अग्नि पुराण एक सौ छियानबेवाँ अध्याय ! Agni Purana 196 Chapter !
अथ षण्णवत्यधिकशततमोऽध्यायः - नक्षत्रव्रतानि
अग्निरुवाच
नक्षत्रव्रतकं वक्ष्ये भे हरिः पूजितोऽर्थदः ।
नक्षत्रपुरुषं चादौ चैत्रमासे हरिं यजेत् ॥१
मूले पादौ यजेज्जङ्घे रोहिणीस्वर्चयेद्धरिं ।
जानुनी चाश्विनीयोगे आषाढासूरुसञ्ज्ञके ॥२
मेढ्रं पूर्वोत्तरास्वेव कटिं वै कृत्तिकासु च ।
पार्श्वे भाद्रपदाभ्यान्तु कुक्षिं वै रेवतीषु च ॥३
स्तनौ चैवानुराधासु धनिष्ठासु च पृष्ठकं ।
भुजौ पूज्यौ विशाखासु पुनर्वस्वङ्गुलीर्यजेत् ॥४
अश्लेषासु नखान् पूज्य कण्ठं ज्येष्ठासु पूजयेत् ।
श्रोत्रे विष्णोश्च श्रवणे मुखं पुष्ये हरेर्यजेत् ॥५
यजेत्स्वातिषु दन्ताग्रमास्यं वारुणतोऽर्चयेत् ।
मघासु नसां नयने मृगशीर्षे ललाटकं ॥६
चित्रासु चार्द्रासु कचानब्दान्ते स्वर्णकं हरिं ।
गुडपूर्णे घटेऽभ्यर्च्य शय्यागोर्थादि दक्षिणा॥७
नक्षत्रपुरुषो विष्णुः पूजनीयः शिवात्मकः ।
शाम्भवायनीयव्रतकृन्मासभे पूजयेद्धरिं ॥८
कार्त्तिके कृत्तिकायां च मृगशीर्षे मृगास्यके ।
नामभिः केशवाद्यैस्तु अच्युताय नमोऽपि वा ॥९
कार्त्तिके कृत्तिकाभेऽह्नि मासनक्षत्रगं हरिं ।
शाम्भवायनीयव्रतकं करिष्ये भुक्तिमुक्तिदं ॥१०
केशवादि महामूर्तिमच्युतं सर्वदायकं ।
आवाहयाम्यहन्देवमायुरारोग्यवृद्धिदं ॥११
कार्त्तिकादौ सकासारमन्नं[५]मासचतुष्टयं ।
फाल्गुनादौ च कुशरमाषाढादौ च पायसं ॥१२
देवाय ब्राह्मणेभ्यश्च नक्तन्नैवेद्यमाशयेत्।
पञ्चगव्यजलेस्नातस्तस्यैव प्राशनाच्छुचिः ॥१३
अर्वाग्विसर्जनाद्द्रव्यं नैवेद्यं सर्वमुच्यते ।
विसर्जिते जगन्नाथे निर्माल्यन्भवति क्षणात् ॥१४
नमो नमस्तेऽच्युत मे क्षयोस्तु पापस्य वृद्धिं समुपैतु पुण्यं ।
ऐश्वर्यवित्तादि सदाक्षयं मे क्षयञ्च मा सन्ततिरभ्यपैतु ॥१५
यथाच्युतस्त्वम्परतः परस्तात्स ब्रह्मभूतः परतः परात्मन् ।
तथाच्युतं त्वं कुरु वाञ्छितं मे मया कृतम्पापहराप्रमेय ॥१६
अच्युतानन्द गोविन्द प्रसीद यदभीप्सितं ।
अक्षयं माममेयात्मन् कुरुष्व पुरुषोत्तम ॥१७
सप्त वर्षाणि सम्पूज्य भुक्तिमुक्तिमवापुनुयात् ।
अनन्तव्रतमाख्यास्ये नक्षत्रव्रतकेर्थदं॥१८
मार्गशीर्षे मृगशिरे गोमूत्राशो यजेद्धरिं ।
अनन्तं सर्वकामानामनन्तो भगवान् फलं ॥१९
ददात्यनन्तञ्च पुनस्तदेवान्यत्र जन्मनि ।
अनन्तपुण्योपचयङ्करोत्येतन्महाव्रतं ॥२०
यथाभिलषितप्राप्तिं करोत्यक्षयमेव च ।
पादादि पूज्य नक्ते तु भुञ्जीयात्तैलवर्जितं ॥२१
घृतेनानन्तमुद्दिश्य होमो मासचतुष्टयं ।
चैत्रादौ शालिना होमः पयसा श्रावणादिषु ॥२२
