अग्नि पुराण - दो सौ चारवाँ अध्याय ! Agni Purana - 204 Chapter !
दो सौ चारवाँ अध्याय - मासोपवासव्रतं
अग्निरुवाच
व्रतं मासोपवासञ्च सर्वोत्कृष्टं वदामि ते ।
कृत्वा तु वैष्णवं यज्ञं गुरोराज्ञामवाप्य च ॥१
कृच्छ्राद्यैः स्वबलं बुद्ध्वा कुर्यान्मासोपवासकं ।
वानप्रस्थो यतिर्वाथ नारी वा विधवा मुने ॥२
आश्विनस्यामले पक्षे एकादश्यामुपोषितः ।
व्रतमेतत्तु गृह्णीयाद्यावत्त्रिंशद्दिनानि तु ॥३
अद्यप्रभृत्यहं विष्णो यावदुत्थानकन्तव ।
अर्चये त्वामनश्नन् हि यावत्त्रिंशद्दिनानि तु ॥४
कार्त्तिकाश्विनयोर्विष्णोर्यावदुत्थानकन्तव ।
म्रिये यद्यन्तरालेऽहं व्रतभङ्गो न मे भवेत् ॥५
त्रिकालं पूजयेद्विष्णुं त्रिःस्नातो गन्धपुष्पकैः ।
विष्णोर्गीतादिकं जप्यन्ध्यानं कुर्याद्व्रती नरः ॥६
वृथावादम्परिहरेदर्थाकाङ्क्षां विवर्जयेत् ।
नाव्रतस्थं स्पृशेत्कञ्चिद्विकर्मस्थान्न चालयेत् ॥७
देवतायतने तिष्ठेद्यावत्त्रिंशद्दिनानि तु ।
द्वादश्यां पूजयित्वा तु भोजयित्वा द्विजान्व्रती ॥८
समाप्य दक्षिणां दत्त्वा पारणन्तु समाचरेत् ।
भुक्तिमुक्तिमवाप्नोति कल्पांश्चैव त्रयोदश ॥९
कारयेद्वैष्णवं यज्ञं यजेद्विप्रांस्त्रयोदश ।
तावन्ति वस्त्रयुग्मानि भाजनान्यासनानि च ॥१०
छत्राणि सपवित्राणि तथोपानद्युगानि च ।
योगपट्टोपवीतानि दद्याद्विप्राय तैर्मतः ॥११
अन्यविप्राय शय्यायां हैमं विष्णुं प्रपूज्य च ।
आत्मनश्च तथामूर्तिं वस्त्राद्यैश्च प्रपूजयेत् ॥१२
सर्वपापविनिर्मुक्तो विप्रो विष्णुप्रसादतः ।
विष्णुलोकं गमिष्यामि विष्णुरेव भवाम्यहं ॥१३
व्रज व्रज देवबुद्धे विष्णोः स्थानमनामयं ।
विमानेनामलस्तत्र तिष्ठेद्विष्णुस्वरूपधृक् ॥१४
द्विजानुक्त्वाथ तां शय्यां गुरवेऽथ निवेदयेत् ।
कुलानां शतमुद्धृत्य विष्णुलोकन्नयेद्व्रती ॥१५
मासोपवासी यद्देशे स देशो निर्मलो भवेत् ।
किं पुनस्तत्कुलं सर्वं यत्र मासोपवासकृत् ॥१६
व्रतस्थं मूर्छितं दृष्ट्वा क्षीराज्यञ्चैव पाययेत् ।
नैते व्रतं विनिघ्रन्ति हविर्विप्रानुमोदितं ॥१७
क्षीरं गुरोर्हितौषध्य आपो मूलफलानि च ।
विष्णुर्महौषधं कर्ता व्रतमस्मात्समुद्धरेत् ॥१८
इत्याग्नेये महापुराणे मासोपवासव्रतं नाम चतुरधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥
अग्नि पुराण - दो सौ चारवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 204 Chapter!-In Hindi
दो सौ चारवाँ अध्याय मासोपवास-व्रत
अग्निदेव कहते हैं- मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ! अब मैं तुम्हारे सम्मुख सबसे उत्तम मासोपवास व्रतका वर्णन करता हूँ। वैष्णव-यज्ञका अनुष्ठान करके, आचार्यकी आज्ञा लेकर, कृच्छ्र आदि व्रतोंसे अपनी शक्तिका अनुमान करके मासोपवासव्रत करना चाहिये। वानप्रस्थ, संन्यासी एवं विधवा स्त्री-इनके लिये मासोपवास- व्रतका विधान है ॥ १-२ ॥
