अग्नि पुराण दो सौ उनचासवाँ अध्याय ! Agni Purana 249 Chapter !
अग्नि पुराण 249 अध्याय - धनुर्वेदका वर्णन
अग्निरुवाच
चतुष्पादं धनुर्वेदं वदे पञ्चविधं द्विज ।
रथनागाश्वपत्तीनां योधांश्चाश्रित्य कीर्त्तितं ।। १ ।।
यन्त्रमुक्तं पाणिमुक्तं मुक्तसन्धारितं तथा ।
अमुक्तं बाहुयुद्धञ्च पञ्चधा तत् प्रकीर्त्तितं ।। २ ।।
तत्र शस्त्रास्त्रसम्पत्त्या द्विविंधं परिकीर्त्तितं ।
ऋजुमायाविभेदेन भूयो द्विविधमुच्यते ।। ३ ।।
क्षेपणी चापयन्त्राद्यैर्यन्त्रमुक्तं प्रकीर्त्तितं ।
शिलातोमरयन्त्राद्यं पाणिमुक्तं प्रकीर्त्तितं ।। ४ ।।
मुक्तसन्धारितं ज्ञेयं प्रासाद्यमपि यद्भवेत् ।
खड्गादिकममुक्तञ्च नियुद्धं विगतायुधं ।। ५ ।।
कुर्य्याद्योग्यानि प्रात्राणि योद्धुमिच्छुर्ज्जितश्रमः ।
धनुःश्रेष्ठानि युद्धानि प्रासमध्यानि तानि च ।। ६ ।।
तानि खड्गजघन्यानि बाहुप्रत्यवराणि च ।
धनुर्वेदे गुरुर्विप्रः प्रोक्तो वर्णद्वयस्य च ।। ७ ।।
युद्धाधिकारः शूद्रस्य स्वयं व्यापादि शिक्षया ।
देशस्थैः शङ्गरै राज्ञः कार्य्या युद्धे सहायता ।। ८ ।।
अह्गुष्ठगुल्फपाण्यङ्घ्र्यः श्लिष्टः स्युः सहिता यदि ।
दृष्टं समपदं स्थानमेतल्लक्षणतस्तथा ।। ९ ।।
वाह्याङ्गुलिस्थितौ पादौ स्तब्धजानुबलावुभौ ।
त्रिवतस्त्यन्तरास्थानमेतद्वैशाखमुच्यते ।। १० ।।
हंसपङ्क्त्याकृतिसमे दृश्येते यत्र जानुनी ।
चतुर्वितस्तिविच्छिन्ने तदे तन्मण्डलं स्मृतं ।। ११ ।।
हलाकृतिमयं यच्च स्तब्धजानूरुदक्षिणं ।
वितस्त्यः पञ्च चविस्तारे तदालीढं प्रकीर्त्तितं ।। १२ ।।
एतदेव विपर्य्यस्तं प्रत्यालीढमिति स्मृतं ।
तिर्य्यग्भूतो भवेद्वामो दक्षिणोऽपि भवेदृजुः ।। १३ ।।
गुल्फौ पार्ष्णिग्रहौ चैव स्थितौ पञ्चाङ्गुलान्त्रौ ।
स्थानं जातं भवेदेतद् द्वादशाङ्गुलमायतं ।। १४ ।।
ऋजुजानुर्भवेद्वामो दक्षिणः सुप्रसारितः ।
अथवा दक्षइणञ्जानु कुब्जं भवति निश्चलं ।। १५ ।।
दण्डायतो भवेदेष चरणः सह जानुना ।
एवं विकटमुद्दिष्टं द्विहस्तान्तरमायतं ।। १६ ।।
जानुनी द्विगुणे स्यातामुत्तानौ चरणावुभौ ।
अनेन विधियोगेन सम्पुटं परिकीर्त्तितं ।। १७ ।।
किञ्चिद्विवर्त्तितौ पादौ समदण्डायतौ स्थिरौ ।
दृष्टमेव यथान्यायं षोडशाङ्गुलमायतं ।। १८ ।।
स्वस्तिकेनात्र कुर्वीत प्रणामं प्रथमं द्विज ।
कार्मुकं गृह्य वामेन वामणं दक्षिणकेन तु ।। १९ ।।
वैशाखे यदि वा जाते स्थितौ वाप्यथवायतौ ।
गुणान्तन्तु ततः कृत्वा कार्मके प्रियकार्मुकः ।। २० ।।
अधः कटिन्तु धनुषः फलदेशन्तु पत्रिणः ।
धरण्यां स्थापयित्वा त तोलयित्वा तथैव च ।। २१ ।।
भुजाब्यामत्र कुब्जाभ्यां प्रकोष्ठाभ्यां शुभव्रत ।
यस्य वाणं धनुः श्रेष्ठं पुङ्खदेशे च पत्रिणः ।। २२ ।।
