अग्नि पुराण दो सौ चौवनवाँ अध्याय ! Agni Purana 254 Chapter !
अग्नि पुराण 254 अध्याय - व्यवहारकथनम्
अग्निरुवाच
गृहीतार्थः क्रमाद्दाप्यो धनिनामधमर्णिकः ।
दत्वा तु ब्राह्मणायादौ नृपतेस्तदनन्तरम् ।। १ ।।
राज्ञाधमर्णिको दाप्यः साधिताद्दशकं स्मृतम् ।
पञ्चकन्तु शतं दाप्यः प्राप्तार्थो ह्युत्तमर्णिकः ।। २ ।।
हीनजातिं परिक्षीणमृणार्थं कर्म्म कारयेत् ।
ब्राह्मणस्तु परिक्षीणः शनैर्द्दाप्यो यथोदयम् ।। ३ ।।
दीयमानं न गृह्णाति प्रयुक्तं स्वकन्धनम् ।
मध्यस्थस्थापितं तत्स्याद्वर्द्धते न ततः परं ।। ४ ।।
ऋक्थग्राह ऋणं दाप्यो योपिद्ग्राहस्तथैव च ।
पुत्रोऽनन्याश्रितद्रव्यः पुत्रहीनस्य ऋक्थिनः ।। ५ ।।
अविभक्तैः कुटुम्वार्थं यदृणन्तु कृतम्भवेत् ।
दद्युस्तदृक्थिनः प्रेते प्रोषिते वा कुटुम्बिनि ।। ५ ।।
न योषित् पतिपुत्राभ्यां न पुत्रेण कृतं पिता ।
दद्यादृते कुटुम्बार्थान्न पतिः स्त्रीकृतं तथा ।। ६ ।।
गोपशौण्डिकशैलूषरजकव्याधयोषितां ।
ऋणं दद्यात्पतिस्त्वासां यस्माद्वृत्तिस्तदाश्रया ।। ८ ।।
प्रतिपन्नं स्त्रिया देयं पत्या वा सह यत् कृतं ।
स्वयं कृतं वा यदृणं नान्यस्त्री दातुमर्हति ।। ९ ।।
पितरि प्रोषिते प्रेते व्यसनाभिप्लुतेऽथ वा ।
पुत्रपौत्रैर्ऋणं देयं निह्नवे साक्षिभावितम् ।। १० ।।
सुराकामद्यूतकृतन्दण्डशुल्कावशिष्टकम् ।
वृथा दानं तथैवेहपु त्रो दद्यान्न पैतृकम् ।। ११ ।।
भ्रातॄणामथ दम्पत्योः पितुः पुत्रस्य चैव हि ।
प्रतिभाव्यमृणं ग्राह्यमविभक्तेन च स्मृतम् ।। १२ ।।
दर्शने प्रत्यये दाने प्रव्भिव्यं विधीयते ।
आधौ तु वितथे दाप्या वितथस्य सुता अपि ।। १३ ।।
दर्शनप्रतिभूर्यत्र मृतः प्रात्ययिकोऽपि वा ।
न तत्पुत्रा धनं दद्युर्दद्युर्दानाय ये स्थिताः ।। १४ ।।
बहवः स्युर्यदि स्वांशैर्दद्युः प्रतिभुवो धनम् ।
एकच्छायाश्रितेष्वेषु धनिकस्य यथारुचि ।। १५ ।।
प्रतिभूर्दापितो यत्र प्रकाशं धनिने धनम् ।
द्विगुणं प्रतिदातव्यमृणिकैस्तस्य तद्भवेत् ।। १६ ।।
स्वस्न्ततिस्त्रीपशव्यं धान्यं द्विगुणमेव च ।
वस्त्रं चतुर्गुणं प्रोक्तं रसश्चाष्टगुणस्तथा ।। १७ ।।
आधिः प्रणश्येत् द्विगुणे धने यदि न मोक्ष्यते ।
काले कालकृतं नश्येत् फलभोग्यो न नश्यति ।। १८ ।।
गोप्याधिबोग्यो नावृद्धिः सोपकारेऽथ भाविते ।
नष्टो देयो विनष्टश्च दैवराजकृतादृते ।। १९ ।।
आधेः स्वीकरणात्सिद्धीरक्षमाणोप्यसारताम् ।
यातश्चेदन्य आधेयो धनभाग् वा धनी भवेत् ।। २० ।।
चरित्रं बन्धककृतं सवृद्धं दापयेद्वनं ।
सत्यह्कारकृतं द्रव्यं द्विगुणं प्रतिदापयेत् ।। २१ ।।
उपस्थितस्य मोक्तव्य आधिर्दण्डोऽन्यथा भवेत् ।
प्रयोजके सति धनं कुलेन्यस्याधिमाप्नुयात् ।। २२ ।।
तत्कालकृतमूल्यो वा तत्र तिष्ठेदवृद्धिकः ।
