अग्नि पुराण -दो सौवाँ अध्याय ! Agni Purana - 200 Chapter !
दो सौवाँ अध्याय - दीप दान-व्रत की महिमा एवं विदर्भ राज कुमारी ललिता का उपाख्यान
अग्निरुवाच
दीपदानव्रतं वक्ष्ये भुक्तिमुक्तिप्रदायकं ।
देवद्विजातिकगृहे दीपदोऽब्दं स सर्वभाक् ॥१
चतुर्मासं विष्णुलोकी कार्त्तिके स्वर्गलोक्यपि ।
दीपदानात्परं नास्ति न भूतं न भविष्यति ॥२
दीपेनायुष्यचक्षुष्मान्दीपाल्लक्ष्मीसुतादिकं ।
सौभाग्यं दीपदः प्राप्य स्वर्गलोके महीयते ॥३
विदर्भराजदुहिता ललिता दीपदात्मभाक् ।
चारुधर्मक्ष्मापपत्नी शतभार्याधिकाभवत् ॥४
ददौ दीपसहस्रं सा विष्णोरायतने सती ।
पृष्टा सा दीपमाहात्म्यं सपत्नीभ्य उवाच ह ॥५
ललितोवाच
सौवीरराजस्य पुरा मैत्रेयोऽभूत्पुरोहितः ।
तेन चायतनं विष्णोः कारितं देविकातटे ॥६
कार्त्तिके दीपकस्तेन दत्तः सम्प्रेरितो मया ।
वक्त्रप्रान्तेन नश्यन्त्या मार्जारस्य तदा भयात् ॥७
निर्वाणवान् प्रदीप्तोऽभूद्वर्त्या मूषिकया तदा ।
मृता राजात्मजा जाता राजपत्नी शताधिका ॥८
असङ्कल्पितमप्यस्य प्रेरणं यत्कृतं मया ।
विष्ण्वायतनदीपस्य तस्येदं भुज्यते फलं ॥९
जातिस्मरा ह्यतो दीपान् प्रयच्छामि त्वहर्निशं ।
एकदश्यां दीपदो वै विमाने दिवि मोदते ॥१०
जायते दीपहर्ता तु मूको वा जड एव च ।
अन्धे तमसि दुष्पारे नरके पतते किल ॥११
विक्रोशमानांश्च नरान् यमकिङ्कराहतान् ।
विलापैरलमत्रापि किं वो विलपिते फलं ॥१२
यदा प्रमादिभिः पूर्वमत्यन्तसमुपेक्षितः ।
जन्तुर्जन्मसहस्रेभ्यो ह्येकस्मिन्मानुषो यदि ॥१३
तत्राप्यतिविमूढात्मा किं भोगानभिधावति ।
स्वहितं विषयास्वादैः क्रन्दनं तदिहागतं ॥१४॥
भुज्यते च कृतं पूर्वमेतत्किं वो न चिन्तितं ।
परस्त्रीषु कुचाभ्यङ्गं प्रीतये दुःखदं हि वः ॥१५
मुहूर्तविषयास्वादोऽनेककोट्यब्ददुःखदः ।
परस्त्रीहारि यद्गीतं हा मातः किं विलप्यते ॥१६
कोऽतिभारो हरेर्नाम्नि जिह्वया परिकीर्तने ।
वर्तितैलेऽल्पमूल्येऽपि यदग्निर्लभ्यते सदा ॥१७
दानाशक्तैर्हरेर्दीपो हृतस्तद्वोऽस्ति दुःखदं ।
इदानीं किं विलापेन सहध्वं यदुपागतं ॥१८
अग्निरुवाच
ललितोक्तञ्च ताः श्रुत्वा दीपदानाद्दिवं ययुः ।
तस्माद्दीपप्रदानेन व्रतानामधिकं फलं ॥१९
इत्याग्नेये महापुराणे दीपदानव्रतं नाम द्विशततमोऽध्यायः ॥
अग्नि पुराण - दो सौवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 200 Chapter!-In Hindi
दो सौवाँ अध्याय दीपदान-व्रतकी महिमा एवं विदर्भराजकुमारी ललिताका उपाख्यान
अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ ! अब मैं भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले 'दीपदान व्रत'का वर्णन करता हूँ। जो मनुष्य देवमन्दिर अथवा ब्राह्मणके गृहमें एक वर्षतक दीपदान करता है, वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है। चातुर्मास्यमें दीपदान करनेवाला विष्णुलोकको और कार्तिकमें दीपदान करनेवाला स्वर्गलोकको प्राप्त होता है। दीपदानसे बढ़कर न कोई व्रत है, न था और न होगा ही। दीपदानसे आयु और नेत्रज्योतिकी प्राप्ति होती है। दीपदानसे धन और पुत्रादिकी भी प्राप्ति होती है। दीपदान करनेवाला सौभाग्ययुक्त होकर स्वर्गलोकमें देवताओंद्वारा पूजित होता है। विदर्भराजकुमारी ललिता दीपदानके पुण्यसे ही राजा चारुधर्माकी पत्नी हुई और उसकी सौ रानियोंमें प्रमुख हुई। उस साध्वीने एक बार विष्णुमन्दिरमें सहस्त्र दीपोंका दान किया। इसपर उसकी सपत्नियोंने उससे दीपदानका माहात्म्य पूछा। उनके पूछनेपर उसने इस प्रकार कहा- ॥ १-५ ॥
