अग्नि पुराण दो सौ पंद्रहवाँ अध्याय ! Agni Purana 215 Chapter !
अग्नि पुराण 215 अध्याय - सन्ध्याविधिः
अग्निरुवाच
ओङ्कारं यो विजानाति स योगी स हरिः पुमान् ।
ओङ्कारमभ्यसेत्तस्मान्मृन्मन्त्रसारन्तु सर्वदं ॥ १
सर्वमन्त्रप्रयोगेषु प्रणवः प्रथमः स्मृतः ।
तेन सम्परिपूर्णं यत्तत्पूर्णं कर्म नेतरत् ॥२
ओङ्कारपूर्विकास्तिस्रो महाव्याहृतयोऽव्ययाः ।
त्रिपदा चैव सावित्री विज्ञेयं ब्रह्मणी मुखं ॥ ३
योऽधीतेऽहन्यहन्येतास्त्रीणि वर्षाण्यतन्त्रितः ।
स ब्रह्मपरमभ्येति वायुभूतः खमूर्तिमान् ॥ ४
एकाक्षरं परं ब्रह्म प्राणायामपरन्तपः ।
सावित्र्यास्तु परन्नास्ति मौनात्सत्यं विशिष्यते ॥ ५
सप्तावर्ता पापहरा दशभिः प्रापयेद्दिवं ।
विंशावर्ता तु सा देवी नयते हीश्वरालयं ॥ ६
अष्टोत्तरशतं जप्त्वा तीर्णः संसारसागरात् ।
रुद्रकुष्माण्डजप्येभ्यो गायत्री तु विशिष्यते ॥ ७
न गायत्र्याः परञ्जप्यं न व्याहृतिसमं हुतं ।
गायत्र्याः पादमप्यर्धमृगर्धमृचमेव वा ॥ ८
ब्रह्महत्या सुरापानं सुवर्णस्तेयमेव च ।
गुरुदारागमश्चैव जप्येनैव पुनाति सा ॥ ९
पापे कृते तिलैर्होमो गायत्रीजप ईरितः ।
जप्त्वा सहस्रं गायत्र्या उपवासी स पापहा ॥१०
गोघ्नः पितृघ्नो मातृघ्नो ब्रह्महा गुरुतल्पगः ।
ब्रह्मघ्नः स्वर्णहारी च सुरापो लक्षजप्यतः ॥११
शुध्यते वाथ वा स्नात्वा शतमन्तर्जले जपेत् ।
अपः शतेन पीत्वा तु गायत्र्याः पापहा भवेत् ॥१२
शतं जप्ता तु गायत्री पापोपशमनी स्मृता ।
सहस्रं शप्ता सा देवी उपपातकनाशिनी ॥१३
अभीष्टदा कोटिजप्या देवत्वं राजतामियात् ।
ओङ्कारं पूर्वमुच्चार्य भूर्भुवः स्वस्तथैव च ॥१४
गायत्री प्रणवश्चान्ते जपे चैवमुदाहृतं ।
विश्वामित्र ऋषिच्छन्दो गायत्रं सविता तथा ॥१५
देवतोपनये जप्ये विनियोगो हुते तथा ।
अग्निर्वायू रविर्विद्युत्यमो जलपतिर्गुरुः ॥१६
पर्जन्य इन्द्रो गन्धर्वः पूषा च तदनन्तरं ।
मित्रोऽथ वरुणस्त्वष्टा वसवो मरुतः शशी ॥१७
अङ्गिरा विश्वनासत्यौ कस्तथा सर्वदेवताः ।
रुद्रो ब्रह्मा च विष्णुश्च क्रमशोऽक्षरदेवताः ॥१८
गयत्र्या जपकाले तु कथिताः पापनाशनाः ।
पादाङ्गुष्ठौ च गुल्फौ च नलकौ जानुनी तथा ॥१९
जङ्घे शिश्रश्च वृषणौ कटिर्नाभिस्तथोदरं ।
स्तनौ च हृदयं ग्रीवा मुखन्तालु च नासिके ॥२०
चक्षुषी च भ्रुवोर्मध्यं ललाटं पूर्वमाननं ।
दक्षिणोत्तरपार्श्वे द्वे शिर आस्यमनुक्रमात् ॥२१
पीतः श्यामश्च कपिलो मरकतोऽग्निसन्निभः ।
रुक्मविद्युद्धूम्रकृष्णरक्तगौरेन्द्रनीलभाः ॥२२