विना धारणकाद्वापि विक्रीणीते ससाक्षिकम् ।। २३ ।।
यदा तु द्विगुणीभूतमृणमाधौ तदा खलु ।
मोच्यश्चाधिस्तदुत्पाद्य प्रविष्टे द्विगुणे धणे ।। २४ ।।
व्यसनस्थमनाख्याय हस्तेऽन्यस्य यदर्पयेत् ।
द्रव्यं तदौपनिधिकं प्रतिदेयं तथैव तत् ।। २५ ।।
न दाप्योऽपहृतं तत्तु राजदैवकतस्करैः ।
प्रेपश्चेन्मार्गिते दत्ते दाप्यो दण्डश्च तत्समम् ।। २६ ।।
आजीवन् स्वेच्छया दण्ड्यो दाप्यस्तच्चापि सोदयं ।
याचितावाहितन्यासे निक्षेपेष्वप्ययं विधिः ।।२७ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये व्यवहारो नाम चतुःपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।
अग्नि पुराण दो सौ चौवनवाँ अध्याय हिन्दी मे -Agni Purana 254 Chapter In Hindi
दो सौ चौवनवाँ अध्याय - ऋणादान तथा उपनिधि सम्बन्धी विचार
अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ ! यदि ऋण लेने वाले पुरुष के अनेक ऋणदाता साहु हों और वे सब के-सब एक ही जाति के हों तो राजा उन्हें ग्रहणक्रम के अनुसार ऋण लेने वाले से धन दिलवावे। अर्थात् जिस धनीने पहले ऋण दिया हो, उसे पहले और जिसने बाद में दिया हो, उसे बाद में ऋणग्राही पुरुष ऋण लौटाये। यदि ऋणदाता धनी अनेक जातिके हों तो ऋणग्राही पुरुष सबसे पहले ब्राह्मण धनीको धन देकर उसके बाद क्षत्रिय आदिको देय-धन अर्पित करे। राजाको चाहिये कि वह ऋण लेने वाले से उसके द्वारा गृहीत धनके प्रमाणद्वारा सिद्ध हो जाने पर दस प्रतिशत धन दण्डके रूपमें वसूल करे तथा जिसने अपना धन वसूल कर लिया है, उस ऋणदाता पुरुषसे पाँच प्रतिशत धन ग्रहण कर ले और उस धनको न्यायालय के कर्मचारियों के भरण-पोषण में लगावे ॥ १-२ ॥
यदि ऋण लेनेवाला पुरुष ऋणदाता की अपेक्षा हीन जातिका हो और निर्धन होने के कारण ऋणकी अदायगी न कर सके, तब ऋणदाता उससे उसके अनुरूप कोई काम करा ले और इस प्रकार उस ऋणका भुगतान कर ले। यदि ऋण लेनेवाला ब्राह्मण हो और वह भी निर्धन हो गया हो तो उससे कोई काम न लेकर उसे अवसर देना चाहिये और धीरे-धीरे जैसे-जैसे उसके पास आय हो, वैसे-वैसे (उसके कुटुम्बको कष्ट दिये बिना) ऋणकी वसूली करे। जो वृद्धिके लिये ऋणके रूपमें दिये हुए अपने धनको लोभवश ऋणग्राहीके लौटानेपर भी नहीं लेता है, उसके देय-धनको यदि किसी मध्यस्थके यहाँ रख दिया जाय तो उस दिनसे उसपर वृद्धि नहीं होती ब्याज नहीं बढ़ता; परन्तु उस रखे हुए धनको भी ऋणदाताके माँगनेपर न दिया जाय तो उसपर पूर्ववत् ब्याज बढ़ता ही रहता है॥ ३-४॥
