अग्नि पुराण दो सौ पचपनवाँ अध्याय ! Agni Purana 255 Chapter !

अग्नि पुराण दो सौ पचपनवाँ अध्याय ! Agni Purana 255 Chapter !

अग्नि पुराण 255 अध्याय ! - 'दिव्य प्रमाण-कथन'

अग्निरुवाच

तपस्विनो दानशीलाः कुलीनाः सत्यवादिनः ।
धर्म्मप्रधाना ऋजवः पुत्रवविते दवीविवुतीः ।। १ ।।

पञ्चयज्ञक्रियायुक्ताः साक्षइणः पञ्च वा त्रयः ।
यथाजाति यथावर्ण सर्व्वे सर्व्वेषु वा स्मृताः ।। २ ।।

स्त्रीवृद्धबालकितवमत्तोन्मत्ताभिशस्तकाः ।
रङ्गावतारिपाषण्डिकूटकृद्विकलेन्द्रियाः ।। ३ ।।

पतिताप्तान्नसम्बन्धिसहायरिपुतस्कराः ।
असाक्षिणः सर्व्वसाक्षई चौर्य्यपारुष्यसाहसे ।। ४ ।।

उभयानुमतः साक्षई भवत्येकोपि धर्म्मवित ।
अब्रुवन् हिनरः साक्षअयमृणं सदशबन्धकम् ।। ५ ।।

राज्ञा सर्वं प्रदाप्यः स्यात् षट्‌चत्वारिंशकेऽहनि ।
न ददाति हि यः साक्षअयं जानन्नपि नराधमः ।। ६ ।।

स कूटसाक्षइणआं पापैस्तुल्यो दण्डेन चैव हि ।
 साक्षिणः श्रावयेद्वादिप्रतिवादिसमीपगान् ।। ७ ।।

ये पातककृतां लोका महापातकिनां तथा ।
अग्निदानाञ्च ये लोका ये च स्त्रीबालघातिनां ।। ८ ।।

तान् सर्व्वान् समवाप्नोति यः साक्ष्यमनृतं वदेत् ।
सुकृतं यत्त्वाया किञअचिज्जन्मान्तरशतैः कृतम् ।। ९ ।।

तस्तर्वं तस्य जानीहि यं पराजयसे मृषा ।
द्वैधे बहूनां वचनं समेषु गुणइनान्तथा ।। १० ।।

गुणिद्वैधे तु वचनं ग्राह्यं ये गुणवत्तराः ।
यस्योचुः साक्षइणः सत्यां प्रतिज्ञां स जयी भवेत् ।। ११।।

अन्यथा वादिनो यस्य ध्रुवस्तस्य पराजयः
उक्तेपि साक्षइभिः साक्ष्ये यद्यन्ये गुणवत्तराः ।। १२ ।।

द्विगुणावान्यथा ब्रयुः कूटाः स्यु पूर्वसाक्षइणः ।
पृथक् पृथग्दण्डनीयाः कूटकृत्साक्षइणस्तथा ।। १३ ।।

विवादाद् द्विगुणं दण्डं विवास्यो ब्राह्मणः स्मृतः ।
यः साक्ष्यं श्रावितोऽन्येभ्यो निह्नते तत्तमोवृतः ।। १४ ।।

स दाप्योष्टगुणं दण्डं ब्राह्मणन्तु विवासयेत् ।
वर्णिनां हि बधो यत्र तत्र साक्ष्यऽनृतं वदेत् ।। १५ ।।

यः कश्चिदर्थोऽभिमतः स्वरुकच्या तु परस्परं ।
लेख्यं तु साक्षिमत् कार्य्यं तस्मिन् धनिकपूर्वकम् ।। १६ ।।

समामासतदर्द्धाहर्न्नामजातिस्वगोत्रजैः ।
सब्रह्मचारिकात्मीयपितृनामादिचिह्नितम् ।। १७ ।।

समाप्तेऽर्थे ऋणी नाम स्वहस्तेन निवेशयेत् ।
मतं मेऽमुकपुत्रस्य यदत्रोपरिलेखितं ।। १८ ।।

साक्षइणश्च स्वहस्तेन पितृनामकर्पूर्वकम् ।
अत्राहममुकः साक्षी लिखेयुरिति र्ते समाः ।। १९ ।।

