अग्नि पुराण दो सौ चालीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 240 Chapter !

अग्नि पुराण दो सौ चालीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 240 Chapter !

अग्नि पुराण 240 अध्याय - षाड्गुण्यम् 'वाड्गुष्यकथन'

राम उवाच

मण्डलं चिन्तयेत्मुख्यं राजा द्वादशराजकं ।
अरिर्मित्रमरेर्मित्रं मित्रमित्रमतः परं ॥ १

तथारिमित्रमित्रञ्च विजिगीषोः पुरः स्मृताः ।
पार्ष्णिग्राहः स्मृतः पश्चादाक्रन्दस्तदनन्तरं ॥ २

आसारावनयोश्चैवं विजगीषाश्च मण्डलं ।
अरेश्च विजिगीषोश्च मध्यमो भूम्यनन्तरः ॥ ३

अनुग्रहे संहतयोर्निग्रहे व्यस्तयोः प्रभुः ।
मण्डलाद्वहिरेतेषामुदासीनो बलाधिकः ॥ ४

अनुग्रहे संहतानां व्यस्तानां च बुधे प्रभुः ।
सन्धिञ्च विग्रहं यानमासानदि वदामि ते ॥ ५

बलवद्विग्रहीतेन सन्धिं कुर्याच्छिवाय च ।
कपाल उपहारश्च सन्तानः सङ्गतस्तथा ॥ ६

उपन्यासः प्रतीकारः संयोगः पुरुषान्तरः ।
अदृष्टनर आदिष्ट आत्मापि स उपग्रहः ॥ ७

परिक्रमस्तथा छिन्नस्तथा च परदूषणं ।
स्कन्धोपयेयः सन्धिश्च सन्धयः षोडशेरिताः ॥ ८

परस्परोपकारश्च मैत्रः सम्बन्धकस्तथा।
उपहाराश्च चत्वारस्तेषु मुख्याश्च सन्धयः ॥ ९

बालो वृद्धो दीर्घरोगस्तथा बन्धुवहिष्कृतः ।
मौरुको भीरुकजनो लुब्धो लुब्धजनस्तथा ॥१०

विरक्तप्रकृतिश्चैव विषयेष्वतिशक्तिमान् ।
अनेकचित्तमन्त्रश्च देवब्राह्मणनिन्दकः ॥११

दैवोपहतकश्चैव दैवनिन्दक एव च ।
दुर्भिक्षव्यसनोपेतो बलव्यसनसङ्कुलः ॥१२

स्वदेशस्थो बहुरिपुर्मुक्तः कालेन यश्च ह ।
सत्यधर्मव्यपेतश्च विंशतिः पुरुषा अमी ॥१३

एर्तैः सन्धिं न कुर्वीत विगृह्णीयात्तु केबलं ।
परस्परापकारेण पुंसां भवति विग्रहः ॥१४

आत्मनोऽभ्युदयाकाङ्क्षी पीड्यमानः परेण वा ।
देशकालबलोपेतः प्रारभेतेह विग्रहं ॥१५

राज्यस्त्रीस्थानदेशानां ज्ञानस्य च बलस्य च ।
अपहारी मदो मानः पीडा वैषयिकी तथा ॥१६

ज्ञानात्मशक्तिधर्माणां विघातो दैवमेव च ।
मित्रार्थञ्चापमानश्च तथा बन्धुविनाशनं ॥१७

भूतानुग्रहविच्छेदस्तथा मण्डलदूषणं ।
एकार्थाभिनिवेशत्वमिति विग्रहयोनयः ॥१८

सापत्न्यं वास्तुजं स्त्रीजं वाग्जातमपराधजं ।
वैरं पञ्चविधं प्रोक्तं साधनैः प्रशमन्नयेत् ॥१९

किञ्चित्फलं निष्फलं वा सन्दिग्धफलमेव च ।
तदात्वे दोषजननमायत्याञ्चैव निष्फलं ॥२०

आयत्याञ्च तदात्वे च दोषसञ्जननं तथा ।
अपरिज्ञातवीर्येण परेण स्तोभितोऽपि वा ॥२१

परार्थं स्त्रीनिमित्तञ्च दीर्घकालं द्विजैः सह ।
अकालदैवयुक्तेन बलोद्धतसखेन च ॥२२

तदात्वे फलसंयुक्तमायत्यां फलवर्जितं ।
आयत्यां फलसंयुक्तं तदात्वे निष्फलं तथा ॥२३

इतीमं षोडशविधन्नकुर्यादेव विग्रहं ।
तदात्वायतिसंशुद्धं कर्म राजा सदाचरेत् ॥२४

हृष्टं पुष्टं बलं मत्वा गृह्णीयाद्विपरीतकं ।
मित्रमाक्रन्द आसारो यदा स्युर्दृढभक्तयः ॥२५

