योग सिद्धि प्राप्त मुनि के लक्षण और शिव प्राप्ति की विधि का वर्णन,Yog Siddhi Praapt Muni Ke Lakshan Aur Shiv Praapti Kee Vidhi Ka Varnan

योग सिद्धि प्राप्त मुनि के लक्षण और शिव प्राप्ति की विधि का वर्णन,

सूतजी बोले- हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो ! जिनके ऊपर भगवान शंकर कृपा करते हैं उनको बताता हूँ। महेश्वर भगवान, सज्जनों पर, आत्मा को जीतने वालों पर, द्विजातियों (ब्राह्मणों, क्षत्री, वैश्य) पर, धर्म के जानने वाले पर, साधु पुरुषों पर, आचार में श्रेष्ठ आचार्यों पर, आत्मा में शिव को जानने वालों पर, दयालु पुरुषों पर, तपस्वियों पर, संन्यासियों पर, ज्ञानियों पर, आत्मा को वश में करने वालों पर, योग में तत्पर रहने वाले पुरुष पर, श्रुति स्मृति को जानने में श्रेष्ठ तथा हे द्विजो ! श्रौत स्मार्त कर्म के जो विरोधी न हों, ऐसे मनुष्यों पर कृपा करते हैं। अब इन सबकी अलग अलग व्याख्या करते हुए सूतजी कहते हैं कि हे द्विजो ! जो श्रेष्ठ पुरुष ब्रह्म के पास ले जाये अथवा जायें वे सन्त कहे हैं। दशों इन्द्रियों के विषयों को दूर करके आठों प्रकार के लक्षणों से युक्त जो पुरुष हैं तथा जो सामान्य स्थिति में और धन की कमी व अधिकता में न क्रोध करते हैं, न हर्ष करते हैं, वे जितात्मा पुरुष कहे जाते हैं। ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य में युक्त पुरुष द्विजाती कहलाते हैं। वर्ण आश्रमों में युक्त ये द्विजाती जन सुख से करने वाले हैं।


श्रौत स्मार्त के धर्म का ज्ञान करना ही धर्मज्ञ कहा है। विद्या के साधन के द्वारा तथा ब्रह्मचारी और गुरु की सेवा में रहने वाला पुरुष साधु है। क्रिया की साधना के द्वारा गृहस्थ भी साधु है, ऐसा कहा है। तपस्या की साधना करने के कारण वन में रहने वाला वखान सभी साधु कहा गया है। यत्न करने वाला यति भी साधु ही है। क्योंकि वह योग साधना करता है। इस प्रकार धर्म आश्रमों के साधन करने वाले को साधु कहा गया है। चाहे वह गृहस्थ हो, ब्रह्मचारी हो, वानप्रस्थ हो या यति हो। धर्म अधर्म शब्दों को समझाकर जो कर्म में तत्पर होता है तथा क्रियाशील होता है उस धर्मज्ञ को आचार्य कहना चाहिए। कार्य को कुशलपूर्वक करना धर्म तथा अकुशलता से करना ही अधर्म है। धारण करने योग्य कर्मों को करने के कारण ही उसे धर्म कहा गया है। अधारण करने योग्य कर्म ही अधर्म कहे गए हैं। धर्म के द्वारा इष्ट की प्राप्ति आचार्यों द्वारा उपदेश की गई है तथा अधर्म से अनिष्ट की प्राप्ति बताई गई है।

