अग्नि पुराण दो सौ पचासवाँ अध्याय ! Agni Purana 250 Chapter !

अग्नि पुराण दो सौ पचासवाँ अध्याय ! Agni Purana 250 Chapter !

अग्नि पुराण दो सौ पचासवाँ अध्याय - धनुर्वेदकथनम्

अग्निरुवाच

पूर्णायतं द्विजः कृत्वा ततो मांसैर्गदायूधान् ।
सुनिर्धौतं धनुः कृत्वा यज्ञभूमौ विधापयेत् ।। १ ।।

ततो वाणं समागृह्य दंशितः सुसमाहितः ।
बध्नीयाद्‌दृढां कक्षाञ्च दक्षिणाम् ।। २ ।।

विलक्षअयमपि तद्वाणं तत्र चैव सुसंस्थितं ।
ततः समुद्धरेद्वाणं तूणाद्दक्षिणपाणिना ।। ३ ।।

तेनैव सहितं मध्ये शरं सङ्‌गृह्य धारयेत् ।
वामहस्तेन वै कक्षां धनुस्तस्मात्समुद्धरेत् ।। ४ ।।

अविषण्णमतिर्भूत्वा गुणे पुङ्खं निवेशयेत् ।
सम्पीड्य सिंहकर्णेन पुङ्खेनापि समे दृढं ।। ५ ।।

वामकर्णोपविष्टञ्च फलं वामस्य धारयेत् ।
वर्णान् मध्यमया तत्र वामाङ्गुल्या च धारयेत् ।। ६ ।।

मनो लक्ष्यगतं कृत्वा मुष्टिना च विधानवित् ।
दक्षिणे गात्रभागो तु कृत्वा वर्णं विमोक्षयेत् ।। ७ ।।

ललाटपुटसंस्थानं दण्डं लक्ष्ये निवेशयेत् ।
आकृष्य ताड़येत्तत्र चन्द्रकं षोड़शङ्गुलम् ।। ८ ।।

मुक्त्वा वाणं ततः पश्चादुल्काशिक्षस्तदा तया ।
निगृह्णीयानुमध्यमया ततोऽङ्गुल्या पुनः पुनः ।। ९ ।।

अक्षिलक्ष्यं क्षिपेत्तूणाच्चतुरस्रञ्च दक्षिणम् ।
चतुरस्रगतं वेध्यमभ्यसेच्चादितः स्थितः ।। १० ।।

तस्मादनन्तरं तीक्ष्णं परवृत्तं गतञ्च यत् ।
निम्नमुन्नतवेधञ्च अभ्यसेत् क्षिप्रकन्ततः ।। ११ ।।

वेध्यस्थानेष्वथैतेषु सत्त्वस्य पुटकाद्धनुः ।
हस्तावापशतैश्चित्रैस्तर्ज्जयेद्‌दुस्तरैरपि ।। १२ ।।

तस्मिन् वेध्यगते विप्र द्वे वेध्ये दृढसंज्ञके ।
द्वे वेध्ये दुष्करे वेध्ये द्वे तथा चित्रदुष्करे ।। १३ ।।

न तु निम्नञ्च तीक्ष्णञ्च दृढवेध्ये प्रकीर्त्तिते ।
निम्नं दुष्करमुद्दिष्टं वेध्यमूद्‌र्ध्वगतञ्च यत् ।। १४ ।।

मस्तकायनमध्ये तु चित्रदुष्करसञ्‌ज्ञके ।
एवं वेध्यगणङ्‌कृत्वा दक्षिणेनेतरेण च ।। १५ ।।

आरोहेत् प्रथमं वीरो जितलक्षस्ततो नरः ।
एष एव विधिः प्रोक्तस्तत्र दृष्टः प्रयोक्तृभिः ।। १६ ।।

अधिकं भ्रमणं तस्य तस्माद् वेध्यात् प्रकीर्त्तितम् ।
लक्ष्यं स योजयेत्तत्र पत्रिपत्रगतं दृढम् ।। १७ ।।

भ्रान्तं प्रचलिचञ्चैव स्थिरं यच्च भवेदति ।
समन्तात्ताडयेद् भिन्द्याच्छेदयेद्व्यथयेदपि ।। १८ ।।

कर्म्मयोगविधानज्ञो ज्ञात्वैवं विधिमाचरेत् ।
मनसा चक्षुषा दृष्ट्या योगरिक्षुर्यमं जयेत् ।। १९ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये धनुर्वेदो नाम पञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।

अग्नि पुराण दो सौ पचासवाँ अध्याय हिन्दी मे -Agni Purana 250 Chapter In Hindi

दो सौ पचासवाँ अध्याय - लक्ष्यवेधके लिये धनुष-बाण लेने और उनके समुचित प्रयोग करनेकी शिक्षा तथा वेध्य के विविध भेदों का वर्णन

अग्निदेव कहते हैं- ब्रह्मन् । द्विजको चाहिये कि पूरी लम्बाईवाले धनुषका निर्माण कराकर, उसे अच्छी तरह धो-पोंछ कर यज्ञ भूमि में स्थापित करे तथा गदा आदि आयुधों को भली भाँति साफ करके रखे ॥ १॥

