अग्नि पुराण - एक सौ सतहत्तरवाँ अध्याय ! Agni Purana - 177 Chapter !

अग्नि पुराण एक सौ सतहत्तरवाँ अध्याय ! Agni Purana -177 Chapter!

सप्तसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः- द्वितीया तिथि के व्रत


अग्निरुवाच

द्वितीयाव्रतकं वक्ष्ये भुक्तिमुक्तिदायकं ।
पुष्पाहारी द्वितीयायामश्विनौ पूजयेत्सुरौ ॥१

अब्दं स्वरूपसौभाग्यं स्वर्गभाग्जायते व्रती ।
कार्त्तिके शुक्तिपक्षस्य द्वितीयायां यमं यजेत् ॥२

अब्दमुपोषितः स्वर्गं गच्छेन्न नरकं व्रती ।
अशून्यशयनं वक्ष्ये अवैधव्यादिदायकं ॥३

कृष्णपक्षे द्वितीयायां श्रावणास्य चरेदिदं ।
श्रीवत्सधारिन् श्रिकान्त श्रीधामन् श्रीपतेऽव्यय ॥४

गार्हस्थ्यं मा प्रणाशं मे यातु धर्मार्थकामदं ।
अग्नयी मा प्रणश्यन्तु मा प्रणश्यन्तु देवताः ॥५

पितरो मा प्रणश्यन्तु मत्तो दाम्पत्यभेदतः ।
लक्ष्म्या वियुज्यते देवो न कदाशिद्यथा भवान् ॥६

तथा कलत्रसम्बन्धो देव मा मे विभिद्यतां ।
लक्ष्म्या न शून्यं वरद यथा ते शयनं विभो ॥७

शय्या ममाप्यशून्यास्तु तथैव मधुसूदन ।
लक्ष्मीं विष्णुं यजेदव्दं दद्याच्छय्यां फलानि च ॥८

प्रतिमासं च सोमाय दद्यादर्घ्यं समन्त्रकं ।
गगनाङ्गणसन्दीप दुग्धाब्धिमथनोद्भव ॥९

भाभासितादिगाभोग रामानुज नमोऽस्तु ते ।
ओं श्रीं श्रीधराय नमः सोमात्मानं हरिं यजेत् ॥१०

घं ढं भं हं श्रियै नमो दशरूपमहात्मने ।
घृतेन होमो नक्तञ्च शय्यां दद्याद्द्विजातये॥११

दीपान्नभाजनैर्युक्तं छत्रोपानहमासनं ।
सोदकुम्भञ्च प्रतिमां विप्रायाथ च पात्रकं॥१२

पत्न्या य एवं कुरुते भुक्तिमुक्तिमवाप्नुयात् ।
कान्तिव्रतं प्रवक्ष्यामि कार्त्तिकस्य सिते चरेत् ॥१३

नक्तभोजी द्वितीयायां पूजयेद्बलकेशवौ ।
वर्षं प्राप्नोति वै कान्तिमायुरारोग्यकादिकं ॥१४

अथ विष्णुव्रतं वक्ष्ये मनोवाञ्छितदायकं ।
पौषशुक्लद्वितीयादि कृत्वा दिनचतुष्टयं ॥१५

पूर्वं सिद्धार्थकैः स्नानं ततः कृष्णतिलैः स्मृतं ।
वचया च तृतीयेऽह्नि सर्वौषध्या चतुर्थके ॥१६

मुरामांषी वचा कुष्ठं शैलेयं रजनीद्वयं ।
सटी चम्पकमुस्तञ्च सर्वौषधिगणः स्मृतः ॥१७

नाम्ना कृष्णाच्युतानन्त हृषीकेशेति पूजयेत् ।
पादे नाभ्यां चक्षुषि च क्रमाच्छिरसि पुष्पकैः ॥१८

शशिचन्द्रशशाङ्केन्दुसञ्ज्ञाभिश्चार्घ्यं इन्दवे ।
नक्तं भुञ्जीत च नरो यावत्तिष्ठति चन्द्रमाः ॥१९

षण्मासं पावनं चाब्दं प्राप्नुयात्सकलं व्रती ।
एतद्व्रतं नृपैः स्त्रीभिः कृतं पूर्वं सुरादिभिः ॥२०

इत्याग्नेये महापुराणे द्वितीयाव्रतानि नाम सप्तसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥

अग्नि पुराण - एक सौ सतहत्तरवाँ अध्याय हिन्दी मे -Agni Purana 177 Chapter!-In Hindi

एक सौ सतहत्तरवाँ अध्याय द्वितीया तिथि के व्रत

अग्निदेव कहते हैं- अब मैं द्वितीयाके व्रतोंका वर्णन करूँगा, जो भोग और मोक्ष आदि देनेवाले हैं। प्रत्येक मासकी द्वितीयाको फूल खाकर रहे और दोनों अश्विनीकुमार नामक देवताओंकी पूजा करे। एक वर्षतक इस व्रतके अनुष्ठानसे सुन्दर स्वरूप एवं सौभाग्यकी प्राप्ति होती है और अन्तमें व्रती पुरुष स्वर्गलोकका भागी होता है। कार्तिकमें शुक्लपक्षको द्वितीयाको यमकी पूजा करे। फिर एक वर्षतक प्रत्येक शुक्ल-द्वितीयाको उपवासपूर्वक व्रत रखे। ऐसा करनेवाला पुरुष स्वर्गमें जाता है, नरकमें नहीं पड़ता ॥ १-२॥ 

