैर्वा नष्टापहृतमाहृतं ।
अर्व्वाक् संवत्सरात् स्वामी लभते परतो नृपः ।। २४ ।।

पणानेकशफे दद्याच्चतुरः पञ्च मानुषे ।
महिषोष्ट्रगवां द्वौ द्वौ पादं पादमजाविके ।। २५ ।।

स्वकुटुम्‌बाविरोधेन देयं दारसुतादृते ।
नान्वये सति सर्वस्वं देयं यच्चान्यसंश्रुतम् ।। २६ ।।

प्रतिग्रहः प्रकाशः स्यात् स्थावरस्य विशेषतः ।
देयं प्रतिश्रुतञ्चैव दत्वा नापहरेत् पुनः ।। २७ ।।

दशैकपञ्चसप्ताहमासत्र्यहार्द्धमासिकं ।
वीजायोवाह्यरत्नस्त्रीदोह्यपुंसां प्रतीक्षणम् ।। २८ ।।

अग्नौ सुवर्णमक्षीणं द्विपलं रजते शते ।
अष्टौ त्रपुणि सीसे च ताम्रे पञ्चदशायसि ।। २९ ।।

शते दशपलावृद्धिरौर्णे कार्पासिके तथा ।
मध्ये पञ्चपला ज्ञेया सूक्ष्मे तु त्रिपला मता ।। ३० ।।

कार्म्मिके रोमबद्धे च त्रिंशद्भागः क्षयो मतः ।
न क्षयो न च वृद्धिस्तु कौशेये वल्कलेषु च ।। ३१ ।।

देशं कालञ्च भोगञ्च ज्ञात्वा नष्टे बलाबलम् ।
द्रव्याणआं कुशला ब्रुयुर्यद्दाप्यमसंशयम् ।। ३२ ।।

बलाद्दासीकृतश्चौरैर्विक्रीतश्चापि मुच्यते ।
स्वामिप्राणपदो भक्तत्यागात्तन्निष्क्रयादपि ।। ३३ ।

प्रव्रज्यावसितो राज्ञा दास आमरणान्तिकः ।
वर्णानामानुलोभ्यंन दास्यं न प्रतिलोमतः ।। ३४ ।।

कृतशिल्पोपि निवसेत् कृतकालं गुरोर्गृहे ।
अन्तेवासी गुरुप्राप्तभोजनस्तत्‌फलप्रदः ।। ३५ ।।

राजा कृत्वा पुरे स्थानं ब्राह्मणन्न्यस्य तत्र तु ।
त्रैविद्यं वृत्तिमद्‌ब्रूयात् स्वधर्म्मः पाल्यतामिति ।। ३६ ।।

निजधर्म्माविरोधेन यस्तु सामयिको भवेत् ।
सोपि यत्नेन संरक्ष्यो धर्मो राजकृतश्च यः ।। ३७ ।।

गणद्रव्यं हरेद्यस्तु संविदं लङ्घयेच्च यः ।
सर्वस्वहरणं कृत्वा तं राष्ट्रद्विप्रवासयेत् ।। ३८ ।।

कर्त्तव्यं वचनं सर्वैः समूहहितवादिभिः ।
यस्तत्र विपरीतः स्यात्स दाप्यः प्रथमं दम्म ।। ३९ ।।

समूहकार्य्यप्रहितो यल्लभेत्तत्तदर्पयेत् ।
एकादशगुणं दाप्यो यद्यसौ नार्पयेत् स्वयम् ।। ४० ।।

वेदज्ञाः शुचयोऽलुब्धा भवेयुः कार्यचिन्तकाः ।
कर्त्तव्यं वचनं तेषा समूहहितवादिनां ।। ४१ ।।

श्रेणिनैगमपाखण्डिगणानामप्ययं विधिः ।
भेदञ्चैषां नृपो रक्षएत् पूर्ववृत्तिञ्च पालयेत् ।। ४२ ।।

