अग्नि पुराण -एक सौ सत्तानबेवाँ अध्याय ! Agni Purana - 197 Chapter !

अग्नि पुराण एक सौ सत्तानबेवाँ अध्याय ! Agni Purana 197 Chapter !

अथ सप्तनवत्यधिकशततमोऽध्यायः - दिवसव्रतानि

अग्निरुवाच

दिवसव्रतकं वक्ष्ये ह्यादौ धेनुव्रतं वदे ।
यश्चोभयमुखीन्दद्यात्प्रभूतकनकान्वितां ॥१

दिनं पयोव्रतस्तिष्ठेत्स याति परसम्पदं ।
त्र्यहं पयोव्रतं कृत्वा काञ्चनं कल्पपादपं ॥२

दत्वा ब्रह्मपदं याति कल्पवृक्षप्रदं स्मृतं ।
दद्याद्विंशत्पलादूर्ध्वं महीङ्कृत्वा तु काञ्चनीं ॥३

दिनं पयोव्रतस्तिष्ठेद्रुद्रगः स्याद्दिवाव्रती ।
पक्षे पक्षे त्रिरात्रन्तु भक्तेनैकेन यः क्षपेत् ॥४

विपुलं धनमाप्नोति त्रिरात्रव्रतकृद्दिनं ।
मासे मासे त्रिरात्राशी एकभक्ती गणेशतां ॥५

यस्त्रिरात्रव्रतं कुर्यात्समुहिश्य जनार्दनं ।
कुलानां शतमादाय स याति भवनं हरेः ॥६

नवम्याञ्च सिते पक्षे नरो मार्गशिरस्यथ ।
प्रारभेत त्रिरात्राणां व्रतन्तु विधिवद्व्रती ॥७

ओं नमो वासुदेवाय सहस्रं वा शतं जपेत् ।
अष्टम्यामेकभक्ताशी दिनत्रयमुपावसेत् ॥८

द्वादश्यां पूजयेद्विष्णुं कार्त्तिके कारयेद्व्रतं ।
विप्रान् सम्भोज्य वस्त्राणि शयनान्यासनानि च ॥९

छत्रोपवीतपात्राणि ददेत्सम्प्रार्थयेद्द्विजान् ।
व्रतोऽस्मिन् दुष्करे चापि विकलं यदभून्मम ॥१०

भवद्भिस्तदनुज्ञातं परिपूर्णं भवत्विति ।
भुक्तभोगो व्रजेद्विष्णुं त्रिरात्रव्रतकत्रती ॥११

कार्त्तिकव्रतकं वक्ष्ये भुक्तिमुक्तिप्रदायकं ।
दशम्यां पञ्चगव्याशो एकादश्यामुपोषितः ॥१२

कार्त्तिकस्य सितेऽभ्यर्च्य विष्णुं देवविमानगः ।
चैत्रे त्रिरात्रं नक्ताशी अजापञ्चप्रदः सुखी ॥१३

त्रिरात्रं पयसः पानमुपवासपरस्त्र्यहं ।
षष्ठ्यादि कार्त्तिके शुक्रे कृच्छ्रो माहेन्द्र उच्यते ॥१४

पञ्चरात्रं पयः पीत्वा दध्याहारो ह्युपोषितः ।
एकादश्यां कार्त्तिके तु कृच्छ्रोऽयं भास्करोर्थदः ॥१५

यवागूं यावकं शाकं दधि क्षीरं घृतं जलं ।
पञ्चम्यादि सिते पक्षे कृच्छ्रः शान्तपनः स्मृतः ॥१६

इत्याग्नेये महपुराणे दिवसव्रतानि नाम सप्तनवत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण एक सौ सत्तानबेवाँ अध्याय हिन्दी मे -Agni Purana 197 Chapter In Hindi

