Shri Tara ( Neela Tara) Mahavidya Stotra,श्री तारा ( नीला तारा ) महाविद्या स्तोत्र

श्री तारा( नीला तारा )महाविद्या स्तोत्र - Neela TaraMahavidya Stotra

नीला तारा स्तोत्र को तारा स्तोत्र, तारा अष्टाकाम, या श्री नीलासारस्वती स्तोत्र भी कहा जाता है. इसमें तारा च तारिणी देवी का वर्णन किया गया है, जो नागमुंड से विभूषित हैं और जिनकी जीभ लाल और रंग नीला है. साथ ही, देवी नीलाम्बरधारा पहनती हैं और नागांचितकति हैं. 
नीला तारा को कालदभृकुटि तारा भी कहा जाता है. ऐसा माना जाता है कि नीला तारा भौंहें सिकोड़ती है और नारंगी कमल, सूर्य, और मानव शव को आसन पर रखती है. इसके तीन चेहरे होते हैं, जो काले, सफ़ेद, और लाल रंग के होते हैं. इसके अलावा, इसकी छह भुजाएं भी होती हैं. दाहिने हाथ में तलवार, हुक, और गदा होता है, जबकि बाएं हाथ में खोपड़ी, पाश, और ब्रह्मा का सिर होता है. भगवान अमोगसिद्धि नीला तारा हैं

श्री नीला तारा महाविद्या स्तोत्र,Shri Neela Tara Mahavidya Stotra

मातर्नीलसरस्वति प्रणमतां सौभाग्यसम्पत्प्रदे,
प्रत्यालीढपदस्थिते शवहृदि स्मेराननांभोरुहे ।

फुल्लेन्दीवर लोचने त्रिनयने कर्जीकपालोत्पले,
खङ्गंचादधती त्वमेव शरणं त्वामीश्वरीमाश्रये ॥१॥

वाचामीश्वरि भक्तिकल्पलतिके सर्वार्थसिद्धीश्वरि,
गद्यप्राकृतपद्मजातरचना सर्वार्थसिद्धिप्रदे ।

नीलेन्दीवरलोचनत्रययुते कारुण्यवारान्निधे सौभाग्या
मृतवर्द्धनेन कृपया सिञ्चव त्वमस्मादृशम् ॥२ ॥

खर्वे गर्वसमूहपूरिततनो सर्पादिवेषोज्ज्वले
व्याघ्रत्वक् परिवीतसुन्दरकटिव्याधूत घण्टाङ्किते ।

सद्यः कृत्तगलग्रजः परिमिल-मुण्डद्वयीमूर्द्ध जग्रन्धि
 श्रेणि नृमुण्डदामललिते भीमे भयंनाशय ॥३॥

मायानङ्गविकाररूपललनाबिन्द्वर्द्धचन्द्राम्बिके हुं
फट्‌कारमयि त्वमेव शरणं मंत्रात्मिके मादृशः ।

मूर्तिस्ते जननि त्रिधामघटिता स्थूलातिसूक्ष्मा परा
बेदानां नहि गोचरा कथमपि प्राज्ञैर्नुतामाश्रये ॥४॥

त्वत्पादाम्बुजसेवया सुकृतिनो गच्छन्ति सायुज्यतां 
तस्याः  श्रीपरमेश्वर त्रिनयन ब्रह्मादिसाम्यात्मनः ।

संसाराम्बुधिमज्जने पटुतनुर्देवेन्द्रमुख्यान्सुरान् 
मातस्ते पदसेवने हि विमुखान् किं मन्दधीः सेवते ॥५ ॥

मातस्त्वत्पद पंकजद्वय रजोमुद्रांक कोटीरिणस्ते 
देवा जयसङ्गरे विजयिनो निःशङ्कमङ्के गताः ।

देवोऽहं भुवने न में सम इति, स्पर्द्धा वहन्तः 
परे तत्तुल्यां नियतं यथा शशिरवी नाशं व्रजन्ति स्वयम् ॥६॥

त्वन्नामस्मरणात्पलायन परान्द्रष्टुं च शक्ता न 
ते भूतप्रेतपिशाचराक्षसगणा वक्षाश्च नागाधिपाः ।

दैत्यादानव पुङ्गवाश्च खचरा व्याघ्रादिका जन्तवो डाकिन्यः 
कुपितान्तकच मनुजान् मातः क्षणं भूतले ॥७॥

लक्ष्मीः सिद्धिगणश्च पादुकमुखाः सिद्धास्तथा वैरिणां 
स्तंभश्चापि वराङ्गने गजघटा स्तंभस्तथा मोहनम् । 

मातस्त्वत्पदसेवया खलुनृणां सिध्यन्ति ते ते गुणाः क्लान्तः 
कान्त मनोभवोऽत्र भवति क्षुद्रोऽपि वाचस्यतिः ॥८॥

ताराष्टकमिदं पुण्यं भक्तिमान् यः पठेन्नरः। 
प्रातर्मध्याह्नकाले च सायाहे नियतः शुचिः ॥९॥

लभते कवितां विद्यां सर्वशास्वार्थविद्भवेत्, 
लक्ष्मीमनश्वरां प्राप्य भुक्त्वा भोगान्यथेप्सितान् ।

कीर्ति कान्तिं च नैरुज्यं प्राप्यान्ते मोक्षमाप्नुयात् ॥१०॥

॥ इति नीलाने तारास्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

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