अग्नि पुराण - दो सौ छठा अध्याय ! Agni Purana - 206 Chapter !

अग्नि पुराण - दो सौ छठा अध्याय ! Agni Purana - 206 Chapter !

दो सौ छठा अध्याय - अगस्त्यार्घ्य दान कथनं

अग्निरुवाच

अगस्त्यो भगवान्विष्णुस्तमभ्यर्च्याप्नुयाद्धरिं ।
अप्राप्ते भास्करे कन्यां सत्रिभागैस्त्रिभिर्दिनैः ॥१

अर्घ्यं दद्यादगस्त्याय पूजयित्वा ह्युपोषितः ।
काशपुष्पमयीं मूर्तिं प्रदोषे विन्यसेद्घटे ॥२

मुनेर्यजेत्तां कुम्भस्थां रात्रौ कुर्यात्प्रजागरं ।
अगस्त्य मुनिशार्दूल तेजोराशे महामते ॥३

इमां मम कृतां पूजां गृह्णीष्व प्रियया सह ।
आवाह्यार्घ्ये च सम्मुख्यं प्रार्चयेच्चन्दनादिना ॥४

जलाशयसमीपे तु प्रातर्नीत्वार्घ्यमर्पयेत् ।
काशपुष्पप्रतीकाश अग्निमारुतसम्भव॥५

मित्रावरुणयोः पुत्र कुम्भयोने नमोऽस्तु ते ।
आतापिर्भक्षितो येन वातापिश्च महासुरः ॥६

समुद्रः शोषितो येन सोऽगस्त्यः सम्मुखोऽस्तु मे ।
अगस्तिं प्रार्थयिष्यामि कर्मणा मनसा गिरा ॥७

अर्चयिस्याम्यहं मैत्रं परलोकाभिकाङ्क्षया ।
द्वीपान्तरसमुत्पन्नं देवानां परमं प्रियं ॥८

राजानं सर्ववृक्षाणां चन्दनं प्रतिगृह्यतां ।
धर्मार्थकाममोक्षाणां भाजनी पापनाशनी ॥९

सौभाग्यारोग्यलक्ष्मीदा पुष्पमाला प्रगृह्यतां ।
धूपोऽयं गृह्यतां देव भक्तिं मे ह्यचलाङ्कुरु ॥१

ईप्सितं मे वरं देहि परत्र च शुभाङ्गतिं ।
सुरासुरैर्मुनिश्रेष्ठ सर्वकामफलप्रद ॥११

वस्त्रव्रीहिफलैर्हेम्ना दत्तस्त्वर्घ्यो ह्ययं मया ।
अगस्त्यं बोधयिष्यामि यन्मया मनसोद्धृतं ॥१२

फलैरर्घ्यं प्रदास्यामि गृहाणार्घ्यं महामुने ।
अगस्त्य एवं खनमानः खनित्रैः प्रजामपत्यं बलमीहमानः ।
उभौ कर्णावृषिरुग्रतेजाः पुपोष सत्या देवेष्वाशिषो जगाम ॥१३

राजपुत्रि नमस्तुभ्यं मुनिपत्नी महाव्रते ।
अर्घ्यं गृह्णीष्व देवेशि लोपामुद्रे यशस्विनि ॥१४

पञ्चरत्नसमायुक्तं हेमरूप्यसमन्वितं ।
सप्तधान्यवृतं पात्रं दधिचन्दनसंयुतं ॥१५

अर्घ्यं दद्यादगस्त्याय स्त्रीशूद्राणामवैदिकं ।
अगस्त्य मुनिशार्दूल तेजोराशे च सर्वद ॥१६

इमां मम कृतां पूजां गृहीत्वा व्रज शान्तये ।
त्यजेदगस्त्र्यमुद्दिश्य धान्यमेकं फलं रसं ॥१७

ततोऽन्नं भोजयेद्विप्रान् घृतपायसमोदकान् ।
गां वासांसि सुवर्णञ्च तेभ्यो दद्याच्च दक्षिणां ॥१८

घृतपायसयुक्तेन पात्रेणाच्छादिताननं ।
सहिरण्यञ्च तं कुम्भं ब्राह्मणायोपकल्पयेत् ॥१९

सप्तवर्षाणि दत्वार्घ्यं सर्वे सर्वमवाप्नुयुः ।
नीरा पुत्रांश्च सौभाग्यं पतिं कन्या नृपोद्भवं ॥२०

इत्याग्नेये महापुराणे अगस्त्यार्घ्यदानव्रतं नाम षडधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - दो सौ छठा अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 206 Chapter!-In Hindi

