अग्नि पुराण दो सौ चौबीसवाँ अध्याय ! Agni Purana 224 Chapter !
अग्नि पुराण 224 अध्याय - राजधर्मका कथन
पुष्कर उवाचवक्ष्येऽन्तः पुरचिन्तां च धर्माद्याः पुरुषार्थकाः ।
अन्योन्यरक्षया तेषां सेवा कार्या स्त्रिया नृपैः ।। १ ।।
धर्ममूलोऽर्थविटपस्तथा कर्म्मफलो महान् ।
त्रिवर्गपादपस्तत्र रक्षया फलभाग् भवेत् ।। २ ।।
कामाधीनाः स्त्रियो राम तदर्थं रत्नसङ्ग्रहः ।
सेव्यास्ता नातिसेव्यास्च भूभुजा विषयैषिणा ।। ३ ।।
आहारो मैथुनन्निद्रा सेव्या नाति हि रुग् भवेत् ।
मञअचाधिकारे कर्त्तव्याः स्त्रियः सेव्याः स्वरामिकाः ।। ४ ।।
दुष्टान्याचरते या तु नाभिनन्दति तत्कथां।
ऐक्यं द्विषद्भिर्व्रजति गर्वं वहति चोद्धता ।। ५ ।।
चुम्बिता मार्ष्टि वदनं दत्तन्न बहु मन्यते ।
स्वपित्यादौ प्रसुप्तापि तथा पश्चाद्विबुध्यते ।। ६ ।।
स्पृष्टा धुनोति गात्राणि गात्रञ्च विरुणाद्धि या ।
ईषच्छृणोति वाक्यानि प्रियाण्यपि पराङ्मुखी ।। ७ ।।
न पश्यत्यग्रदत्तन्तु जघनञ्च निगूहति ।
दृष्टे विवर्णवदना मित्रेष्वथ पराङ्मुखी ।। ८ ।।
तत्कामितासु च स्त्रीसु मध्यस्थेव च लक्ष्यते ।
ज्ञातमण्डनकालापि न करोति च मण्डनं ।। ९ ।।
या सा विरक्ता तान्त्यक्त्वा सानुरागां स्त्रियम्भजेत् ।
दृष्ट्वैव हृष्टा भवति वीक्षिते च पराङ्मुखी ।। १० ।।
दृश्यमाना तथान्यत्र दृष्टिं क्षिपति चञ्चलां ।
तथाप्युपावर्त्तयितुं नैव शक्रोत्यशेषतः ।। ११ ।।
विवृणीति तथाह्गानि स्वस्या गुह्यानि भार्गव ।
गहितञ्च तथैवाङ्गं प्रयत्नेन निगूहति ।। १२ ।।
तद्दर्शने च कुरुते वालालिड्गनचुम्बनं ।
आभाष्यमाणा भवति सत्यवाक्या तथैव च ।। १३ ।।
स्पृष्टा पुलकितैरङ्गैः स्वेदेनैव च भज्यते ।
करोति च तथा राम सुलभद्रव्ययाचनं ।। १४ ।।
ततः स्वल्पमपि प्राप्य करोति परमां मुदं ।
नामसङ्कीर्त्तनादेव मुदिता बहु मन्यते ।। १५ ।।
करकजाङ्काङ्कितान्यस्य फलानि प्रेषयत्यपि ।
तत्प्रेषितञ्च हृदये विन्यसत्यपि चादरात् ।। १६ ।।
आलिङ्गनैश्च गात्राणि लिम्पतीवामृतेन या ।
सुप्ते स्वपित्यथादौ च तथा तस्य विबुध्यते ।। १७ ।।
उरू स्पृशति चात्यर्थं सुप्तञ्चैनं विबुध्यते ।
कपित्थचूर्णयोगेन तथा दध्नः स्रजा तथा ।। १८ ।।
घृतं सुगन्धि भवति दुग्धैः क्षिप्तैस्तथा यवैः ।
भोज्यस्य कल्पनैवं स्याद्गन्धमुक्तिः प्रदर्श्यते ।। १९ ।।
शौचमाचमनं राम तथैव च विरेचनं ।
भावना चैव पाकश्च बोधनं धूपनन्तथा ।। २० ।।
वासनञ्चैव निर्द्दिष्टं कर्म्माष्टकमिदं स्मृतं ।
कपित्थविल्वजम्वाम्रकरवीरकपल्लबैः ।। २१ ।।
कृत्वोदकन्तु यद्द्रव्यं शौवितं शौचनन्तु तत् ।
तेषामभावे शौचन्तु मृगदर्पाम्भसा भवेत् ।। २२ ।।
नखं कुष्ठं घनं मांसी स्पृक्कशैलेयजं जलं ।
तथैव कुङ्कुमं लाक्षा चन्दनागुरुनीरदं ।। २३ ।।
सरलं देवकाष्ठञ्च कर्पूरं कान्तया सह ।
बालः कुन्दुरुकश्चैव गुग्गुलुः श्रीनिवासकः ।। २४ ।।