मान्धाताभूद्युवनाश्वादनन्तव्रतकात्सुतः ॥
इत्याग्नेये महापुराणे नक्षत्रव्रतकानि नाम षण्णवत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥
अग्नि पुराण एक सौ छियानबेवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 196 Chapter In Hindi
एक सौ छियानबेवाँ अध्याय नक्षत्र-सम्बन्धी व्रत
अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! अब मैं नक्षत्र सम्बन्धी व्रतोंका वर्णन करता हूँ। नक्षत्र विशेषमें पूजन करनेपर श्रीहरि अभीष्ट मनोरथकी पूर्ति करते हैं। सर्वप्रथम नक्षत्र-पुरुष श्रीहरिका चैत्र मासमें पूजन करे। मूल नक्षत्रमें श्रीहरिके चरण- कमलोंकी और रोहिणी नक्षत्रमें उनकी जङ्घाओं की अर्चना करे। अश्विनी नक्षत्रके प्राप्त होनेपर जानुयुग्मका, पूर्वाषाढ़ा और उत्तराषाढ़ामें इनकी दोनों ऊरुओंका, पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनीमें उपस्थका, कृत्तिका नक्षत्रमें कटिप्रदेशका, पूर्वाभाद्रपदा और उत्तराभाद्रपदामें पार्श्वभागका, रेवती नक्षत्रमें कुक्षिदेशका, अनुराधामें स्तनयुगलका, धनिष्ठामें पृष्ठभागका, विशाखामें दोनों भुजाओंका एवं पुनर्वसु नक्षत्रमें अँगुलियोंका पूजन करे। आश्लेषामें नखोंका पूजन करके ज्येष्ठामें कण्ठका यजन करे। श्रवण नक्षत्रमें सर्वव्यापी श्रीहरिके कर्णद्वयका और पुष्य नक्षत्रमें बदन-मण्डलका पूजन करे। स्वाती नक्षत्रमें उनके दाँतोंके अग्रभागकी, शतभिषा नक्षत्रमें मुखकी अर्चना करे। मघा नक्षत्रमें नासिकाकी, मृगशिरा नक्षत्रमें नेत्रोंकी, चित्रा नक्षत्रमें ललाटकी एवं आर्द्रा नक्षत्रमें केशसमूहकी पूजा करे। वर्षके समाप्त होनेपर गुड़से परिपूर्ण कलशपर श्रीहरिकी स्वर्णमयी मूर्तिकी पूजा करके ब्राह्मणको दक्षिणासहित शय्या, गौ और धनादिका दान दे ॥ १-७॥
सबके पूजनीय नक्षत्रपुरुष श्रीविष्णु शिवसे अभिन्न हैं, इसलिये शाम्भवायनीय (शिव-सम्बन्धी) व्रत करने वाले को कृत्तिका नक्षत्र-सम्बन्धी कार्तिक मासमें और मृगशिरा नक्षत्र-सम्बन्धी मार्गशीर्ष मासमें केशव आदि नामों एवं 'अच्युताय नमः।' आदि मन्त्रोंद्वारा श्रीहरिका पूजन करना चाहिये
कार्तिके कृत्तिकाभेऽह्नि मासनक्षत्रर्ग हरिम्।
शाम्भवायनीयव्रतकं करिष्ये भुक्तिमुक्तिदम् ॥
'मैं कार्तिक मासकी कृत्तिकानक्षत्रसे युक्त पूर्णिमा तिथिको मास एवं नक्षत्रमें स्थित श्रीहरिका पूजन करूँगा तथा भोग एवं मोक्ष प्रदान करनेवाले शाम्भवायनीय व्रतका अनुष्ठान करूंगा।'
केशवादिमहामूर्तिमच्युतं सर्वदायकम्।
आवाहयाम्यहं देवमायुरारोग्यवृद्धिदम् ॥
