अग्नि पुराण - एक सौ बानबेवाँ अध्याय ! Agni Purana - 192 Chapter !

अग्नि पुराण - एक सौ बानबेवाँ अध्याय ! Agni Purana - 192 Chapter !

एक सौ बानबेवाँ अध्याय - चतुर्दशीव्रतानि

अग्निरुवाच

व्रतं वक्ष्ये चतुर्दश्यां भुक्तिमुक्तिप्रदायकं ।
कार्त्तिके तु चतुर्दश्यां निराहारो यजेच्छिवम् ॥१

वर्षभोगधनायुष्मान् कुर्वन् शिवचतुर्दशीम् ।
मार्गशीर्षे सितेऽष्टाभ्यां तृतीयायां मुनिव्रतः ॥२

द्वादश्यां वा चतुर्दश्यां फलाहारो यजेत्सुरं ।
त्यक्त्वा फलानि दद्यात्तु कुर्वन् फलचतुर्दशीं ॥३

चतुर्दश्यां मथाष्टम्यां पक्षयोः शुक्लकृष्णयोः ।
अनश्नन् पूजयेच्छम्भुं स्वर्ग्युभयचतुर्दशीं ॥४

कृष्णाष्टम्यान्तु नक्तेन तथा कृष्णचतुर्दशीं ।
इह भोगानवाप्नोति परत्र च शुभाङ्गतिं ॥५

कार्तिके च चतुर्दश्यां कृष्णायां स्नानकृत्सुखी ।
आराधिते महेन्द्रे तु ध्वजाकारासु यष्टिषु ॥६

ततः शुक्लचतुर्दश्यामनन्तं पूजयेद्धरिं ।
कृत्वादर्भमयं चैव वारिधानी समन्वितं ॥७

शालिप्रस्थस्य पिष्टस्य पूपनाम्नः कृतस्य च ।
अर्धं विप्राय दातव्यमर्धमात्मनि योजयेत् ॥८

कर्तव्यं सरितां चान्ते कथां कृत्वा हरेरिति ।
अनन्तसंसारमहासमुद्रे मग्नान् समभ्युद्धर वासुदेव ॥९

अनन्तरूपे विनियोजयस्व अनन्तरूपाय नमो नमस्ते ।
अनेन पूजयित्वाथ सूत्रं बद्धा तु मन्त्रितं ॥१०

स्वके करे वा कण्ठे वा त्वनन्तव्रतकृत्सुखी ॥११॥

इत्याग्नेये महापुराणे नानाचतुर्दशीव्रतानि नाम द्विनवत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - एक सौ बानबेवाँ अध्याय !-हिन्दी मे -Agni Purana - 192 Chapter!-In Hindi

एक सौ बानबेवाँ अध्याय चतुर्दशी-सम्बन्धी व्रत

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! अब मैं चतुर्दशी तिथिको किये जानेवाले व्रतका वर्णन करूँगा। वह व्रत भोग और मोक्ष देनेवाला है। कार्तिककी चतुर्दशीको निराहार रहकर भगवान् शिवका पूजन करे और वहींसे आरम्भ करके प्रत्येक मासको शिव-चतुर्दशीको व्रत और शिवपूजनका क्रम चलाते हुए एक वर्षतक इस नियमको निभावे। ऐसा करनेवाला पुरुष भोग, धन और दीर्घायुसे सम्पन्न होता है॥ १॥

मार्गशीर्ष मासके शुक्लपक्षमें अष्टमी, तृतीया, द्वादशी अथवा चतुर्दशीको मौन धारण करके फलाहारपर रहे और देवताका पूजन करे तथा कुछ फलोंका सदाके लिये त्याग करके उन्होंका दान करे। इस प्रकार 'फलचतुर्दशी' का व्रत करनेवाला पुरुष शुक्ल और कृष्ण दोनों पक्षोंकी चतुर्दशी एवं अष्टमीको उपवासपूर्वक भगवान् शिवकी पूजा करे। इस विधिसे दोनों पक्षोंकी चतुर्दशीका व्रत करनेवाला मनुष्य स्वर्गलोकका भागी होता है। कृष्णपक्षकी अष्टमी तथा चतुर्दशी को नक्तव्रत (केवल रातमें भोजन) करनेसे साधक इहलोकमें अभीष्ट भोग तथा परलोकमें शुभ गति पाता है। कार्तिककी कृष्णा चतुर्दशी को स्नान करके ध्वज के आकारवाले बाँसके डंडॉपर देवराज इन्द्रकी आराधना करनेसे मनुष्य सुखी होता है॥ २-६॥

तदनन्तर प्रत्येक मासको शुक्ल चतुर्दशीको श्रीहरिके कुशमय विग्रहका निर्माण करके उसे जलसे भरे पात्रके ऊपर पथरावे और उसका पूजन करे। उस दिन अगहनी धानके एक सेर चावलके आटेका पूआ बनवा ले। उसमेंसे आधा ब्राह्मणको दे दे और आधा अपने उपयोगमें लावे ॥ ७-८ ॥

नदियोंके तटपर इस व्रत और पूजनका आयोजन करके वहीं श्रीहरिके 'अनन्तव्रत' की कथाका भी श्रवण या कीर्तन करना चाहिये। उस समय चतुर्दश ग्रन्थियोंसे युक्त अनन्तसूत्रका निर्माण करके अनन्तकी भावनासे ही उसका पूजन करे। फिर निम्नाङ्कित मन्त्रसे अभिमन्त्रित करके उसे अपने हाथ या कण्ठमें बाँध ले। मन्त्र इस प्रकार है-

अनन्तसंसारमहासमुद्रे मग्नान् समभ्युद्धर वासुदेव ॥ 
अनन्तरूपे विनियोजयस्व हानन्तरूपाय नमो नमस्ते।

"हे वासुदेव! संसाररूपी अपार पारावारमें डूबे हुए हम-जैसे प्राणियोंका आप उद्धार करें। आपके स्वरूपका कहीं अन्त नहीं है। आप हमें अपने उसी 'अनन्त' स्वरूपमें मिला लें। आप अनन्तरूप परमेश्वर को बारंबार नमस्कार है।" इस प्रकार अनन्त व्रत का अनुष्ठान करने वाला मनुष्य परमानन्द का भागी होता है ॥ ९-१०॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'अनेक प्रकारके चतुर्दशी व्रतोंका वर्णन' नामक एक सौ बानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १९२॥

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