श्री महाविष्णु से संबंधित विभिन्न मंत्रों जैसे अष्टाक्षर, द्वादशाक्षर आदि के अनुष्ठान की विधि। Shree Mahaavishnu Se Sambandhit Vibhinn Mantron Jaise Ashtaakshar, Dvaadashaakshar Aadi Ke Anushthaan Kee Vidhi
श्री महाविष्णु से संबंधित विभिन्न मंत्रों जैसे अष्टाक्षर, द्वादशाक्षर आदि के अनुष्ठान की विधि
सनत्कुमारजी कहते हैं- नारद ! अब मैं महाविष्णुके मन्त्रोंका वर्णन करता हूँ, जो लोकमें अत्यन्त दुर्लभ हैं। जिन्हें पाकर मनुष्य शीघ्र ही अपने अभीष्ट वस्तुओंको प्राप्त कर लेते हैं। जिनके उच्चारणमात्रसे ही राशि राशि पाप नष्ट हो जाते हैं। ब्रह्मा आदि भी जिन मन्त्रोंका ज्ञान प्राप्त करके ही संसारकी सृष्टिमें समर्थ होते हैं। प्रणव और नमःपूर्वक डे विभक्त्यन्त 'नारायण' पद हो तो 'ॐ नमो नारायणाय' यह अष्टाक्षर मन्त्र होता है। साध्य नारायण इसके ऋषि हैं, गायत्री छन्द है, अविनाशी भगवान् विष्णु देवता हैं, ॐ बीज है, नमः शक्ति है तथा सम्पूर्ण मनोरथोंकी प्राप्तिके लिये इसका विनियोग किया जाता है। इसका पञ्चाङ्ग-न्यास इस प्रकार है- कुद्धोल्काय हृदयाय नमः, महोल्काय शिरसे स्वाहा, वीरोल्काय शिखायै वषद्, अत्युल्काय कवचाय हुं, सहस्त्रोल्काय अस्त्राय फट्। इस प्रकार पञ्चाङ्गकी कल्पना करनी चाहिये। फिर मन्त्रके छः वर्णोंसे षडङ्ग न्यास करके शेष दो मन्त्राक्षरोंका कुक्षि तथा पृष्ठभागमें न्यास करे। इसके बाद सुदर्शन-मन्त्रसे दिग्बन्ध करना चाहिये। 'ॐ नमः सुदर्शनाय अस्त्राय फट्' यह बारह अक्षरोंका मन्त्र 'सुदर्शन-मन्त्र' कहा गया है।
अब मैं विभूतिपञ्जर नामक दशावृत्तिमय न्यासका वर्णन करता हूँ। मूल मन्त्रके अक्षरोंका अपने शरीरके मूलाधार हृदय, मुख, दोनों भुजा तथा दोनों चरणोंके मूलभाग तथा नासिकामें न्यास करे। यह प्रथम आवृत्ति कही गयी है। कण्ठ, नाभि, हृदय, दोनों स्तन, दोनों पार्श्वभाग तथा पृष्ठभागमें पुनः मन्त्राक्षरोंका न्यास करे। यह द्वितीय आवृत्ति बतायी गयी है। मूर्धा, मुख, दोनों नेत्र, दोनों श्रवण तथा नासिका छिद्रोंमें मन्त्राक्षरोंका न्यास करे। यह तृतीय आवृत्ति है। दोनों भुजाओं और दोनों पैरोंकी सटी हुई अंगुलियोंमें चौथी आवृत्तिका न्यास करे। धातु, प्राण और हृदयमें पाँचवीं आवृत्तिका न्यास करे। सिर, नेत्र, मुख और हृदय, कुक्षि, ऊरु, जङ्घा तथा दोनों पैरोंमें विद्वान् पुरुष एक-एक करके क्रमशः मन्त्र- वर्णोंका न्यास करे। (यह छठी, सातवीं, आठवीं आवृत्ति है) हृदय, कंधा, ऊरु तथा चरणोंमें मन्त्रके चार वर्णोंका न्यास करे। शेष वर्णोंका चक्र, शङ्ख, गदा और कमलकी मुद्रा बनाकर उनमें न्यास करे (यह नवम, दशम आवृत्ति है)। यह सर्वश्रेष्ठ न्यास विभूति पञ्जर नामसे विख्यात है। मूलके एक-एक अक्षरको अनुस्वारसे युक्त करके उसके दोनों ओर प्रणवका सम्पुट लगाकर न्यास करे अथवा आदिमें प्रणव और अन्तमें नमः लगाकर मन्त्राक्षरोंका न्यास करे। ऐसा दूसरे विद्वानोंका कथन है।
