अग्नि पुराण दो सौ बारहवाँ अध्याय ! Agni Purana 212 Chapter !

अग्नि पुराण दो सौ बारहवाँ अध्याय ! Agni Purana 212 Chapter !

अग्नि पुराण 212 अध्याय मेरुदानानि


अग्निरुवाच

काम्यदानानि वक्ष्यामि सर्वकाम प्रदानि ते ।
नित्यपूजां मासि मासि कृत्वाथो काम्यपूजनं ॥१

व्रतार्हणं गुरोः पूजा वत्सरान्ते महार्चनं ।
अश्वं वै मार्गशीर्षे तु कमलं पिष्टसम्भवं ॥२

शिवाय पूज्य यो दद्यात्सूर्यलोके चिरं वसेत्।
गजं पौषे पिष्टमयं त्रिसप्तकुलमुद्धरेत् ॥३

माघे चाश्वरथं पैष्ठं दत्त्वा नरकं व्रजेत् ।
फाल्गुने तु वृषं पैष्टं स्वर्गभुक्स्यान्महीपतिः ॥४

चैत्रे चेक्षुमयीं गावन्दासदासीसमन्वितां ।
दत्त्वा स्वर्गे चिरं स्थित्वा तदन्ते स्यान्महीपतिः ॥५

सप्तव्रीहींश्च वैशाखे दत्त्वा शिवमयो भवेत् ।
बलिमण्डलकञ्चान्नैः कृत्वाषाढे शिवो भवेत् ॥६

विमानं श्रावणे पौष्पं दत्त्वा स्वर्गी ततो नृपः ।
शतद्वयं फलानान्तु दत्त्वोद्धृत्य कुलं नृपः ॥७

गुग्गुलादि दहेद्भाद्रे स्वर्गी स स्यात्ततो नृपः ।
क्षीरसर्पिर्भृतं पात्रमाश्विने स्वर्गदम्भवेत् ॥८

कार्त्तिके गुडखण्डाज्यं दत्त्वा स्वर्गी ततो नृपः ।
मेरुदानं द्वादशकं वक्ष्येऽहं भुक्तिमुक्तिदं ॥९

मेरुव्रते तु कार्त्तिक्यां रत्नमेरुन्ददेद्द्विजे ।
सर्वेषाञ्चैव मेरूणां प्रमाणं क्रमशः शृणु ॥१०

वज्रपद्ममहानीलनीलस्फटिकसञ्ज्ञितः ।
पुष्पं मरकतं मुक्ता प्रस्थमात्रेण चोत्तमः ॥११

मध्योऽर्धः स्यात्तदर्धोऽधो वित्तशाठ्यं विवर्जयेत् ।
कार्णिकायां न्यसेन्मेरुं ब्रह्मविष्ण्वीशदैवतं ॥१२

माल्यवान् पूर्वतः पूज्यस्तत्पूर्वे भद्रसञ्ज्ञितः ।
अश्वरक्षस्ततः प्रोक्तो निषधो मेरुदक्षिणे ॥१३

हेमकूटोऽथ हिमवान् त्रयं सौम्ये तथा त्रयं ।
नीलः श्वेतश्च शृङ्गी च पश्चिमे गन्धमादनः ॥१४

वैकङ्कः केतुमालः स्यान्मेरुर्द्वादशसंयुतः ।
सोपवासोऽर्चयेद्विष्णुं शिवं वा स्नानपूर्वकं ॥१५

देवाग्रे चार्च्य मेरुञ्च मन्त्रैर्विप्राय वै ददेत् ।
विप्रायामुकगोत्राय मेरुन्द्रव्यमयम्परं ॥१६

भुक्त्यै मुक्त्यै निर्मलत्वे विष्णुदैवं ददामि ते ।
इन्द्रलोके ब्रह्मलोके शिवलोके हरेः पुरे ॥१७

कुलमुद्धृत्य क्रीडेत विमाने देवपूजितः ।
अन्येष्वपि च कालेषु सङ्क्रान्त्यादौ प्रदापयेत् ॥१८

पलानान्तु सहस्रेण हेममेरुम्प्रकल्पयेत् ।
शृङ्गत्रयसमायुक्तं ब्रह्मविष्णुहरान्वितं ॥१९

एकैकं पर्वतन्तस्य शतैकैकेन कारयेत् ।
मेरुणा सह शैलास्तु ख्यातास्तत्र त्रयोदश ॥२०

अयने ग्रहणादौ च विष्ण्वग्रे हरिमर्च्य च ।
स्वर्णमेरुं द्विजायार्प्य विष्णुलोके चिरं वसेत् ॥२१

