अग्नि पुराण - एक सौ अठहत्तरवाँ अध्याय ! Agni Purana - 178 Chapter !

अग्नि पुराण एक सौ अठहत्तरवाँ अध्याय ! Agni Purana 178 Chapter !

अथाष्टसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः - तृतीयाव्रतानि

अग्निरुवाच

तृतीयाव्रतान्याख्यास्ये भुक्तिमुक्तिप्रदानि ते ।
ललितायां तृतीयायां मूलगौरीव्रतं शृणु ॥१

तृतीयायां चैत्रशुक्ले ऊढा गौरी हरेण हि ।
तिलस्नातोऽर्चयेच्छम्भुं गौर्या हैमफलादिभिः ॥२

नमोऽस्तु पाटलायैव पादौ देव्याः शिवस्य च ।
शिवायेति च सङ्कीर्त्य जयायै गुल्फयोर्यजेत् ॥३

त्रिपुरघ्नाय रुद्राय भान्यै जङ्घयोर्द्वयोः ।
शिवं रुद्रायेश्वराय विजयायैव जानुनी ॥४

ईशायेति कटिं देव्याः शङ्करायेति शङ्करम् ।
कुक्षिद्वयञ्च कोटव्यै शूलिनं शूलपाणये ॥५

मङ्गलायै नमस्तुभ्यमुदरञ्चाभिपूजयेत् ।
सर्वात्मने नमो रुद्रमैशान्यै च कुचद्वयं ॥६

शिवं देवात्मने तद्वथ्रादिन्यै कण्ठमर्चयेत् ।
महादेवाय च शिवमनन्तायै करद्वयं ॥७

त्रिलोचनायेति हरं बाहुं कालानलप्रिये।
सौभाग्यायै महेशाय भूषणानि प्रपूजयेत् ॥८

अशोकमधुवासिन्यै ईश्वरायेति चौष्ठकौ ।
चतुर्मुखप्रिया चास्यं हराय स्थाणवे नमः ॥९

नमोऽर्धनारीशहरममिताङ्ग्यै च नासिकां ।
नम उग्राय लोकेशं ललितेति पुनर्भ्रुवौ ॥१०

सर्वाय पुरहन्तारं वासन्त्यै चैव तालुकं ।
नमः श्रीकण्ठनाथायै शितिकण्ठाय केशकं ॥११

भीमोग्राय सुपूपिण्यै शिरः सर्वात्मने नमः ।
मल्लिकाशोककमलकुन्दन्तगरमालती ॥१२

कदम्बकरवीरञ्च वाणमम्लानकुङ्कुमं ।
सिन्धुवारञ्च मासेषु सर्वेषु क्रमशः स्मृतं ॥१३

उमामहेश्वरौ पूज्य सौभाग्याष्टकमग्रतः ।
स्थापयेद् घृतनिष्पावकुसुम्भक्षीरजीवकं ॥१४

तरुराजेक्षुलवणं कुस्तुम्बुरुमथाष्टमं ।
चैत्रे शृगोदकं प्राश्य देवदेव्यग्रतः स्वपेत् ॥१५

प्रातः स्नात्वा समभ्यर्च्य विप्रदाम्पत्यमर्चयेत्।
तदष्टकं द्विजे दद्याल्ललिता प्रीयतां मम ॥१६

शृङ्गोदकं गोमयं च मन्दारं बिल्वपत्रकं ।
कुशोदकं दधि क्षीरं कार्त्तिके पृषदाज्यकम् ॥१७

गोमूत्राज्यं कृष्णतिलं पञ्चगव्यं क्रमाशनं ।
ललिता विजया भद्रा भवानी कुमुदा शिवा ॥१८

वासुदेवी तथा गौरी मङ्गला कमला सती ।
चैत्रादौ दानकाले च प्रीयतामिति वाचयेत् ॥१९

फलमेकं पवित्राज्यं व्रतान्ते शयानं ददेत् ।
उमामहेश्वरं हैमं वृषभञ्च गवा सह ॥२०

गुरुञ्च मिथुनान्यर्च्य वस्त्राद्यैर्भुक्तिमुक्तिभाक् ।
सौभाग्यारोग्यरूपायुः सौभाग्यशयनव्रतान् ॥२१

नभस्ये वाथ वैशाखे कुर्यान्मार्गशिरस्यथ ।
शुक्लपक्षे तृतीयायां ललितायै नमो यजेत् ॥२२