गृहीतवेतनः कर्म्म त्यजन् द्विगुणमावहेत् ।
अगृहीते समं दाप्यो भृत्यै रक्ष्य उपस्करः ।। ४३ ।।

दाप्यस्तु दशमं भागं बाणिज्यपशुसस्यतः ।
अनिश्चित्य भृतिं यस्तु कारयेत्स महीक्षइता ।। ४४ ।।

देशं कालञ्च योऽतीयात् कर्म्म कुर्य्याच्च योऽन्यथा ।
तत्र तु स्वामिनश्छन्दोऽधिकं देयं कृतेऽधिके ।। ४५ ।।

यो यावत् कुरुते कर्म्म तावत्तस्य तु वेतनम् ।
उभयोरप्यसाध्यञ्चेत् साध्ये कुर्य्याद्यथाश्रुतम् ।। ४६ ।।

अराजदैविकन्नष्टं भाण्डं दाप्यस्तु वाहकः ।
प्रस्थानविघ्नकृच्चैव चप्रदाप्यो द्विगुणां भृतिम् ।। ४७ ।।

प्रकान्ते सप्तमं भागं चतुर्थं पथि संत्यजन् ।
भृतिमर्द्धपथे सर्व्वां प्रदाप्यस्त्याजकोपि च ।। ४८ ।।

ग्लहे शतिकवृद्धेस्तु सभिकः पञ्चकं शतं ।
गृह्णीयाद्‌धूर्त्तकितवादितराद्दशकं शतं ।। ४९ ।।

स सम्यक्‌पालितो दद्याद्रज्ञे भागं यथाकृतं ।
जितमुद्‌ग्राहयेज्जेत्रे दद्यात्सत्यं वचः क्षमी ।। ५० ।।

प्रप्ते नृपतिना भागो प्रसिद्धे धूर्त्तमण्डले ।
जितं सशभिके स्थाने दापयेदन्यथा न तु ।। ५१ ।।

द्रष्टारो व्यवहाराणां साक्षिणश्च त एव हि ।
राज्ञा सचिह्ना निर्वास्याः कूटाक्षोपधिदेविनः ।। ५२ ।।

द्यूतमेकमुखं कार्य्यं तस्करज्ञानकारणात् ।
एष एव विधिर्ज्ञेयः प्राणिद्यूते समाह्वये ।। ५३ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये सीमाविवादादिनिर्णयो नाम सप्तपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।

अग्नि पुराण दो सौ सत्तावनवाँ अध्याय हिन्दी मे -Agni Purana 257 Chapter In Hindi

दो सौ सत्तावनवाँ अध्याय - सीमा-विवाद, स्वामिपाल विवाद, अस्वामिविक्रय, दत्ताप्रदानिक, क्रीतानुशय, अभ्युपेत्याशुश्रूषा, संविद्व्यतिक्रम, वेतनादान तथा द्यूतसमाह्वयका विचार

सीमा-विवाद

दो गाँवोंसे सम्बन्ध रखनेवाले खेतकी सीमाके विषयमें विवाद उपस्थित होनेपर तथा एक ग्रामके अन्तर्वर्ती खेतकी सीमाका झगड़ा खड़ा होनेपर सामन्त (सब ओर उस खेतसे सटकर रहनेवाले), स्थविर (वृद्ध) आदि, गोप (गायके चरवाहे), सीमावर्ती किसान तथा समस्त वनवारी मनुष्य- ये सब लोग पूर्वकृत स्थल (ऊँची भूमि) कोयले, धानकी भूसी तथा बरगद आदिके वृक्षोंद्वारा सीमाका निश्चय करें। वह सीमा कैसी हो, इस प्रश्नके उत्तरमें कहते हैं-वह सीमा सेतु (पुल), वल्मीक (बाँबी), चैत्य (पत्थरके चबूतरे या देवस्थान), बाँस और बालू आदिसे उपलक्षित होनी चाहिये ॥ १-२ ॥