सह सर्जरसेनैवं धूपद्रव्यैकविंशतिः ।
धूपद्रव्यगणादस्मादेकविंशाद्यथेच्छया ।। २५ ।।
द्वे द्वे द्रव्ये समादाय सर्जभागैर्न्नियोजयेत् ।
नखपिण्याकमलयैः संयोज्य मधुना तथा ।। २६ ।।
धूपयोगा भवन्तीह यथावत् स्वेच्छया कृताः ।
त्वचन्नाडीं फलन्तैलं कुङ्कुमं ग्रन्थिपर्वकं ।। २७ ।।
शैलेयन्तगरं क्रान्तां चोलङ्कर्पूरमेव च ।
मासीं सुराञ्च कुष्ठञ्च स्नानद्रव्याणि निर्दिशेत् ।। २८ ।।
एतेभ्यस्तु समादाय द्रव्यत्रयमथेच्छया ।
मृगदर्पयुतं स्नानं कार्यं कन्दर्पवर्द्धनं ।। २९ ।।
त्वङ्मुरानलदैस्तुल्यैर्वालकार्द्धसमायुतैः।
स्नानमुत्पलगन्धि स्यात् सतैलं कुङ्कुमायते ।। ३० ।।
जातीपुष्पसुगन्धि स्यात् तगरार्द्धेन योजितं ।
सद्ध्यामकं स्याद्वकुलैस्तुल्यगन्धि मनोहरं ।। ३१ ।।
मञ्जिष्ठान्तगरं चोलं त्वचं चव्याघ्रनखं नखं ।
गनधपत्रञ्च विन्यस्य गन्धतैलं भवेच्छुभं ।। ३२ ।।
तैलं निपीडितं राम तिलैः पुष्पाधिवासितैः ।
वासनात् पुष्पसट्टशं गन्धेन तु भवेद् ध्रुवं ।। ३३ ।।
एलालवङ्गकक्कोलजातीफलनिशाकराः ।
जातीपत्रिकया सार्द्धं स्वतन्त्रा मुखवासकाः ।। ३४ ।।
कर्पूरं कुङ्कुमं कान्ता मृगदर्पं हरेणुकं ।
कक्कोलैलालवङ्गञ्च जाती कोशकमेव च ।। ३५ ।।
त्वक्पत्रं त्रुटिमुस्तौ च लतां कस्तूरिकं तथा ।
कण्टकानि लवङ्गस्य फलपत्रे च जातितः ।। ३६ ।।
कटुकञ्च फलं राम कार्षिकाण्युपकल्पयेत् ।
तच्चूर्णे खदिरं सारं दद्यात्तुर्यं तु वासित ।। ३७ ।।
सहकाररसेनास्मात् कर्त्तव्या गुटिकाः शुभाः ।
मुखे न्यस्ताः सुगन्धास्ता मुखरोगविनाशनाः ।। ३८ ।।
पूगं प्रक्षालितं सम्यक् पञ्चपल्लववारिणा ।
शक्त्या तु गुटिकाद्रव्यैर्वासितं मुखवासकं ।। ३९ ।।
कटुकं दन्तकाष्ठञ्च गोमूत्रे वासितं त्र्यहं ।
कृतञ्च पूगवद्राम मुखसौगन्धिकारकं ।। ४० ।।
त्वक्पथ्ययोः समावंशौ शशिभागार्द्धसंयुतौ ।
नागवल्लीसमो भाति मुखवासो मनोहरः ।। ४१ ।।
एवं कुर्य्यात् सदा स्त्रीणं रक्षणं पृथिवीपतिः ।
न चासां विश्वसेज्जातु पुत्रमातुर्विशेषतः ।। ४२ ।।
न स्वपेत् स्त्रीगृहे रात्रौ विश्वासः कृत्रिमो भवेत् ।
इत्यादिम्हापुराणे आग्नेये स्त्रीरक्षादिकामशास्त्रं नाम चतुर्विंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।
अग्नि पुराण - दो सौ चौबीसवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 224 Chapter!-In Hindi
दो सौ चौबीसवाँ अध्याय - 'राजधर्मका कथन'
