अग्नि पुराण दो सौ सैंतीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 237 Chapter !

अग्नि पुराण दो सौ सैंतीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 237 Chapter !

अग्नि पुराण 237 अध्याय - श्री स्तोत्रम्

पुष्कर उवाच

राज्यलक्ष्मीस्थिरत्वाय यथेन्द्रेण पुरा श्रियः ।
स्तुतिः कृता तथा राजा जयार्थं स्तुतिमाचरेत् ।। १ ।।

इन्द्र उवाच ।

नमस्ये सर्वलोकानां जननीमब्धिसम्भवां ।
श्रियमुन्निद्रपद्माक्षीं विष्णुवक्षःस्थलस्थितां ।। २ ।।

त्वं सिद्धिस्त्वं स्वधा स्वाहा सुधा त्वं लोकपावनि ।
सन्ध्या रात्रिः प्रभा भूतिर्म्मेधा श्रद्धा सरस्वती ।। ३ ।।

यज्ञविद्या महाविद्या गुह्यविद्या च शोभने ।
आत्मविद्या च देवि त्वं विमुक्तिफलदायिनी ।। ४ ।।

आन्वीक्षिकी त्रयी वार्त्ता दण्डनीतिस्त्वमेव च ।
सौम्या सौम्यैर्जगद्रूपैस्त्वयैतद्देवि पूरितं ।। ५ ।।

का त्वन्या त्वामृते देवि सर्वयज्ञमयं वपुः ।
अध्यास्ते देव देवस्य योगिचिन्त्यं गदाभृतः ।। ६ ।।

त्वया देवि परित्यक्तं सकलं भुवनत्रयं ।
विनष्टप्रायमभवत् त्वयेदानीं समेधितं ।। ७ ।।

दाराः पुत्रास्तथागारं सुहृद्धान्यघनादिकं ।
भवत्येतन्महाभागो नित्यं त्वद्वीक्षणान् नृणां ।। ८ ।।

शरीरारोग्यमैश्वर्यमरिपक्षक्षयः सुखं ।
देवि त्वद्‌दृष्टिदृष्टानां पुरुषाणां न दुर्ल्लभं ।। ९ ।।

त्वमम्बा सर्वभूतानां देवदेवो हरिः पिता ।
त्वयैतद्विष्णुना चाम्ब जगद्व्याप्तं चराचरं ।। १० ।।

मानं कोषं तथा कोष्ठं मा गृहं मा परिच्छदं ।
मा शरीरं कलत्रञ्च त्यजेथाः सर्व्वपावनि ।। ११ ।।

मा पुत्रान्मासुहृद्वर्गान्मा पशून्मा विभूषणं ।
मम देवस्य विष्णोर्वक्षःस्थलालये ।। १२ ।।

सत्त्वेन सत्यशौचाभ्यां तथा शीलादिभिर्गुणैः ।
त्यज्यन्ते ते नरा सद्यः सन्त्यक्ता ये त्वयामले ।। १३ ।।

त्वयावलोकिताः सद्यः शीलाद्यैरखिलैर्गुणेः ।
कुलैश्वर्य्यैश्च युज्यन्ते पुरुषा निर्गणा अपि ।। १४ ।।

सश्लाघ्यः स गुणी धन्यः स कुलीनः स बुद्धिमान् ।
स शूरः स च विक्रान्तो यस्त्वया देवि वीक्षितः ।। १५ ।।

सद्यो वैगुण्यमायान्ति शीलाद्याः सकला गुणाः ।
परामुङ्‌मुखी जगद्धात्री यस्य त्वं विष्णुवल्लभे ।। १६ ।।

न ते वर्णयितुं शक्ता गुणान् जिह्वापि वेधसः ।
प्रसीद देवि पद्माक्षि नास्मांस्त्याक्षईः कदाचन ।। १७ ।।

पुष्कर उवाच ।

एवं स्तुता ददौ श्रीश्च वरमिन्द्राय चेप्सितं ।
सुस्थिरत्वं चराज्यस्य सङ्‌ग्रामविजयादिकं ।। १८ ।।

स्वस्तोत्रपाठश्रवणकर्तॄणां भुक्तिमुक्तिदं ।
श्रीस्तोत्रं तस्मात् पठेच्च श्रृणुयान्नरः ।। १९ ।।

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये श्रीस्तोत्रं नाम सप्तत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।

अग्नि पुराण - दो सौ सैंतीसवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 237 Chapter!-In Hindi

दो सौ सैंतीसवाँ अध्याय - लक्ष्मीस्तोत्र और उसका फल

पुष्कर कहते हैं- परशुरामजी! पूर्वकालमें इन्द्रने राज्यलक्ष्मीकी स्थिरताके लिये जिस प्रकार भगवती लक्ष्मीकी स्तुति की थी, उसी प्रकार राजा भी अपनी विजयके लिये उनका स्तवन करे ॥ १ ॥