स्फाटिकस्वर्णपाण्ड्वाभाः पद्मरागोऽखिलद्युतिः ।
हेमधूम्ररक्तनीलरक्तकृष्णसुवर्णभाः ॥२३
शुक्लकृष्णपालाशाभा गायत्र्या वर्णकाः क्रमात् ।
ध्यानकाले पापहरा हुतैषा सर्वकामदा ॥२४
गायत्र्या तु तिलैर्होमः सर्वपापप्रणाशनः ।
शान्तिकामो यवैः कुर्यादायुष्कामो घृतेन च ॥२५
सिद्धार्थकैः कर्मसिद्ध्यै पयसा ब्रह्मवर्चसे ।
पुत्रकामस्तथा दध्ना धान्यकामस्तु शालिभिः ॥२६
क्षीरवृक्षसमिद्धिस्तु ग्रहपीडोपशान्तये ।
धनकामस्तथा बिल्वैः श्रीकामः कमलैस्तथा ॥२७
आरोग्यकामो दूर्वाभिर्गुरूत्पाते स एव हि ।
सौभाग्येच्छुर्गुग्गुलुना विद्यार्थी पायसेन च ॥२८
अयुतेनोक्तसिद्धिः स्याल्लक्षेण मनसेप्सितं ।
कोट्या ब्रह्मबधान्मुक्तः कुलोद्धारी हरिर्भवेत् ॥२९
ग्रहयज्ञमुखो वापि होमोऽयुतमुखोऽर्थकृत् ।
आवाहनञ्च गायत्र्यास्तत ओङ्कारमभ्यसेत् ॥३०
स्मृत्वौङ्कारन्तु गायत्र्या निबध्नीयाच्छिखान्ततः ।
पुनराचम्य हृडयं नाभिं स्कन्धौ च संस्पृशेत् ॥३१
प्रणवस्य ऋषिर्ब्रह्मा गायत्रीच्छन्द एव च ।
देवोऽग्निः परमात्मा स्याद्योगो वै सर्वकर्मसु ॥३२
शुक्ला चाग्निमुखी देव्या कात्यायनसगोत्रजा ।
त्रैलोक्यवरणा दिव्या पृथिव्याधारसंयुता ॥३३
अक्षरसूत्रधरा देवी पद्मासनगता शुभा ।
ओं तेजोऽसि महोऽसि बलमसि भ्राजोऽसि देवानान्धामनामासि ।
विश्वमसि विश्वायुः सर्वमसि सर्वायुः ओं अभि भूः
आगच्छ वरदे देवि जप्ये मे सन्निधौ भव ॥३४
व्याहृतीनान्तु सर्वासामृषिरेव प्रजापतिः ।
व्यस्ताश्चैव समस्ताश्च ब्राह्ममक्षरमोमिति ॥३५
विश्वामित्रो यमदग्निर्भरद्वाजोऽथ गोतमः ।
ऋषिरत्रिर्वशिष्ठश्च काश्यपश्च यथाक्रमं ॥३६
अग्निर्वायू रविश्चैव वाक्पतिर्वरुणस्तथा ।
इन्द्रो विष्णुर्व्याहृतीनां दैवतानि यथाक्रमं ॥३७
गायत्र्यष्टिगनुष्टुप्च वृहती पङ्क्तिरेव च ।
त्रिष्टुप्च जगती चेति छन्दांस्याहुरनुक्तामात् ॥३८
विनियोगे व्याहृतीनां प्राणायामे च होमके ।
आपोहिष्ठेत्यृचा चापान्द्रुपदादीति वा स्मृता ॥३९
तथा हिरण्यवर्णाभिः पावमानीभिरन्ततः ।
विप्रुषोऽष्टौ क्षिपेदूर्ध्वमाजन्मकृतपापजित् ॥४०
अन्तर्जले ऋतञ्चेति जपेत्त्रिरघमर्षणं ।
आपोहिष्ठेत्यृचोऽस्याश्च सिन्धुद्वीप ऋषिः स्मृतः ॥४१
ब्राह्मस्नानाय छन्दोऽस्य गायत्री देवता जलं ।
मार्जने विनियोगस्य हयावभृथके क्रतोः ॥४२
अघमर्षणसूक्तस्य ऋषिरेवाघमर्षणं ।
अनुष्टुप्च भवेच्छन्दो भाववृत्तस्तु दैवतं ॥४३
आपोज्योरी रस इति गायत्र्यास्तु शिरः स्मृतं ।
ऋषिः प्रजापतिस्तस्य छन्दोहीनं यजुर्यतः ॥४४
ब्रह्माग्निवायुसूर्याश्च देवताः परिकीर्तिताः ।