विन्यासो धनुषश्चैव द्वादशङ्गुलमन्तरं ।
ज्यया विशिष्टः कर्त्तव्यो नातिहीनो न चाधिकः ।। २३ ।।
निवेश्य कार्मुकं नाभ्यां नितम्बे शरसङ्करं ।
उत्क्षिपेदुत्थितं हस्तमन्त्रेणाक्षिकर्णयोः ।। २४ ।।
पूर्वेण मुष्टिना ग्राह्यस्तनाग्रे दक्षिणे शरः ।
हरणन्तु ततः कृत्वा शीघ्रं पूर्वं प्रसारयेत् ।। २५ ।।
नाभ्यन्तरा नैव वाह्या नोद्र्ध्वका नाधरा तथा ।
न च कुब्जा न चोत्ताना न चला नातिवेष्टिता ।। २६ ।।
समा स्थैर्य्यगुणोपेता पूर्वदण्डमिव स्थिता ।
छादयित्वा ततो लक्ष्यं पूर्व्वेणानेन मुष्टिना ।। २७ ।।
उरसा तूत्थितो यन्ता त्रिकोणविनतस्थितः ।
स्रस्तांशे निश्चलग्रीवो मयूराञ्चितमस्तकः ।। २८ ।।
ललाटनासावक्त्रांसाः कुर्य्युरश्वसमम्भवेत् ।
अन्तरं त्र्यङ्गुलं ज्ञेयं चिवुकस्यांसकस्य च ।। २९ ।।
प्रथमन्त्रयङ्गुलं ज्ञेयं द्वितीये द्व्यङ्गुलं स्मृतं ।
तृतीयेऽङ्गुलमुद्दिष्टमायतञ्चिवुकांसयोः ।। ३० ।।
गृहीत्वा सायकं पुङ्खात्तर्ज्जन्याङ्गुष्ठकेन तु ।
अनामया पुनर्गृह्य तथा मध्यमयापि च ।। ३१ ।।
तावदाकर्षयेद्वेगाद्यावद्वाणः सुपूरितः ।
एवं विधमुपक्रम्य मोक्तव्यं विधिवत् खगं ।। ३२ ।।
दृष्टिमुष्टिहतं लक्ष्यं भिन्द्याद्वाणेन सुव्रत ।
मुक्वा तु पश्चिमं हस्तं क्षिपेद्वेगेन पृष्ठतः ।। ३३ ।।
एतदुच्छेदमिच्छन्ति ज्ञातव्यं हि त्वया द्विज ।
कर्पूरन्तदधः कार्य्यमाकृष्य तु धनुष्मता ।। ३४ ।।
ऊद्र्ध्वं विमुक्तके कार्ये लक्षश्लिष्टन्तु मध्यमं ।
श्रेष्ठं प्रकृष्टं विज्ञेयं धनःशास्त्रविशारदैः ।। ३५ ।।
ज्येष्ठस्तु सायको ज्ञेयो भवेद्द्वादशमुष्टयः ।
एकादश तथा मध्यः कनीयान्दशमुष्टयः ।। ३६ ।।
चतुर्हस्तं धनुः श्रेष्ठं त्रयः साद्र्धन्तु मध्यमं ।
कनीयस्तु त्रयः प्रोक्तं नित्यमेव पदातिनः ।। ३७ ।।
अश्वे रथे गजे श्रेष्ठे तदेव परिकीर्त्तितं ।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये धनुर्वेदो नाम ऊनपञ्जाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।
अग्नि पुराण दो सौ उनचासवाँ अध्याय हिन्दी मे -Agni Purana 249 Chapter In Hindi
दो सौ उनचासवाँ अध्याय - धनुर्वेदका वर्णन - युद्ध और अस्त्रके भेद, आठ प्रकारके स्थान, धनुष, बाणको ग्रहण करने और छोड़नेकी विधि आदिका कथन
अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! अब मैं चार पादोंसे युक्त धनुर्वेदका वर्णन करता हूँ। धनुर्वेद पाँच प्रकारका होता है। रथ, हाथी, घोड़े और पैदल सम्बन्धी योद्धाओं का आश्रय लेकर इसका वर्णन किया गया है। यन्त्रमुक्त, पाणिमुक्त, मुक्त संधारित, अमुक्त और बाहुयुद्ध ये ही धनुर्वेदके पाँच' प्रकार कहे गये हैं। उसमें भी शस्त्र-सम्पत्ति और अस्त्र-सम्पत्ति के भेद से युद्ध दो प्रकार का बताया