दूसरेका द्रव्य जब खरीद आदिके बिना ही अपने अधिकारमें आता है तो उसे 'रिक्थ' कहते हैं। विभागद्वारा जो उस रिक्थको ग्रहण करता है, वह 'रिक्थग्राह' कहलाता है। जो जिसके द्रव्यको रिक्थके रूपमें ग्रहण करता है, उसीसे उसके ऋणको भी दिलवाया जाना चाहिये। उसी तरह जो जिसकी स्त्रीको ग्रहण करता है, वही उसका ऋण भी दे। रिक्थ-धनका स्वामी यदि पुत्रहीन है तो उसका ऋण वह कृत्रिम पुत्र चुकावे, जो एकमात्र उसीके धनपर जीवन निर्वाह करता है। संयुक्त परिवारमें समूचे कुटुम्बके भरण-पोषणके लिये एक साथ रहनेवाले बहुत से लोगोंने या उस कुटुम्बके एक-एक व्यक्तिने जो ऋण लिया हो, उसे उस कुटुम्बका मालिक दे। यदि वह मर गया या परदेश चला गया तो उसके धनके भागीदार सभी लोग मिलकर वह ऋण चुकावें। पतिके किये हुए ऋणको स्त्री न दे, पुत्रके किये हुए ऋणको माता न दे, पिता भी न दे तथा स्त्रीके द्वारा किये गये ऋणको पति न दे; किंतु यह नियम समूचे कुटुम्बके भरण-पोषणके लिये किये गये ऋणपर लागू नहीं होता है। ग्वाले, शराब बनानेवाले, नट, धोबी तथा व्याधकी स्त्रियोंने जो ऋण लिया हो, उसे उनके पति अवश्य देंः क्योंकि उनको वृत्ति (जीविका) उन स्त्रियोंके ही अधीन होती है। यदि पति मुमूर्ष हो या परदेश जानेवाला हो, उसके द्वारा नियुक्त स्त्रीने जो ऋण लिया हो, वह भी यद्यपि पतिका ही किया हुआ ऋण है, तथापि उसे पल्त्रीको चुकाना होगा; अथवा पतिके साथ रहकर भार्याने जो ऋण किया हो, वह भी पति और पुत्रके अभावमें उस भार्याको ही चुकाना होगा; जो ऋण स्त्रीने स्वयं किया हो, उसकी देनदार तो यह है ही। इसके सिवा दूसरे किसी प्रकारके पतिकृत ऋणको चुकानेका भार स्त्रीपर नहीं है॥५-९॥
यदि पिता ऋण करके बहुत दूर परदेशमें चला गया, मर गया अथवा किसी बड़े भारी संकटमें फँस गया तो उसके ऋणको पुत्र और पौत्र चुकावें। (पिताके अभावमें पुत्र और पुत्रके अभावमें पौत्र उस ऋणकी अदायगी करे।) यदि वे अस्वीकार करें तो अर्धी न्यायालयमें अभियोग उपस्थित करके साक्षी आदिके द्वारा उस ऋणकी यथार्थता प्रमाणित कर दे। उस दशामें तो पुत्र- पौत्रोंको वह ऋण देना ही पड़ेगा। जो ऋण शराब पीनेके लिये लिया गया हो, परस्त्री- लम्पटताके कारण कामभोगके लिये किया गया हो, जूएमें हारनेपर जो ऋण लिया गया हो, जो धन दण्ड और शुल्कका शेष रह गया हो तथा जो व्यर्थका दान हो, अर्थात् धूर्तों और नट आदिको देनेके लिये किया गया हो, इस तरहके पैतृक ऋणको पुत्र कदापि न दे। भाइयोंके, पति- पत्नीके तथा पिता-पुत्रके अविभक्त धनमें 'प्रातिभाव्य' ऋण और साक्ष्य नहीं माना गया है॥ १०-१२॥
विश्वासके लिये किसी दूसरे पुरुषके साथ जो समय शर्त या मर्यादा निश्चित की जाती है, उसका नाम है- 'प्रातिभाव्य'। वह विषय-भेदसे तीन प्रकारका होता है। जैसे (१) दर्शनविषयक प्रातिभाव्य। अर्थात् कोई दूसरा पुरुष यह उत्तरदायित्व ले कि जब-जब आवश्यकता होगी, तब-तब इस व्यक्तिको मैं न्यायालयके सामने उपस्थित कर दूँगा अर्थात् दिखाऊँगा- हाजिर कर दूँगा। ('दर्शन-प्रतिभू' को आजकलकी भाषामें 'हाजिर जामिन' कहते हैं।) (२) प्रत्ययविषयक प्रातिभाव्य।