अलिपिज्ञ ऋणी यः स्याल्लेखयेत् स्वमतन्तु सः ।
साक्षी वा साक्षइणान्येन सर्वसाक्षिसमीपतः ।। २० ।।

उभयाभ्यर्थिनैतन्मया ह्यमुकसूनुना ।
लिखितं ह्यमुकेनेति लेखकोऽथान्ततो लिखेत ।। २१ ।।

विनापि साक्षिभिर्ल्लेख्यं स्वहस्तलिखितञ्च यत् ।
तत् प्रमाणं स्मृतं सर्वं बलोपधिकृतादृते ।। २२ ।।

ऋणं लेख्यकृतं देयं पुरुषैस्त्रिभिरेव तु ।
आधिस्तु भुज्यते तावद्यावत्तन्न प्रदीयते ।। २३ ।।

देशान्तरस्थे दुर्ल्लेख्ये नष्टोन्मृष्टे हृते तथा ।
भिन्ने च्छिन्ने तथा दग्धे लेख्यमन्यत्तु कारयेत् ।। २४ ।।

सन्दिग्धार्थविशुद्ध्यर्थं स्वहस्तलिखितं तु यत् ।
युक्तिप्राप्तिक्रियाचिह्नसम्बन्धागमहेतुभिः ।। २५ ।।

लेख्येस्य पृष्ठेऽभिलिखेत् प्रविष्टमघमर्णिनः ।
धनी चोपगतं दद्यात् स्वहस्तपरिचिह्नितम् ।। २६ ।।

दत्वर्णं पाटयेल्लेख्यं शुद्ध्यै चान्यत्तु कारयेत् ।
साक्षिमच्च भवेद्यत्तु दद्दातव्यं समाक्षिकं ।। २७ ।।

तुलाग्न्यापो विषं कोषो दिव्यानीह विशुद्धये ।
महाभियोगेष्वेतानि शीर्षकस्थेऽभियोक्तरि ।। २८ ।।

रुच्या वान्यतरः कुर्य्यादितरो वर्त्तयेच्छिरः ।
विनापि शीर्षकात् कुर्य्यान्नृपद्रोहेऽथ पातके ।। २९ ।।

नासहस्राद्धरेत् फालं न तुलान्न विषन्तथा ।
नृपार्थेष्वभियोगेषु वहेयुः शुचयः सदा ।। ३० ।।

सहस्रार्थे लुलादीनि कोषमल्पेऽपि दापयेत् ।
शतार्द्धं दापयेच्छुद्धमशुद्धो दण्डभाग भवेत् ।। ३१ ।।

सचेलस्नातमाहूय सूर्य्योदय उपोषितम् ।
कारयेत्सर्वदिव्यानि नृपब्राह्मणसन्निधौ ।। ३२ ।।

तुला स्त्रीबालवृद्धान्धपङ्गुब्राह्मणरोगिणां ।
अग्निर्ज्जलं वा शूद्रस्य यवाः सप्त विषस्य वा ।। ३३ ।।

तुलाधारणविद्वद्भिरभियुक्तस्तुलाश्रितः ।
प्रतिमानसमीभूतो रेखां कृत्वावतारितः ।। ३४ ।।

आदित्यचन्द्रावनिलोऽनलश्च द्यौर्भूमिरापो हृदयं यमश्च ।
अहश्च रात्रिस्च उभे च सन्ध्ये धर्म्मश्च जानाति नरस्य वृत्तम् ।। ३५ ।।

त्वं तुले सत्यधामासि पुरा देवैविनिर्मिता ।
सत्यं वदस्व कल्याणि संशयान्मां विमोचय ।। ३६ ।।

यद्यस्मि पापकृन्मातस्ततो मां त्वमधो नय ।
शुद्धश्चेद्‌गमयोद्‌र्ध्वम्मां तुलामित्यभिमन्त्रयेत् ।। ३७ ।।

करौ विमृदितव्रीहेर्लक्षयित्वा ततो न्यसेत् ।
सप्ताश्वत्थस्य पत्राणि तावत् सूत्रेण वेष्टयेत् ।। ३८ ।।

त्वमेव सर्वभूतानामन्तश्चरसि पावक ।
साक्षिवत् पुण्यपापेभ्यो ब्रूहि सत्यङ्करे मम ।। ३९ ।।