गया है। ऋजु युद्ध और माया युद्ध के भेद से उस के पुनः दो भेद हो जाते हैं। क्षेपणी (गोफन आदि), धनुष एवं यन्त्र आदिके द्वारा जो अस्त्र फेंका जाता है, उसे 'यन्त्र मुक्त' कहते हैं। (यन्त्रमुक्त अस्त्र का जहाँ अधिक प्रयोग हो, वह युद्ध भी 'यन्त्र मुक्त' ही कहलाता है।) प्रस्तर खण्ड और तोमर यन्त्र आदि को 'पाणि मुक्त' कहा गया है। भाला आदि जो अस्त्र शत्रुपर छोड़ा जाय और फिर उसे हाथ में ले लिया जाय, उसे 'मुक्त संधारित' समझना चाहिये। खड्ग (तलवार आदि) को 'अमुक्त' कहते हैं और जिसमें अस्त्र-शस्त्रोंका प्रयोग न करके मल्लों की भाँति लड़ा जाय, उस युद्ध को 'नियुद्ध' या 'बाहुयुद्ध' कहते हैं॥ १-५॥
युद्धकी इच्छा रखनेवाला पुरुष श्रमको जीते और योग्य पात्रोंका संग्रह करे। जिनमें धनुष बाणका प्रयोग हो, वे युद्ध श्रेष्ठ कहे गये हैं; जिनमें भालोंकी मार हो, वे मध्यम कोटिके हैं। जिनमें खड्गोंसे प्रहार किया जाय, वे निम्नश्रेणीके युद्ध हैं और बाहुयुद्ध सबसे निकृष्ट कोटिके अन्तर्गत हैं। धनुर्वेदमें क्षत्रिय और वैश्य इन दो वर्णोंका भी गुरु ब्राह्मण ही बताया गया है। आपत्तिकालमें स्वयं शिक्षा लेकर शूद्रको भी युद्धका अधिकार प्राप्त है। देश या राष्ट्रमें रहनेवाले वर्णसंकरोंको भी युद्धमें राजाकी सहायता करनी चाहिये ॥ ६-८ ॥
स्थान-वर्णन - अङ्गुष्ठ, गुल्फ, पार्किंगभाग और पैर ये एक साथ रहकर परस्पर सटे हुए हों तो लक्षणके अनुसार इसे 'समपद' नामक स्थान कहते हैं। दोनों पैर बाड़ा अङ्गुलियोंके बलपर स्थित हों, दोनों घुटने स्तब्ध हों तथा दोनों पैरोंके बीचका फैसला तीन बित्ता हो, तो यह 'वैशाख' नामक स्थान कहलाता है। जिसमें दोनों घुटने हंसपंक्तिके आकारकी भाँति दिखायी देते हों और दोनोंमें चार बित्तेका अन्तर हो, वह 'मण्डल' स्थान माना गया है। जिसमें दाहिनी जाँघ और घुटना स्तब्ध (तना हुआ) हो और दोनों पैरोंके बीचका विस्तार पाँच बित्तेका हो, उसे 'आलीढ़ 'नामक स्थान कहा गया है। इसके विपरीत जहाँ बायी जाँघ और घुटना स्तब्ध हों तथा दोनों पैरोंके बीचका विस्तार पाँच बित्ता हो, वह 'प्रत्यालीढ़ 'नामक स्थान है। जहाँ बायाँ पैर टेढ़ा और दाहिना सीधा हो तथा दोनों गुल्फ और पाणिभाग पाँच अङ्गुलके अन्तरपर स्थित हों तो यह बारह अङ्गल बड़ा 'स्थानक' कहा गया है। यदि बायें पैरका घुटना सीधा हो और दाहिना पैर भलीभाँति फैलाया गया हो अथवा दाहिना घुटना कुब्जाकार एवं निश्चल हो या घुटनेके साथ ही दायाँ चरण दण्डाकार विशाल दिखायी दे तो ऐसी स्थितिमें 'विकट' नामक स्थान कहा गया है। इसमें दोनों पैरोंका अन्तर दो हाथ बड़ा होता है। जिसमें दोनों घुटने दुहरे और दोनों पैर उत्तान हो जायें, इस विधानके योगसे जो 'स्थान' बनता है, उसका नाम 'सम्पुट' है। जहाँ कुछ घूमे हुए दोनों पैर समभावसे दण्डके समान विशाल एवं स्थिर दिखायी दें, वहाँ दोनोंके बीचकी लंबाई सोलह अङ्गुलकी ही देखी गयी है। यह स्थानका यथोचित स्वरूप है॥ ९-१८॥
