अग्नि पुराण - दो सौ पाँचवाँ अध्याय ! Agni Purana - 205 Chapter !

अग्नि पुराण - दो सौ पाँचवाँ अध्याय ! Agni Purana - 205 Chapter !

दो सौ पाँचवाँ अध्याय - भीष्मपञ्चकव्रतं

अग्निरुवाच

भीष्मपञ्चकमाख्यास्ये व्रतराजन्तु सर्वदं ।
कार्त्तिकस्यामले पक्षे एकादश्यां समचरेत् ॥१

दिनानि पञ्चत्रिःस्नाती पञ्चव्रीहितिलैस्तथा ।
तर्पयेद्देवपित्रादीन्मौनी सम्पूजयेद्धरिं ॥२

पञ्चगव्येन संस्नाप्य देवं पञ्चामृतेन च ।
चन्दनाद्यैः समालिप्य गुग्गुलुं सघृतन्दहेत् ॥३

दीपं दद्याद्दिवारात्रौ नैवेद्यं परमान्नकं ।
ओं नमो वासुदेवाय जपेदष्टोत्तरं शतं ॥४

जुहुयाच्च घृताभ्यक्तांस्तिलव्रीहींस्ततो व्रती ।
षडक्षरेण मन्त्रेण स्वाहाकारान्वितेन च ॥५

कमलैः पूजयेत्पादौ द्वितीये बिल्वपत्रकैः ।
जानु सक्थि तृतीयेऽथ नाभिं भृङ्गरजेन तु ॥६

वाणबिल्वजवाभिस्तु चतुर्थे पञ्चमेऽहनि ।
मालत्या भूमिशायी स्यादेकादश्यान्तु गोमयं ॥७

गोमूत्रं दधि दुग्धं च पञ्चमे पञ्चगव्यकं ।
पौर्णमास्याञ्चरेन्नक्तं भुक्तिं मुक्तिं लभेद्व्रती ॥८

भीष्मः कृत्वा हरिं प्राप्तस्तेनैव भीष्मपञ्चकं ।
ब्राह्मणः पूजनाद्यैश्च उपवासादिकं व्रतं ॥९

इत्याग्नेये महापुराणे भीष्मपञ्चकं नाम पञ्चाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - दो सौ पाँचवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 205 Chapter!-In Hindi

दो सौ पाँचवाँ अध्याय भीष्मपञ्चकत्व्रत

अग्निदेव कहते हैं- अब मैं सब कुछ देने वाले व्रतराज 'भीष्म पञ्चक' के विषय में कहता हूँ। कार्तिक के शुक्ल पक्ष की एकादशी को यह व्रत ग्रहण करे। पाँच दिनों तक तीनों समय स्नान करके पाँच तिल और यवोंके द्वारा देवता तथा पितरोंका तर्पण करे। फिर मौन रहकर भगवान् श्रीहरिका पूजन करे। देवाधिदेव श्रीविष्णुको पञ्चगव्य और पञ्चामृतसे स्नान करावे और उनके श्रीअङ्गोंमें चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्योंका आलेपन करके उनके सम्मुख घृतयुक्त गुग्गुल जलावे ॥ १-३॥ 

प्रातःकाल और रात्रिके समय भगवान् श्रीविष्णु को दीप दान करे और उत्तम भोज्य पदार्थका नैवेद्य समर्पित करे। व्रती पुरुष 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' इस द्वादशाक्षर मन्त्रका एक सौ आठ बार जप करे। तदनन्तर घृतसिक्त तिल और जौका अन्तमें 'स्वाहा' से संयुक्त 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' इस द्वादशाक्षर मन्त्रसे हवन करे। पहले दिन भगवान्‌के चरणोंका कमलके पुष्पोंसे, दूसरे दिन घुटनों और सक्थिभाग (दोनों ऊरुओं) का बिल्वपत्रोंसे, तीसरे दिन नाभिका भृङ्गराजसे, चौथे दिन बाणपुष्प, बिल्वपत्र और जपापुष्पोंद्वारा एवं पाँचवें दिन मालती- पुष्पोंसे सर्वाङ्गका पूजन करे। व्रत करनेवालेको भूमिपर शयन करना चाहिये। एकादशीको गोमय, द्वादशीको गोमूत्र, त्रयोदशीको दधि, चतुर्दशीको दुग्ध और अन्तिम दिन पञ्चगव्यका आहार करे। पौर्णमासीको 'नक्तव्रत' करना चाहिये। इस प्रकार व्रत करनेवाला भोग और मोक्ष दोनोंको प्राप्त कर लेता है। भीष्मपितामह इसी व्रतका अनुष्ठान करके भगवान् श्रीहरिको प्राप्त हुए थे, इसीसे यह 'भीष्मपञ्चक 'के नामसे प्रसिद्ध है। ब्रह्माजीने भी इस व्रतका अनुष्ठान करके श्रीहरिका पूजन किया था। इसलिये यह व्रत पाँच उपवास आदिसे युक्त है॥४-९॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'भीष्मपञ्चक व्रतका कथन' नामक दो सौ पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २०५ ॥

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