सामन्त अथवा निकटवर्ती ग्रामवाले चार, आठ अथवा दस मनुष्य लाल फूलोंकी माला और लाल वस्त्र धारण करके, सिरपर मिट्टी रखकर सीमाका निर्णय करें। सीमा विवादमें सामन्तों के असत्य-भाषण करनेपर राजा सबको अलग-अलग मध्यम साहसका दण्ड दे। सीमाका ज्ञान करानेवाले चिह्नोंके अभावमें राजा ही सीमाका प्रवर्तक होता है। आराम (बाग), आयतन (मन्दिर या खलिहान), ग्राम, वापी या कूप, उद्यान (क्रीडावन), गृह और वर्षाके जलको प्रवाहित करनेवाले नाले आदिकी सीमाके निर्णयमें भी यही विधि जाननी चाहिये। मर्यादाका भेदन, सीमाका उल्लङ्घन एवं क्षेत्रका अपहरण करनेपर राजा क्रमशः अधम, उत्तम और मध्यम साहसका दण्ड दे। यदि सार्वजनिक सेतु (पुल या बाँध) और छोटे क्षेत्रमें अधिक जलवाला कुआँ बनाया जा रहा हो तथा वह दूसरेकी कुछ भूमि अपनी सीमामें ले रहा हो, परंतु उससे हानि तो बहुत कम हो और बहुत- से लोगोंकी अधिक भलाई हो रही हो तो उसके निर्माणमें रुकावट नहीं डालनी चाहिये। जो क्षेत्रके स्वामीको सूचना दिये बिना उसके क्षेत्रमें सेतुका निर्माण करता है, वह उस सेतुसे प्राप्त फलका उपभोग स्वयं नहीं कर सकता, क्षेत्रका स्वामी ही उसके फलका भोगी-भागी होगा और उसके अभावमें राजाका उसपर अधिकार होगा। जो कृषक किसीके खेतमें एक बार हल चलाकर भी उसमें स्वयं खेती न करे और दूसरे से भी न कराये, राजा उससे क्षेत्रस्वामी को कृषि का सम्भावित फल दिलाये और खेतको दूसरे किसानसे जुतवाये ॥ ३-९॥ 