दो सौ छठा अध्याय अगस्त्य के उद्देश्य से अर्घ्य दान एवं उनके पूजन का कथन

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ ! महर्षि अगस्त्य साक्षात् भगवान् विष्णुके स्वरूप हैं। उनका पूजन करके मनुष्य श्री हरि को प्राप्त कर लेता है। जब सूर्य कन्या राशिको प्राप्त न हुए हों (किंतु उसके निकट हों) तब ३ दिनतक उपवास रख कर अगस्त्यका पूजन करके उन्हें अर्घ्यदान दे। पहले दिन जब चार घंटा दिन बाकी रहे, तब व्रत आरम्भ कर के प्रदोष काल में अगस्त्य मुनिकी काश-पुष्पमयी मूर्ति को कलशपर स्थापित करे और उस  इस प्रकार अगस्त्य का आवाहन करे और उन्हें गन्ध, पुष्प, फल, जल आदि से अर्घ्य दान दे। तदनन्तर मुनि श्रेष्ठ अगस्त्य की ओर मुख कर के चन्दनादि उपचारोंद्वारा उनका पूजन करे। दूसरे दिन प्रातःकाल कलश स्थित अगस्त्य की मूर्ति को किसी जलाशय के समीप ले जाकर निम्नलिखित मन्त्र से उन्हें अर्घ्य समर्पित करे ॥ ४ ॥ 

काशपुष्पप्रतीकाश अग्निमारुतसम्भव ॥ 
मित्रावरुणयोः पुत्र कुम्भयोने नमोऽस्तु ते। 
आतापिर्भक्षितो येन वातापिश्च महासुरः ॥ 
समुद्रः शोषितो येन सोऽगस्त्यः सम्मुखोऽस्तु मे। 
अगस्ति प्रार्थयिष्यामि कर्मणा मनस्य गिरा ॥ 
अर्चयिष्याम्यहं मैत्रं परलोकाभिकाङ्क्षया।

कलशस्थित मूर्तिका पूजन करे। अर्घ्य देनेवालेको रात्रिमें जागरण भी करना चाहिये ॥ १-२३ ॥ (अगस्त्यके आवाहनका मन्त्र यह है-) अगस्त्य मुनिशार्दूल तेजोराशे महामते ॥ इमां मम कृतां पूजां गृह्णीष्व प्रियया सह। मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य ! आप तेजःपुञ्जमय और महाबुद्धिमान् हैं। अपनी प्रियतमा पत्नी लोपामुद्राके साथ मेरे द्वारा की गयी इस पूजाको ग्रहण कीजिये ॥ ३३ ॥
काशपुष्पके समान उज्वल, अग्नि और वायुसे प्रादुर्भूत, मित्रावरुणके पुत्र, कुम्भसे प्रकट होनेवाले अगस्त्य। आपको नमस्कार है। जिन्होंने राक्षसराज आतापी और वातापीका भक्षण कर लिया था तथा समुद्रको सुखा डाला था, वे अगस्त्य मेरे सम्मुख प्रकट हों। मैं मन, कर्म और वचनसे अगस्त्यकी प्रार्थना करता हूँ। मैं उत्तम लोकोंकी आकाङ्क्षासे अगस्त्यका पूजन करता हूँ॥५-७॥
  • चन्दन दान-मन्त्र

द्वीपान्तरसमुत्पन्नं देवानां परमं प्रियम् ॥ 
राजानं सर्ववृक्षाणां चन्दनं प्रतिगृहाताम् । 

जम्बूद्वीपके बाहर उत्पन्न, देवताओंक परमप्रिय, समस्त वृक्षोंक राजा चन्दनको ग्रहण कीजिये ॥ ८३ ॥
  • पुष्पमाला-अर्पण

धर्मार्थकाममोक्षाणां भाजनी पापनाशनी ॥ 
सौभाग्यारोग्यलक्ष्मीदा पुष्पमाला प्रगृह्यताम्।

महर्षि अगस्त्य । यह पुष्पमाला धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थीको देनेवाली एवं पापोंका नाश करनेवाली है। सौभाग्य, आरोग्य और लक्ष्मीकी प्राप्ति करानेवाली इस पुष्पमालाको आप ग्रहण कीजिये ॥ ९३ ॥
  • धूपदान-मन्त्र 

धूपोऽयं गृहातां देव! भक्ति मे हृाचलां कुरु ॥ 
ईप्सितं मे वरं देहि परमां च शुभां गतिम्।

भगवन्! अब यह धूप ग्रहण कीजिये और आपमें मेरी भक्तिको अविचल कीजिये। मुझे इस लोकमें मनोवाञ्छित वस्तुएँ और परलोकमें शुभगति प्रदान कीजिये ॥ १०॥

वस्त्र, धान्य, फल, सुवर्णसे युक्त अर्घ्य-दान-
मन्त्र सुरासुरैर्मुनिश्रेष्ठ सर्वकामफलप्रद ॥
वस्वव्रीहिफलैर्हेम्ना दत्तस्त्वच्यों हायं मया।

देवताओं तथा असुरोंसे भी समादृत मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य ! आप सम्पूर्ण अभीष्ट फल प्रदान करनेवाले हैं। मैं आपको वस्त्र, धान्य, फल और सुवर्णसे युक्त यह अर्घ्य प्रदान करता हूँ ॥ ११३ ॥
  • फलार्घ्यदान-मन्त्र

