अग्नि पुराण - एक सौ तिरासीवाँ अध्याय ! Agni Purana - 183 Chapter !

अग्नि पुराण - एक सौ तिरासीवाँ अध्याय ! Agni Purana 183 Chapter!

एक सौ तिरासीवाँ - अष्टमीव्रतानि

अग्निरुवाच

वक्ष्ये व्रतानि चाष्टम्यां रोहिण्यां प्रथमं व्रतं ।
मासि भाद्रपदेऽष्टभ्यां रोहिण्यामर्धरात्रके ॥१

कृष्णो जातो यतस्तस्यां जयन्ती स्यात्ततोऽष्टमी ।
सप्तजन्मकृतात्पापात्मुच्यते चोपवासतः ॥२

कृष्णपक्षे भाद्रपदे अष्टम्यां रोहिणीयुते ।
उपाषितोर्चयेत्कृष्णं भुक्तिमुक्तिप्रदायकं ॥३

आवाहयाम्यहं कृष्णं बलभद्रञ्च देवकीं ।
वसुदेवं यशोदाङ्गाः पूजयामि नमोऽस्तु ते ॥४

योगाय योगपतये योगेशाय नमो नमः ।
योगादिसम्भावयैव गोविन्दाय नमो नमः ॥५

स्नानं कृष्णाय दद्यात्तु अर्घ्यं चानेन दापयेत् ।
यज्ञाय यज्ञेश्वराय यज्ञानां पतये नमः ॥६

यज्ञादिसंभवायैव गोविन्दाय नमो नमः ।
गृहाण देव पुष्पाणि सुगन्धीनि प्रियाणि ते ॥७

सर्वकामप्रदो देव भव मे देववन्दित ।
धूपधूपित धूपं त्वं धूपितैस्त्वं गृहाण मे ॥८

सुगन्ध धूपगन्धाढ्यं कुरु मां सर्वदा हरे ।
दीपदीप्त महादीपं दीपदीप्तद सर्वदा ॥९

मया दत्तं गृहाण त्वं कुरु चोर्ध्वगतिं च मां ।
विश्वाय विश्वपतये विश्वेशाय नमो नमः ॥१०

विश्वादिसम्भवायैव गोविन्दाय निवेदितं ।
धर्माय धर्मपतये दर्मेशाय नमो नमः ॥११

धर्मादिसम्भवायैव गोविन्दशयनं कुरु ।
सर्वाय सर्वपतये सर्वेशाय नमो नमः ॥१२

सर्वादिसम्भवायैव गोविन्दाय च पावनं ।
क्षीरोदार्णवसम्भूत अत्रिनेत्रसमुद्भव ॥१३

गृहाणार्घ्यं शशाङ्केदं रोहिण्या सहितो मम ।
स्थण्डिले स्थापयेद्देवं सचन्द्रां रोहिणीं यजेत् ॥१४

देवकीं वसुदेवं च यशोदां नन्दकं बलं ।
अर्धरात्रे परोधाराः पातयेद्गुडसर्पिषा ॥१५

वस्त्रहेमादिकं दद्याद्ब्राह्मणान् भोजयेद्व्रती ।
जन्माष्टमीव्रतकरः पुत्रवान्विष्णुलोकभाक् ॥१६

वर्षे वर्षे तु यः कुर्यात्पुत्रार्थी वेत्ति नो भयं ।
पुत्रान् देहि धनं देहि आयुरारोग्यसन्ततिं ॥१७

धर्मं कामं च सौभाग्यं स्वर्गं मोक्षं च देहि मे ।१८

इत्याग्नेये महापुराणे जयन्त्यष्टमीव्रतं नाम त्र्यशीत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - एक सौ तिरासीवाँ अध्याय !-हिन्दी मे Agni Purana 183 Chapter!-In Hindi

एक सौ तिरासीवाँ अध्याय अष्टमी तिथि के व्रत

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ ! अब मैं अष्टमीको किये जानेवाले व्रतोंका वर्णन करूँगा। उनमें पहला रोहिणी नक्षत्रयुक्त अष्टमीका व्रत है। भाद्रपद मासके कृष्णपक्षकी रोहिणी नक्षत्रसे युक्त अष्टमी तिथिको ही अर्धरात्रिके समय भगवान् श्रीकृष्णका प्राकट्य हुआ था, इसलिये इसी अष्टमीको उनकी जयन्ती मनायी जाती है। इस तिथिको उपवास करनेसे मनुष्य सात जन्मोंके किये हुए पापोंसे मुक्त हो जाता है॥ १-२॥ अतएव भाद्रपदके कृष्णपक्षकी रोहिणीनक्षत्रयुक्त अष्टमीको उपवास रखकर भगवान् श्रीकृष्णका पूजन करना चाहिये। यह भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला है ॥ ३॥
(पूजनकी विधि इस प्रकार है-)

आवाहन-मन्त्र और नमस्कार आवाहयाम्यहं कृष्णं बलभद्रं च देवकीम्। 
योगाय योगपतये योगेशाय नमो नमः। 
योगादिसम्भवायैव गोविन्दाय नमो नमः ॥
वसुदेवं यशोदां गाः पूजयामि नमोऽस्तु ते ॥ 