परस्य विपरीतञ्च तदा विग्रहमाचरेत् ।
विगृह्य सन्धाय तथा सम्भूयाथ प्रसङ्गतः ॥२६

उपेक्षया च निपुणैर्यानं पञ्चविधं स्मृतं ।
परस्परस्य सामर्थ्यविघातादासनं स्मृतं ॥२७

अरेश्च विजगीषोश्च यानवत्पञ्चधा स्मृतम् ।
बलिनीर्द्विषतोर्मध्ये वाचात्मानं समर्पयन् ॥२८

द्वैधीभावेन तिष्ठेत काकाक्षिवदलक्षितः ।
उभयोरपि सम्पाते सेवेत बलवत्तरं ॥२९

यदा द्वावपि नेच्छेतां संश्लेषं जातसंविदौ ।
तदोपसर्पेत्तच्छत्रुमधिकं वा स्वयं व्रजेत् ॥३०

उच्छिद्यमानो बलिना निरुपायप्रतिक्रियः ।
कुलोद्धतं सत्यमार्यमासेवेत बलोत्कटं ॥३१

तद्दर्शनोपास्तिकता नित्यन्तद्भावभाविता ।
तत्कारितप्रश्रियता वृत्तं संश्रयिणः श्रुतं ॥३२

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये षाड्गुण्यं नाम चत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।

अग्नि पुराण - दो सौ चालीसवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 240 Chapter In Hindi

दो सौ चालीसवाँ अध्याय - द्वादशराजमण्डल-चिन्तन

श्रीराम कहते हैं- राजाको चाहिये कि वह मुख्य द्वादश राजमण्डलका चिन्तन करे। १. अरि, २. मित्र, ३. अरिमित्र, तत्पश्चात् ४. मित्रमित्र तथा ५. अरिमित्रमित्र-ये क्रमशः विजिगीषुके सामनेवाले राजा कहे गये हैं। विजिगीषुके पीछे क्रमशः चार राजा होते हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं- १. पार्षिणग्राह, उसके बाद २. आक्रन्द, तदनन्तर इन दोनोंके आसार अर्थात् ३. पाणिग्राहासार एवं ४. आक्रन्दासार। अरि और विजिगीषु दोनोंके राज्यसे जिसकी सीमा मिलती है, वह राजा 'मध्यम' कहा गया है। अरि और विजिगीषु ये दोनों यदि परस्पर मिले हों- संगठित हो गये हों तो मध्यम राजा कोष और सेना आदिको सहायता देकर इन दोनोंपर अनुग्रह करनेमें समर्थ होता है और यदि ये परस्पर संगठित न हों तो वह मध्यम राजा पृथक् पृथक् या बारी-बारीसे इन दोनोंका वध करनेमें समर्थ होता है। इन सबके मण्डलसे बाहर जो अधिक बलशाली या अधिक सैनिकशक्तिसे सम्पन्न राजा है, उसकी 'उदासीन' संज्ञा है। विजिगीषु, अरि और मध्यम- ये परस्पर संगठित हों तो उदासीन राजा इनपर अनुग्रहमात्र कर सकता है और यदि ये संगठित न होकर पृथक् पृथक् हों तो वह 'उदासीन' इन सबका वध कर डालनेमें समर्थ हो जाता है॥ १-४ ॥ 

लक्ष्मण ! अब मैं तुम्हें संधि, विग्रह, यान और आसन आदिके विषयमें बता रहा हूँ। किसी बलवान् राजाके साथ युद्ध ठन जानेपर यदि अपने पक्षकी अवस्था शोचनीय हो तो अपने कल्याणके लिये संधि कर लेनी चाहिये। १. कपाल, २. उपहार, ३. संतान, ४. संगत, ५. उपन्यास, ६. प्रतीकार, ७. संयोग, ८. पुरुषान्तर ९. अदृष्टनर, १०. आदिष्ट, ११. आत्मामिष, १२.उपग्रह, १३. परिक्रय, १४. उच्छिन्न, १५. परदूषण तथा १६. स्कन्धोपनेय- ये संधिके सोलह भेद बतलाये गये हैं। जिसके साथ संधि की जाती है, वह 'संधेय' कहलाता है। उसके दो भेद हैं- अभियोक्ता और अनभियोक्ता। उक्त संधियोंमेंसे उपन्यास, प्रतीकार और संयोग ये तीन संधियाँ अनभियोक्ता (अनाक्रमणकारी) के प्रति करनी चाहिये। शेष सभी अभियोक्ता (आक्रमणकारी) के प्रति कर्तव्य हैं ॥ ५-८॥

परस्परोपकार, मैत्र, सम्बन्धज तथा उपहार ये ही चार संधिके भेद जानने चाहिये ऐसा अन्य लोगोंका मत है ॥ ९ ॥