स्वामिपाल-विवाद

(अब गाय-भैंस या भेड़-बकरी चरानेवाले चरवाहे जब किसीके खेत चरा दें तो उन्हें किस प्रकार दण्ड देना चाहिये इसका विचार किया जाता है-) राजा दूसरेके खेतकी फसलको नष्ट करनेवाली भैंसपर आठ माष (पणका बीसवाँ भाग) दण्ड लगावे। गौपर उससे आधा और भेड़-बकरीपर उससे भी आधा दण्ड लगावे। यदि भैंस आदि पशु खेत चरकर वहीं बैठ जायें, तो उनपर पूर्वकथितसे दूना दण्ड लगाना चाहिये। जिसमें अधिक मात्रामें तृण और काष्ठ उपजता है, ऐसा भूप्रदेश जब स्वामीसे लेकर उसे सुरक्षित रखा जाता है तो उसे 'विवीत' (रक्षित या रखांतु) कहते हैं। उस रखांतुको भी हानि पहुँचानेपर इन भैंस आदि पशुओंपर अन्य खेतंकि समान ही दण्ड समझे। इसी अपराधमें गदहे और ऊँटोंपर भी भैंसके समान ही दण्ड लगाना चाहिये। जिस खेतमें जितनी फसल पशुओंके द्वारा नष्ट की जाय, उसका सामन्त आदिके द्वारा अनुमानित फल गो-स्वामीको क्षेत्रस्वामीके लिये दण्डके रूपमें देना चाहिये और चरवाहोंको तो केवल शारीरिक दण्ड देना (कुछ पोट देना चाहिये)। यदि गो-स्वामीने स्वयं चराया हो तो उससे पूर्वोक्त दण्ड ही वसूल करना चाहिये, ताड़ना नहीं देनी चाहिये। यदि खेत रास्तेपर हो, गाँवके समीप हो अथवा ग्रामके 'विवीत' (सुरक्षित) भूमिके निकट हो और वहाँ चरवाहे अथवा गो स्वामीकी इच्छा न होनेपर भी अनजानेमें पशुओंने चर लिया अथवा फसलको हानि पहुँचा दी तो उसमें गो-स्वामी तथा चरवाहा- दोनोंमेंसे किसीका दोष नहीं माना जाता, अर्थात् उसके लिये दण्ड नहीं लगाना चाहिये; किंतु यदि स्वेच्छासे जान बूझकर खेत चराया जाय तो चरानेवाला और गो-स्वामी दोनों चोरकी भाँति दण्ड पानेके अधिकारी हैं। साँड़, वृषोत्सर्गकी विधिसे या देवी-देवताको चढ़ाकर छोड़े गये पशु, दस दिनके भीतरकी व्यायी हुई गाय तथा अपने यूथसे बिछुड़कर दूसरे स्थानपर आया हुआ पशु- ये दूसरेकी फसल चर लें तो भी दण्डनीय नहीं हैं, छोड़ देने योग्य हैं। जिसका कोई चरवाहा न हो, ऐसे देवोपहत तथा राजोपहत पशु भी छोड़ ही देने योग्य हैं। गोप (चरवाहा) प्रातः काल गौओंके स्वामीके सँभलाये हुए पशु सायंकाल उसी प्रकार लाकर स्वामीको सौंप दे। वेतनभोगी ग्वालेके प्रमादसे मृत अथवा खोये हुए पशु राजा उससे पशु- स्वामीको दिलाये। गोपालकके दोषसे पशुओंका विनाश होनेपर उसके ऊपर साढ़े तेरह पण दण्ड लगाया जाय और वह स्वामीको नष्ट हुए पशुका मूल्य भी दे। ग्रामवासियों की इच्छासे अथवा राजाकी आज्ञाके अनुसार गोचारणके लिये भूमि छोड़ दे; उसे जोते-बोये नहीं। ब्राह्मण सदा, सभी स्थानोंसे तूण, काष्ठ और पुष्प ग्रहण कर सकता है। ग्राम और क्षेत्रका अन्तर सौ धनुषके प्रमाणका हो, अर्थात् गाँवके चारों ओर सौ-सौ धनुष भूमि परती छोड़ दी जाय और उसके बादकी भूमिपर ही खेती की जाय। खर्वट (बड़े गाँव) और क्षेत्रका अन्तर दो सौ धनुष एवं नगर तथा क्षेत्रका अन्तर चार सौ धनुष होना चाहिये ॥ १०-१८॥

अस्वामिविक्रय

(अब अस्वामिविक्रय नामक व्यवहारपदपर विचार आरम्भ करते हैं- नारदजीने 'अस्वामिविक्रय' का लक्षण इस प्रकार बताया है-

निक्षिप्तं वा परद्रव्यं नष्टं लकवापहत्य वा। 
विक्रीयतेऽसमक्षं यत् स ज्ञेयोऽस्वामिविक्रयः ॥