'प्रत्यय' कहते हैं विश्वासको 'विश्वास प्रतिभू' को 'विश्वास-जामिन' कहा जाता है। जैसे कोई कहे कि 'आप मेरे विश्वासपर इसको धन दीजिये, यह आपको ठगेगा नहीं; क्योंकि यह अमुकका बेटा है। इसके पास उपजाऊ भूमि है और इसके अधिकारमें एक बड़ा-सा गाँव भी है' इत्यादि। (३) दानविषयक प्रातिभाव्य। 'दान-प्रतिभू 'को 'माल-जामिन' कहते हैं। 'दान-प्रतिभू' यह जिम्मेदारी लेता है कि 'यदि यह लिया हुआ धन नहीं देगा तो मैं स्वयं ही अपने पाससे दूँगा' इत्यादि। इस प्रकार दर्शन (उपस्थिति), प्रत्यय (विश्वास) तथा दान (वसूली) के लिये प्रातिभाव्य किया जाता है-जामिन देनेकी आवश्यकता पड़ती है। इनमेंसे प्रथम दो, अर्थात् 'दर्शन-प्रतिभू' और 'विश्वास-प्रतिभू' इनकी बात झूठी होनेपर, स्वयं धनी ऋण चुकानेके लिये विवश है, अर्थात् राजा उनसे धनीको वह धन अवश्य दिलवावे; परंतु जो तीसरा 'दान-प्रतिभू' है, उसकी बात झूठी होनेपर वह स्वयं तो उस धनको लौटानेका अधिकारी है ही, किंतु यदि वह बिना लौटाये ही विलुप्त हो जाय तो उसके पुत्रोंसे भी उस धनकी वसूली की जा सकती है। जहाँ 'दर्शन प्रतिभू' अथवा 'विश्वास-प्रतिभू' परलोकवासी हो जायें, वहाँ उनके पुत्र उनके दिलाये हुए ऋणको न दें; परंतु जो स्वयं लौटा देनेके लिये जिम्मेदारी ले चुका है, वह 'दान-प्रतिभू' यदि मर जाय तो उसके पुत्र अवश्य उसके दिलाये हुए ऋणको दें। यदि एक ही धनको दिलानेके लिये बहुत-से प्रतिभू (जामिनदार) बन गये हों, तो उस धनके न मिलनेपर वे सभी उस ऋणको बाँटकर अपने-अपने अंशसे चुकावें। यदि सभी प्रतिभू एक-से ही हों, अर्थात् जैसे ऋणग्राही सम्पूर्ण धन लौटानेको उद्यत रहा है, उसी प्रकार प्रत्येक प्रतिभू यदि सम्पूर्ण धन लौटानेके लिये प्रतिज्ञाबद्ध हो तो धनी पुरुष अपनी रुचिके अनुसार उनमेंसे किसी एकसे ही अपना सारा धन वसूल कर सकता है। ऋण देनेवाले धनीके द्वारा दबाये जानेपर प्रतिभू राजाके आदेशसे सबके सामने उस धनीको जो धन देता है, उससे दूना धन ऋण लेनेवाले लोग उस प्रतिभूको लौटावें ॥ १३-१६ ॥
मादा पशुओंको यदि ऋणके रूपमें दिया गया हो तो उस धनकी वृद्धिके रूपमें केवल उनकी संतति ली जा सकती है। धान्यकी अधिक से अधिक वृद्धि तीनगुनेतक मानी गयी है। वस्त्र वृद्धिके क्रमसे बढ़ता हुआ चौगुना तथा रस (घी, तेल आदि) अधिक-से-अधिक आठगुनातक हो सकता है। यदि कोई वस्तु बन्धक रखकर ऋण लिया गया हो और उस ऋणकी रकम ब्याजके द्वारा बढ़ते-बढ़ते दूनी हो गयी हो, उस दशामें भी ऋणग्राही यदि सारा धन लौटाकर उस वस्तुको छुड़ा नहीं लेता है, तो वह वस्तु