बालक, वृद्ध, चिरकालका रोगी, भाई बन्धुओंसे बहिष्कृत, डरपोक, भीरु सैनिकोंवाला, लोभी-लालची सेवकोंसे घिरा हुआ, अमात्य आदि प्रकृतियोंके अनुरागसे वञ्चित, अत्यन्त विषयासक्त, अस्थिरचित्त और अनेक लोगोंके सामने मन्त्र प्रकट करनेवाला, देवताओं और ब्राह्मणोंका निन्दक, दैवका मारा हुआ, दैवको ही सम्पत्ति और विपत्तिका कारण मानकर स्वयं उद्योग न करनेवाला, जिसके ऊपर दुर्भिक्षका संकट आया हो वह, जिसकी सेना कैद कर ली गयी हो अथवा शत्रुओंसे घिर गयी हो वह, अयोग्य देशमें स्थित (अपनी सेनाकी पहुँचसे बाहरके स्थानमें विद्यमान), बहुत-से शत्रुओंसे युक्त, जिसने अपनी सेनाको युद्धके योग्य कालमें नहीं नियुक्त किया है वह, तथा सत्य और धर्मसे भ्रष्ट- ये बीस पुरुष ऐसे हैं जिनके साथ संधि न करे, केवल विग्रह करे ॥ १०-१३॥

एक-दूसरेके अपकारसे मनुष्योंमें विग्रह (कलह या युद्ध) होता है। राजा अपने अभ्युदयकी इच्छासे अथवा शत्रुसे पीड़ित होनेपर यदि देश-कालकी अनुकूलता और सैनिक शक्तिसे सम्पन्न हो तो विग्रह प्रारम्भ करे ॥ १४-१५ ॥

सप्ताङ्ग राज्य, स्त्री (सीता आदि-जैसी असाधारण देवी), जनपदके स्थानविशेष, राष्ट्रके एक भाग, ज्ञानदाता उपाध्याय आदि और सेना - इनमेंसे किसीका भी अपहरण विग्रहका कारण है (इस प्रकार छः हेतु बताये गये)। इनके सिवा मद (राजा दम्भोद्भव आदिकी भाँति शौर्यादिजनित दर्प), मान (रावण आदिकी भाँति अहंकार), जनपदकी पीड़ा (जनपद-निवासियोंका सताया जाना), ज्ञानविघात (शिक्षा-संस्थाओं अथवा ज्ञानदाता गुरुओंका विनाश), अर्थविधात (भूमि, हिरण्य आदिको क्षति पहुँचाना), शक्तिविघात (प्रभुशक्ति, मन्त्रशक्ति और उत्साहशक्तियोंका अपक्षय), धर्मविघात, दैव (प्रारब्धजनित दुरवस्था), सुग्रीव आदि-जैसे मित्रोंके प्रयोजनकी सिद्धि, माननीय जनोंका अपमान, बन्धुवर्गका विनाश, भूतानुग्रहविच्छेद (प्राणियोंको दिये गये अभयदानका खण्डन - जैसे एकने किसी वनमें वहाँके जन्तुओंको अभय देनेके लिये मृगयाकी मनाही कर दी, किंतु दूसरा उस नियमको तोड़कर शिकार खेलने आ गया यही 'भूतानुग्रहविच्छेद' है), मण्डलदूषण (द्वादशराजमण्डलमेंसे किसीको विजिगीषुके विरुद्ध उभाड़ना), एकार्थाभिनिवेशित्व (जो भूमि या स्त्री आदि अर्थ एकको अभीष्ट है, उसीको लेनेके लिये दूसरेका भी दुराग्रह) ये बीस विग्रहके कारण हैं ॥ १६-१८ ॥ 

सापन्न (रावण और विभीषणकी भाँति सौतेले भाइयोंका वैमनस्य), वास्तुज (भूमि, सुवर्ण आदिके हरणसे होनेवाला अमर्ष), स्त्रीके अपहरणसे होनेवाला रोष, कटुवचनजनित क्रोध तथा अपराधजनित प्रतिशोधकी भावना- ये पाँच प्रकारके वैर अन्य विद्वानोंने बताये हैं। ॥ १९॥ 

