Navratri Ka 7th Day - माँ कालरात्रि की पौराणिक कथा,Maa Kalratri kee pauraanik katha

Navratri Ka 7th Day - माँ कालरात्रि की पौराणिक कथा

एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता ।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यवतशरीरिणी ॥
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा ।

मां कालरात्रि की कथा के मुताबिक, जब दैत्य रक्तबीज का वध किया गया, तो उसके शरीर से निकले खून से लाखों रक्तबीज दैत्य पैदा हो गए. इस समस्या का समाधान करने के लिए, भगवान शिव ने मां पार्वती से कहा कि वे असुरों का अंत करें और अपने भक्तों की रक्षा करें. इसके बाद, मां पार्वती ने दुर्गा का रूप धारण कर शुंभ-निशुंभ का वध किया !

7th Day of Navratri - Maa Kalratri  Story

माँ कालरात्रि की पौराणिक कथा

पौराणिक कथाओं के अनुसार रक्त बीज नाम का एक दैत्य था जिसने न केवल मनुष्य बल्कि देवताओं के जीवन को भी संकट में डाल रखा था। रक्त बीज को वरदान प्राप्त था की उसके रक्त की बूंद धरती पर गिरते ही उसके जैसा ही एक और दानव पैदा हो जाएगा। देवता इस बात से बहुत दुखी थे। सभी देवता भगवान शंकर के पास अपनी ये समस्या लेकर पहुंचे तब भगवान शंकर के अनुरोध से देवी पार्वती ने अपनी शक्तियों से कालरात्रि देवी का रूप लिया। जब मां कालरात्रि और रक्त बीज के मध्य युद्ध शुरू हुआ तो देवी उसका संहार करके उसका रक्त धरती पर गिरने से पहले ही उसे पी लेती थी। इस रूप में मां कालरात्रि कहलायीं।

माँ कालरात्रि का स्वरूप

माँ दुर्गाजीकी सातवीं शक्ति कालरात्रिके नामसे जानी जाती हैं। इनके शरीरका रंग घने अन्धकारकी तरह एकदम काला है। सिरके बाल बिखरे हुए हैं। गलेमें विद्युत्‌की तरह चमकनेवाली माला है। इनके तीन नेत्र हैं। ये तीनों नेत्र ब्रह्माण्डके सदृश गोल हैं। इनसे विद्युत्‌के समान चमकीली किरणें निःसूत होती रहती हैं। इनकी नासिकाके श्वास- प्रश्वाससे अग्रिकी भयङ्कर ज्वालाएँ निकलती रहती हैं। इनका वाहन गर्दभ- गदहा है। ऊपर उठे हुए दाहिने हाथकी वरमुद्रासे सभीको वर प्रदान करती हैं। दाहिनी तरफका नीचेवाला हाथ अभयमुद्रामें है। बायीं तरफके ऊपरवाले हाथमें लोहेका काँटा तथा नीचेवाले हाथमें खड्ग (कटार) है।

माँ कालरात्रिका स्वरूप देखनेमें अत्यन्त भयानक है, लेकिन ये सदैव शुभ फल ही देनेवाली हैं। इसी कारण इनका एक नाम 'शुभङ्करी' भी है। अतः इनसे भक्तोंको किसी प्रकार भी भयभीत अथवा आतङ्कित होनेकी आवश्यकता नहीं है। दुर्गापूजाके सातवें दिन माँ कालरात्रिकी उपासनाका विधान है। इस दिन साधकका मन 'सहस्वार' चक्रमें स्थित रहता है। उसके लिये ब्रह्माण्डकी समस्त सिद्धियोंका द्वार खुलने लगता है। इस चक्रमें स्थित साधकका मन पूर्णतः माँ कालरात्रिके स्वरूपमें अवस्थित रहता है। उनके साक्षात्कारसे मिलनेवाले पुण्यका वह भागी हो जाता है। उसके समस्त पापों-विघ्नोंका नाश हो जाता है। उसे अक्षय पुण्य-लोकोंकी प्राप्ति होती है।

माँ कालरात्रि दुष्टोंका विनाश करनेवाली हैं। दानव, दैत्य, राक्षस, भूत, प्रेत आदि इनके स्मरणमात्रसे ही भयभीत होकर भाग जाते हैं। ये ग्रह-बाधाओंको भी दूर करनेवाली हैं। इनके उपासकको अग्रि-भय, जल-भय, जन्तु-भय, शत्रु- भय, रात्रि-भय आदि कभी नहीं होते। इनकी कृपासे वह सर्वथा भय-मुक्त हो जाता है। माँ कालरात्रिके स्वरूप-विग्रहको अपने हृदयमें अवस्थित करके मनुष्यको एकनिष्ठ भावसे उनकी उपासना करनी चाहिये। यम, नियम, संयमका उसे पूर्ण पालन करना चाहिये। मन, वचन, कायाकी पवित्रता रखनी चाहिये। वह शुभमुहुरी देवी हैं। उनकी उपासनासे होनेवाले शुभोंकी गणना नहीं की जा सकती। हमें निरन्तर उनका स्मरण, ध्यान और पूजन करना बाहिये।

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