तत्पश्चात् बारह आदित्योंसहित द्वादश मूर्तियोंका न्यास करे। ये बारह मूर्तियाँ आदिमें द्वादशाक्षरके एक-एक मन्त्रसे युक्त होती हैं और इनके साथ बारह आदित्योंका संयोग होता है। यह अष्टाक्षर मन्त्र अष्टप्रकृतिरूप बताया गया है। इनके साथ चार' आत्माका योग होनेसे द्वादशाक्षर होता है। ललाट, कुक्षि, हृदय, कण्ठ, दक्षिण पार्श्व, दक्षिण अंस, गल दक्षिणभाग, वाम पार्श्व, वाम अंस, गल वामभाग, पृष्ठभाग तथा ककुद् - इन बारह अङ्गोंमें मन्त्रसाधक क्रमशः बारह मूर्तियोंका न्यास करे। केशवका धाताके साथ ललाटमें न्यास करके नारायणका अर्यमाके साथ कुक्षिमें, माधवका मित्रके साथ हृदयमें तथा गोविन्दका वरुणके साथ कण्ठकूपमें न्यास करे। विष्णुका अंशुके साथ, मधुसूदनका भगके साथ, त्रिविक्रमका विवस्वान्के साथ, वामनका इन्द्रके साथ, श्रीधरका पूषाके साथ और हृषीकेशका पर्जन्यके साथ न्यास करे। पद्मनाभका त्वष्टाके साथ तथा दामोदरका विष्णुके साथ न्यास करे। तत्पश्चात् द्वादशाक्षर-मन्त्रका सम्पूर्ण सिरमें न्यास करे। इसके बाद विद्वान् पुरुष किरीट मन्त्रके द्वारा व्यापकन्यास करे। किरीट मन्त्र प्रणवके अतिरिक्त पैंसठ अक्षरका बताया गया है- ॐ किरीटकेयूरहारमकर- कुण्डलशङ्खचक्रगदाम्भोजहस्तपीताम्बरधर- श्रीवत्साङ्कितवक्षः स्थल श्रीभूमिसहितस्वात्मज्योति- र्मयदीप्तकराय सहस्त्रादित्यतेजसे नमः ।' इस प्रकार न्यासविधि करके सर्वव्यापी भगवान् नारायणका ध्यान करे।
उद्यत्कोट्यर्कसदृशं शङ्ख चक्रं गदाम्बुजम् ।
दधतं च करैर्भूमिश्रीभ्यां पार्श्वद्वयाञ्चितम् ॥
श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभामुक्तकन्धरम् ।
हारकेयूरवलयाङ्गदं पीताम्बरं स्मरेत् ॥
जिनकी दिव्य कान्ति उदय-कालके कोटि- कोटि सूर्योके सदृश है, जो अपने चार भुजाओंमें शङ्ख, चक्र, गदा और कमल धारण करते हैं, भूदेवी तथा श्रीदेवी जिनके उभय पार्श्वकी शोभा बढ़ा रही हैं, जिनका वक्षःस्थल श्रीवत्सचिह्नसे सुशोभित है, जो अपने गलेमें चमकीली कौस्तुभमणि धारण करते हैं और हार, केयूर, वलय तथा अंगद आदि दिव्य आभूषण जिनके श्रीअङ्गों में पड़कर धन्य हो रहे हैं, उन पीताम्बरधारी भगवान् विष्णुका चिन्तन करना चाहिये।
इन्द्रियों को वशमें रखकर मन्त्रमें जितने वर्ण हैं, उतने लाख मन्त्रका विधिवत् जप करे। प्रथम लाख मन्त्रके जपसे निश्चय ही आत्मशुद्धि होती है। दो लाख जप पूर्ण होनेपर साधकको मन्त्र शुद्धि प्राप्त होती है। तीन लाखके जपसे साधक स्वर्गलोक प्राप्त कर लेता है। चार लाखके जपसे मनुष्य भगवान् विष्णुके समीप जाता है। पाँच लाखके जपसे निर्मल ज्ञान प्राप्त होता है। छठे लाखके जपसे मन्त्र-साधककी बुद्धि भगवान् विष्णुमें स्थिर हो जाती है। सात लाखके जपसे मन्त्रोपासक श्रीविष्णुका सारूप्य प्राप्त कर लेता है। आठ लाखका जप पूर्ण कर लेनेपर मन्त्र जप करनेवाला पुरुष