प्राणरोधात्तु वायुः स्याद्वायोरग्निश्च जायते ॥४५
अग्नेरापस्ततः शुद्धिस्ततश्चाचमनञ्चरेत् ।
अन्तश्चरति भूतेषु गुहायां विश्वमूर्तिषु ॥४६
तपोयज्ञवषट्कार आपो ज्योती रसोऽमृतं ।
उदुत्यं जातवेदसमृषिः प्रष्कन्न उच्यते ॥४७
गायत्रीच्छन्द आख्यातं सूर्यश्चैव तु दैवतम् ।
अतिरात्रे नियोगः स्यादग्नीषोमो नियोगकः ॥४८
चित्रं देवेति ऋचके ऋषिः कौत्स उदाहृतः ।
त्रिष्टुप्छन्दो दैवतञ्च सूर्योऽस्याः परिकीर्तितं ॥४९
इत्याग्नेये महापुराणे सन्ध्याविधिर्नाम पञ्चदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥
अग्नि पुराण - दो सौ पंद्रहवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 215 Chapter!-In Hindi
अग्नि पुराण 215 अध्याय संध्या-विधि
अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! जो पुरुष ॐकारको जानता है, वह योगी और विष्णुस्वरूप है। इसलिये सम्पूर्ण मन्त्रोंक सारस्वरूप और सब कुछ देनेवाले ॐकारका अभ्यास करना चाहिये। समस्त मन्त्रोंके प्रयोगमें ॐकारका सर्वप्रथम स्मरण किया जाता है। जो कर्म उससे युक्त है, वही पूर्ण है। उससे विहीन कर्म पूर्ण नहीं है। आदिमें ॐकारसे युक्त ('भूः भुवः स्वः' ये) तीन शाश्वत महाव्याहृतियों एवं ('तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि, धियो यो नः प्रचोदयात्' इस) तीन पदोंसे युक्त गायत्रीको ब्राह्मका (वेद अथवा ब्रह्माका) मुख जानना चाहिये। जो मनुष्य नित्य तीन वर्षोंतक आलस्यरहित होकर गायत्रीका जप करता है, वह वायुभूत और आकाशस्वरूप होकर परब्रह्मको प्राप्त होता है। एकाक्षर ॐकार ही परब्रह्म है और प्राणायाम ही परम तप है। गायत्री मन्त्रसे श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। मौन रहनेसे सत्यभाषण करना ही श्रेष्ठ है ॥१-५॥
गायत्रीकी सात आवृत्ति पापोंका हरण करनेवाली है, दस आवृत्तियोंसे वह जपकर्ताको स्वर्गकी प्रासि कराती है और बीस आवृत्ति करनेपर तो स्वयं सावित्री देवी जप करनेवालेको ईश्वरलोकमें ले जाती है। साधक गायत्रीका एक सौ आठ बार जप करके संसार सागरसे तर जाता है। रुद्र-मन्त्रोंके जप तथा कूष्माण्ड मन्त्रोंके जपसे गायत्री मन्त्रका जप श्रेष्ठ है। गायत्रीसे श्रेष्ठ कोई भी जप करनेयोग्य मन्त्र नहीं है तथा व्याहृति होमके समान कोई होम नहीं है। गायत्रीके एक चरण, आधा चरण, सम्पूर्ण ऋचा अथवा आधी ऋचाका भी जप करनेमात्रसे गायत्री देवी साधकको ब्रह्महत्या, सुरापान, सुवर्णकी चोरी एवं गुरुपत्नी-गमन आदि महापातकोंसे मुक्त कर देती है॥ ६-९॥