अर्थात् धरोहरके तौरपर रखे हुए पराये द्रव्यको खोया हुआ पाकर अथवा स्वयं चुराकर जो स्वामीके परीक्षमें बेच दिया जाता है, वह 'अस्वामिविक्रय' कहलाता है।' द्रव्यका स्वामी अपनी वस्तु दूसरेके द्वारा बेची हुई यदि किसी खरीददारके पास देखे तो उसे अवश्य पकड़े- अपने अधिकारमें ले ले। यहाँ 'विक्रीत' शब्द 'दत्त' और 'आहित' का भी उपलक्षण है। अर्थात् यदि कोई दूसरेकों रखी हुई वस्तु उसे बताये बिना दूसरेके यहाँ रख दे या दूसरेको दे दे तो उसपर यदि स्वामीकी दृष्टि पड़ जाय तो स्वामी उस वस्तुको हठात् ले ले या अपने अधिकारमें कर ले; क्योंकि उस वस्तुसे उसका स्वामित्व निवृत्त नहीं हुआ। यदि खरीददार उस वस्तुको खरीदकर छिपाये रखे, किसीपर प्रकट न करे तो उसका अपराध माना जाता है। तथा जो हीन पुरुष है, अर्थात् उस द्रव्यकी प्राप्तिके उपायसे रहित है, उससे एकान्तमें कम मूल्यमें और असमयमें (रात्रि आदिमें) उस वस्तुको खरीदनेवाला मनुष्य चोर होता है, अर्थात् चोरके समान दण्डनीय होता है। अपनी खोयी हुई या चोरीमें गयी हुई वस्तु जिसके पास देखे, उसे स्थानपाल आदि राजकर्मचारीसे पकड़वा दे। यदि उस स्थान अथवा समयमें राजकर्मचारी न मिले तो चोरको स्वयं पकड़कर राजकर्मचारीको सौंप दे। यदि खरीददार यह कहे कि 'मैंने चोरी नहीं की है, अमुकसे खरीदी है', तो वह बेचनेवालेको पकड़वा देनेपर शुद्ध (अभियोगसे मुक्त) हो जाता है। जो नष्ट या अपहत वस्तुका विक्रेता है, उसके पाससे द्रव्यका स्वामी द्रव्य, राजा अर्थदण्ड और खरीदनेवाला अपना दिया हुआ मूल्य पाता है। वस्तुका स्वामी लेख्य आदि आगम या उपभोगका प्रमाण देकर खोयी हुई वस्तुको अपनी सिद्ध करे। सिद्ध न करनेपर राजा उससे वस्तुका पञ्चमांश दण्डके रूपमें ग्रहण करे। जो मनुष्य अपनी खोयी हुई अथवा चुरायी गयी वस्तुको राजाको बिना बतलाये दूसरेसे ले ले, राजा उसपर छानबे पणका अर्थदण्ड लगावे। शौल्किक (शुल्कके अधिकारी) या स्थानपाल (स्थानरक्षक) जिस खोये अथवा चुराये गये द्रव्यको राजाके पास लायें, उस द्रव्यको एक वर्षके पूर्व ही वस्तुका स्वामी प्रमाण देकर प्राप्त कर ले; एक वर्षके बाद राजा स्वयं उसे ले ले। घोड़े आदि एक खुरवाले पशु खोनेके बाद मिलें, तो स्वामी उनकी रक्षाके निमित्त चार पण राजाको दे; मनुष्यजातीय द्रव्यके मिलनेपर पाँच पण; भैंस, ऊँट और गौके प्राप्त होनेपर दो-दो पण तथा भेड़-बकरीके मिलनेपर पणका चतुर्थांश राजाको अर्पित करे ॥ १९-२५ ॥

दत्ताप्रदानिक

['दत्ताप्रदानिक'का स्वरूप नारदने इस प्रकार बताया है-" जो असम्यग्रूपसे (अयोग्य मार्गका आश्रय लेकर) कोई द्रव्य देनेके पश्चात् फिर उसे लेना चाहता है, उसे 'दत्ताप्रदानिक' नामक व्यवहारपद कहा जाता है।" इस प्रकरणमें इसीपर विचार किया जाता है।]
जीविकाका उपरोध न करते हुए ही अपनी वस्तुका दान करे; अर्थात् कुटुम्बके भरण-पोषणसे बचा हुआ धन ही देनेयोग्य है। स्त्री और पुत्र किसीको न दे। अपना वंश होनेपर किसीको सर्वस्वका दान न करे। जिस वस्तुको दूसरेके लिये देनेकी प्रतिज्ञा कर ली गयी हो, वह वस्तु उसीकी दे, दूसरेको न दे। प्रतिग्रह प्रकटरूपमें ग्रहण करे। विशेषतः स्थावर भूमि, वृक्ष आदिका प्रतिग्रह तो सबके सामने ही ग्रहण करना चाहिये। जो वस्तु जिसे धर्मार्थ देनेकी प्रतिज्ञा की गयी हो, वह उसे अवश्य दे दे और दी हुई वस्तुका कदापि फिर अपहरण न करे-उसे वापस न ले ॥ २६-२७ ॥