प्रतिपक्षं ततः प्रार्च्य व्रतान्ते मित्युनानि च ।
चतुर्विंशतिमभ्यर्च्य वस्त्राद्यैर्भुक्तिमुक्तिभाक् ॥२३

उक्तो मार्गो द्वितीयोऽयं सौभाग्यव्रतमावदे ।
फाल्गुणादितृतीयायां लवणं यस्तु वर्जयेत् ॥२४

समाप्ते शयनन्दद्याद्गृहश्चोपस्करान्वितं ।
सम्पूज्य विप्रमिथुनं भवानी प्रीयतामिति॥२५

सौभाग्यार्थं तृतीयोक्ता गौरीलोकादिदायिनी ।
माघे भाद्रे च वैशाखे तृतीयाव्रतकृत्तथा ॥२६

दमनकतृतीयाकृत्चैत्रे दमनकैर्यजेत् ।
आत्मतृतीया मार्गस्य प्रार्च्येच्छाभोजनादिना ॥२७

गौरी काली उमा भद्रा दुर्गा कान्तिः सरस्वती ।
वैष्णवी लक्ष्मीः प्रकृतिः शिवा नारायणी क्रमात् ॥२८

मार्गतृतीयामारभ्य सौभाग्यं स्वर्गमाप्नुयात् ॥२९

इत्याग्नेये महापुराणे तृतीयाव्रतानि नाम अष्टसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण एक सौ अठहत्तरवाँ अध्याय ! हिन्दी मे -Agni Purana 178 Chapter!-In Hindi

एक सौ अठहत्तरवाँ अध्याय तृतीया तिथि के व्रत

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! अब मैं आपके सम्मुख तृतीया तिथिको किये जानेवाले व्रतोंका वर्णन करूँगा, जो भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं। ललितातृतीयाको किये जानेवाले मूलगौरी सम्बन्धी (सौभाग्यशयन) व्रतको सुनिये ॥ १॥

चैत्रके शुक्लपक्षको तृतीयाको ही पार्वतीका भगवान् शिवके साथ विवाह हुआ था। इसलिये इस दिन तिलमिश्रित जलसे स्नान करके पार्वतीसहित भगवान् शंकरकी स्वर्णाभूषण और फल आदिसे पूजा करनी चाहिये ॥ २॥