इन्द्र बोले- जो सम्पूर्ण लोकोंकी जननी हैं, समुद्रसे जिनका आविर्भाव हुआ है, जिनके नेत्र खिले हुए कमलके समान शोभायमान हैं तथा जो भगवान् विष्णुके वक्षःस्थलमें विराजमान हैं, उन लक्ष्मीदेवीको मैं प्रणाम करता हूँ। जगत्‌को पवित्र करनेवाली देवि ! तुम्हीं सिद्धि हो और तुम्हीं स्वधा, स्वाहा, सुधा, संध्या, रात्रि, प्रभा, भूति, मेधा, श्रद्धा और सरस्वती हो। शोभामयी देवि। तुम्हीं यज्ञविद्या, महाविद्या, गुह्यविद्या तथा मोक्षरूप फल प्रदान करनेवाली आत्मविद्या हो। आन्वीक्षिकी (दर्शनशास्त्र), त्रयी (ऋक्, साम, यजु), वार्ता (जीविका-प्रधान कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य कर्म) तथा दण्डनीति भी तुम्हीं हो। देवि ! तुम स्वयं सौम्यस्वरूपवाली (सुन्दरी) हो; अतः तुमसे व्याप्त होनेके कारण इस जगत्‌का रूप भी सौम्य - मनोहर दिखायी देता है। भगवति! तुम्हारे सिवा दूसरी कौन स्त्री है, जो कौमोदकी गदा धारण करनेवाले देवाधिदेव भगवान् विष्णुके अखिल यज्ञमय विग्रहको, जिसका योगीलोग चिन्तन करते हैं, अपना निवासस्थान बना सके। देवि ! तुम्हारे त्याग देनेसे समस्त त्रिलोकी नष्टप्राय हो गयी थी; किंतु इस समय पुनः तुम्हारा ही सहारा पाकर यह समृद्धिपूर्ण दिखायी देती है। महाभागे ! तुम्हारी कृपादृष्टिसे ही मनुष्योंको सदा स्त्री, पुत्र, गृह, मित्र और धन-धान्य आदिकी प्राप्ति होती है। देवि! जिन पुरुषोंपर आपकी दयादृष्टि पड़ जाती है, उन्हें शरीरकी नीरोगता, ऐश्वर्य, शत्रुपक्षकी हानि और सब प्रकारके सुख-कुछ भी दुर्लभ नहीं हैं। मातः! तुम सम्पूर्ण भूतोंकी जननी और देवाधिदेव विष्णु सबके पिता हैं। 

तुमने और भगवान् विष्णुने इस चराचर जगत्‌को व्याप्त कर रखा है। सबको पवित्र करनेवाली देवि! तुम मेरी मान-प्रतिष्ठा, खजाना, अन्न भण्डार, गृह, साज-सामान, शरीर और स्त्री-किसीका भी त्याग न करो। भगवान् विष्णुके वक्षःस्थलमें वास करनेवाली लक्ष्मी। मेरे पुत्र, मित्रवर्ग, पशु तथा आभूषणोंको भी न त्यागो। विमलस्वरूपा देवि! जिन मनुष्योंको तुम त्याग देती हो, उन्हें सत्य, समता, शौच तथा शील आदि सद्‌गुण भी तत्काल ही छोड़ देते हैं। तुम्हारी कृपादृष्टि पड़नेपर गुणहीन मनुष्य भी तुरंत ही शील आदि सम्पूर्ण उत्तम गुणों तथा पीढ़ियोंतक बने रहनेवाले ऐश्वर्यसे युक्त हो जाते हैं। देवि। जिसको तुमने अपनी दयादृष्टिसे एक बार देख लिया, वही श्लाध्य (प्रशंसनीय), गुणवान्, धन्यवादका पात्र, कुलीन, बुद्धिमान्, शूर और पराक्रमी हो जाता है। विष्णुप्रिये! तुम जगत्‌की माता हो। जिसकी ओरसे तुम मुँह फेर लेती हो, उसके शील आदि सभी गुण तत्काल दुर्गुणके रूपमें बदल जाते हैं। कमलके समान नेत्रोंवाली देवि! ब्रह्माजीको जिह्वा भी तुम्हारे गुणोंका वर्णन करनेमें समर्थ नहीं हो सकती। मुझपर प्रसन्न हो जाओ तथा कभी भी मेरा परित्याग न करो ॥ २-१७॥

पुष्कर कहते हैं- इन्द्रके इस प्रकार स्तवन करनेपर भगवती लक्ष्मीने उन्हें राज्यकी स्थिरता और संग्राममें विजय आदिका अभीष्ट वरदान दिया। साथ ही अपने स्तोत्रका पाठ या श्रवण करनेवाले पुरुषोंके लिये भी उन्होंने भोग तथा मोक्ष मिलनेके लिये वर प्रदान किया। अतः मनुष्यको चाहिये कि सदा ही लक्ष्मीके इस स्तोत्रका पाठ और श्रवण करे ॥ १८-१९ ॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'श्रीस्तोत्रका वर्णन' नामक दो सी सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २३७॥

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