अन्तःपुरके सम्बन्धमें राजाके कत्र्त्तव्य; स्त्रीकी विरक्ति और अनुरक्ति की परीक्षा तथा सुगन्धित पदार्थों के सेवन का प्रकार। पुष्कर कहते हैं- अब मैं अन्तः पुरके विषयमें विचार करूँगा। धर्म, अर्थ और काम- ये तीन पुरुषार्थ 'त्रिवर्ग' कहलाते हैं। इनकी एक-दूसरेके द्वारा रक्षा करते हुए स्त्रीसहित राजाओंको इनका सेवन करना चाहिये। 'त्रिवर्ग' एक महान् वृक्षके समान है। 'धर्म' उसकी जड़, 'अर्थ' उसकी शाखाएँ और 'काम' उसका फल है। मूलसहित उस वृक्षकी रक्षा करनेसे ही राजा फलका भागी हो सकता है। राम! स्त्रियाँ कामके अधीन होती हैं, उन्हींक लिये रत्नोंका संग्रह होता है। विषयसुखकी इच्छा रखनेवाले राजाको स्त्रियोंका सेवन करना चाहिये, परंतु अधिक मात्रामें नहीं। आहार, मैथुन और निद्रा- इनका अधिक सेवन निषिद्ध है; क्योंकि इनसे रोग उत्पन्न होता है। उन्हीं स्त्रियोंका सेवन करे अथवा पलंगपर बैठावे, जो अपनेमें अनुराग रखने वाली हों।
परंतु जिस स्त्रीका आचरण दुष्ट हो, जो अपने स्वामीकी चर्चा भी पसंद नहीं करती, बल्कि उनके शत्रुओंसे एकता स्थापित करती है, उद्दण्डतापूर्वक गर्व धारण किये रहती है, चुम्बन करनेपर अपना मुँह पोंछती या धोती है, स्वामीकी दी हुई वस्तुका अधिक आदर नहीं करती, पतिके पहले सोती है, पहले सोकर भी उनके जागनेके बाद ही जागती है, जो स्पर्श करनेपर अपने शरीरको कैपाने लगती है, एक एक अङ्गपर अवरोध उपस्थित करती है, उनके प्रिय वचनको भी बहुत कम सुनती है और सदा उनसे पराङ्मुख रहती है, सामने जाकर कोई वस्तु दी जाय, तो उसपर दृष्टि नहीं डालती, अपने जघन (कटिके अग्रभाग) को अत्यन्त छिपाने पतिके स्पर्शसे बचानेकी चेष्टा करती है, स्वामीको देखते ही जिसका मुँह उतर जाता है, जो उनके मित्रों से भी विमुख रहती है, वे जिन-जिन स्त्रियों के प्रति अनुराग रखते हैं,
उन सबकी ओरसे जो मध्यस्थ (न अनुरक्त न विरक्त) दिखायी देती है तथा जो शृङ्गारका समय उपस्थित जानकर भी शृङ्गार-धारण नहीं करती, वह स्त्री 'विरक्त' है। उसका परित्याग करके अनुरागिणी स्त्रीका सेवन करना चाहिये। अनुरागवती स्त्री स्वामी को देखते ही प्रसन्नतासे खिल उठती है दूसरी ओर मुख किये होनेपर भी कनखियोंसे उनकी ओर देखा करती है, स्वामीको निहारते देख अपनी चञ्चल दृष्टि अन्यत्र हटा ले जाती है, परंतु पूरी तरह हटा नहीं पाती तथा भृगुनन्दन ! अपने गुप्त अङ्गोंको भी वह कभी-कभी व्यक्त कर देती है और शरीरका जो अंश सुन्दर नहीं है, उसे प्रयत्नपूर्वक छिपाया करती है, स्वामीके देखते-देखते छोटे बच्चेका आलिङ्गन और चुम्बन करने लगती है, बातचीतमें भाग लेती और सत्य बोलती है, स्वामीका स्पर्श पाकर जिसके अंगोंमें रोमाञ्च और स्वेद प्रकट हो जाते हैं, जो उनसे अत्यन्त सुलभ वस्तु ही माँगती है और स्वामीसे थोड़ा पाकर भी अधिक प्रसन्नता प्रकट करती है, उनका नाम लेते ही आनन्दविभोर हो जाती तथा विशेष आदर करती है, स्वामीके पास अपनी अंगुलियोंके चिह्नसे युक्त फल भेजा करती है तथा स्वामीकी भेजी हुई कोई वस्तु पाकर उसे आदरपूर्वक छातीसे लगा लेती है, अपने आलिंगनोंद्वारा मानो स्वामीके शरीरपर अमृतका लेप कर देती है, स्वामीके सो जानेपर सोती और पहले ही जग जाती है तथा स्वामीके ऊरुओंका स्पर्श करके उन्हें सोतेसे जगाती है ॥ १-१७॥