'नमोऽस्तु पाटलायै' (पाटला देवीको नमस्कार)- यह कहकर पार्वतीदेवी और भगवान् शंकरके चरणोंका पूजन करे। 'शिवाय नमः (भगवान् शिवको नमस्कार)- यह कहकर शिवकी और 'जयायै नमः' (जयाको नमस्कार) यों कहकर गौरी देवीकी अर्चना करे। 'त्रिपुरघ्नाय रुद्राय नमः' (त्रिपुरविनाशक रुद्रदेवको नमस्कार) तथा 'भवान्यै नमः' (भवानीको नमस्कार)- यह कहकर क्रमशः शिव-पार्वतीकी दोनों जङ्घाओंका ' और 'रुद्रायेश्वराय नमः' (सबके ईश्वर रुद्रदेवको नमस्कार है) एवं 'विजयायै नमः' (विजयाको नमस्कार)- यह कहकर क्रमशः शंकर और पार्वतीके घुटनोंका पूजन करे। 'ईशायै नमः' (सर्वेश्वरीको नमस्कार)- यह कहकर देवीके और 'शंकराय नमः' ऐसा कहकर शंकरके कटिभागकी पूजा करे। 'कोटव्यै नमः' (कोटवीदेवीको नमस्कार) और 'शूलपाणये नमः' (त्रिशूलधारीको नमस्कार) यों कहकर क्रमशः गौरीशंकरके कुक्षिदेशका पूजन करे। 'मङ्गलायै नमः' (मङ्गलादेवीको नमस्कार) कहकर भवानीके और 'तुभ्यं नमः' (आपको नमस्कार) यह कहकर शंकरके उदरका पूजन करे। 'सर्वात्मने नमः' (सम्पूर्ण प्राणियोंके आत्मभूत शिवको नमस्कार) यों कहकर रुद्रके और 'ईशान्यै नमः' (ईशानीको नमस्कार) कहकर पार्वतीके स्तनयुगलका पूजन करे। 'देवात्मने नमः' (देवताओंके आत्मभूत शंकरको नमस्कार) - कहकर शिवके और उसी प्रकार 'ह्वादिन्यै नमः' (सबको आह्लाद प्रदान करनेवाली गौरीको नमस्कार) कहकर पार्वतीके कण्ठप्रदेशकी अर्चना करे। 'महादेवाय नमः' (महादेवको नमस्कार) और 'अनन्तायै नमः' (अनन्ताको नमस्कार) कहकर क्रमशः शिव-पार्वतीके दोनों हाथोंका पूजन करे। 'त्रिलोचनाय नमः' (त्रिलोचनको नमस्कार) और 'कालानलप्रियायै नमः' (कालाग्निस्वरूप शिवकी प्रियतमाको नमस्कार) कहकर भुजाओंका तथा 'महेशाय नमः' (महेश्वरको नमस्कार) एवं 'सौभाग्यायै नमः' (सौभाग्यवतीको नमस्कार) कहकर शिव-पार्वतीके आभूषणोंको पूजा करे। तदनन्तर अशोकमधुवासिन्यै नमः' (अशोक-पुष्पके मधुसे सुवासित पार्वतीको नमस्कार) और 'ईश्वराय नमः' (ईश्वरको नमस्कार) कहकर दोनोंके ओष्ठभागका तथा 'चतुर्मुखप्रियायै नमः' (चतुर्मुख ब्रह्माकी प्रिय पुत्रवधूको नमस्कार) और 'हराय स्थाणवे नमः' (पापहारी स्थाणुस्वरूप शिवको नमस्कार) कहकर क्रमशः गौरीशंकरके मुखका पूजन करे। 'अर्धनारीशाय नमः' (अर्धनारीश्वरको नमस्कार) कहकर शिवकी और 'अमिताङ्गायै नमः' (अपरिमित अङ्गोंवाली देवीको नमस्कार) कहकर पार्वतीकी नासिकाका पूजन करे। 'उग्राय नमः' (उग्रस्वरूप शिवको नमस्कार) कहकर लोकेश्वर शिवका और 'ललितायै नमः' (ललिताको नमस्कार) कहकर पार्वतीकी भौंहोंका पूजन करे। 'शर्वाय नमः' (शर्वको नमस्कार) कहकर त्रिप्रारि शिवके और 'वासन्त्यै नमः' (वासन्तीदेवीको नमस्कार) कहकर पार्वतीके तालुप्रदेशका पूजन करे।' श्रीकण्ठनाथायै नमः' (श्रीकण्ठ शिवकी पत्नी उमाको नमस्कार) और 'शितिकण्ठाय नमः' (नीलकण्ठको नमस्कार) कहकर गौरी-शंकरके केशपाशका पूजन करे। 'भीमोग्राय नमः' (भयंकर एवं उग्रस्वरूप धारण करनेवाले शिवको नमस्कार) कहकर शंकरके और 'सुरूपिण्यै नमः' (सुन्दर रूपवतीको नमस्कार) कहकर भगवती उमाके शिरोभागकी अर्चना करे। 'सर्वात्मने नमः' (सर्वात्मा शिवको नमस्कार) कहकर पूजाका उपसंहार करे ॥ ३-११॥

शिवकी पूजाके लिये ये पुष्प क्रमशः चैत्रादि मासोंमें ग्रहण करनेयोग्य बताये गये हैं- मल्लिका, अशोक, कमल, कुन्द, तगर, मालती, कदम्ब, कनेर, नीले रंगका सदाबहार, अम्लान (आँ बोली), कुकुम और सेंधुवार ॥ १२-१३ ॥

उमा-महेश्वरका पूजन करके उनके सम्मुख अष्ट सौभाग्य-द्रव्य रख दे। घृतमिश्रित निष्पाव (एक द्विदल), कुसुम्भ (केसर), दुग्ध, जीवक (एक ओषधिविशेष), दूर्वा, ईख, नमक और कुस्तुम्बुरु (धनियाँ) - ये अष्ट सौभाग्य-द्रव्य हैं। चैत्रमासमें पहाड़ोंके शिखरोंका (गङ्गा आदिका) जल पान करके रुद्रदेव और पार्वतीदेवीके आगे शयन करे। प्रातःकाल स्नान करके गौरी शंकरका पूजन कर ब्राह्मण दम्पतिकी अर्चना करे और वह अष्ट सौभाग्य द्रव्य 'ललिता प्रीयतां मम।' (ललिता मुझपर प्रसन्न हों) ऐसा कहकर ब्राह्मणको दे ॥ १४-१६ ॥