क्रीतानुशय

(अब 'क्रीतानुशय' बताया जाता है। इसका स्वरूप नारदजीने इस प्रकार कहा है-"जो खरीददार मूल्य देकर किसी पण्य वस्तुको खरीदनेके बाद उसे अधिक महत्त्वकी वस्तु नहीं मानता है, अतः उसे लौटाना चाहता है तो यह मामला 'क्रीतानुशय' नामक विवादपद कहलाता है। ऐसी वस्तुको जिस दिन खरीदा जाय, उसी दिन अविकृतरूपसे मालधनीको लौटा दिया जाय। यदि दूसरे दिन लौटावे तो क्रेता मूल्यसे वाँ भाग छोड़ दे।
यदि तीसरे दिन लौटावे तो वाँ भाग छोड़ दे। इसके बाद वह वस्तु खरीददारकी ही हो जाती है, वह उसे लौटा नहीं सकता।") अब बीज आदिके विषयमें बताते हैं-॥ २७॥
बीजकी दस दिन, लोहेकी एक दिन, वाहनकी पाँच दिन, रत्नोंकी सात दिन, दासीकी एक मास, दूध देनेवाले पशुको तीन दिन और दासकी एक पक्षतक परीक्षा होती है। सुवर्ण अग्रिमें डालनेपर क्षीण नहीं होता; परंतु चाँदी प्रतिशत दो पल, राँगे और सीसेमें प्रतिशत आठ पल, ताँबेमें पाँच पल और लोहेमें दस पल कमी होती है। ऊन और रूईक स्थूल सूतसे बुने हुए कपड़ेमें सौ पलमें दस पलकी वृद्धि होती है। इसी प्रकार मध्यम सूतमें पाँच पल और सूक्ष्म सूतमें तीन पलकी वृद्धि जाननी चाहिये। कार्मिक (अनेक रङ्गके चित्रोंसे युक्त) और रोमबद्ध (किनारेपर गुच्छोंसे युक्त) वस्त्रमें तीसवाँ भाग क्षय होता है। रेशम और वल्कलके बुने हुए वस्त्रमें न तो क्षय होता है और न वृद्धि हो। उपर्युक्त द्रव्योंके नष्ट होनेपर द्रव्य-ज्ञानकुशल व्यक्ति देश, काल, उपयोग और नष्ट हुए वस्तुके सारासारकी परीक्षा करके जितनी हानिका निर्णय कर दें, राजा उस हानिकी
शिल्पियोंसे अवश्य पूर्ति कराये ॥ २८-३२॥