निर्वाण (परम शान्ति एवं मोक्ष) को प्रास होता है। इस प्रकार जप करके विद्वान् पुरुष मधुराक्त कमलोंद्वारा मन्त्रसंस्कृत अग्निमें दशांश होम करे। मण्डूकसे लेकर परतत्त्वपर्यन्त सबका पीठपर यत्नपूर्वक पूजन करे। विमला, उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा, प्रह्ली, सत्या, ईशाना तथा नवीं अनुग्रहा- ये नौ पीठशक्तियाँ हैं। (इन सबका पूजन करना चाहिये।) इसके बाद 'ॐ नमो भगवते विष्णवे सर्वभूतात्मने वासुदेवाय सर्वात्मसंयोगयोगपद्मपीठाय नमः' यह छत्तीस अक्षरका पीठमन्त्र है, इससे भगवान्को आसन देना चाहिये। मूलमन्त्रसे मूर्ति-निर्माण कराकर उसमें भगवान्का आवाहन करके पूजा करे।
पहले कमलके केसरोंमें मन्त्रसम्बन्धी छः अङ्गोंका पूजन करना चाहिये। इसके बाद अष्टदल कमलके पूर्व आदि दलोंमें क्रमशः वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्धका और आग्नेय आदि कोणों क्रमशः उनकी शक्तियोंका पूजन करे। उनके नाम इस प्रकार हैं- शान्ति, श्री, रति तथा सरस्वती। इनकी क्रमशः पूजा करनी चाहिये। वासुदेवकी अङ्गकान्ति सुवर्णके समान है। संकर्षण पीत वर्णके हैं। प्रद्युम्न तमालके समान श्याम और अनिरुद्ध इन्द्रनील मणिके सदृश हैं। ये सब के सब पीताम्बर धारण करते हैं। इनके चार भुजाएँ हैं। ये शङ्ख, चक्र, गदा और कमल धारण करनेवाले हैं। शान्तिका वर्ण श्वेत, श्रीका वर्ण सुवर्ण-गौर, सरस्वतीका रंग गोदुग्धके समान उज्ज्वल तथा रतिका वर्ण दूर्वादलके समान श्याम है। इस प्रकार ये सब शक्तियाँ हैं। कमलदलोंके अग्रभागमें चक्र, शड्ङ्ख, गदा, कमल, कौस्तुभमणि, मुसल, खड्ग और वनमालाका क्रमशः पूजन करे। चक्रका रंग लाल, शङ्खका रंग चन्द्रमाके समान श्वेत, गदाका पीला, कमलका सुवर्णके समान, कौस्तुभका श्याम, मुसलका काला, तलवारका श्वेत और वनमालाका उज्ज्वल है। इनके बाह्यभागमें भगवान्के सम्मुख हाथ जोड़कर खड़े हुए कुंकुम वर्णवाले पक्षिराज गरुड़का पूजन करे। तत्पश्चात् क्रमशः दक्षिण पार्श्वमें शड्खनिधि और वाम पार्श्वमें पद्मनिधिकी पूजा करे। इनका वर्ण क्रमशः मोती और माणिक्यके समान है। पश्चिममें ध्वजकी पूजा करे।
अग्रिकोणमें रक्तवर्णके विघ्न (गणेश) का नैर्ऋत्य कोणमें श्याम वर्णवाले आर्यका, वायव्यकोणमें श्यामवर्ण दुर्गाका तथा ईशान कोणमें पीतवर्णके सेनानीका पूजन करना चाहिये। इनके बाह्यभागमें विद्वान् पुरुष इन्द्र आदि लोकपालोंका उनके आयुधौंसहित पूजन करे। जो इस प्रकार आवरणोंसहित अविनाशी भगवान् विष्णुका पूजन करता है, वह इस लोकमें सम्पूर्ण भोगोंका उपभोग करके अन्तमें भगवान् विष्णुके धामको जाता है। खेत, धान्य और सुवर्णकी प्राप्तिके लिये धरणीदेवीका चिन्तन करे। उनकी कान्ति दूर्वादलके समान श्याम है और वे अपने हाथोंमें धानकी बाल लिये रहती हैं। देवाधिदेव भगवान्के दक्षिणभागमें पूर्ण चन्द्रमाके समान मुखवाली वीणा-पुस्तकधारिणी सरस्वतीदेवीका