तस्येत्युक्तवतो लौहं पश्चाशत्‌पलिकं समम् ।
अग्निवर्णं न्यसेत् पिण्डं हस्तयोरुभयोरपि ।। ४० ।।

स तमादाय सप्तैव मण्डलानि शनैर्व्रजेत् ।
षोड़शङ्गुलकं ज्ञेयं मण्डलं तावदन्तरम् ।। ४१ ।।

मुक्त्वाग्निं मृदितव्रीहिरदग्धः शुद्धिमाप्नुयात् ।
अन्तरा पतिते पिण्डे सन्देहे वा पुनर्हरेत् ।। ४२ ।।

पवित्राणां पवित्र त्वं शोध्यं शोधय पावक।
सत्येन माभिरक्षस्व वरुणेत्यभिशस्तकम् ।। ४३ ।।

नाभिदघ्नोदकस्थस्य गृहीत्वोरू जलं विशेत् ।
समकालमिषुं मुक्तमानीयाद्यो जवी नरः ।। ४४ ।।

यदि तस्मिन्निमग्नाङ्गं पश्येच्चेच्छुद्धिमाप्नुयात् ।
त्वं विष ब्रह्मणः पुत्र सत्यधर्मे व्यवस्थितः ।। ४५ ।।

त्रायस्वास्मादभीशापात् सत्येन भव मेऽमृतम् ।
एवमुक्त्वा विषं शार्ङ्ग भक्षयेद्धिमशैलजं ।। ४६ ।।

यस्य वेगैर्विना जीर्णं शुद्धिं तस्य विनिर्द्दिशेत् ।
देवानुग्रान् समभ्यर्च्च्य तत्स्नानोदकमाहरेत् ।। ४७ ।।

संश्राव्य पाययेत्तस्माज्जलात्तु प्रसृतित्रयम् ।
आचतुर्द्दशमादह्नो यस्य नो राजदैविकम् ।। ४८ ।।

व्यसनं जायते घोरं स शुद्धः स्यादसंशयम् ।
सत्यवाहनशस्त्राणि गोबीजकनकानि च ।। ४९ ।।

देवतागुरुपादाश्च इष्टापूर्त्तकृतानि च ।
इत्येते सुकराः प्रोक्ताः शपथाः स्वल्पसंशये ।। ५० ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये दिव्यानि प्रमाणानि नाम पञ्चपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।

अग्नि पुराण दो सौ पचपनवाँ अध्याय हिन्दी मे -Agni Purana 255 Chapter In Hindi

दो सौ पचपनवाँ अध्याय - साक्षी, लेखा तथा दिव्यप्रमाणों के विषय में विवेचन

'साक्षी-प्रकरण' 