ब्रह्मन् ! योद्धाओंको चाहिये कि पहले बायें हाथमें धनुष और दायें हाथमें बाण लेकर उसे चलायें और उन छोड़े हुए बाणोंको स्वस्तिकाकार करके उनके द्वारा गुरुजनोंको प्रणाम करें। धनुषका प्रेमी योद्धा 'वैशाख' स्थानके सिद्ध हो जानेपर 'स्थिति' (वर्तमान) या 'आयति' (भविष्य) में जब आवश्यकता हो, धनुषपर डोरीको फैलाकर धनुषकी निचली कोटि और बाणके फलदेशको धरतीपर टिकाकर रखे और उसी अवस्थामें मुड़ी हुई दोनों भुजाओं एवं कलाइयोंद्वारा नापे। उत्तम व्रतका पालन करनेवाले वसिष्ठ! उस योद्धाके बाणसे धनुष सर्वथा बड़ा होना चाहिये और मुष्टिके सामने बाणके पुङ्ख तथा धनुषके डंडेमें बारह अङ्गुलका अन्तर होना चाहिये। ऐसी स्थिति हो तो धनुर्दण्डको प्रत्यञ्चासे संयुक्त कर देना चाहिये। वह अधिक छोटा या बड़ा नहीं होना चाहिये ॥ १९-२३ ॥
धनुषको नाभिस्थानमें और बाण-संचयको नितम्बपर रखकर उठे हुए हाथको आँख और कानके बीचमें कर ले तथा उस अवस्थामें बाणको फेंके। पहले बाणको मुट्ठीमें पकड़े और उसे दाहिने स्तनाग्रकी सीधमें रखे। तदनन्तर उसे प्रत्यञ्चापर ले जाकर उस मौर्वी (डोरी या प्रत्यञ्चा)- को खींचकर पूर्णरूपसे फैलावे। प्रत्यञ्चा न तो भीतर हो न बाहर, न ऊँची हो न नीची, न कुबड़ी हो न उत्तान, न चञ्चल हो न अत्यन्त आवेष्टित। वह सम, स्थिरतासे युक्त और दण्डकी भाँति सीधी होनी चाहिये। इस प्रकार पहले इस मुष्टिके द्वारा लक्ष्यको आच्छादित करके बाणको छोड़ना चाहिये ॥ २४-२७ ॥
धनुर्धर योद्धाको यत्नपूर्वक अपनी छाती ऊँची रखनी चाहिये और इस तरह झुककर खड़ा होना चाहिये, जिससे शरीर त्रिकोणाकार जान पड़े। कंधा ढीला, ग्रीवा निश्चल और मस्तक मयूरकी भाँति शोभित हो। ललाट, नासिका, मुख, बाहुमूल और कोहनी ये सम अवस्थामें रहें। ठोड़ी और कंधेमें तीन अङ्गुलका अन्तर समझना चाहिये। पहली बार तीन अङ्गुल, दूसरी बार दो अङ्गुल और तीसरी बार ठोढ़ी तथा कंधेका अन्तर एक ही अङ्गुलका बताया गया है ॥ २८-३० ॥
बाणको पुङ्खकी ओरसे तर्जनी एवं अँगूठेसे पकड़े। फिर मध्यमा एवं अनामिकासे भी पकड़ ले और तबतक वेगपूर्वक खींचता रहे, जबतक पूरा-पूरा बाण धनुषपर न आ जाय। ऐसा उपक्रम करके विधिपूर्वक बाणको छोड़ना चाहिये ॥ ३१-३२॥