वृद्ध, जो लोलुप न हों, आत्म ज्ञानी हों, अदम्भी हों, अच्छी प्रकार विनीत हों, सरल हों आदि गुण सम्पन्न जन आचार्य कहे गए हैं। अपने आप भी जो धर्म आचरण करते हैं तथा दूसरों में भी आचार स्थापित करते हैं, शास्त्र और उनके धर्मों का भली भाँति आचरण करने वाले आचार्य कहलाते हैं। श्रवण करने से जो कर्म किया जाता है उसे श्रौत तथा स्मरण करने से जो कर्म है उसे स्मार्त कहा जाता है। वेद विहित जो यज्ञ आदि कर्म हैं, वे श्रौत कर्म हैं तथा वर्ण आश्रमों को बताये हुए जो कर्म हैं, वे स्मार्त कर्म हैं। देखे हुए अनुरूप अर्थ को तथा पूछे गए अर्थ को जो कभी नहीं छिपाते तथा जो देखा है वही सत्य कह देते हैं तथा जो ब्रह्मचर्य से रहते हों, निराहारी हों, अहिंसा और शान्ति में सर्वथा तत्पर रहते हों, उसे तप कहा गया है। जो हित, अनहित समझ कर सभी प्राणियों में अपने समान ही बर्ताव करता है उस पुण्यमयी वृत्ति को ही दया कहते हैं। जो हव्य उचित न्याय पूर्वक आया हो और वह गुणवान को दिया जाए, वह दान का लक्षण कहा है। छोटा, बीच का तथा बड़ा इस प्रकार का ही कहा है। करुणा पूर्वक सभी प्राणियों को बराबर भागों में बाँट दिया जाए, उसे मध्यम यानी बीच का दान कहा है। 

श्रुति स्मृति के द्वारा बताया गया तथा वर्ण आश्रमों को बताया गया माया और कर्म के फल को त्याग देने वाला योगी ही शिवात्मा है अर्थात् वह अपने अन्दर ही शिव को देखता है। सभी दोषों को त्याग देने वाला पुरुष ही युक्त योगी कहा गया है। जो पुरुष असंयमी न हो तथा विषयों में आसक्त न हो, विचारवान हो, लोभी न हो, वही सच्चा संयमकारी है। अपने लिए अथवा दूसरों के लिए अपनी इन्द्रियों को समान रूप से प्रयोग करता है तथा कभी झूठ में अपनी आत्मा को प्रवेश नहीं होने देता, यह शम के लक्षण हैं। अनिष्ट में कभी भयभीत नहीं होता हो तथा इष्ट में कभी प्रसन्न न होता हो, ताप तथा विषाद निवृत्ति और विरक्ति से सदा अलग रहे वह संन्यास का लक्षण है। कर्मों से आसक्ति न रखना अर्थात् कर्मों से अलग रहना ही संन्यास है। चेतना तथा अचेतना का विशेष ज्ञान ही वास्तव में ज्ञान कहा है। इसी प्रकार के ज्ञान युक्त तथा श्रद्धायुक्त योगी पर भगवान शंकर की कृपा होती है। उसी पर वे प्रसन्न होते हैं। इसमें संशय नहीं है। हे ब्राह्मणो! वास्तव में यही धर्म है किन्तु परमेश्वर के विषय में गुह्य (छुपा हुआ) जो रहस्य है उसे सब जगह प्रकट न करे। शिव की भक्ति ऐसे पुरुष को बिना संदेह के ही मुक्ति प्रदान कर देती है। 

भगवान शिव अपने भक्त के वश में रहते हैं चाहे वे अयोग्य ही क्यों न हो। उसे अनेक प्रकार के अन्धकार से छुड़ाकर उस पर प्रसन्न होते हैं। उसे ज्ञान, अध्ययन (पढ़ना), पढ़ाना, हवन करना, ध्यान, तप, वेद शास्त्र पढ़ना या सुनना, दान देना तथा हजारों चन्द्रायण व्रत करना तथा और भी अनेक प्रकार के व्रतादि रखना भक्त के लिए जरूरी नहीं है उस पर तो शिव सदा प्रसन्न रहते हैं। हे श्रेष्ठ मुनियो ! जो लोग भगवान शिव की भक्ति नहीं करते वे इस पर्वत की गुफा के समान संसार में गिरते हैं और भक्त भगवान के द्वारा उठा लिए जाते हैं। हे ब्राह्मणो! जब मनुष्य इस संसार में भक्तों के दर्शन मात्र से ही स्वर्ग आदि लोकों को प्राप्त कर लेते हैं तो भक्तों के लिए तो दुर्लभ ही क्या है। भक्त लोग भगवान शिव की कृपा से ब्रह्मा, विष्णु तथा देवताओं के राजा इन्द्र तथा और भी अन्य उत्तम स्थानों व पदों को प्राप्त कर लेते हैं। भक्ति से मुनि लोगों को बल एवं सौभाग्य की प्राप्ति होती है।