नष्ट हो जाती है- उसके हाथसे निकलकर ऋणदाताकी अपनी वस्तु हो जाती है। जो धन समय-विशेषपर लौटानेकी शर्तपर लिया जाता है और उसके लिये कोई जेवर आदि बन्धक रखा जाता है, वह समय बीत जानेपर वह बन्धक नष्ट हो जाता है, फिर वापस नहीं मिलता। परंतु जिसका फलमात्र भोगनेके योग्य होता है, वह बगीचा या खेत आदि बन्धकके रूपमें रखा गया हो तो वह कभी नष्ट नहीं होता; उसपर मालिकका स्वत्व बना ही रहता है ॥ १७-१८ ॥
यदि कोई गोपनीय आधि (बन्धकमें रखी हुई वस्तु ताँबेकी कराही आदि) ऋणदाताके उपभोगमें आये तो उसपर दिये हुए धनके लिये ब्याज नहीं लगाया जा सकता। यदि बन्धकमें कोई उपकारी प्राणी (बैल आदि) रखा गया हो और उसके काम लेकर उसकी शक्ति क्षीण कर दी गयी हो तो उसपर दिये गये ऋणके ऊपर वृद्धि नहीं जोड़ी जा सकती। यदि बन्धककी वस्तु नष्ट हो जाय-टूट-फूट जाय तो उसे ठीक कराकर लौटाना चाहिये और यदि वह सर्वथा विलुप्त (नष्ट) हो जाय तो उसके लिये भी उचित मूल्य आदि देना चाहिये। यदि दैव अथवा राजाके प्रकोपसे वह वस्तु नष्ट हुई हो तो उसपर उक्त नियम लागू नहीं होता। उस दशामें ऋणग्राही धनीको वृद्धिसहित धन लौटाये अथवा वृद्धि रोकनेके लिये दूसरी कोई वस्तु बन्धक रखे। 'आधि' चाहे गोप्य हो या भोग्य, उसके स्वीकार (उपभोग) मात्रसे आधि-ग्रहणकी सिद्धि हो जाती है। उस आधिकी प्रयत्नपूर्वक रक्षा करनेपर भी यदि वह कालवश निस्सार हो जाय वृद्धिसहित मूलधनके लिये पर्याप्त न रह जाय तो ऋणग्राहीको दूसरी कोई वस्तु आधिके रूपमें रखनी चाहिये अथवा धनीको उसका धन लौटा देना चाहिये ॥ १९-२०॥
सदाचारको ही बन्धक मानकर उसके द्वारा जो द्रव्य अपने या दूसरेके अधीन किया जाता है, उसको 'चरित्र-बन्धककृत' धन कहते हैं। ऐसे धनको ऋणग्राही वृद्धिसहित धनीको लौटावे या राजा ऋणग्राहीसे धनीको वृद्धिसहित वह धन दिलवाये। यदि 'सत्यङ्कारकृत' द्रव्य बन्धक रखा गया हो तो धनीको द्विगुण धन लौटाना चाहिये। तात्पर्य यह कि यदि बन्धक रखते समय ही यह बात कह दी गयी हो कि 'ऋणकी रकम बढ़ते बढ़ते दूनी हो जाय तो भी मैं दूना द्रव्य ही दूँगा। मेरी बन्धक रखी हुई वस्तुपर धनीका अधिकार नहीं होगा' इस शर्तके साथ जो ऋण लिया गया हो वह 'सत्यङ्कारकृत' द्रव्य कहलाता है। इसका एक दूसरा स्वरूप भी है। क्रय-विक्रय आदिकी व्यवस्था (मर्यादा) के निर्वाहके लिये जो दूसरेके हाथमें कोई आभूषण इस शर्तके साथ समर्पित किया जाता है कि व्यवस्था भङ्ग करनेपर दुगुना धन देना होगा, उस दशामें जिसने वह भूषण अर्पित किया है, यदि वही व्यवस्था भङ्ग करे तो उसे वह भूषण सदाके लिये छोड़ देना पड़ेगा। यदि दूसरी ओरसे व्यवस्था भङ्ग की गयी तो उसे उस भूषणको द्विगुण करके लौटाना होगा। यह भी 'सत्यङ्कारकृत' ही