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ। तपस्वी, कुलीन, दानशील, सत्यवादी, कोमल हृदय, धर्मात्मा, पुत्रयुक्त, धनी, पञ्चयज्ञ आदि वैदिक क्रियाओंसे युक्त अपनी जाति और वर्गक पाँच या तीन साक्षी होने चाहिये। अथवा सभी मनुष्य सबके साक्षी हो सकते हैं; किंतु स्त्री, बालक, वृद्ध, जुआरी, मत्त (शराब आदि पीकर मतवाला), उन्मत्त (भूत या ग्रहके आवेशसे युक्त), अभिशस्त (पातकी), रंगमञ्चपर उतरनेवाला चारण, पाखण्डी, कूटकारी (जालसाज), विकलेन्द्रिय (अंधा, बहरा आदि), पतित, आप्त (मित्र या सगे-सम्बन्धी), अर्थ सम्बन्धी (विवादास्पद अर्थसे सम्बन्ध रखनेवाला), सहायक, शत्रु, चोर, साहसी (दुस्साहसपूर्ण कार्य करनेवाला), दृष्टदोष (जिसका पूर्वापर-विरुद्ध बोलनेका स्वभाव देखा गया हो, वह) तथा निर्भूत (भाई बन्धुओंसे परित्यक्त) आदि साक्षी बनानेयोग्य नहीं हैं। वादी और प्रतिवादी- दोनोंके मान लेनेपर एक भी धर्मवेत्ता पुरुष साक्षी हो सकता है। किसी स्त्रीको बलपूर्वक पकड़ लेना, चोरी करना, किसीको कटुवचन सुनाना या कठोर दण्ड देना तथा हत्या आदि दुःसाहसपूर्ण कार्य करना-इन अपराधोंमें सभी साक्षी बनाये जा सकते हैं ॥ १-५ ॥
जो मनुष्य साक्षी होना स्वीकार करके तीन पक्षके भीतर गवाही नहीं देता है, राजा छियालीसवें दिन उससे सारा ऋण सूदसहित वादीको दिलावे और अपना दशांश भाग भी उससे वसूल करे। जो नराधम जानते हुए भी साक्षी नहीं होता, वह कूटसाक्षी (झूठी गवाही देनेवालों) के समान दण्ड और पापका भागी होता है। न्यायाधिकारी वादी एवं प्रतिवादीके समीप स्थित साक्षियोंको यह वचन सुनावे- 'पातकियों और महापातकियोंको तथा आग लगानेवालों और स्त्री एवं बालकोंकी हत्या करनेवालोंको जो लोक (नरक) प्राप्त होते हैं, झूठी गवाही देनेवाला मनुष्य उन सभी लोकों (नरकों) को प्राप्त होता है। तुमने सैकड़ों जन्मोंमें जो कुछ भी पुण्य अर्जित किया है, वह सब उसीको प्राप्त हुआ समझो, जिसे तुम असत्यभाषणसे पराजित करोगे।' साक्षियोंकी बातोंमें द्विविधा (परस्पर विरुद्धभाव) हो तो उनमेंसे बहुसंख्यक साक्षियोंका वचन ग्राह्य होता है। यदि समान संख्यावाले साक्षियोंकी बातोंमें विरोध हो, अर्थात् जहाँ दो एक तरहकी बात कहते हों और दो दूसरे तरहकी बात, वहाँ गुणवानोंकी बातको प्रमाण मानना चाहिये। यदि गुणवानोंकी बातोंमें भी विरोध उपस्थित हो तो उनमें जो सबसे अधिक गुणवान् हो, उसकी बातको विश्वसनीय एवं ग्राह्य माने। साक्षी जिसकी प्रतिज्ञा (दावा) को सत्य बतायें, वह विजयी होता है। वे जिसके दावेको मिथ्या बतलायें, उसकी पराजय निश्चित है॥ ६-११॥
साक्षियोंके साक्ष्य देनेपर भी यदि गुणोंमें इनसे श्रेष्ठ अन्य पुरुष अथवा पूर्वसाक्षियोंसे दुगुने साक्षी उनके साक्ष्यको असत्य बतलायें तो पूर्वसाक्षी कूट (झूठे) माने जाते हैं। उन लोगोंको, जो कि धनका प्रलोभन देकर गवाहोंको झूठी गवाही देनेके लिये तैयार करते हैं तथा जो उनके कहनेसे झूठी गवाही देते हैं, उनको भी पृथक् पृथक् दण्ड दे। विवादमें पराजित होनेपर जो दण्ड बताया गया है, उससे दूना दण्ड झूठी गवाही दिलानेवाले और देनेवालेसे वसूल करना चाहिये। यदि दण्डका भागी ब्राह्मण हो तो उसे देशसे निकाल देना चाहिये। जो अन्य गवाहोंके साथ गवाही देना स्वीकार करके, उसका अवसर आनेपर रागादि दोषोंसे आक्रान्त हो अपने साक्षीपनको दूसरे साक्षियोंसे अस्वीकार करता है, अर्थात् यह कह देता है कि 'मैं इस मामलेमें साक्षी नहीं हूँ', वह विवादमें पराजय प्राप्त होनेपर जो नियत दण्ड है, उससे आठगुना दण्ड देनेका अधिकारी है। उससे उतना दण्ड वसूल करना चाहिये। परंतु जो ब्राह्मण उतना दण्ड देनेमें असमर्थ हो, उसको देशसे निर्वासित कर देना चाहिये। जहाँ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्रके वधकी सम्भावना हो, वहाँ (उनके रक्षार्थ साक्षी झूठ बोले (कदापि सत्य न कहे। यदि किसी हत्यारेके विरुद्ध गवाही देनी हो तो सत्य ही कहना चाहिये) ॥ १२-१५॥