परमाणवो यावन्त इह राजा भवेच्चिरं ।
रौप्यमेरुं द्वादशाद्रियुतं सङ्कल्पतो ददेत्॥२२

प्रागुक्तं च फलं तस्य विष्णुं विप्रं प्रपूज्य च ।
भूमिमेरुञ्च विषयं मण्डलं ग्राममेव च ॥२३

परिकल्प्याष्टमांशेन शेषांशाः पूर्ववत्फलं ।
द्वादशाद्रिसमायुक्तं हस्तिमेरुस्वरूपिणं ॥२४

ददेत्त्रिपुरुषैर्युक्तं दत्त्वानन्तं फलं लभेत् ।
त्रिपञ्चाश्वैरश्वमेरुं हययद्वादशसंयुतं ॥२५

विष्ण्वादीन् पूज्य तं दत्त्वा भुक्तभोगो नृपो भवेत् ।
अश्वसङ्ख्याप्रमाणेन गोमेरुं पूर्ववद्ददेत् ॥२६

पट्टवस्त्रैर्भारमात्रैर्वस्त्रमेरुश्च मध्यतः ।
शैलैर्द्वादशवस्त्रैश्च दत्त्वा तञ्चाक्षयं फलं ॥२७

घृतपञ्चसहस्रैश्च पलानामाज्यपर्वतः ।
शतैः पञ्चभिरेकैकः पर्वतेऽस्मिन् हरिं यजेत् ॥२८

विष्ण्वग्रे ब्राह्मणायार्प्य सर्वं प्राप्य हरिं व्रजेत् ।
एवं च खण्डमेरुञ्च कृत्वा दत्त्वाप्नुयात्फलं ॥२९

धान्यमेरुः पञ्चखारोऽपर एकैकखारकाः ।
स्वर्णत्रिशृङ्गकाः सर्वे ब्रह्मविष्णुमहेश्वरान् ॥३०

सर्वेषु पूज्य विष्णुं वा विशेषादक्षयं फलं ।
एवं दशांशमानेन तिलमेरुं प्रकल्पयेत् ॥३१

शृङ्गाणि पूर्ववत्तस्य तथैवान्यनगेषु च ।
तिलमेरुं प्रदायाथ बन्धुभिर्विष्णुलोकभाक् ॥३२

नमो विष्णुस्वरूपाय धराधराय वै नमः ।
ब्रह्मविष्ण्वीशशृङ्गाय धरानाभिस्थिताय च ॥३३

नगद्वादशनाथाय सर्वपापापहारिणे ।
विष्णुभक्ताय शान्ताय त्राणं मे कुरु सर्वथा ॥३४

निष्पापः पितृभिः सार्धं विष्णुं गच्छामि ओं नमः ।
त्वं हरिस्तु हरेरग्रे अहं विष्णुश्च विष्णवे ॥३५

निवेदयामि भक्त्या तु भुक्तिमुक्त्यर्थहेतवे ।

इत्याग्नेये महापुराणे मेरुदानानि नाम द्वादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - दो सौ बारहवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 212 Chapter!-In Hindi

दो सौ बारहवाँ अध्याय विविध काम्य-दान एवं मेरुदानोंका वर्णन

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! अब मैं आपके सम्मुख काम्य-दानोंका वर्णन करता हूँ, जो समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाले हैं। प्रत्येक मासमें प्रतिदिन पूजन करते हुए एक दिन विशेषरूपसे पूजन किया जाता है। इसे 'काम्य पूजन' कहते हैं। वर्षके समाप्त होनेपर गुरुपूजन एवं महापूजनके साथ व्रतका विसर्जन किया जाता है ॥ १ ॥

जो मार्गशीर्षमासमें शिवका पूजन करके पिष्ट (आटा) निर्मित अश्व एवं कमलका दान करता है, वह चिरकालतक सूर्यलोकमें निवास करता है। पौषमासमें पिष्टमय हाथीका दान देकर मनुष्य अपनी इक्कीस पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। माघमें पिष्टमय अश्वयुक्त रथका दान देनेवाला नरकमें नहीं जाता। फाल्गुनमें पिष्टनिर्मित बैलका दान देकर मनुष्य स्वर्गको प्राप्त होता है तथा दूसरे जन्ममें राज्य प्राप्त करता है। चैत्रमासमें दास- दासियोंसे युक्त एवं ईख (गुड़) से भरा हुआ घर देकर मनुष्य चिरकालतक स्वर्गलोकमें निवास करता है और उसके बाद राजा होता है। वैशाखमें सप्तधान्यका दान देकर मनुष्य शिवके सायुज्यको प्राप्त कर लेता है। ज्येष्ठ तथा आषाढ़में अन्नकी बलि देनेवाला शिवस्वरूप हो जाता है। श्रावणमें पुष्परथका दान देकर मनुष्य स्वर्गक सुखोंका उपभोग करनेके पश्चात् दूसरे जन्ममें राज्यलाभ करता है और दो सौ फलोंका दान देनेवाला अपने सम्पूर्ण कुलका उद्धार करके राजपदको प्राप्त होता है। भाद्रपदमें धूपदान करनेवाला स्वर्गको प्राप्त होकर दूसरे जन्ममें राज्यका उपभोग करता है। आश्विनमें दुग्ध और घृतसे परिपूर्ण पात्रका दान स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला है। कार्तिकमें गुड़, शक्कर और घृतका दान देकर मनुष्य स्वर्गलोकमें निवास करता है और दूसरे जन्ममें राजा होता है॥२-८॥