एक सौ सत्तानबेवाँ अध्याय दिन-सम्बन्धी व्रत

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ ! अब मैं दिवस सम्बन्धी व्रतोंका वर्णन करता हूँ। सबसे पहले 'धेनुव्रत' के विषयमें बतलाता हूँ। जो मनुष्य विपुल स्वर्णराशिके साथ उभयमुखी गौका दान करता है और एक दिनतक पयोव्रतका आचरण करता है, वह परमपदको प्राप्त होता है। स्वर्णमय कल्पवृक्षका दान देकर तीन दिनतक 'पयोव्रत' करनेवाला ब्रह्मपदको प्राप्त कर लेता है। इसे 'कल्पवृक्ष-व्रत' कहा गया है। बीस पलसे अधिक स्वर्णकी पृथ्वीका निर्माण कराके दान दे और एक दिन पयोव्रतका अनुष्ठान करे। केवल दिनमें व्रत रखनेसे मनुष्य रुद्रलोकको प्राप्त होता है। जो प्रत्येक पक्षकी तीन रात्रियोंमें 'एकभुक्त व्रत' रखता है, वह दिनमें निराहार रहकर 'त्रिरात्रव्रत' करनेवाला मनुष्य विपुल धन प्राप्त करता है। प्रत्येक मासमें तीन एकभुक्त नक्तव्रत करनेवाला गणपतिके सायुज्यको प्राप्त होता है। जो भगवान् जनार्दनके उद्देश्यसे 'त्रिरात्रव्रत' का अनुष्ठान करता है, वह अपने सौ कुलोंके साथ भगवान् श्रीहरिके वैकुण्ठधामको जाता है। व्रतानुरागी मनुष्य मार्गशीर्षके शुक्लपक्षकी नवमीसे विधिपूर्वक त्रिरात्रव्रत प्रारम्भ करे। 'नमो भगवते वासुदेवाय' मन्त्रका सहस्र अथवा सौ बार जप करे। 

अष्टमीको एकभुक्त (दिनमें एक बार भोजन करना) व्रत और नवमी, दशमी, एकादशीको उपवास करे। द्वादशीको भगवान् श्रीविष्णुका पूजन करे। यह व्रत कार्तिकमें करना चाहिये। व्रतकी समाप्तिपर ब्राह्मणोंको भोजन कराके, उन्हें वस्त्र, शय्या, आसन, छत्र, यज्ञोपवीत और पात्र दान करे। देते समय ब्राह्मणोंसे यह प्रार्थना करे- 'इस दुष्कर व्रतके अनुष्ठानमें मेरे द्वारा जो त्रुटि हुई हो, आप लोगोंकी आज्ञासे वह परिपूर्ण हो जाय।' यह 'त्रिरात्रव्रत' करनेवाला इस लोकमें भोगोंका उपभोग करके मृत्युके पश्चात् भगवान् श्रीविष्णुके सांनिध्यको प्राप्त करता है॥ १-११ ॥

अब मैं भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले कार्तिकव्रतके विषयमें कहता हूँ। दशमीको पञ्चगव्यका प्राशन करके एकादशीको उपवास करे। इस व्रतके पालनमें कार्तिकके शुक्लपक्षकी द्वादशीको श्रीविष्णुका पूजन करनेवाला मनुष्य विमानचारी देवता होता है। चैत्रमें त्रिरात्रव्रत करके केवल रात्रिके समय भोजन करनेवाला एवं व्रतकी समाप्तिमें पाँच बकरियोंका दान देनेवाला सुखी होता है। कार्तिकके शुक्लपक्षकी षष्ठीसे आरम्भ करके तीन दिनतक केवल दुग्ध पीकर रहे। फिर तीन दिनतक उपवास करे। इसे 'माहेन्द्रकृच्छ' कहा जाता है। कार्तिकके शुक्लपक्षकी एकादशीको आरम्भ करके 'पञ्चरात्रव्रत' करे। प्रथम दिन दुग्धपान करे, दूसरे दिन दधिका आहार करे, फिर तीन दिन उपवास करे। यह अर्थप्रद 'भास्करकृच्छ्र' कहलाता है। शुक्लपक्षकी पञ्चमीसे आरम्भ करके छः दिनतक क्रमशः यवकी लपसी, शाक, दधि, दुग्ध, घृत और जल-इन वस्तुओंका आहार करे। इसे 'सांतपनकृच्छ्र' कहा गया है॥ १२-१६ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'दिवस सम्बन्धी व्रतका वर्णन' नामक एक सौ सत्तानवेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १९७॥

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