सुव्रत! पहले दृष्टि और मुष्टि से आहत हुए लक्ष्यको ही बाणसे विदीर्ण करे। बाणको छोड़कर पिछला हाथ बड़े वेगसे पीठकी ओर ले जाय; क्योंकि ब्रह्मन् ! यह ज्ञात होना चाहिये कि शत्रु इस हाथको काट डालनेकी इच्छा करते हैं। अतः धनुर्धर पुरुषको चाहिये, धनुषको खींचकर कोहनीके नीचे कर ले और बाण छोड़ते समय उसके ऊपर करे। धनुःशास्त्र-विशारद पुरुषोंको यह विशेष- रूपसे जानना चाहिये। कोहनी का आँख से सटाना मध्यम श्रेणी का बचाव है और शत्रुके लक्ष्यसे दूर रखना उत्तम है॥ ३३-३५ ॥
उत्तम श्रेणीका बाण बारह मुष्टियोंके मापका होना चाहिये। ग्यारह मुष्टियोंका 'मध्यम' और दस मुष्टियोंका 'कनिष्ठ' माना गया है। धनुष चार हाथ लंबा हो तो 'उत्तम', साढ़े तीन हाथका हो तो 'मध्यम' और तीन हाथका हो तो 'कनिष्ठ' कहा गया है। पैदल योद्धाके लिये सदा तीन हाथके ही धनुषको ग्रहण करनेका विधान है। घोड़े, रथ और हाथीपर श्रेष्ठ धनुषका ही प्रयोग करनेका विधान किया गयाहै॥ ३६-३७॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'धनुर्वेदका वर्णन' नामक दो सौ उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ २४९॥
click to read👇
[ अग्नि पुराण अध्यायः २३१ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २३२ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २३३ ]
[ अग्नि पुराण अध्यायः २३४ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २३५ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २३६ ]
[ अग्नि पुराण अध्यायः २३७ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २३८ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २३९ ]
[ अग्नि पुराण अध्यायः २४० ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २४१ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २४२ ]
[ अग्नि पुराण अध्यायः २४३ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २४४ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २४५ ]
[ अग्नि पुराण अध्यायः २४६ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २४७ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २४८ ]
[ अग्नि पुराण अध्यायः २४९ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २५० ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २५१ ]
[ अग्नि पुराण अध्यायः २५२ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २५३ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २५४ ]
[ अग्नि पुराण अध्यायः २५५ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २५६ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २५७ ]
[ अग्नि पुराण अध्यायः २५८ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २५९ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २६० ]
टिप्पणियाँ