लेखा-प्रकरण

धनी और अधमर्ण (साहु और खदुका) के बीच जो सुवर्ण आदि द्रव्य परस्पर अपनी ही रुचिसे इस शर्तके साथ कि 'इतने समयमें इतना देना है और प्रतिमास इतनी वृद्धि चुकानी है', व्यवस्थापूर्वक रखा जाता है, उस अर्थको लेकर कालान्तरमें कोई मतभेद या विवाद उपस्थित हो जाय तो उसमें वास्तविक तत्त्वका निर्णय करनेके लिये कोई लेखापत्र तैयार कर लेना चाहिये। उसमें पूर्वोक्त योग्यतावाले साक्षी रहें और धनी (साहू) का नाम भी पहले लिखा गया हो। लेखामें संवत्, मास, पक्ष, दिन, तिथि, साहु और खदुकाके नाम, जाति तथा गोत्रके उल्लेखके साथ साथ शाखा-प्रयुक्त गौण नाम (बहृच, कठ आदि) तथा धनी और ऋणीके अपने-अपने पिताके नाम आदि लिखे रहने चाहिये। लेखामें वाञ्छनीय विषयका उल्लेख पूर्ण हो जानेपर ऋण लेनेवाला अपने हाथसे लेखापर यह लिख दे कि' अमुकका पुत्र मैं अमुक इस लेखामें जो लिखा गया है, उससे सहमत हूँ।' तदनन्तर साक्षी भी अपने हाथसे यह लिखे कि 'आज मैं अमुकका पुत्र अमुक इस लेखाका साक्षी होता हूँ।' साक्षी सदा समसंख्या (दो या चार) में होने चाहिये। लिपिज्ञानशून्य ऋणी अपनी सम्मति किसी दूसरे व्यक्तिसे लिखवा ले और अपढ़ साक्षी अपना मत सब साक्षियोंके समीप दूसरे साक्षीसे लिखवाये। अन्तमें लेखक (कातिब) यह लिख दे कि आज अमुक धनी और अमुक ऋणीके कहनेपर अमुकके पुत्र मुझ अमुकने यह लेखा लिखा। साक्षियोंके न होनेपर भी ऋणीके हाथका लिखा हुआ लेखा पूर्ण प्रमाण माना जाता है, किंतु वह लेखा बल अथवा छलके प्रयोगसे लिखवाया गया न हो। लेखा लिखकर लिया हुआ ऋण तीन पीड़ियोंतक ही देय होता है, परंतु बन्धककी वस्तु तबतक धनी के उपभोगमें आती है, जबतक कि लिया हुआ ऋण चुका नहीं दिया जाता है। यदि लेखापत्र देशान्तरमें हो, उसकी लिखावट दोषपूर्ण अथवा संदिग्ध हो, नष्ट हो गया हो, घिस गया हो, अपहृत हो गया हो, छिन्न-भिन्न अथवा दग्ध हो गया हो, तब धनी ऋणीकी अनुमतिसे दूसरा लेखा तैयार करवावे। संदिग्ध लेखकी शुद्धि स्वहस्तलिखित आदिसे होती है, अर्थात् लेखक अपने हाथसे दूसरा लेखा लिखकर दिखावे। जब दोनोंके अक्षर समान हों, तब संदेह दूर हो जाता है। 'आदि' पदसे यह सूचित किया गया है कि साक्षी और लेखकसे दूसरा कुछ लिखवाकर यह देखा जाय कि दोनों लेखोंके अक्षर मिलते हैं या नहीं। यदि मिलते हों तो पूर्वलेखाके शुद्ध होनेमें कोई संदेह नहीं रह जाता है। युक्तिप्राप्ति', क्रिया', चिह्न', सम्बन्ध' और आगम- इन हेतुओंसे भी लेखाकी शुद्धि होती है। ऋणी जब-जब ऋणका धन धनीको दे, तब-तब लेखापत्रको पीठपर लिख दिया करे। अथवा धनी जब-जब जितना धन पावे, तब-तब अपने हाथसे लेखाको पौठपर उसको लिखकर अङ्कित कर दे। ऋणी जब ऋण चुका दे तो लेखाको फाड़ डाले, अथवा (लेखा किसी दुर्गम स्थानमें हो या नष्ट हो गया, तो) ऋणशुद्धिके लिये धनीसे भरपाई लिखवा ले। यदि लेखापत्रमें साक्षियोंका उल्लेख हो तो उनके सामने ऋण चुकावे ॥ १६-२७॥