अगस्त्यं बोधयिष्यामि यन्मया मनसोद्धतम्।
फलैरर्ध्वं प्रदास्यामि गृहाणाध्यै महामुने ॥

महामुने ! मैंने मनमें जो अभिलाषा कर रखी थी, तदनुसार मैं अगस्त्यजीको जगाऊँगा। आपको फलार्घ्य अर्पित करता हूँ, इसे ग्रहण कीजिये ॥ १२ ॥ (केवल द्विजोंके लिये उच्चारणीय अर्घ्यदानका वैदिक मन्त्र)

अगस्त्य एवं खनमानो धरित्री प्रजामपत्यं बलमीहमानः । 
उभी कर्णावृषिरुग्रतेजाः पुपोष सत्या देवेष्वाशिषो जगाम ॥

महर्षि अगस्त्य इस प्रकार प्रजा-संतति तथा बल एवं पुष्टिके लिये सचेष्ट हो कुदाल या खनित्रसे धरतीको खोदते रहे। उन उग्रतेजस्वी ऋषिने दोनों कणों (सम्पूर्ण इन्द्रियोंकी शक्ति)- का पोषण किया। देवताओंके प्रति उनकी सारी आशीः प्रार्थना सत्य हुई ॥ १३ ॥
(तदनन्तर निम्नलिखित मन्त्रसे लोपामुद्राको अर्घ्यदान दे)

राजपुत्रि नमस्तुभ्यं मुनिपत्नि महाव्रते।
अर्घ्य गृह्णीष्व देवेशि लोपामुद्रे यशस्विनि ॥

महान् व्रतका पालन करनेवाली राजपुत्री अगस्त्यपत्नी देवेश्वरी लोपामुद्रे! आपको नमस्कार है। यशस्विनि ! इस अर्घ्यको ग्रहण कीजिये ॥ १४॥ अगस्त्यके लिये पञ्चरत्न, सुवर्ण और रजतसे युक्त एवं सप्तधान्यसे पूर्ण पात्र तथा दधि-चन्दनसे समन्वित अर्घ्य प्रदान करे। स्त्रियों और शूद्रोंको 'काशपुष्पप्रतीकाश' आदि पौराणिक मन्त्रसे अर्घ्य देना चाहिये ॥ १५ ॥
  • विसर्जन-मन्त्र

अगस्त्य मुनिशार्दूल तेजोराशे च सर्वदा ॥
इमां मम कुर्ता पूजां गृहीत्वा व्रज शान्तये।

मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य ! आप तेजःपुञ्जसे प्रकाशित और सब कुछ देनेवाले हैं। मेरे द्वारा की गयी इस पूजाको ग्रहणकर शान्तिपूर्वक पधारिये ॥ १६ ॥ इस प्रकार अगस्त्यका विसर्जन करके उनके उद्देश्यसे किसी एक धान्य, फल और रसका त्याग करे। तदनन्तर ब्राह्मणोंको घृतमिश्रित खीर और लड्डू आदि पदार्थोंका भोजन करावे और उन्हें गौ, वस्त्र, सुवर्ण एवं दक्षिणा दे। इसके बाद उस कुम्भका मुख घृतमिश्रित खीरयुक्त पात्रसे ढककर, उसमें सुवर्ण रखकर वह कलश ब्राह्मणको दान दे। इस प्रकार सात वर्षांतक अगस्त्यको अर्घ्य देकर सभी लोग सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं। इससे स्त्री सौभाग्य और पुत्रों को, कन्या पति को और राजा पृथ्वी को प्राप्त करता है ॥ १७-२० ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'अगस्त्यके लिये अध्यंदानका वर्णन' नामक दो सौ छठा अध्याय पूरा हुआ ॥ २०६ ॥

click to read 👇

[अग्नि पुराण अध्यायः १८१]   [अग्नि पुराण अध्यायः १८२]  [अग्नि पुराण अध्यायः १८३]

[अग्नि पुराण अध्यायः १८४]   [अग्नि पुराण अध्यायः १८५]  [अग्नि पुराण अध्यायः १८६]

[अग्नि पुराण अध्यायः १८७]   [अग्नि पुराण अध्यायः १८८]  [अग्नि पुराण अध्यायः १८९]

[अग्नि पुराण अध्यायः १९०]   [अग्नि पुराण अध्यायः १९१]   [अग्नि पुराण अध्यायः १९२]

[अग्नि पुराण अध्यायः १९३]   [अग्नि पुराण अध्यायः १९४]   [अग्नि पुराण अध्यायः १९५]

[अग्नि पुराण अध्यायः १९६]   [अग्नि पुराण अध्यायः १९७]   [अग्नि पुराण अध्यायः १९८]

[अग्नि पुराण अध्यायः १९९]   [अग्नि पुराण अध्यायः २००]

टिप्पणियाँ