अभ्युपेत्याशुश्रूषा

(सेवा स्वीकार करके जो उसे नहीं करता है, उसका यह बर्ताव 'अभ्युपेत्याशुश्रूषा' नामक व्यवहारपद है।) जो बलपूर्वक दास बनाया गया है और जो चोरोंके द्वारा चुराकर किसीके हाथ बेचा गया है-ये दोनों दासभावसे मुक्त हो सकते हैं। यदि स्वामी इन्हें न छोड़े तो राजा अपनी शक्तिसे इन्हें दासभावसे छुटकारा दिलाये। जो स्वामीको प्राणसंकटसे बचा दे, वह भी दासभावसे मुक्त कर देनेयोग्य है। जो स्वामीसे भरण-पोषण पाकर उसका दास्य स्वीकार करके कार्य कर रहा है, वह भरण-पोषणमें स्वामीका जितना धन खर्च करा चुका है, उतना धन वापस कर दे तो दास भावसे छुटकारा पा जाता है। जितना धन लेकर स्वामीने किसीको किसी धनीके पास बन्धक रख दिया है, अथवा जितना धन देकर किसी धनीने किसी ऋणग्राहीको ऋणदातासे छुड़ाया है, उतना धन सूदसहित वापस कर देनेपर आहित दास भी दासत्वसे छुटकारा पा सकता है। प्रव्रज्यावसित (संन्यासभ्रष्ट अथवा आरूपतित) मनुष्य यदि इसका प्रायश्चित्त न कर ले तो मरणपर्यन्त राजाका दास होता है। चारों वर्ण अनुलोमक्रमसे ही दास हो सकते हैं, प्रतिलोमक्रमसे नहीं। विद्यार्थी विद्याग्रहणके पश्चात् गुरुके घरमें आयुर्वेदादि शिल्प-शिक्षाके लिये यदि रहना चाहे तो समय निश्चित करके रहे। यदि निश्चित समयसे पहले वह शिल्प-शिक्षा प्राप्त कर ले तो भी उतने समयतक वहाँ अवश्य निवास करे। उन दिनों वह गुरुके घर भोजन करे और उस शिल्पसे उपार्जित धन गुरुको ही समर्पित करे ॥ ३३-३५॥

संविद्-व्यतिक्रम

(नियत की हुई व्यवस्थाका नाम 'समय' या 'संविद्' है। उसका उल्लङ्घन 'संविद् व्यतिक्रम' कहलाता है। यह विवादका पद है।)
राजा अपने नगरमें भवन निर्माण कराकर उनमें वेदविद्या-सम्पन्न ब्राहाणोंको जीविका देकर बसावे और उनसे प्रार्थना करे कि 'आप यहाँ रहकर अपने धर्मका अनुष्ठान कीजिये।' ब्राह्मणोंको अपने धर्ममें बाधा न डालते हुए जो सामयिक और राजाद्वारा निर्धारित धर्म हो, उसका भी यत्नपूर्वक पालन करना चाहिये। जो मनुष्य समूह या संस्थाका द्रव्यग्रहण और मर्यादाका उल्लङ्घन करता हो, राजा उसका सर्वस्व छीनकर उसे राज्यसे निर्वासित कर दे। अपने समाजके हितैषी मनुष्योंके कथनानुसार ही सब मनुष्योंको कार्य करना चाहिये। जो मनुष्य समाजके विपरीत आचरण करे, राजा उसे प्रथम साहसका दण्ड दे। समूहके कार्यकी सिद्धिके लिये राजाके पास भेजा हुआ मनुष्य राजासे जो कुछ भी मिले, वह समाजके श्रेष्ठ व्यक्तियोंको बुलाकर समर्पित कर दे। यदि वह स्वयं लाकर नहीं देता तो राजा उससे ग्यारहगुना धन दिलावे। जो वेदज्ञान-सम्पन्न, पवित्र अन्तःकरणवाले, लोभशून्य तथा कार्यका विचार करनेमें कुशल हों, उन समूहके हितैषी मनुष्योंका वचन सबके लिये पालनीय है। 'श्रेणी' (एक व्यापारसे जीविका चलानेवाले), 'नैगम' (वेदोक्त धर्मका आचरण करनेवाले), 'पाखण्डी' (वेदविरुद्ध आचरणवाले) और 'गण' (अस्त्र-शस्वोंसे जीविका चलानेवाले) - इन सब लोगोंके लिये भी यही विधि है। राजा इनके धर्मभेद और पूर्ववृत्तिका संरक्षण करे ॥ ३६-४२ ॥

