अग्नि पुराण दो सौ आठवाँ अध्याय ! Agni Purana 208 Chapter !

अग्नि पुराण दो सौ आठवाँ अध्याय ! Agni Purana 208 Chapter !

अग्नि पुराण 208 अध्याय - व्रतदानादिसमुच्चयः

अग्निरुवाच

व्रतदानानि सामान्यं प्रवदामि समासतः ।
तिथौ प्रतिपदादौ च सूर्यादौ कृत्तिकासु च ॥१

विष्कम्भादौ च मेषादौ काले च ग्रहणादिके ।
यत्काले यद्व्रतं दानं यद्द्रव्यं नियमादि यत् ॥२

तद्द्रव्याख्यञ्च कालाख्यं सर्वं वै विष्णुदैवतं ।
रवीशब्रह्मलक्ष्म्याद्याः सर्वे विष्णोर्विभूतयः ॥३

तमुद्दिश्य व्रतं दानं पूजादि स्यात्तु सर्वदं ।
जगत्पते समागच्छ आसनं पाद्यमर्घ्यकं ॥४

मधुपर्कं तथाचामं स्नानं वस्तञ्च गन्धकं ।
पुष्पं धूपश्च दीपश्च नैवेद्यादि नमोऽस्तु ते ॥५

इति पूजाव्रते दाने दानवाक्यं समं शृणु ।
अद्यामुकसगोत्राय विप्रायामुकशर्मणे ॥६

एतद्द्रव्यं विष्णुदैवं सर्वपापोपशान्तय्
आयुरारोग्यवृद्ध्यर्थं सौभाग्यादिविवृद्धये॥७

गोत्रसन्ततिवृद्ध्यर्थं विजयाय धनाय च ।
धर्मायैश्वर्यकामाय तत्पापशमनाय च ॥८

संसारमुक्तये दानन्तुभ्यं सम्प्रददे ह्यहं ।
एतद्दानप्रतिष्ठार्थं तुभ्यमेतद्ददाम्यहं ॥९

एतेन प्रीयतां नित्यं सर्वलोकपतिः प्रभुः ।
यज्ञदानव्रतपते विद्याकीर्त्यादि देहि मे ॥१०

धर्मकामार्थमोक्षांश्च देहि मे मनसेप्सितं ।
यः पठेच्छृणुयान्नित्यं व्रतदानसमुच्चयं ॥११

स प्राप्तकामो विमलो भुक्तिमुक्तिमवाप्नुयात् ।
तिथिवारर्क्षसङ्क्रान्तियोगमन्वादिकं व्रतं ॥१२

नैकधा वासुदेवादेर्नियमात्पूजनाद्भवेत् ।१३

इत्यागेन्ये महापुराणे व्रतदानसमुच्चयो नाम अष्टाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - दो सौ आठवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 208 Chapter!-In Hindi

दो सौ आठवाँ अध्याय - व्रतदानसमुच्चय

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! अब मैं सामान्य व्रतों और दानोंके विषयमें संक्षेपपूर्वक कहता हूँ। प्रतिपदा आदि तिथियों, सूर्य आदि वारों, कृत्तिका आदि नक्षत्रों, विष्कुम्भ आदि योगों, मेष आदि राशियों और ग्रहण आदिके समय उस कालमें जो व्रत, दान एवं तत्सम्बन्धी द्रव्य एवं नियमादि आवश्यक हैं, उनका भी वर्णन करूँगा। व्रतदानोपयोगी द्रव्य और काल सबके अधिष्ठातृ देवता भगवान् श्रीविष्णु हैं। सूर्य, शिव, ब्रह्मा, लक्ष्मी आदि सभी देव-देवियाँ श्रीहरिकी ही विभूति हैं। इसलिये उनके उद्देश्यसे किया गया व्रत, दान और पूजन आदि सब कुछ देनेवाला होता है ॥ १-३॥

श्री विष्णु-पूजन-मन्त्र

जगत्पते समागच्छ आसनं पाद्यमर्थ्यकम् ॥ 
मधुपर्क तथाऽऽचामं खानं वस्त्रं च गन्धकम् । 
पुष्पं धूपं च दीपं च नैवेद्यादि नमोऽस्तु ते ॥

जगत्पते। आपको नमस्कार है। आइये और आसन, पाद्य, अर्घ्य, मधुपर्क, आचमन, स्नान, वस्त्र, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप एवं नैवेद्य ग्रहण कीजिये ॥ ४-५ ॥
पूजा, व्रत और दानमें उपर्युक्त मन्त्रसे श्रीविष्णुकी अर्चना करनी चाहिये। अब दानका सामान्य संकल्प भी सुनो 'आज मैं अमुक गोत्रवाले अमुक शर्मा आप ब्राह्मण देवताको समस्त पापोंकी शान्ति, आयु और आरोग्यकी वृद्धि, सौभाग्यके उदय, गोत्र और संततिके विस्तार, विजय एवं धनकी प्राप्ति, धर्म, अर्थ और कामके सम्पादन तथा पापनाशपूर्वक संसारसे मोक्ष पानेके लिये विष्णुदेवता सम्बन्धी इस द्रव्यका दान करता हूँ। मैं इस दानकी प्रतिष्ठा (स्थिरता) के लिये आपको यह अतिरिक्त सुवर्णादि द्रव्य समर्पित करता हूँ। मेरे इस दानसे सर्वलोकेश्वर भगवान् श्रीहरि सदा प्रसन्न हों। यज्ञ, दान और व्रतोंके स्वामी! मुझे विद्या तथा यश आदि प्रदान कीजिये। मुझे धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप चारों पुरुषार्थ तथा मनोऽभिलषित वस्तुसे सम्पन्न कीजिये ' ॥ ६-१०॥
जो मनुष्य प्रतिदिन इस व्रत-दान-समुच्चयका पठन अथवा श्रवण करता है, वह अभीष्ट वस्तुसे युक्त एवं पापरहित होकर भोग और मोक्ष दोनोंको प्राप्त करता है। इस प्रकार भगवान् वासुदेव आदिसे सम्बन्धित नियम और पूजनसे अनेक प्रकारके तिथि, वार, नक्षत्र, संक्रान्ति, योग और मन्वादिसम्बन्धी व्रतोंका अनुष्ठान सिद्ध होता है ॥ ११-१२ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'व्रतदानसमुच्चयका वर्णन' नामक दो सौ आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २०८ ॥

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