अब 'अशून्य-शयन' नामक व्रत बतलाता हूँ, जो स्त्रियोंको अवैधव्य (सदा सुहाग) और पुरुषोंको पत्नी सुख आदि देनेवाला है। श्रावण मासके कृष्णपक्षकी द्वितीयाको इस व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये। (इस व्रतमें भगवान्से इस प्रकार प्रार्थना की जाती है) 'वक्षः स्थलमें श्रीवत्सचिह्न धारण करनेवाले श्रीकान्त! आप लक्ष्मीजीके धाम और स्वामी हैं; अविनाशी एवं सनातन परमेश्वर हैं। आपकी कृपासे धर्म, अर्थ और काम प्रदान करनेवाला मेरा गार्हस्थ्य-आश्रम नष्ट न हो। मेरे घरके अग्निहोत्रकी आग कभी न बुझे, गृहदेवता कभी अदृश्य न हों। मेरे पितर नाशसे बचे रहें और मुझसे दाम्पत्य भेद न हो। जैसे आप कभी लक्ष्मीजीसे विलग नहीं होते, उसी प्रकार मेरा भी पत्नीके साथका सम्बन्ध कभी टूटने या छूटने न पावे। वरदानी प्रभो! जैसे आपकी शय्या कभी लक्ष्मीजीसे सूनी नहीं होती, मधुसूदन ! उसी प्रकार मेरी शय्या भी पत्नीसे सूनी न हो।' इस प्रकार व्रत आरम्भ करके एक वर्षतक प्रतिमासकी द्वितीयाको श्रीलक्ष्मी और विष्णुका विधिवत् पूजन करे। शब्या और फलका दान भी करे। साथ ही प्रत्येक मासमें उसी तिथिको चन्द्रमाके लिये मन्त्रोच्चारणपूर्वक अर्घ्य दे। (अर्घ्यका मन्त्र) 'भगवान् चन्द्रदेव! आप गगन-प्राङ्गणके दीपक हैं। क्षीरसागरके मन्थनसे आपका आविर्भाव हुआ है। आप अपनी प्रभासे सम्पूर्ण दिड्मण्डलको प्रकाशित करते हैं। भगवती लक्ष्मीके छोटे भाई! आपको नमस्कार है। तत्पश्चात् 'ॐ अं श्रीधराय नमः।' इस मन्त्रसे सोमस्वरूप श्रीहरिका पूजन करे। 'घं टं हं से श्रियै नमः।' इस मन्त्रसे लक्ष्मीजीकी तथा 'दशरूपमहात्मने नमः ।' - इस मन्त्रसे श्रीविष्णुकी पूजा करे। रातमें घीसे हवन करके ब्राह्मणको शय्या-दान करे। उसके साथ दीप, अन्नसे भरे हुए पात्र, छाता, जूता, आसन, जलसे भरा कलश, श्रीहरिकी प्रतिमा तथा पात्र भी ब्राह्मणको दे। जो इस प्रकार उक्त व्रतका पालन करता है, वह भोग और मोक्षका भागी होता है॥ ३-१२ ॥

अब 'कान्तिव्रत' का वर्णन करता हूँ। इसका प्रारम्भ कार्तिक शुक्ला द्वितीयाको करना चाहिये। दिनमें उपवास और रातमें भोजन करे। इसमें बलराम तथा भगवान् श्रीकृष्णका पूजन करे। एक वर्षतक ऐसा करनेसे व्रती पुरुष कान्ति, आयु और आरोग्य आदि प्राप्त करता है॥ १३-१४॥ 

अब मैं 'विष्णुव्रत' का वर्णन करूँगा, जो मनोवाञ्छित फलको देनेवाला है। पौष मासके शुक्लपक्षकी द्वितीयासे आरम्भ करके लगातार चार दिनोंतक इस व्रतका अनुष्ठान किया जाता है। पहले दिन सरसों मिश्रित जलसे स्नानका विधान है। दूसरे दिन काले तिल मिलाये हुए जलसे स्नान बताया गया है। तीसरे दिन वचा या वच नामक ओषधिसे युक्त जलके द्वारा तथा चौथे दिन सर्वोषधि मिश्रित जलके द्वारा स्नान करना चाहिये। मुरा (कपूर-कचरी), वचा (वच), कुष्ठ (कूठ), शैलेय (शिलाजीत या भूरिछरीला), दो प्रकारकी हल्दी (गाँठ हल्दी और दारुहल्दी). कचूर, चम्पा और मोथा यह 'सर्वोषधि- समुदाय' कहा गया है। पहले दिन 'श्रीकृष्णाय नमः ।', दूसरे दिन 'अच्युताय नमः ।', तीसरे दिन 'अनन्ताय नमः।' और चौथे दिन 'हृषीकेशाय नमः।' इस नाम-मन्त्रसे क्रमशः भगवान्‌के चरण, नाभि, नेत्र एवं मस्तकपर पुष्प समर्पित करते हुए पूजन करना चाहिये। प्रतिदिन प्रदोषकालमें चन्द्रमाको अर्घ्य देना चाहिये। पहले दिनके अर्घ्यमें 'शशिने नमः।', दूसरे दिनके अर्घ्यमें 'चन्द्राय नमः।', तीसरे दिन 'शशाङ्काय नमः ।' और चौथे दिन 'इन्दवे नमः।' का उच्चारण करना चाहिये। रातमें जबतक चन्द्रमा दिखायी देते हों, तभीतक मनुष्यको भोजन कर लेना चाहिये। व्रती पुरुष छः मास या एक सालतक इस व्रतका पालन करके सम्पूर्ण मनोवाञ्छित फलको प्राप्त कर लेता है। पूर्वकालमें राजाओंने, स्त्रियोंने और देवता आदिने भी इस व्रतका अनुष्ठान किया था ॥ १५-२० ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'द्वितीया सम्बन्धी व्रतका वर्णन' नामक एक सौ सतहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १७७ ॥

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