वेतनादान

जो भृत्य वेतन लेकर काम छोड़ दे, वह स्वामीको उस वेतनसे दुगुना धन लौटाये। वेतन न लिया हो तो वेतनके समान धन उससे ले। भृत्य सदा खेती आदिके सामानकी रक्षा करे। जो वेतनका निश्चय किये बिना भृत्यसे काम लेता है, राजा उसके वाणिज्य, पशु और शस्यकी आयका दशांश भृत्यको दिलाये। जो भृत्य देश कालका अतिक्रमण करके लाभको अन्यथा (औसतसे भी कम) कर देता है, उसे स्वामी अपने इच्छानुसार वेतन दे। परंतु औसतसे अधिक लाभ प्राप्त करानेपर भृत्यको वेतनसे अधिक दे। वेतन निश्चित करके दो मनुष्योंसे एक ही काम कराया जाय और यदि वह काम उनसे समाप्त न हो सके तो जिसने जितना काम किया हो, उसको उतना वेतन दे और यदि कार्य सिद्ध हो गया हो तो पूर्वनिश्चित वेतन दे। यदि भारवाहकसे राजा और देवता-सम्बन्धी पात्रके सिवा दूसरेका पात्र फूट जाय तो राजा भारवाहकसे पात्र दिलाये। यात्रामें विघ्न करनेवाले भृत्यपर वेतनसे दुगुना अर्थदण्ड करे। जो भृत्य यात्रारम्भके समय काम छोड़ दे, उससे वेतनका सातवाँ भाग, कुछ दूर चलकर काम छोड़ दे, उससे चतुर्थ भाग और जो मार्गके मध्यमें काम छोड़ दे, उससे पूरा वेतन राजा स्वामीको दिलावे। इसी प्रकार भृत्यका त्याग करनेवाले स्वामीसे राजा भृत्यको दिलाये ॥ ४३-४८ ॥

द्यूत-समाह्वय

(जूएमें छलसे काम लेना 'द्यूतसमाह्वय' है। प्राणिभिन्न पदार्थ- सोना, चाँदी आदिसे खेला जानेवाला जूआ 'द्यूत' कहलाता है। किंतु प्राणियोंको घुड़दौड़ आदिमें दाँवपर लगाकर खेला जाय तो उसको 'समाहृय' कहा जाता है।) परस्परकी स्वीकृतिसे जुआरियोंद्वारा कल्पित पण (शर्त) को 'ग्लह' कहते हैं। जो जुआरियोंको खेलनेके लिये सभा-भवन प्रदान करता है, वह 'सभिक' कहलाता है। 'ग्लह' या दाँवमें सौ या इससे अधिक वृद्धि (लाभ) प्राप्त करनेवाले धूर्त जुआरीसे 'सभिक' प्रतिशत पाँच पण अपने भरण-पोषणके लिये ले। फिर दूसरी बार उतनी ही वृद्धि प्राप्त करनेवाले अन्य जुआरीसे प्रतिशत दस पण ग्रहण करे। राजाके द्वारा भलीभाँति सुरक्षित द्यूतका अधिकारी सभिक राजाका निश्चित भाग उसे दे। जीता हुआ धन जीतनेवालेको दिलाये और क्षमा- परायण होकर सत्य-भाषण करे। जब द्यूतका सभिक और प्रख्यात जुआरियोंका समूह राजाके समीप आये तथा राजाको उनका भाग दे दियागया हो तो राजा जीतनेवालेको जीतका धन दिला दे, अन्यथा न दिलाये। द्यूत-व्यवहारको देखनेवाले सभासदके पदपर राजा उन जुआरियोंको ही नियुक्त करे तथा साक्षी भी द्यूतकारोंको ही बनाये। कृत्रिम पाशोंसे छलपूर्वक जूआ खेलने वाले मनुष्योंके ललाटमें चिह्न करके राजा उन्हें देशसे निर्वासित कर दे। चोरोंको पहचाननेके लिये द्यूतमें एक ही किसीको प्रधान बनावे, यही विधि 'प्राणि द्यूत-समाह्वय' (घुड़दौड़) आदिमें भी जाननी चाहिये ॥ ४९-५३ ॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'सीमा विवादादिके कथनका निर्णय' नामक दो सौ सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २५७॥

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