व्रत करनेवालेको चैत्रादि मासोंमें व्रतके दिन क्रमशः यह आहार करना चाहिये- चैत्रमें शृङ्गजल (झरनेका जल), वैशाखमें गोबर, ज्येष्ठमें मन्दार (आक) का पुष्प, आषाढ़में बिल्वपत्र, श्रावणमें कुशजल, भाद्रपदमें दही, आश्विनमें दुग्ध, कार्तिकमें घृतमिश्रित दधि, मार्गशीर्षमें गोमूत्र, पौषमें घृत, माघमें काले तिल और फाल्गुनमें पञ्चगव्य। ललिता, विजया, भद्रा, भवानी, कुमुदा, शिवा, वासुदेवी, गौरी, मङ्गला, कमला और सती- चैत्रादि मासोंमें सौभाग्याष्टकके दानके समय उपर्युक्त नामोंका 'प्रीयतां मम' से संयुक्त करके उच्चारण करे। व्रतके पूर्ण होनेपर किसी एक फलका सदाके लिये त्याग कर दे तथा गुरुदेवको तकियोंसे युक्त शय्या, उमा-महेश्वरकी स्वर्णनिर्मित प्रतिमा एवं गौसहित वृषभका दान करे। गुरु और ब्राह्मण दम्पतिका वस्त्र आदिसे सत्कार करके साधक भोग और मोक्ष दोनोंको प्राप्त कर लेता है। इस 'सौभाग्यशयन' नामक व्रतके अनुष्ठानसे मनुष्य सौभाग्य, आरोग्य, रूप और दीर्घायु प्राप्त करता है॥ १७-२१ ॥

यह व्रत भाद्रपद, वैशाख और मार्गशीर्षके शुक्लपक्षकी तृतीयाको भी किया जा सकता है। इसमें 'ललितायै नमः' (ललिताको नमस्कार) - इस प्रकार कहकर पार्वती का पूजन करे। तदनन्तर व्रतकी समाप्तिके समय प्रत्येक पक्षमें ब्राह्मण- दम्पतिकी पूजा करनी चाहिये। उनकी चौबीस वस्त्र आदिसे अर्चना करके मनुष्य भोग और मोक्ष दोनोंको प्राप्त कर लेता है। 'सौभाग्यशयन 'की यह दूसरी विधि बतायी गयी। अब मैं 'सौभाग्यव्रत 'के विषयमें कहता हूँ। फाल्गुन आदि मासोंमें शुक्लपक्षकी तृतीयाको व्रत करनेवाला नमकका परित्याग करे। व्रत समाप्त होनेपर ब्राह्मण-दम्पतिका पूजन करके 'भवानी प्रीयताम्।' (भवानी प्रसन्न हों) कहकर शय्या और सम्पूर्ण सामग्रियोंसे युक्त गृहका दान करे। यह 'सौभाग्य-तृतीया' व्रत कहा गया, जो पार्वती आदिके लोकोंको प्रदान करनेवाला है। इसी प्रकार माघ, भाद्रपद और वैशाखकी तृतीयाको व्रत करना चाहिये ॥ २२-२६ ॥

चैत्रमें 'दमनक-तृतीया' का व्रत करके पार्वतीकी 'दमनक' नामक पुष्पोंसे पूजन करनी चाहिये। मार्गशीर्षमें 'आत्म-तृतीया' का व्रत किया जाता है। इसमें पार्वतीका पूजन करके  ब्राह्मणको इच्छानुसार भोजन करावे। मार्गशीर्षकी तृतीयासे आरम्भ करके, क्रमशः पौष आदि मासोंमें उपर्युक्त व्रतका अनुष्ठान करके निम्नलिखित नामोंको 'प्रीयताम्' से संयुक्त करके, कहे- गौरी, काली, उमा, भद्रा, दुर्गा, कान्ति, सरस्वती, वैष्णवी, लक्ष्मी, प्रकृति, शिवा और नारायणी। इस प्रकार व्रत करनेवाला सौभाग्य और स्वर्गको प्राप्त करता है॥ २७-२८ ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'तृतीयाके व्रतोंका वर्णन नामक एक सौ अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १७८॥

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