दिव्य-प्रकरण

तुला, अग्रि, जल, विष तथा कोष-ये पाँच दिव्य प्रमाण धर्मशास्त्रमें कहे गये हैं, जो संदिग्ध अर्थके निर्णय अथवा संदेहकी निवृत्तिके लिये देने चाहिये। जब अभियोग बहुत बड़े हों और अभियोक्ता परले सिरेपर, अर्थात् व्यवहारके जय- पराजय-लक्षण चतुर्थपादमें पहुँच गया हो, तभी इन दिव्य-प्रमाणोंका आश्रय लेना चाहिये। वादी और प्रतिवादी-दोनोंमेंसे कोई एक परस्पर बातचीत करके, स्वीकृति देकर अपनी रुचिके अनुसार दिव्य-प्रमाणके लिये प्रस्तुत हो और दूसरा सम्भावित शारीरिक या आर्थिक दण्डके लिये तैयार रहे। राजद्रोह या महापातकका संदेह होनेपर शीर्षक स्थितिमें आये बिना भी तुला आदि दिव्य-प्रमाणोंको स्वीकार करे। एक हजार पणसे कमके अभियोगमें अग्नि, विष और तुला इन दिव्य प्रमाणोंको ग्रहण न करावे; किंतु राजद्रोह और महापातकके अभियोगमें सत्पुरुष सदा इन्हीं प्रमाणोंका वहन करे। सहस्त्र पणके अभियोगमें तुला आदि तीन दिव्य-प्रमाणोंको प्रस्तुत करे, किंतु अल्प अभियोगमें भी कोश कराये। शपथ ग्रहण करनेवालेके शुद्ध प्रमाणित होनेपर उसे वादीसे पचास पण दिलावे और दोषी प्रमाणित होनेपर उसे दण्ड दे। न्यायाधिकारी दिव्य प्रमाणके लिये प्रस्तुत मनुष्यको पहले दिन उपवास करवाये तथा दूसरे दिन सूर्योदयके समय वस्त्रसहित स्नान कर लेनेपर बुलाये। फिर राजा और ब्राह्मणोंके सम्मुख उससे सभी दिव्य-प्रमाण ग्रहण करावे। किसी भी जाति अथवा वयकी स्त्री, किसी भी जातिका सोलह वर्षकी अवस्थासे कमका बालक, कम-से-कम अस्सी वर्षकी अवस्थाका बूढ़ा, अन्ध (नेत्रहीन), पङ्गु (पादरहित), जातिमात्रका ब्राह्मण तथा रोगी-इन सबकी शुद्धिके लिये, अर्थात् इनपर लगे हुए अपराधविषयक संदेहका निवारण करनेके लिये 'तुला' नामक दिव्य-प्रमाण ही ग्राह्य है। क्षत्रियके लिये अग्नि (गरम किया हुआ फाल और तपाया हुआ माष), वैश्यके लिये जलमात्र तथा शूद्रके लिये सात जी विष इनकी शुद्धिके लिये आवश्यक बताये गये हैं॥ २८-३३ ॥

तुला-दिव्यप्रमाण

जो तराजू उठाना या तौलना जानते हों, ऐसे लोगोंसे अभियुक्तको तुलाके एक पलड़ेमें बैठाकर दूसरे पलड़ेमें कोई मिट्टी या प्रस्तरका उतने ही वजनका टुकड़ा रखकर उससे उसको ठीक- ठीक तौले। फिर जिस संनिवेशमें वह बराबर तौला गया है, उसमें सफेद खड़ियासे रेखा करके उस व्यक्तिको उतार लिया जाय। उतरनेपर वह निम्नाङ्कित प्रार्थना-वाक्य पढ़कर तुलाको अभिमन्त्रित करे- 'सूर्य, चन्द्र, वायु, अग्नि, आकाश, भूमि, जल, हृदय, यम, दिन, रात्रि, दोनों संध्याकाल और धर्म- ये सब मनुष्यके वृत्तान्तको जानते हैं। तुले! तुम सत्यका धाम (स्थान) हो, पूर्वकालमें देवताओंने तुम्हारा निर्माण किया है। अतः कल्याणि । तुम सत्यको प्रकट करो और मुझे संशयसे मुक्त कर दो। मातः यदि मैं पापी या अपराधी हूँ तो मेरा पलड़ा नीचे कर दो और यदि मैं दोषरहित हूँ तो मुझे ऊपर उठा दी' ॥ ३४-३७ ॥