कोई भी पाप करनेपर उसके प्रायश्चित्तस्वरूप तिलोंका हवन और गायत्रीका जप बताया गया है। उपवासपूर्वक एक सहस्र गायत्री मन्त्रका जप करनेवाला अपने पापोंको नष्ट कर देता है। गो- वध, पितृवध, मातृवध, ब्रह्महत्या अथवा गुरुपत्नीगमन करनेवाला, ब्राह्मणको जीविकाका अपहरण करनेवाला, सुवर्णकी चोरी करनेवाला और सुरापान करनेवाला महापातकी भी गायत्रीका एक लाख जप करनेसे शुद्ध हो जाता है। अथवा स्नान करके जलके भीतर गायत्रीका सौ बार जप करे। तदनन्तर गायत्रीसे अभिमन्त्रित जलके सौ आचमन करे। इससे भी मनुष्य पापरहित हो जाता है। गायत्रीका सौ बार जप करनेपर वह समस्त पापोंका उपशमन करनेवाली मानी गयी है और एक सहस्र जप करनेपर उपपातकोंका भी नाश करती है। एक करोड़ जप करनेपर गायत्री देवी अभीष्ट फल प्रदान करती है। जपकर्ता देवत्व और देवराजत्वको भी प्राप्त कर लेता है ॥ १०-१३ ॥
आदिमें ॐकार, तदनन्तर 'भूर्भुवः स्वः' का उच्चारण करना चाहिये। उसके बाद गायत्री मन्त्रका एवं अन्तमें पुनः ॐकारका प्रयोग करना चाहिये। जपमें मन्त्रका यही स्वरूप बताया गया है'। गायत्री मन्त्रके विश्वामित्र ऋषि, गायत्री छन्द और सविता देवता हैं। उपनयन, जप एवं होममें इनका विनियोग करना चाहिये। गायत्री मन्त्रके चौबीस अक्षरोंके अधिष्ठातृदेवता क्रमशः ये हैं- अग्नि, वायु, रवि, विद्युत्, यम, जलपति, गुरु, पर्जन्य, इन्द्र, गन्धर्व, पूषा, मित्र, वरुण, त्वष्टा, वसुगण, मरुद्गण, चन्द्रमा, अङ्गिरा, विश्वदेव, अश्विनीकुमार, प्रजापतिसहित समस्त देवगण, रुद्र, ब्रह्मा और विष्णु। गायत्री जपके समय उपर्युक्त देवताओंका उच्चारण किया जाय तो वे जपकर्ताक पापोंका विनाश करते हैं ॥ १४-१८॥
गायत्री मन्त्रके एक-एक अक्षरका अपने निम्नलिखित अङ्गोंमें क्रमशः न्यास करे। पैरोंके दोनों अङ्गुष्ठ, गुल्फद्वय, नलक (दोनों पिण्डलियाँ), घुटने, दोनों जाँचें, उपस्थ, वृषण, कटिभाग, नाभि, उदर, स्तनमण्डल, हृदय, ग्रीवा, मुख (अधरोष्ठ), तालु, नासिका, नेत्रद्वय, भूमध्य, ललाट, पूर्व आनन (उत्तरोष्ठ), दक्षिण पार्श्व, उत्तर पार्श्व, सिर और सम्पूर्ण मुखमण्डल। गायत्रीके चौबीस अक्षरोंके वर्ण क्रमशः इस प्रकार हैं- पीत, श्याम, कपिल, मरकतमणिसदृश, अग्नितुल्य, रुक्मसदृश, विद्युत्प्रभ, धूम्र, कृष्ण, रक्त, गौर, इन्द्रनीलमणिसदृश, स्फटिकमणितुल्य, स्वर्णिम, पाण्डु, पुखराजतुल्य, अखिलद्युति, हेमाभधूम्र, रक्तनील, रक्तकृष्ण, सुवर्णाभ, शुक्ल, कृष्ण