चिन्तन करे। वे क्षीरसागरके फेनपुञ्जकी भाँति उज्ज्वल दो वस्त्र धारण करती हैं। जो सरस्वतीदेवीके साथ परात्पर भगवान् विष्णुका ध्यान करता है, वह वेद और वेदाङ्गोंका तत्त्वज्ञ तथा सर्वज्ञोंमें श्रेष्ठ होता है। जो प्रतिदिन प्रातःकाल पच्चीस बार (ॐ नमो नारायण) इस अष्टाक्षर मन्त्रका जप करके जल पीता है, वह सब पापोंसे मुक्त, ज्ञानवान् तथा नीरोग होता है। चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहणके समय उपवासपूर्वक ब्राह्मी घृतका स्पर्श करके उक्त मन्त्रका आठ हजार जप करनेके पश्चात् ग्रहण शुद्ध होनेपर श्रेष्ठ साधक उस घृतको पी ले। ऐसा करनेसे वह मेधा (धारणशक्ति), कवित्वशक्ति तथा वासिद्धि प्राप्त कर लेता है। यह नारायणमन्त्र सब मन्त्रोंमें उत्तम-से-उत्तम है। नारद ! यह सम्पूर्ण सिद्धियोंका घर है; अतः मैंने तुम्हें इसका उपदेश किया है। 'नारायणाय' पदके अन्तमें 'विद्यहे' पदका उच्चारण करे। फिर 'डे' विभक्त्यन्त 'वासुदेव' पद (वासुदेवाय) का उच्चारण करे, उसके बाद 'धीमहि' यह पद बोले। अन्तमें 'तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्' इन अक्षरोंका उच्चारण करे। यह (ॐ नारायणाय विद्यहे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्) विष्णुगायत्री बतायी गयी है,
जो सब पापोंका नाश करनेवाली है। तार (ॐ), हृदय (नमः) भगवत् शब्दका चतुर्थी विभक्तिमें एकवचनान्त रूप (भगवते) तथा 'वासुदेवाय' यह द्वादशाक्षर (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) महामन्त्र कहा गया है, जो भोग और मोक्ष देनेवाला है। स्त्री और शूद्रोंको बिना प्रणवके यह मन्त्र जपना चाहिये और द्विजातियोंके लिये प्रणवसहित इसके जपका विधान है। इस मन्त्रके प्रजापति ऋषि, गायत्री छन्द, वासुदेव देवता, ॐ बीज और नमः शक्ति है। इस मन्त्रके एक, दो, चार और पाँच अक्षरों तथा सम्पूर्ण मन्त्रद्वारा पञ्चाङ्ग-न्यास करना चाहिये। यहाँ भी पूर्वोक्तरूपसे ही ध्यान करना चाहिये। इस मन्त्रके बारह लाख जपका विधान है। घीसे सने हुए तिलसे जपके दशांशका हवन करना चाहिये। पूर्वोक्त पीठपर मूलमन्त्रसे मूर्तिकी कल्पना करके मन्त्रसाधक उस मूर्तिमें देवेश्वर वासुदेवका आवाहन और पूजन करे। पहले अङ्गोंकी पूजा करके वासुदेव आदि व्यूहोंकी पूजा करनी चाहिये। तदनन्तर शान्ति आदि शक्तियोंका पूजन करना उचित है। वासुदेव आदिका पूर्व आदि दिशाओंमें और शान्ति आदि शक्तियोंका अग्नि आदि कोणोंमें पूजन करना चाहिये। तृतीय आवरणमें केशवादि द्वादश मूर्तियोंकी पूजा बतायी गयी है। चतुर्थ और पञ्चम आवरणमें इन्द्रादि दिक्पालों और उनके आयुधोंकी पूजा करे। इनकी पूजाका स्थान भूपुर है। इस प्रकार पाँच आवरणोंसहित अविनाशी भगवान् विष्णुकी पूजा करके मनुष्य सम्पूर्ण मनोरथोंको पाता और अन्तमें भगवान् विष्णुके लोकमें जाता है।
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