तत्पश्चात् बाणोंका संग्रह करके, कवच धारणपूर्वक एकाग्रचित्त हो, तूणीर ले, उसे पीठकी ओर दाहिनी काँखके पास दृढ़ताके साथ बाँधे। ऐसा करनेसे विलक्ष्य बाण भी उस तूणीरमें सुस्थिर रहता है। फिर दाहिने हाथसे तूणीर के भीतर से बाण को निकाले। उसके साथ ही बायें हाथसे धनुषको वहाँसे उठा ले और उसके मध्यभागमें बाणका संधान करे॥ २-४॥

चित्तमें विषादको न आने दे-उत्साह सम्पन्न हो, धनुषकी डोरीपर बाणका पुङ्खभाग रखे, फिर 'सिंहकर्ण" नामक मुष्टिद्वारा डोरीको पुङ्खके साथ ही दृढ़तापूर्वक दबाकर समभावसे संधान करे और बाणको लक्ष्यकी ओर छोड़े। यदि बायें हाथसे बाणको चलाना हो तो बायें हाथमें बाण ले और दाहिने हाथसे धनुषकी मुट्ठी पकड़े। फिर प्रत्यञ्चापर बाणको इस तरह रखे कि खींचनेपर उसका फल या पुद्ध बायें कानके समीप आ जाय। उस समय बाणको बायें हाथकी (तर्जनी और अङ्गुष्ठके अतिरिक्त) मध्यमा अङ्गुलीसे भी धारण किये रहे। बाण चलानेकी विधिको जाननेवाला पुरुष उपर्युक्त मुष्टिके द्वारा धनुषको दृढ़तापूर्वक पकड़कर, मनको दृष्टिके साथ ही लक्ष्यगत करके बाणको शरीरके दाहिने भागकी ओर रखते हुए लक्ष्यकी ओर छोड़े ॥५-७॥ 

धनुषका दण्ड इतना बड़ा हो कि भूमिपर खड़ा करने पर उसकी ऊँचाई ललाटतक आ जाय। उसपर लक्ष्यवेधके लिये सोलह अङ्गुल लंबे चन्द्रक (बाणविशेष) का संधान करे और उसे भलीभाँति खींचकर लक्ष्यपर प्रहार करे। इस तरह एक बाणका प्रहार करके फिर तत्काल ही तूणीरसे अङ्गुष्ठ एवं तर्जनी अङ्गुलिद्वारा बारंबार बाण निकाले। उसे मध्यमा अङ्गुलिसे भी दबाकर काबूमें करे और शीघ्र ही दृष्टिगत लक्ष्यकी ओर चलावे। चारों ओर तथा दक्षिण ओर लक्ष्यवेधका क्रम जारी रखे। योद्धा पहलेसे ही चारों ओर बाण मारकर सब ओरके लक्ष्यको वेधनेका अभ्यास करे ॥ ८-१०॥

तदनन्तर वह तीक्ष्ण, परावृत्त, गत, निम्न, उन्नत तथा क्षिप्र वेधका अभ्यास बढ़ावे। वेध्य लक्ष्यके ये जो उपर्युक्त स्थान हैं, इनमें सत्त्व (बल एवं धैर्य) का पुट देते हुए विचित्र एवं दुस्तर रीतिसे सैकड़ों बार हाथसे बाणोंके निकालने एवं छोड़ने की क्रिया द्वारा धनुष का तर्जन करे उसपर टङ्कार दे ॥ ११-१२॥

विप्रवर। उक्त वैध्यके अनेक भेद हैं। पहले तो दृढ़, दुष्कर तथा चित्र दुष्कर- ये वेध्यके तीन भेद हैं। ये तीनों ही भेद दो-दो प्रकारके होते हैं। 'नतनिम्न' और 'तीक्ष्ण' ये 'दृढ़वेध्य' के दो भेद हैं। 'दुष्करवेध्य' के भी 'निम्न' और 'ऊर्ध्वगत'- ये दो भेद कहे गये हैं तथा 'चित्रदुष्कर' वेध्यके 'मस्तकपन' और 'मध्य' ये दो भेद बताये गये हैं॥ १३-१४॥

इस प्रकार इन वेध्यगणोंको सिद्ध करके वीर पुरुष पहले दायें अथवा बायें पार्श्वसे शत्रुसेनापर चढ़ाई करे। इससे मनुष्य को अपने लक्ष्य पर विजय प्राप्त होती है। प्रयोक्ता पुरुषों ने वेध्य के विषय में यही विधि देखी और बतायी है ॥ १५-१६ ॥

योद्धाके लिये उस वेध्यकी अपेक्षा भ्रमणको अधिक उत्तम बताया गया है। वह लक्ष्यको अपने बाणके पुङ्खभागसे आच्छादित करके उसकी ओर दृढ़तापूर्वक शर-संधान करे। जो लक्ष्य भ्रमणशील, अत्यन्त चञ्चल और सुस्थिर हो, उसपर सब ओरसे प्रहार करे। उसका भेदन और छेदन करे तथा उसे सर्वथा पीड़ा पहुँचाये ॥ १७-१८ ॥

कर्मयोगके विधानका ज्ञाता पुरुष इस प्रकार समझ-बूझकर उचित विधिका आचरण (अनुष्ठान) करे। जिसने मन, नेत्र और दृष्टिके द्वारा लक्ष्यके साथ एकता स्थापनकी कला सीख ली है, वह योद्धा यमराजको भी जीत सकता है। (पाठान्तरके अनुसार वह श्रमको जीत लेता है-युद्ध करते- करते थकता नहीं।) ॥ १९ ॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'धनुर्वेदका कचन' नामक दो सौ पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ।॥ २५० ॥

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