हे ब्राह्मणो! प्राचीन समय में बनारस के अविमुक्त क्षेत्र में विराजमान भगवान श्री महेश्वर जो रुद्र हैं उनसे भगवती पार्वती ने जो बात पूछी थी और जो भगवान रुद्र ने रुद्राणी देवी पार्वती को जो बताया था वह सुनाता हूँ। वाराणसी पुरी में भगवान रुद्र को प्राप्त कर भगवती इस प्रकार पूछने लगीं। देवी बोली- हे प्रभो! हे महादेव जी! आप किस उपाय या पूजा के द्वारा वश में हो जाते हो ? विद्या के द्वारा या तपस्या के द्वारा अथवा योग के द्वारा, सो मुझे आप कृपा करके बतलाइये। सूतजी कहने लगे - हे ऋषियो ! इस प्रकार भगवती के वचनों को सुनकर शिवजी ने पार्वती जी को देखा। फिर बाल चन्द्रमा के तिलक को धारण करने वाले शिवजी पूर्ण चन्द्रमा के समान सुन्दर मुख वाली पार्वती जी से हँसते हुए इस प्रकार बोले- हे देवि ! इस सुन्दर पुरी को प्राप्त करके बहुत ही सुन्दर प्रश्न तुमने पूछा है। हे पार्वती जी ! इसी प्रकार का प्रश्न बहुत समय पहले हिमालय की पत्नी मैना ने हिमालय से किया था, उसका मुझे स्मरण हो रहा है। हे विलासिनि ! जो तुमने आज पूछा है, वह पूर्व काल में पितामह ब्रह्मा जी ने पूछा था। हे कल्याणी! ब्रह्मा ने मुझे श्वेत नामक कल्प में श्वेत वर्ण का देखा तथा सद्योजात नामक मेरे अवतार को देखा, रक्त कल्प में मुझे लाल रङ्ग का देखा, ईशान कल्प में विश्वरूपाख्य को देखा। 

इस प्रकार से मुझ विश्व रूप शिव को देखकर ब्रह्मा जी बोले- हे वामदेव ! हे तत्पुरुष ! हे अघोर ! हे दयानिधे ! देवाधिदेव महादेव जी आप मुझे गायत्री के साथ दीखे हैं और हे प्रभो! आप किस प्रकार वश में हो जाते हो और किस प्रकार आपका ध्यान करना चाहिए अथवा आप कहाँ ध्यान किये जाते हैं, आप कहाँ देखे जाते हैं तथा कहाँ पूजे जाते हैं, सो आप हमें कृपापूर्वक बताइये। क्योंकि आप बताने में सब प्रकार समर्थ हैं। भगवान बोले- हे कमल से पैदा होने वाले ब्रह्मा जी! मैं तो केवल श्रद्धा से ही वश में होता हूँ। मैं लिङ्ग में हमेशा ध्यान करने योग्य हूँ तथा क्षीर समुद्र में विष्णु के द्वारा देखा गया हूँ और इस पंचरूप के द्वारा पाँच ब्राह्मणों से पूज्य हूँ। मेरे ऐसा कहने पर ब्रह्मा जी बड़े भाव से बोले- हे जगतगुरो ! वास्तव में आप मुझे आज भी भक्ति से ही दीखे हो। ऐसा कहकर मेरे लिए अधिक श्रद्धा भाव दिखाया। सो हे पार्वती जी! मैं श्रद्धा से वश में होता हूँ और लिङ्ग में ही पूज्य हूँ। श्रद्धा पूर्वक ब्राह्मणों के द्वारा मेरी पूजा करनी चाहिए। क्योंकि श्रद्धा में ही परम धर्म है, श्रद्धा ही सूक्ष्म ज्ञान, तप, हवन है, श्रद्धा ही मोक्ष स्वर्ग आदि सभी है और श्रद्धा से ही सदा मैं दर्शन देता हूँ।

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