राम! दहीकी मलाईके साथ थोड़ा-सा कपित्थ (कैथ) का चूर्ण मिला देनेसे जो घी तैयार होता है, उसकी गन्ध उत्तम होती है। घी, दूध आदिके साथ जौ, गेहूँ आदिके आटेका मेल होनेसे उत्तम खाद्य पदार्थ तैयार होता है। अब भिन्न-भिन्न द्रव्योंमें गन्ध छोड़नेका प्रकार दिखलाया जाता है। शौच, आचमन, विरेचन, भावना, पाक, बोधन, धूपन और वासन ये आठ प्रकारके कर्म बतलाये गये हैं। कपित्थ, बिल्व, जामुन, आम और करवीरके पल्लवोंसे जलको शुद्ध करके उसके द्वारा जो किसी द्रव्यको धोकर या अभिषिक्त करके पवित्र किया जाता है, वह उस द्रव्यका 'शौचन' (शोधन अथवा पवित्रीकरण) कहलाता है। इन पल्लवोंके अभावमें कस्तूरीमिश्रित जलके द्वारा द्रव्योंकी शुद्धि होती है। नख, कूट, घन (नागरमोथा), जटामांसी, स्पृक्क, शैलेयज (शिलाजीत), जल, कुमकुम (केसर), लाक्षा (लाह), चन्दन, अगुरु, नीरद, सरल, देवदारु, कपूर, कान्ता, वाल (सुगन्धबाला), कुन्दुरुक, गुग्गुल, श्रीनिवास और करायल-ये धूपके इक्कीस द्रव्य हैं। इन इक्कीस धूप-द्रव्योंमेंसे अपनी इच्छाके अनुसार दो-दो द्रव्य लेकर उनमें करायल मिलावे। फिर सबमें नख (एक प्रकारका सुगन्धद्रव्य), पिण्याक (तिलकी खली) और मलय-चन्दनका चूर्ण मिलाकर सबको मधुसे युक्त करे। इस प्रकार अपने इच्छानुसार विधिवत् तैयार किये हुए धूपयोग होते हैं। त्वचा (छाल), नाड़ी (डंठल), फल, तिलका तेल, केसर, ग्रन्थिपर्वा, शैलेय, तगर, विष्णुक्रान्ता, चोल, कर्पूर, जटामांसी, मुरा, कूट- ये सब स्रानके लिये उपयोगी द्रव्य हैं। इन द्रव्योंमेंसे अपनी इच्छाके अनुसार तीन द्रव्य लेकर उनमें कस्तूरी मिला दे। इन सबसे मिश्रित जलके द्वारा यदि स्नान करे तो वह कामदेव को बढ़ाने वाला होता है।
त्वचा, मुरा, नलद इन सबको समान मात्रामें लेकर इनमें आधा सुगन्धबाला मिला दे। फिर इनके द्वारा स्नान करनेपर शरीरसे कमलकी सी गन्ध उत्पन्न होती है। इनके ऊपर यदि तेल लगाकर स्नान करे तो शरीरका रंग कुम कुम के समान हो जाता है। यदि उपर्युक्त द्रव्योंमें आधा तगर मिला दिया जाय तो शरीरसे चमेलीके फूलकी भाँति सुगन्ध आती है। उनमें द्वयामक नामवाली औषध मिला देनेसे मौलसिरीके फूलोंकी सी मनोहारिणी सुगन्ध प्रकट होती है। तिलके तेलमें मंजिष्ठ, तगर, चोल, त्वचा, व्याघ्रनख, नख और गन्धपत्र छोड़ देनेसे बहुत ही सुन्दर और सुगन्धित तेल तैयार हो जाता है। यदि तिलोंको सुगन्धित फूलोंसे वासित करके उनका तेल पेरा जाय तो निश्चय ही वह तेल फूलके समान ही सुगन्धित होता है। इलायची, लवंग, काकोल (कबाबचीनी), जायफल और कर्पूर-वे स्वतन्त्ररूपसे एक-एक भी यदि जायफलकी पत्तीके साथ खाये जायें तो मुँह को सुगन्धित रखने वाले होते हैं।