अब मैं बारह प्रकारके मेरुदानोंके विषयमें कहूँगा, जो भोग और मोक्षकी प्राप्ति करानेवाले हैं। कार्तिककी पूर्णिमाको मेरुव्रत करके ब्राह्मणको 'रत्नमेरु'का दान करना चाहिये। अब क्रमशः सब मेरुओंका प्रमाण सुनिये। हीरे, माणिक्य, नीलमणि, वैदूर्यमणि, स्फटिकमणि, पुखराज, मरकतमणि और मोती इनका एक प्रस्थका मेरु उत्तम माना गया है। इससे आधे परिमाणका मेरु मध्यम और मध्यमसे आधा निकृष्ट होता है। रत्नमेरुका दान करनेवाला धनकी कंजूसीका परित्याग कर दे। द्वादशदल कमलका निर्माण करके उसकी कर्णिकापर मेरुकी स्थापना करे। इसके ब्रह्मा, विष्णु और शिव देवता हैं। मेरुसे पूर्व दिशामें तीन दल हैं, उनमें क्रमशः माल्यवान, भद्राश्व तथा ऋक्ष पर्वतोंका पूजन करे। मेरुसे दक्षिणवाले दलोंमें निषध, हेमकूट और हिमवान्‌की पूजा करे। मेरुसे उत्तरवाले तीन दलोंमें क्रमशः नील, श्वेत और शृङ्गीका पूजन करे तथा पश्चिमवाले दलोंमें गन्धमादन, वैकङ्क एवं केतुमालकी पूजा करे। इस प्रकार बारह पर्वतोंसे युक्त मेरु पर्वतका पूजन करना चाहिये ॥ ९-१४ ॥

उपवास पूर्व क रहकर स्नान के पश्चात् भगवान् विष्णु अथवा शिव का पूजन करे। भगवान्‌ के सम्मुख मेरुका पूजन कर के मन्त्रोच्चारण पूर्वक उसका ब्राह्मण को दान कर दे ॥ १५ ॥

दान का संकल्प करते समय देश-कालके उच्चारणके पश्चात् कहे 'मैं इस द्रव्यनिर्मित उत्तम मेरु पर्वतका, जिसके देवता भगवान् विष्णु हैं, अमुक गोत्रवाले ब्राह्मणको दान करता हूँ। इस दानसे मेरा अन्तःकरण शुद्ध हो जाय और मुझे उत्तम भोग एवं मोक्षकी प्राप्ति हो' ॥ १६ ॥ इस प्रकार दान करनेवाला मनुष्य अपने समस्त कुलका उद्धार करके देवताओंद्वारा सम्मानित हो विमानपर बैठकर इन्द्रलोक, ब्रह्मलोक, शिवलोक तथा श्रीवैकुण्ठधाममें क्रीडा करता है। संक्रान्ति आदि अन्य पुण्यकालोंमें मेरुका दान करना- कराना चाहिये ॥ १७-१८ ॥