'मैं श्रीकृष्ण, बलभद्र, देवकी, वसुदेव, यशोदादेवी और गौओंका आवाहन एवं पूजन करता हूँ; आप सबको नमस्कार है। योगस्वरूप, योगपति एवं योगेश्वर श्रीकृष्णके लिये नमस्कार है। योगके आदिकारण, उत्पत्तिस्थान श्रीगोविन्दके लिये बारंबार नमस्कार है' ॥ ४-५ ॥
तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्णको स्नान कराये और इस मन्त्रसे उन्हें अध्यदान करे-

यज्ञेश्वराय यज्ञाय यज्ञानां पतये नमः ॥ 
यज्ञादिसम्भवायैव गोविन्दाय नमो नमः।

'यज्ञेश्वर, यज्ञस्वरूप, यज्ञोंके अधिपति एवं यज्ञके आदि कारण श्रीगोविन्दको वारंवार नमस्कार है।'
  • पुष्प-धूप
गृहाण देव पुष्पाणि सुगन्धीनि प्रियाणि ते॥ 
सर्वकामप्रदो देव भव मे देववन्दित।
धूपधूपित धूपं त्वं धूपितैस्त्वं गृहाण में॥
सुगन्धिधूपगन्धायं कुरु मां सर्वदा हरे।

'देव! आपके प्रिय ये सुगन्धयुक्त पुष्प ग्रहण कीजिये। देवताओंद्वारा पूजित भगवन्! मेरी सारी कामनाएँ सिद्ध कीजिये। आप धूपसे सदा धूपित हैं, मेरे द्वारा अर्पित धूप-दानसे आप धूपकी सुगन्ध ग्रहण कीजिये। श्रीहरे! मुझे सदा सुगन्धित पुष्पों, धूप एवं गन्धसे सम्पन कीजिये।'
  • दीप-दान
दीपदीत महादीपं दीपदीप्तिद सर्वदा ॥ 
मया दत्तं गृहाण त्वं कुरु चोर्ध्वगतिं च माम्। 
विश्वाय विश्वपतये विश्वेशाय नमो नमः ॥ 
विश्वादिसम्भवायैव गोविन्दाय निवेदितम्।

'प्रभो! आप सर्वदा दीपके समान देदीप्यमान एवं दीपको दीप्ति प्रदान करनेवाले हैं। मेरे द्वारा दिया गया यह महादीप ग्रहण कीजिये और मुझे भी (दीपके समान) ऊर्ध्वगतिसे युक्त कीजिये। विश्वरूप, विश्वपति, विश्वेश्वर श्रीकृष्णके लिये नमस्कार है, नमस्कार है। विश्वके आदिकारण श्रीगोविन्दको मैं यह दीप निवेदन करता हूँ।'

  • शयन-मन्त्र

धर्माय धर्मपतये धर्मेशाय नमो नमः ॥
धर्मादिसम्भवायैव गोविन्द शयनं कुरु।
सर्वांय सर्वपतये सर्वेशाय नमो नमः ॥
सर्वादिसम्भवायैव गोविन्दाय नमो नमः ।

'धर्मस्वरूप, धर्मके अधिपति, धर्मेश्वर एवं धर्मके आदिस्थान श्रीवासुदेवको नमस्कार है। गोविन्द। अब आप शयन कीजिये। सर्वरूप, सबके अधिपति, सर्वेश्वर, सबके आदिकारण श्रीगोविन्दको बारंबार नमस्कार है।' 

(तदनन्तर रोहिणीसहित चन्द्रमाको निम्नाङ्कित मन्त्र पढ़कर अर्घ्यदान दे-)

क्षीरोदार्णवसम्भूत अत्रिनेत्रसमुद्भव ॥ 
गृहाणार्ध्व शशाङ्केदं रोहिण्या सहितो मम।

'क्षीरसमुद्रसे प्रकट एवं अत्रिके नेत्रसे उद्भुत तेजः स्वरूप शशाङ्क। रोहिणीके साथ मेरा अर्घ्य स्वीकार कीजिये। फिर भगवद्विग्रहको वेदिकापर स्थापित करे और चन्द्रमासहित रोहिणीका पूजन करे। तदनन्तर अर्धरात्रिके समय वसुदेव, देवकी, नन्द-यशोदा और बलरामका गुड़ और घृतमिश्रित दुग्ध धारासे अभिषेक करे ॥ ६-१५ ॥

तत्पश्चात् व्रत करनेवाला मनुष्य ब्राह्मणोंको भोजन करावे और दक्षिणामें उन्हें वस्त्र और सुवर्ण आदि दे। जन्माष्टमीका व्रत करनेवाला पुत्रयुक्त होकर विष्णुलोकका भागी होता है। जो मनुष्य पुत्रप्राप्तिकी इच्छासे प्रतिवर्ष इस व्रतका अनुष्ठान करता है, वह 'पुम्' नामक नरकके भयसे मुक्त हो जाता है। (सकाम व्रत करनेवाला भगवान् गोविन्दसे प्रार्थना करे-) 'प्रभो! मुझे पुत्र, धन, आयु, आरोग्य और संतति दीजिये। गोविन्द ! मुझे धर्म, काम, सौभाग्य, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान कीजिये ' ॥ १६-१८ ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'अष्टमीके व्रतोंका वर्णन' नामक एक सौ तिरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १८३॥

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