कर्पूर, केसर, कान्ता, कस्तूरी, मेडड़का फल, कबाबचीनी, इलायची, लवंग, जायफल, सुपारी, त्वक्षत्र, त्रुटि (छोटी इलायची), मोथा, लता, कस्तूरी, लवंगके कॉंटे, जायफलके फल और पत्ते, कटुकफल-इन सबको एक-एक पैसेभर एकत्रित करके इनका चूर्ण बना ले और उसमें चौथाई भाग वासित किया हुआ खैरसार मिलावे। फिर आमके रसमें घोटकर इनकी सुन्दर सुन्दर गोलियाँ बना ले। वे सुगन्धित गोलियाँ मुँहमें रखनेपर मुख सम्बन्धी रोगोंका विनाश करनेवाली होती है। पूर्वोक्त पाँच पल्लवोंके जलसे धोयी हुई सुपारीको यथाशक्ति ऊपर बतायी हुई गोलीके द्रव्योंसे वासित कर दिया जाय तो वह मुँहको सुगन्धित रखने वाली होती है। कटुक और दाँतन को यदि तीन दिनतक गोमूत्रमें भिगोकर रखा जाय तो वे सुपारीकी ही भाँति मुँहमें सुगन्ध उत्पन्न करनेवाले होते हैं। त्वचा और जंगी हरेको बराबर मात्रामें लेकर उनमें आधा भाग कर्पूर मिला दे तो वे मुँहमें डालनेपर पानके समान मनोहर गन्ध उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार राजा अपने सुगन्ध आदि गुणोंसे स्त्रियोंको वशीभूत करके सदा उनकी रक्षा करे। कभी उनपर विश्वास न करे। विशेषतः पुत्रकी मातापर तो बिल कुल विश्वास न करे। सारी रात स्त्री के घरमें न सोवे; क्यों कि उनका दिलाया हुआ विश्वास बनावटी होता है ॥ १८-४२ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'राजधर्मका कथन' नामक दो सौ चौधीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २२४॥
click to read 👇
[ अग्नि पुराण अध्यायः २०७ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २०८ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २०९ ]
[ अग्नि पुराण अध्यायः २१० ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २११ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २१२ ]
[ अग्नि पुराण अध्यायः २१३ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २१४ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २१५ ]
[ अग्नि पुराण अध्यायः २१६ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २१७ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २१८ ]
[ अग्नि पुराण अध्यायः २१९ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २२० ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २२१ ]
[ अग्नि पुराण अध्यायः २२२ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २२३ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २२४ ]
[ अग्नि पुराण अध्यायः २२५ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २२६ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २२७ ]
[ अग्नि पुराण अध्यायः २२८ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २२९ ] [ अग्नि पुराण अध्यायः २३० ]
टिप्पणियाँ