एक सहस्र पल सुवर्णके द्वारा महामेरुका निर्माण करावे। वह तीन शिखरोंसे युक्त होना चाहिये और उन शिखरोंपर ब्रह्मा, विष्णु और शिवकी स्थापना करनी चाहिये। मेरुके साथवाला प्रत्येक पर्वत सौ-सौ पल सुवर्णका बनवाये। मेरुको लेकर उसके सहवर्ती पर्वत तेरह माने गये हैं। उत्तरायण अथवा दक्षिणायनकी संक्रान्तिमें या सूर्य-चन्द्रके ग्रहणकालमें विष्णुको प्रतिमाके सम्मुख 'स्वर्णमेरु' की स्थापना करे। तदनन्तर श्रीहरि और स्वर्णमेरुकी पूजा कर उसे ब्राह्मणको समर्पित करे। ऐसा करनेसे मनुष्य चिरकालतक विष्णुलोकमें निवास करता है। जो बारह पर्वतोंसे युक्त 'रजतमेरु' का संकल्पपूर्वक दान करता है, वह उतने वर्षोंतक राज्यका उपभोग करता है, जितने कि इस पृथ्वीपर परमाणु हैं। इसके सिवा वह पूर्वोक्त फलको भी प्राप्त कर लेता है। 'भूमिमेरु' का दान विष्णु एवं ब्राह्मणकी पूजा करके करना चाहिये। एक नगर, जनपद अथवा ग्रामके आठवें अंशसे 'भूमिमेरु' की कल्पना करके अवशिष्ट अंशसे शेष बारह अंशोंकी कल्पना करनी चाहिये। भूमिमेरुके दानका भी फल पूर्ववत् होता है ॥ १९-२३ ॥ 

बारह पर्वतोंसे युक्त मेरुका हाथियोंद्वारा निर्माण करके तीन पुरुषोंसहित उस 'हस्तिमेरु'का दान करे। वह दान देकर मनुष्य अक्षय फलका भागी होता है ॥ २४ ॥

पंद्रह अश्वोंका' अश्वमेरु' होता है। इसके साथ बारह पर्वतोंके स्थान बारह घोड़े होने चाहिये। श्रीविष्णु आदि देवताओंके पूजनपूर्वक अश्वमेरुका दान करनेवाला इस जन्ममें विविध भोगोंका उपभोग करके दूसरे जन्ममें राजा होता है। 'गोमेरु'का भी अश्वमेरुकी संख्याके परिमाण एवं विधिसे दान करना चाहिये। एक भार रेशमी वस्त्रोंका 'वस्त्रमेरु' होता है। उसे मध्यमें रखकर अन्य बारह पर्वतोंके स्थानपर बारह वस्त्र रखे। इसका दान करके मनुष्य अक्षय फलकी प्राप्ति करता है। पाँच हजार पल घृतका 'आज्य-पर्वत' माना गया है। इसका सहवर्ती प्रत्येक पर्वत पाँच सी पल घृतका होना चाहिये। इस आज्य पर्वतपर श्रीहरिका यजन करे। फिर श्रीविष्णुके सम्मुख इसे ब्राह्मणको दानकर मनुष्य इस लोकमें सर्वस्व पाकर श्रीहरिके परमधामको प्राप्त होता है। उसी प्रकार 'खण्ड (खाँड) मेरु'का निर्माण एवं दान करके मनुष्य पूर्वोक्त फलकी प्राप्ति कर लेता है ॥ २५-२९॥

पाँच खारी धान्यका 'धान्यमेरु' होता है। इसके साथ अन्य बारह पर्वत एक-एक खारी धान्यके बनाने चाहिये। उन सबके तीन-तीन स्वर्णमय शिखर होने चाहिये। सबपर ब्रह्मा, विष्णु और महेश- तीनोंका पूजन करना चाहिये। श्रीविष्णुका विशेषरूपसे पूजन करना चाहिये। इससे अक्षय फलकी प्राप्ति होती है ॥ ३० ॥

इसी प्रमाणके अनुसार 'तिलमेरु'का निर्माण करके दशांशके प्रमाणसे अन्य पर्वतोंका निर्माण करे। उसके एवं अन्य पर्वतोंके भी पूर्वोक्त प्रकारसे शिखर बनाने चाहिये। इस तिलमेरुका दान करके मनुष्य बन्धु-बान्धवोंके साथ विष्णुलोकको प्राप्त होता है ॥ ३१-३२॥

(तिलमेरुका दान करते समय निम्नलिखित मन्त्रको पढ़े) "विष्णुस्वरूप तिलमेरुको नमस्कार है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश जिसके शिखर हैं, जो पृथ्वीकी नाभिपर स्थित है, जो सहवर्ती बारहों पर्वतोंका प्रभु, समस्त पापोंका अपहरण करनेवाला, शान्तिमय, विष्णुभक्त है, उस तिलमेरुको नमस्कार है। वह मेरी सर्वथा रक्षा करे। मैं निष्पाप होकर पितरोंके साथ श्रीविष्णुको प्राप्त होता हूँ। 'ॐ नमः' तुम विष्णुस्वरूप हो, विष्णुके सम्मुख मैं विष्णुस्वरूप दाता विष्णुस्वरूप ब्राह्मणका भक्तिपूर्वक भोग एवं मोक्षकी प्राप्तिके हेतु तुम्हारा दान करता हूँ" ॥ ३३-३५ ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'मेरुदानका वर्णन' नामक दो सौ बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २१२॥

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