द्रव्य है। यदि धन देकर बन्धक छुड़ानेके लिये ऋणग्राही उपस्थित हो तो धनदाताको चाहिये कि वह उसका बन्धक लौटा दे। यदि सूदके लोभसे वह बन्धक लौटानेमें आनाकानी करता या विलम्ब लगाता है तो वह चोरकी भाँति दण्डनीय है। यदि धन देनेवाला कहीं दूर चला गया हो तो उसके कुलके किसी विश्वसनीय व्यक्तिके हाथमें वृद्धिसहित मूलधन रखकर ऋणग्राही अपना बन्धक वापस ले सकता है। अथवा उस समयतक उस बन्धकको छुड़ानेका जो मूल्य हो, वह निश्चित करके उस बन्धकको धनीके लौटनेतक उसीके यहाँ रहने दे, उस दशामें उस धनपर आगे कोई वृद्धि नहीं लगायी जा सकती। यदि ऋणग्राही दूर चला गया हो और नियत समयतक न लौटे तो धनी ऋणग्राहीके विश्वसनीय पुरुषों और गवाहोंके साथ उस बन्धकको बेचकर अपना प्राप्तव्य धन ले ले (यदि पहले बताये अनुसार ऋण लेते समय हो केवल द्रव्य लौटानेकी शर्त हो गयी हो, तब बन्धकको नहीं बेचा या नष्ट किया जा सकता है)। जब किया हुआ ऋण अपनी वृद्धिके क्रमसे दूना होकर आधिपर चढ़ जाय और धनिकको आधिसे दूना धन प्राप्त हो गया हो तो वह आधिको छोड़ दे। (ऋणग्राहीको लौटा दे) ॥ २१-२४ ॥
'उपनिधि-प्रकरण'- यदि निक्षेप द्रव्य के आधारभूत वासन या पेटी आदिमें धरोहरकी वस्तु रखकर उसे सील-मोहरसहित बन्द करके वस्तुका स्वरूप या संख्या बताये बिना ही विश्वास करके किसी दूसरेके हाथमें रक्षाके लिये उसे दिया जाता है तो उसे 'उपनिधि द्रव्य' कहते हैं। उसे स्थापकके माँगनेपर ज्यों-का-त्यों लौटा देना चाहिये। यदि उपनिधिकी वस्तु राजाने बलपूर्वक ले ली हो या दैवी बाधा (आग लगने आदि) से नष्ट हुई हो, अथवा उसे चोर चुरा ले गये हों तो जिसके यहाँ वह वस्तु रखी गयी थी, उसको वह वस्तु देने या लौटानेके लिये बाध्य नहीं किया जा सकता। यदि स्वामीने उस वस्तुको माँगा हो और धरोहर रखनेवालेने नहीं दिया हो, उस दशा में यदि राजा आदिकी बाधासे उस वस्तुका नाश हुआ हो तो रखनेवाला उस वस्तुके अनुरूप मूल्य मालधनीको देनेके लिये विवश किया जा सकता है और राजाको उससे उतना ही दण्ड दिलाया जाय। जो मालधनीकी अनुमति लिये बिना स्वेच्छासे उपनिधिकी वस्तुको भोगता या उससे व्यापार करता है, वह दण्डनीय है। यदि उसने उस वस्तुका उपभोग किया है तो वह सूदसहित उस वस्तुको लौटाये और यदि व्यापारमें लगाकर लाभ उठाया है तो लाभसहित वह वस्तु मालधनीको लौटाये और उतना ही दण्ड राजाको दे। याचित, अन्वाहित', न्यास' और निक्षेप आदिमें यह उपनिधि सम्बन्धी विधान ही लागू होता है ॥ २५-२७॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'व्यवहारका कथन' नामक दो सौ चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २५४॥
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