आश्विन के शुक्ल पक्षकी एकादशी को उपवास रखकर तीस दिनोंके लिये निम्नलिखित संकल्प करके मासोपवास-व्रत ग्रहण करे श्री विष्णो ! मैं आजसे लेकर तीस दिनतक आपके उत्थानकालपर्यन्त निराहार रहकर आपका पूजन करूँगा। सर्वव्यापी श्रीहरे! आश्विन शुक्ल एकादशीसे आपके उत्थानकाल कार्तिक शुक्ल एकादशीके मध्यमें यदि मेरी मृत्यु हो जाय तो (आपकी कृपासे) मेरा व्रत भङ्ग न हो।' व्रत करने वाला दिनमें तीन बार स्नान करके सुगन्धित द्रव्य और पुष्पोंद्वारा प्रातः, मध्याह्न एवं सायंकाल श्रीविष्णुका पूजन करे तथा विष्णु-सम्बन्धी गान, जप और ध्यान करे। व्रती पुरुष वकवादका परित्याग करे और धनकी इच्छा भी न करे। वह किसी भी व्रतहीन मनुष्यका स्पर्श न करे और शास्त्रनिषिद्ध कर्मोंमें लगे हुए लोगोंका चालक प्रेरक न बने। उसे तीस दिनतक देवमन्दिरमें ही निवास करना चाहिये। व्रत करनेवाला मनुष्य कार्तिकके शुक्लपक्षकी द्वादशीको भगवान् श्रीविष्णुकी पूजा करके ब्राह्मणोंको भोजन करावे। तदनन्तर उन्हें दक्षिणा देकर और स्वयं पारण करके व्रतका विसर्जन करे। इस प्रकार तेरह पूर्ण मासोपवास व्रतोंका अनुष्ठान करनेवाला भोग और मोक्ष दोनोंको प्राप्त कर लेता है॥ ३-९॥
(उपर्युक्त विधिसे तेरह मासोपवास-व्रतोंका अनुष्ठान करने के बाद व्रत करने वाला व्रतका उद्यापन करे।) वह वैष्णवयज्ञ करावे, अर्थात् तेरह ब्राह्मणोंका पूजन करे। तदनन्तर उनसे आज्ञा लेकर किसी ब्राह्मणको तेरह ऊर्ध्ववस्त्र अधोवस्त्र, पात्र, आसन, छत्र, पवित्री, पादुका, योगपट्ट और यज्ञोपवीतोंका दान करे ॥ १०-१२॥
तत्पश्चात् शय्यापर अपनी और श्री विष्णु की स्वर्णमयी प्रतिमाका पूजन करके उसे किसी दूसरे ब्राह्मणको दान करे एवं उस ब्राह्मणका वस्त्र आदिसे सत्कार करे। तदनन्तर व्रत करनेवाला यह कहे 'मैं सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर ब्राह्मणों और श्री विष्णु भगवान् के कृपा-प्रसाद से विष्णु लोक को जाऊँगा। अब मैं विष्णु स्वरूप होता हूँ।' इसके उत्तर में ब्राह्मणोंको कहना चाहिये- 'देवात्मन् ! तुम विष्णु के उस रोग-शोकरहित परमपद को जाओ-जाओ और वहाँ विष्णुका स्वरूप धारण करके विमान में प्रकाशित होते हुए स्थित होओ।' फिर व्रत करनेवाला द्विजों को प्रणाम करके वह शय्या आचार्यको दान करे। इस विधिसे व्रत करने वाला अपने सौ कुलों का उद्धार करके उन्हें विष्णु लोक में ले जाता है। जिस देशमें मासोपवास- व्रत करनेवाला रहता है, वह देश पापरहित हो जाता है। फिर उस सम्पूर्ण कुलकी तो बात ही क्या है, जिसमें मासोपवास व्रतका अनुष्ठान करने वाला उत्पन्न हुआ होता है। व्रतयुक्त मनुष्यको मूच्छित देखकर उसे घृतमिश्रित दुग्धको पान कराये। निम्नलिखित वस्तुएँ व्रतको नष्ट नहीं करतीं- ब्राह्मणकी अनुमतिसे ग्रहण किया हुआ हविष्य, दुग्ध, आचार्यकी आज्ञासे ली हुई ओषधि, जल, मूल और फल। 'इस व्रतमें भगवान् श्रीविष्णु ही महान् ओषधिरूप हैं'- इसी विश्वाससे व्रत करनेवाला इस व्रतसे उद्धार पाता है ॥ १३-१८ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'मासोपवास व्रत का वर्णन नामक दो सौ चारवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २०४॥
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