ललिता बोली- पहलेकी बात है, सौवीरराजके यहाँ मैलेय नामक पुरोहित थे। उन्होंने देविका नदीके तटपर भगवान् श्रीविष्णुका मन्दिर बनवाया। कार्तिक मासमें उन्होंने दीपदान किया। बिलावके डरसे भागती हुई एक चुहियाने अकस्मात् अपने मुखके अग्रभागसे उस दीपककी बत्तीको बढ़ा दिया। बत्तीके बढ़नेसे वह बुझता हुआ दीपक प्रज्वलित हो उठा। मृत्युके पश्चात् वही चुहिया राजकुमारी हुई और राजा चारुधर्माकी सौ रानियोंमें पटरानी हुई। इस प्रकार मेरे द्वारा बिना सोचे-समझे जो विष्णुमन्दिरके दीपककी वर्तिका बढ़ा दी गयी, उसी पुण्यका मैं फल भोग रही हूँ। इसीसे मुझे अपने पूर्वजन्मका स्मरण भी है। इसलिये मैं सदा दीपदान किया करती हूँ। एकादशीको दीपदान करनेवाला स्वर्गलोकमें विमानपर आरूढ़ होकर प्रमुदित होता है।
मन्दिर का दीपक हरण करने वाला गूँगा अथवा मूर्ख हो जाता है। वह निश्चय ही 'अन्धतामिस्त्र' नामक नरकमें गिरता है, जिसे पार करना दुष्कर है। वहाँ रुदन करते हुए मनुष्योंसे यमदूत कहता है-"अरे! अब यहाँ विलाप क्यों करते हो? यहाँ विलाप करनेसे क्या लाभ है? पहले तुमलोगोंने प्रमादवश सहस्रों जन्मोंके बाद प्राप्त होनेवाले मनुष्य जन्मकी उपेक्षा की थी। वहाँ तो अत्यन्त मोहयुक्त चित्तसे तुमने भोगोंके पीछे दौड़ लगायी। पहले तो विषयोंका आस्वादन करके खूब हँसे थे, अब यहाँ क्यों रो रहे हो? तुमने पहले ही यह क्यों नहीं सोचा कि किये हुए कुकर्मोंका फल भोगना पड़ता है। पहले जो परनारीका कुचमर्दन तुम्हें प्रीतिकर प्रतीत होता था, वही अब तुम्हारे दुःखका कारण हुआ है। मुहर्तभरका विषयोंका आस्वादन अनेक करोड़ वर्षोंतक दुःख देनेवाला होता है। तुमने परस्त्रीका अपहरण करके जो कुकर्म किया, वह मैंने बतलाया। अब 'हा! मातः' कहकर विलाप क्यों करते हो? भगवान् श्रीहरिके नामका जिह्वासे उच्चारण करनेमें कौन-सा बड़ा भार है? बत्ती और तेल अल्प मूल्यकी वस्तुएँ हैं और अग्नि तो वैसे ही सदा सुलभ है। इसपर भी तुमने दीपदान न करके विष्णु-मन्दिरके दीपकका हरण किया, वही तुम्हारे लिये दुःखदायी हो रहा है। विलाप करनेसे क्या लाभ ? अब तो जो यातना मिल रही है, उसे सहन करो" ॥ ६-१८ ॥
अग्निदेव कहते हैं- ललिताकी सौतें उसके द्वारा कहे हुए इस उपाख्यानको सुनकर दीपदानके प्रभावसे स्वर्गको प्राप्त हो गयीं। इसलिये दीपदान सभी व्रतोंसे विशेष फलदायक है ॥ १९ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'दीपदानकी महिमाका वर्णन' नामक दो सौवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २००॥
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