और पलाशवर्ण। गायत्री ध्यान करनेपर पापोंका अपहरण करती और हवन करनेपर सम्पूर्ण अभीष्ट कामनाओंको प्रदान करती है। गायत्री मन्त्रसे तिलोंका होम सम्पूर्ण पापोंका विनाश करनेवाला है। शान्तिकी इच्छा रखनेवाला जौका और दीर्घायु चाहनेवाला घृतका हवन करे। कर्मकी सिद्धिके लिये सरसोंका, ब्रह्मतेजकी प्राप्तिके लिये दुग्धका, पुत्रकी कामना करनेवाला दधिका और अधिक धान्य चाहनेवाला अगहनीके चावलका हवन करे। ग्रहपीड़ाकी शान्तिके लिये खैर वृक्षकी समिधाओंका, धनकी कामना करनेवाला बिल्वपत्रोंका, लक्ष्मी चाहनेवाला कमल- पुष्पोंका, आरोग्यका इच्छुक और महान् उत्पातसे आतङ्कित मनुष्य दूर्वाका, सौभाग्याभिलाषी गुग्गुलका और विद्याकामी खीरका हवन करे। दस हजार आहुतियोंसे उपर्युक्त कामनाओंकी सिद्धि होती है और एक लाख आहुतियोंसे साधक मनोऽभिलषित वस्तुको प्राप्त करता है। एक करोड़ आहुतियोंसे होता ब्रह्महत्याके महापातकसे मुक्त हो अपने कुलका उद्धार करके श्रीहरिस्वरूप हो जाता है। ग्रह-यज्ञ-प्रधान होम हो, अर्थात् ग्रहोंकी शान्तिके लिये हवन किया जा रहा हो तो उसमें भी गायत्री मन्त्र से दस हजार आहुतियाँ देनेपर अभीष्ट फलकी सिद्धि होती है॥ १९-३०॥
संध्या-विधि
गायत्री का आवाहन करके ॐकारका उच्चारण करना चाहिये। गायत्री मन्त्रसहित ॐकारका उच्चारण करके शिखा बाँधे। फिर आचमन करके हृदय, नाभि और दोनों कंधों का स्पर्श करे। प्रणवके ब्रह्मा ऋषि, गायत्री छन्द, अग्नि अथवा परमात्मा देवता हैं। इसका सम्पूर्ण कर्मकि आरम्भमें प्रयोग होता है। निम्नलिखित मन्त्रसे गायत्री देवीका ध्यान करे-
शुक्ला चाग्निमुखी दिव्या कात्यायनसगोत्रजा।
त्रैलोक्यवरणा दिव्या पृथिव्याधारसंयुता ॥
अक्षसूत्रधरा देवी पद्मासनगता शुभा॥
तदनन्तर निम्नाङ्कित मन्त्रसे गायत्री देवीका आवाहन करे-
ॐ तेजोऽसि महोऽसि बलमसि भ्राजोऽसि देवानां धामनामाऽसि।
विश्वमसि विश्वायुः सर्वमसि सर्वायुः ओम् अभि भूः।'
आगच्छ वरदे देवि जपे में संनिधी भव।
गायन्तं प्रायसे यस्माद् गायत्री त्वं ततः स्मृता ॥
समस्त व्याहृतियोंके ऋषि प्रजापति ही हैं; वे सब-व्यष्टि और समष्टि दोनों रूपोंसे परब्रह्मस्वरूप एकाक्षर ॐकारमें स्थित है। सप्तव्याहृतियोंके क्रमशः ये ऋषि है- विश्वामित्र, जमदग्नि, भरद्वान, गौतम, अत्रि, वसिष्ठ तथा कश्यप। उनके देवता क्रमशः ये हैं अग्नि, वायु, सूर्य, बृहस्पति, वरुण, इन्द्र और विश्वदेव। गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, पङ्गि, त्रिष्टुप् और जगती ये क्रमशः सात व्याहृतियोंके छन्द हैं। इन व्याहृतियोंका प्राणायाम और होममें विनियोग होता है'।