अग्नि-दिव्यप्रमाण 

अग्रिका दिव्य ग्रहण करनेवालेके हाथोंमें धान मसलकर, हाथोंके काले तिल आदि चिह्नोंको देखकर उन्हें महावर आदिसे रंग दे। फिर उसके हाथोंकी अञ्जलिमें पीपलके सात पत्ते रखे। हाथसहित उन पत्तोंको धागेसे आवेष्टित कर दे। इसके बाद दिव्य ग्रहण करनेवाला अग्निकी प्रार्थना करे- 'अग्ग्रिदेव! आप सम्पूर्ण भूत-प्राणियोंके अन्तःकरणमें विचरते हैं। आप सबको पवित्र करनेवाले और सब कुछ जाननेवाले हैं। आप साक्षीकी भाँति मेरे पुण्य और पापका निरीक्षण करके सत्यको प्रकट कीजिये ' ॥ ३८-३९ ॥

शपथ ग्रहण करनेवालेके ऐसा कहनेपर उसके दोनों हाथोंमें पचास पलका जलता हुआ लौहपिण्ड रख दे। दिव्य ग्रहण करनेवाला मनुष्य उसे लेकर धीरे-धीरे सात मण्डलोंतक चले। मण्डलकी लम्बाई और चौड़ाई सोलह सोलह अङ्गलकी हो तथा एक मण्डलसे दूसरे मण्डलकी दूरी भी उतनी ही हो। तदनन्तर शपथ करनेवाला अग्निपिण्डको गिराकर हाथोंमें पुनः धान मसले। यदि हाथ न जले हों तो शपथ करनेवाला मनुष्य शुद्ध माना जाता है। यदि लौहपिण्ड बीचमें ही गिर पड़े या कोई संदेह हो तो शपथकर्ता पूर्ववत् लौहपिण्ड लेकर चले ॥ ४०-४२॥

जल-दिव्य

जलका दिव्य ग्रहण करनेवालेको निम्नाङ्कित रूपसे वरुणदेवकी प्रार्थना करनी चाहिये- 'वरुण! आप पवित्रोंमें भी पवित्र हैं और सबको पवित्र करनेवाले हैं। मैं शुद्धिके योग्य हूँ। मेरी शुद्धि कीजिये। सत्यके बलसे मेरी रक्षा कीजिये।'- इस प्रार्थना मन्त्रसे जलको अभिमन्त्रित करके वह मनुष्य नाभिपर्यन्त जलमें खड़े हुए पुरुषकी जङ्घा पकड़कर जलमें डूबे। उसी समय कोई व्यक्ति बाण चलावे। जबतक एक वेगवान् मनुष्य उस छूटे हुए बाणको ले आवे, तबतक यदि शपथकर्ता जलमें डूबा रहे तो वह शुद्ध होता है ॥४३-४४॥

विष-दिव्य

विषका दिव्य-प्रमाण ग्रहण करनेवाला इस प्रकार विषकी प्रार्थना करे- 'विष! तुम ब्रह्माके पुत्र हो और सत्यधर्ममें अधिष्ठित हो; इस कलङ्कसे मेरी रक्षा एवं सत्यके प्रभावसे मेरे लिये अमृतरूप हो जाओ।' ऐसा कहकर शपथकर्ता हिमालयपर उत्पन्न शाङ्गं विषका भक्षण करे। यदि विष बिना वेगके पच जाय, तो न्यायाधिकारी उसकी शुद्धिका निर्देश करें ॥ ४५-४६

कोश-दिव्य

कोश-दिव्य लेने वाले के लिये न्यायाधिकारी उग्र देवताओं का पूजन करके उनके अभिषेक का जल ले आवे। फिर शपथकर्ता को यह बतलाकर उस में से तीन पसर जल पिला दे। यदि चौदहवें दिनतक राजा अथवा देवतासे घोर पीडा न प्राप्त हो, तो वह निःसंदेह शुद्ध होता है॥ ४७-४८॥ अल्प मूल्यवाली वस्तुके अभियोगमें संदेह उपस्थित होने पर सत्य, वाहन, शस्त्र, गौ, बीज, सुवर्ण, देवता, गुरुचरण एवं इष्टापूर्त आदि पुण्यकर्म इनकी सहजसाध्य शपथ विहित है ॥ ४९-५०॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'दिव्य प्रमाण-कथन' नामक दो सौ पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ २५५॥

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