(१) जिस विग्रहसे बहुत कम लाभ होनेवाला हो, (२) जो निष्फल हो, (३) जिससे फलप्राप्तिमें संदेह हो. (४) जो तत्काल दोषजनक (विग्रहके समय मित्रादिके साथ विरोध पैदा करनेवाला), (५) भविष्यकालमें भी निष्फल, (६) वर्तमान और भविष्यमें भी दोषजनक हो, (७) जो अज्ञात बल-पराक्रमवाले शत्रुके साथ किया जाय एवं (८) दूसरोंके द्वारा उभाड़ा गया हो, (९) जो दूसरोंको स्वार्थसिद्धिके लिये किंवा, (१०) किसी साधारण स्त्रीको पानेके लिये किया जा रहा हो, (११) जिसके दीर्घकालतक चलते रहनेकी सम्भावना हो, (१२) जो श्रेष्ठ द्विजोंके साथ छेड़ा गया हो. (१३) जो वरदान आदि पाकर अकस्मात् दैवबलसे सम्पन्न हुए पुरुषके साथ छिड़नेवाला हो, (१४) जिसके अधिक बलशाली मित्र हों. ऐसे पुरुषके साथ जो छिड़नेवाला हो, (१५) जो वर्तमान कालमें फलद, किंतु भविष्यमें निष्फल हो तथा (१६) जो भविष्यमें फलद किंतु वर्तमानमें निष्फल हो-इन सोलह प्रकारके विग्रहोंमें कभी हाथ न डाले। जो वर्तमान और भविष्यमें परिशुद्ध पूर्णतः लाभदायक हो, वही विग्रह राजाको छेड़ना चाहिये ॥ २०-२४ ॥ राजा जब अच्छी तरह समझ ले कि मेरी सेना हृष्ट-पुष्ट अर्थात् उत्साह और शक्तिसे सम्पन्न है तथा शत्रुकी अवस्था इसके विपरीत है, तब वह उसका निग्रह करनेके लिये विग्रह आरम्भ करे। जब मित्र, आक्रन्द तथा आक्रन्दासार- इन तीनोंकी राजाके प्रति दृढ्‌भक्ति हो तथा शत्रुके मित्र आदि विपरीत स्थितिमें हों अर्थात् उसके प्रति भक्तिभाव न रखते हों, तब उसके साथ विग्रह आरम्भ करे ॥ २५ ॥

(जिसके बल एवं पराक्रम उच्च कोटिके हों, जो विजिगीषुके गुणोंसे सम्पन्न हो और विजयकी अभिलाषा रखता हो तथा जिसकी अमात्यादि प्रकृति उसके सद्‌गुणोंसे उसमें अनुरक्त हो, ऐसे राजाका युद्धके लिये यात्रा करना 'यान' कहलाता है।) विगृह्वागमन, संधायगमन, सम्भूयगमन, प्रसङ्गतः गमन तथा उपेक्षापूर्वक गमन- ये नीतिज्ञ पुरुषोंद्वारा यानके पाँच भेद कहे गये हैं ॥ २६ ॥

जब विजिगीषु और शत्रु-दोनों एक-दूसरेकी शक्तिका विघात न कर सकनेके कारण आक्रमण न करके बैठ रहें तो इसे 'आसन' कहा जाता है; इसके भी 'यान 'की ही भाँति पाँच भेद होते हैं-१. विगृह्य आसन, २. संधाय आसन, ३. सम्भूय आसन, ४. प्रसङ्गासन तथा ५. उपेक्षासन ॥ २७॥

दो बलवान् शत्रुओंके बीचमें पड़कर वाणीद्वारा दोनोंको ही आत्मसमर्पण करे 'मैं और मेरा! राज्य दोनोंके ही हैं', यह संदेश दोनोंके ही पास गुप्तरूपसे भेजे और स्वयं दुर्गमें छिपा रहे। यह 'द्वैधीभाव' की नीति है। जब उक्त दोनों शत्रु पहलेसे ही संगठित होकर आक्रमण करते हों, तब जो उनमें अधिक बलशाली हो, उसकी शरण ले। यदि वे दोनों शत्रु परस्पर मन्त्रणा करके उसके साथ किसी भी शर्तपर संधि न करना चाहते हों, तब विजिगीषु उन दोनोंके ही किसी शत्रुका आश्रय ले अथवा किसी भी अधिक शक्तिशाली राजाकी शरण लेकर आत्मरक्षा करे ॥ २८-३० ॥

यदि विजिगीषुपर किसी बलवान् शत्रुका आक्रमण हो और वह उच्छिन्न होने लगे तथा किसी उपायसे उस संकटका निवारण करना उसके लिये असम्भव हो जाय, तब वह किसी कुलीन, सत्यवादी, सदाचारी तथा शत्रुको अपेक्षा अधिक बलशाली राजाकी शरण ले। उस आश्रयदाताके दर्शनके लिये उसकी आराधना करना, सदा उसके अभिप्रायके अनुकूल चलना, उसीके लिये कार्य करना और सदा उसके प्रति आदरका भाव रखना यह आश्रय लेनेवालेका व्यवहार बतलाया गया है॥ ३१-३२॥

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'वाड्गुष्यकथन' नामक दो सौ चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ २४०॥

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