ॐ आपो हि ष्ठा मयो भुवः, ॐ ता न ऊर्जे दधातन,
ॐ महेरणाय चक्षसे, ॐ यो वः शिवतमो रसः,
ॐ तस्य भाजयतेह नः, ॐ उशतीरिव मातरः,
ॐ तस्मा अरं गमाम वः, ॐ यस्य क्षयायः जिन्वथ,
ॐ आपो जनयधा च नः।
इन तीन ऋचाओं का तथा
'ॐ द्रुपदादिव मुमुचानः स्विनः खातो मलादिव।
पूर्त पवित्रेणेवाज्यमापः शुन्धन्तु मैनसः।'
इस मन्त्रका 'हिरण्यवर्णाः शुचयः' इत्यादि पावमानी ऋचाओंका उच्चारण करके (पवित्रों अथवा दाहिने हाथकी अङ्गुलियोंद्वारा) जलके आठ छींटे ऊपर उछाले। इससे जीवनभरके पाप नष्ट हो जाते हैं ॥ ३१-४१ ॥
जलके भीतर 'ऋतं च०' इस अघमर्षण मन्त्रका तीन बार जप करे'।
'आपो हि ष्ठा' आदि तीन ऋचाओंके सिन्धुद्वीप ऋषि, गायत्री छन्द और जल देवता माने गये हैं। ब्राह्मस्नानके लिये मार्जनमें इसका विनियोग किया जाता है। (अघमर्षण-मन्त्रका विनियोग इस प्रकार करना चाहिये) इस अघमर्षण-सूक्तके अघमर्षण ऋषि, अनुष्टुप् छन्द और भाववृत्त देवता हैं। पापनिःसारणके कर्ममें इसका प्रयोग किया जाता है'।
'ॐ आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम्।'
यह गायत्री मन्त्रका शिरोभाग है। इसके प्रजापति ऋषि हैं। यह छन्दरहित यजुर्मन्त्र है; क्योंकि यजुर्वेदके मन्त्र किसी नियत अक्षरवाले छन्दमें आबद्ध नहीं हैं। शिरोमन्त्रके ब्रह्मा, अग्नि, वायु और सूर्य देवता माने गये हैं। प्राणायामसे वायु, वायुसे अग्नि और अग्निसे जलकी उत्पत्ति होती है तथा उसी जलसे शुद्धि होती है। इसलिये जलका आचमन निम्नलिखित मन्त्रसे करे-
अन्तश्चरसि भूतेषु गुहायां विश्वमूर्तिषु।
तपो यज्ञो वषट्कार आपो ज्योती रसोऽमृतम् ॥
'उदुत्यं जातवेदसं०' इस मन्त्रके प्रस्कण्व ऋषि कहे गये हैं। इसका गायत्री छन्द और सूर्य देवता हैं। इसका अतिरात्र और अग्निष्टोम-याग में विनियोग होता है (परंतु संध्यो पास नामें इसका सूर्योपस्थान-कर्म में विनियोग किया जाता है)।
'चित्रं देवानां०' इस ऋचाके कौत्स ऋषि कहे गये हैं। इसका छन्द त्रिष्टुप् और देवता सूर्य माने गये हैं। यहाँ इसका भी विनियोग सूर्यो पस्थान में ही है ॥ ४२-५० ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'संध्याविधिका वर्णन' नामक दो सौ पन्द्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २१५॥
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