शिव पूजन के उपायों का वर्णन,Shiv Poojan Ke Upaayon Ka Varnan

शिव पूजन के उपायों का वर्णन,

सूतजी बोले- मंडल में स्थित भगवान रुद्र विशेष करके ब्राह्मण क्षत्री के द्वारा ही पूजनीय हैं, वैश्य और शूद्र के लिए नहीं। स्त्री का भी उनके रूप में पूजन में अधिकार नहीं है। स्त्री और शूद्रों को ब्राह्मण के द्वारा शिव की पूजा कराने पर फल की प्राप्ति होती है। इस प्रकार ब्राह्मण आदि को सदा शिव की पूजा करनी चाहिए। इस प्रकार देवताओं को बताकर भगवान वहीं अन्तर्ध्यान हो गए तब वे देवता और मुनीश्वर शंकर को प्रणाम करके रुद्र का ध्यान करते हुए अपने स्थान को चले गए। इसलिए भास्कर जो शिव का ही रूप है उसकी सदा पूजा करनी चाहिए। कर्म, वाणी और मन से सदा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष प्राप्ति के लिए सदा शिव की आराधना करनी चाहिए। ऋषि बोले- हे महाभाग सूतजी ! हमने भास्कर रूप का वर्णन सुना। अब वन्हि रूप शिव का वर्णन कीजिए। छः अंगों सहित वेदों तथा सांख्य योग से निकालकर, दुष्कर तप करके, गूढ़ ज्ञान वर्णाश्रम धर्मों के अनुसार धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के लिए शिव ने जो मार्ग कहा है जो सौ करोड़ परिणाम वाला है उसकी सुनने की हमारी इच्छा है। उसमें स्नान योग जो कहे हैं, सो हमें कहिए। सूतजी बोले- पूर्व में सनत्कुमार ने जो नन्दीश्वर से पूछा है और नन्दीश्वर ने जो बताया है उसे हे मुनीश्वरो ! तुम सुनिए। शिव ने संक्षेप में जो वेदोक्त शास्त्र कहा है वह स्तुति निन्दा से रहित और झट ही विश्वास दिलाने वाला है। वह गुरु की कृपा से प्राप्त होता है तथा बिना ही प्रयत्न के मुक्ति को देने वाला है।


सनत्कुमार ने पूछा- हे नन्दीश्वर ! धर्म, अर्थ, काम, मुक्ति की प्राप्ति के लिए शम्भु की पूजा का वर्णन कीजिए। शैलादि बोले- पूर्व में गुरु, शास्त्राज्ञा प्राप्त करके पूजा करनी चाहिए। 'गुरु' ऐसी संज्ञा शिवाचार्य की है। स्वयं आचरण करता है तथा जो दूसरों को भी आचरण में स्थापित करता है और शास्त्र के अर्थों को विचार कर इकट्ठा करता है वह आचार्य कहलाता है। इसलिए वेद के तत्व के अर्थ को जानने वाले भस्म धारण करने वाले गुरु की खोज सबसे पहले करनी चाहिए। जो सबकी रक्षा करने वाला, श्रुति स्मृति के बताये मार्ग पर चलने वाला, सबको आनन्द देने वाला, विद्या के द्वारा अभयदान करने वाला, लोभ और चपलता से रहित आचार का पालन करने वाला, हर समय धीर रहने वाला, गुरु को देखकर शिव गत भाव से पूजा करनी चाहिए। शरीर से, श्रद्धा से, धन से, शिष्य को उस गुरु की तब तक आराधना करनी चाहिए, जब तक वह प्रसन्न न हों। उस महाभाग गुरु के प्रसन्न होने पर झट ही पाश का क्षय हो जाएगा। गुरु मान्य है, गुरु पूज्य है, गुरु ही सदाशिव है। तीन वर्ष तक गुरु शिष्यों की परीक्षा करें। प्राण, द्रव्य आदि तथा आदेशों के द्वारा जांच किए हुए शिष्य जो विषाद को नहीं प्राप्त होते वे ही धर्म परायण हैं। ऐसे शिष्य सर्व द्वन्द्वों को सहन करने वाले, गुरु सेवा में परायण, श्रुति स्मृति के मार्ग पर चलने वाले, परोपकार तत्पर, प्रिय बोलने वाले, शौचाचार से पवित्र, नम्र, मृदु स्वभाव वाले, दम्भ और ईर्ष्या से रहित, शिव भक्ति परायण ही श्रेष्ठ कहे हैं। शुद्ध, विनयी, मिथ्या और कटु न बोलने वाला, गुरु की आज्ञा का पालन करने वाला शिष्य ही अनुग्रह के योग्य है।

गुरु भी शास्त्रज्ञ, बुद्धिमान, तपस्वी, जन वत्सल, लोकाचार रत, तत्वेत्ता तथा मोक्ष दाता हो। सर्व लक्षण सम्पन्न, सर्व शास्त्र विशारद, सर्वोदय विधानज्ञ भी यदि तत्ववेत्ता नहीं है तो ऐसा गुरु निष्फल है। परम तत्व का जिसको बोध नहीं, आत्मा का विषय जिसे निश्चय नहीं तथा आत्मा पर अनुग्रह नहीं ऐसा दूसरों का क्या अनुग्रह करेगा। तत्वहीन को बोध कहाँ और आत्म परिग्रह कहाँ ? आत्म परिग्रह से रहित सभी को पशु कहा है। इसलिए जो तत्ववित् मुक्त पुरुष हैं तथा वे ही दूसरों को मुक्त करा सकते हैं। जिसने तत्व को जान लिया है वही आनन्द का दर्शक है। तत्व ज्ञान से रहित तो नाम मात्र का गुरु है। शिला जैसे दूसरी शिला को नहीं तार सकती, वैसे ही नाम मात्र के गुरु से मुक्ति भी नाम मात्र की ही है। योगियों के दर्शन से, स्पर्शन से, भाषण से, पाश को क्षय करने वाली प्रज्ञा उदय होती है अथवा योगी स्वयं योग मार्ग से शिव के देह में प्रवेश करके योग के द्वारा सब तत्वों का बोध करा देता है।

धार्मिक और वेद पारंगत शिष्य की परीक्षा करके सब दोषों से रहित, ब्राह्मण, क्षत्री या वैश्य में से कोई भी हो। ज्ञान के द्वारा ज्ञेय वस्तु को प्रकाशित करता है जैसे दीपक से दीपक। जिसकी आज्ञा मात्र से और सामर्थ्य से सब भेद दूर हो जाता है उसी गुरु की कृपा से सिद्धि और मुक्ति प्राप्त होती है। पृथ्वी आदि भूत, शब्द, स्पर्श, आदि, मात्रा, ज्ञान इन्द्रियाँ, कर्म इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अहंकार, अव्यक्त इन सबसे परे सर्व तत्वों का बोधक ईशत्व कहा है। आयोगी पुरुष शिवात्मक तत्व सिद्धि को नहीं जानता।

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