'जो केशव आदि महामूर्तियोंके रूपमें स्थित हैं और आयु एवं आरोग्यकी वृद्धि करनेवाले हैं, मैं उन सर्वप्रद भगवान् अच्युतका आवाहन करता हूँ।' व्रतकर्ता कार्तिकसे माघतक चार मासोंमें सदा अन्न-दान करे। फाल्गुनसे ज्येष्ठतक खिचड़ीका और आषाढ़से आश्विनतक खौरका दान करे। भगवान् श्रीहरि एवं ब्राह्मणोंको रात्रिके समय नैवेद्य समर्पित करे। पञ्चगव्यके जलसे स्नान एवं उसका आचमन करनेसे मनुष्य पवित्र हो जाता है। मूर्तिके विसर्जनके पूर्व भगवान्को समर्पित किये हुए समस्त पदार्थोंको 'नैवेद्य' कहा जाता है, परंतु जगदीश्वर श्रीहरिके विसर्जनके अनन्तर वह तत्काल ही 'निर्माल्य' हो जाता है। (तदनन्तर भगवान्से निम्नलिखित प्रार्थना करे) 'अच्युत । आपको नमस्कार है, नमस्कार है। मेरे पापोंका विनाश हो और पुण्योंकी वृद्धि हो। मेरे ऐश्वर्य और धनादि सदा अक्षय हों एवं मेरी संतान- परम्परा कभी उच्छिन्न न हो। परात्परस्वरूप ! अप्रमेय परमेश्वर। जिस प्रकार आप परसे भी परे एवं ब्रह्मभावमें स्थित होकर अपनी मर्यादासे कभी च्युत नहीं होते हैं, उसी प्रकार आप मेरे मनोवाञ्छित कार्यको सिद्ध कीजिये। पापापहारी भगवन्! मेरे द्वारा किये गये पापोंका अपहरण कीजिये। अच्युत! अनन्त ! गोविन्द ! अप्रमेयस्वरूप पुरुषोत्तम ! मुझपर प्रसन्न होइये और मेरे मनोभिलषित पदार्थको अक्षय कीजिये।' इस प्रकार सात वर्षोंतक श्रीहरिका पूजन करके मनुष्य भोग और मोक्षको सिद्ध कर लेता है॥ ८-१७ ॥
अब मैं नक्षत्र सम्बन्धी व्रतोंके प्रकरणमें अभीष्ट वस्तुकी प्राप्ति करानेवाले 'अनन्तव्रत 'का वर्णन करूँगा। मार्गशीर्ष मासमें जब मृगशिरा नक्षत्र प्राप्त हो, तब गोमूत्रका प्राशन करके श्रीहरिका यजन करे। वे भगवान् अनन्त समस्त कामनाओंका अनन्त फल प्रदान करते हैं। इतना ही नहीं, वे पुनर्जन्ममें भी व्रतकर्ताको अनन्त पुण्यफलसे संयुक्त करते हैं। यह महाव्रत अनन्त पुण्यका संचय करनेवाला है। यह अभिलषित वस्तुकी प्राप्ति कराके उसे अक्षय बनाता है। भगवान् अनन्तके चरणकमल आदिका पूजन करके रात्रिके समय तैलरहित भोजन करे। भगवान् अनन्तके उद्देश्यसे मार्गशीर्षसे फाल्गुनतक घृतका, चैत्रसे आषाढ़तक अगहनीके चावलका और श्रावणसे कार्तिकतक दुग्धका हवन करे। इस 'अनन्त' व्रतके प्रभावसे ही युवनाश्वको मान्धाता पुत्ररूपमें प्राप्त हुए थे ॥ १८-२३ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'नक्षत्र व्रतोंका वर्णन' नामक एक सौ छियानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १९६ ॥
टिप्पणियाँ